सामयिक

लॉकडाउन डायरी और मन के भीतर मचा द्वंद्व

 

डायरी लेखन यूं तो साहित्य की एक प्रभावी विधा रही है। अगर कोई लेखक हुआ तो वह अपने विचारों, अपनी दृष्टि और भाषा के सौंदर्य से इस डायरी लेखन की विधा में संलग्न होकर अपने उबाऊ समय को एक सार्थकता प्रदान करता है। कोई अगर लेखक न भी हुआ तो कभी कभार वह भी अपनी टूटी-फूटी भाषा में बेतरतीब ढंग से ही सही अपनी डायरी को अपने दैनिक अनुभवों से भर लेता है। लॉकडाउन शब्द से हमारा जीवन्त परिचय गत वर्ष तब हुआ जब कोरोनावायरस के कारण 22 मार्च 2020 को पूरे देश में तालाबंदी कर दी गई और उसे लॉक डाउन कहा गया।

विगत एक साल के अनुभव से लिखी गयी डायरी को मैं पलट कर जब देखता हूं तो डायरी के कई अंशों से मन बेचैन होने लगता है। यहाँ सबकी चर्चा तो नहीं की जा सकती क्योंकि लॉकडाउन के पीछे जीवन की विभीषिकाओं के न जाने कितने रंग हैं कि उसे सरलीकृत ढंग से कह पाना संभव नहीं है। लेखक होने के साथ-साथ एक शिक्षक होना मुझे कई बार बच्चों के जीवन की ओर खींचकर ले जाने लगता है। बच्चों के जीवन से जुड़े कई अनुभव जो मैंने उनके आसपास गत एक वर्ष में देख सुन कर महसूस किया, वह मुझे बेचैन करता है। डायरी अंश में बच्चों के प्रसंग से जुड़ी सारी बातें मुझे परेशान करने लगती हैं।

इस लॉक डाउन के संक्रमण कालीन समय ने स्कूली बच्चों के जीवन को हर तरह से अस्त-व्यस्त किया है। यह अस्त-व्यस्तता भले ही मूर्तमान होकर आम लोगों को दिखाई ना दे पर लेखकीय नजरिए से देखने पर सारी बातें बहुत शिद्दत से महसूस होने लगती हैं। लॉक डाउन के इस निराशा भरे समय में बच्चों की रचनात्मकता कम हुई है, उनकी शैक्षिक आस्था में गतिरोध उत्पन्न हुआ है, कैरियर के प्रति बच्चों के भीतर जो एक स्वाभाविक चेतना होती है वह चेतना भी थोड़ी छिन्न भिन्न हुई है। स्कूल बन्द होने से बच्चों के बीच आपसी जीवन्त संवाद बन्द हैं। शिक्षकों के साथ उनका कोई आमना-सामना नहीं हो रहा है। कक्षाएं भी जीवन्त रूप में उन्हें आश्वस्त नहीं कर पा रही हैं।

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ऐसे में उनके भीतर मैत्री पूर्ण संबंधों की जो एक मानवीय जरूरत होती है, उसके अधूरे रह जाने से उनके जीवन में एक उबासीपन उत्पन्न हो रहा है। परीक्षाओं के ना होने से उनका निजी मूल्यांकन भी नहीं हो पा रहा है जिसके कारण अधिकांश बच्चों के भीतर की बेचैनी को मैंने महसूस किया है । बच्चे परीक्षाओं के ना होने से मेमेस बनाकर सोशल मीडिया में चुहल बाजी करते हुए देखे जा रहे हैं। ऐसी चुहल बाजियां एक किस्म की निराशा से उपजी हुई गतिविधियां हैं जो उनकी भीतरी दुनियां की रिक्तता और अधूरेपन को उजागर करती हैं। कभी सोचिए तो लगता है कि इस निर्मम समय ने बच्चों पर कितना अत्याचार किया है। बच्चों के जीवन के महत्वपूर्ण दिनों पर भारी यह लॉक डाउन का समय, जिसके बारे में कभी उन्होंने सोचा तक नहीं होगा उस समय को वे इन दिनों झेल रहे हैं।

यह झेलना बच्चों के जीवन में कई कई रूपों में गतिमान है। कहीं उबासी भरे दिन हैं तो कहीं गरीबी और भुखमरी की मार है। इन अनुभवों को जब मैं अपने डायरी अंश में देखता – पढ़ता हूं तो लगता है कि हम समय के सबसे बुरे दिनों से गुजर रहे हैं। यहाँ बिछोह है, दर्द है, पीड़ाएं हैं पर लगता है उन पर मरहम लगाने वाला जैसे कोई नहीं है। बच्चों के अनिश्चित भविष्य को जन्म देने वाला यह समय आगे जाकर किस रूप में और कहाँ खत्म होगा, एक लेखक और शिक्षक होने के नाते उसका मुझे बेसब्री से इन्तजार है। दुआ करें कि समय का यह दुष्चक्र जल्द खत्म हो जाए और बच्चे जीवन के अपने स्वाभाविक समय में फिर से गतिमान हो सकें।

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रमेश शर्मा

लेखक व्याख्याता और साहित्यकार हैं। सम्पर्क +917722975017, rameshbaba.2010@gmail.com
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