जानें क्यों नहीं जाती ये बेरोजगारी
सार–
भारत में पिछले कुछ समय से बेरोज़गारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। बेरोज़गारी के जो आंकड़े हम देखते हैं वह भरमाने वाले हैं क्योंकि भारत में छुपी हुई बेरोज़गारी ज्यादा है। देश की आर्थिक स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग करने होंगे ।
विस्तार-
हाल ही में निकली रेलवे भर्ती में कुल पदों की संख्या 1 लाख 40 हजार थी, लेकिन उसके लिये ढ़ाई करोड़ लोगों ने आवेदन किया था। देश में बढ़ती बेरोज़गारी का यह ताज़ा उदाहरण है। बेरोज़गारी की परिभाषा समझना चाहें तो जब देश में कार्य करने वाली जनशक्ति अधिक होती है और काम करने पर राजी भी होती है परंतु उन्हें प्रचलित मजदूरी दर पर कार्य नहीं मिल पाता है तो इसी अवस्था को बेरोजगारी कहते हैं।
आंकड़ों पर नज़र दौड़ाई जाए तो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) भारत की अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाली संस्था है, उसके अनुसार दिसम्बर 2021 में बेरोजगारी दर बढ़कर 7.9 फीसदी हो गई। नवम्बर में यह 7 फीसदी थी। एक साल पहले दिसम्बर 2020 में बेरोजगारी दर 9.1 फीसदी से ज्यादा थी। हाल के दिनों में अनुभव किए गए स्तरों की तुलना में भारत में बेरोजगारी दर में वृद्धि हुई है।
2018-19 में बेरोजगारी दर 6.3 फीसदी और 2017-18 में 4.7 फीसदी थी। आंकड़ों से साफ है कि कोरोना काल में बेरोज़गारी बढ़ी है, यह हाल तब हुए जब केंद्र सरकार ने कोविड-19 के कारण बने आर्थिक हालात को संभालने और आम लोगों की मदद के लिए मई 2020 में 20 लाख करोड़ रुपये के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की थी।
बेरोज़गारी का मुख्य कारण है कृषि क्षेत्र में सिकुड़ता भारत
स्टेटिस्ता द्वारा दिए इन आंकड़ों के अनुसार भारत में साल 2009 से 2019 तक आर्थिक क्षेत्रों में कार्यबल का वितरण देखने से साफ पता चलता है कि कोरोना काल में पलायन कर गांवों में लौटे प्रवासियों के बेरोज़गार रहने का मूल कारण उनके द्वारा ही छोड़ी गई कृषि है। साल 2009 में कृषि क्षेत्र में कार्यबल 52.5 प्रतिशत था जो साल 2019 आते-आते 42.6 प्रतिशत रह गया था।
कृषि का महत्व हम धर्मवीर का उदाहरण देख समझ सकते हैं। छह लोगों के परिवार वाले धर्मवीर उत्तराखण्ड के रुद्रपुर में दूधियानगर इलाके में रहते हैं और पिछले सोलह वर्षों से गोलगप्पे का ठेला लगाते हैं। जब मेरी उनसे मुलाकात हुई तो धर्मवीर ने बताया कि आज महीनों बाद फिर से ठेला लगाया है। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान उन्होंने रुद्रपुर की ही एक धान मिल में काम किया। ऐसे लाखों लोग थे जिन्हें संकट की इस घड़ी में सिर्फ कृषि आधारित उद्योगों का ही सहारा था।
कृषि क्षेत्र में भी चाहिए कोई वर्गीज कुरियन
भारत में कृषि क्षेत्र को अब किसी नए प्रयोग की उम्मीद है। वर्गीज कुरियन दूध उत्पादन में एक क्रांति ला आने वाली पीढ़ी को कुछ नया करने की सीख दे गए थे। वर्गीज कुरियन को ‘भारत का मिल्कमैन’ भी कहा जाता है। एक समय जब भारत में दूध की कमी हो गई थी, कुरियन के नेतृत्व में भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम शुरू हुआ। कुरियन ने देश में बिलियन लीटर आइडिया, ऑपरेशन फ्लड और डेयरी फार्मिंग जैसे अभियान शुरू किए। आज इन्हीं की बदौलत भारत दूध उत्पाद में विश्व में नंबर एक पर है। इन्हीं की बदौलत एक तिहाई ग्रामीण आय का स्रोत दुग्ध उत्पादन है।
अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने बीबीसी में लंबे समय तक रहे वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी से भारत में बढ़ती बेरोज़गारी पर लंबी बातचीत की।
उन्होंने कहा जिस तरह की नीतियां हम अपना रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में रोजगार नहीं पैदा होता है। सन् 1991 के बाद हमने नई आर्थिक नीतियों को अपनाया और उसके चलते जो ये सारी नीतियां हैं, ये प्रो बिजनेस नीतियां हैं, जिसको सप्लाई साइड कहते हैं। ये मार्केट के आधार पर है यानी कि बाजारीकरण के आधार पर है, बाजार आगे है और समाज पीछे है।
बाजार की जो नीतियां होती हैं, उसमें डॉलर वोट चलता है। डॉलर वोट का मतलब है कि अगर मेरे पास एक डॉलर है तो एक वोट है और अगर एक लाख डॉलर है तो एक लाख वोट है।
तो बाजार में उसकी चलेगी जिसके पास एक लाख डॉलर है, जिसके पास एक डॉलर है, उसकी नहीं चलेगी। अभी पूंजी वहाँ जाती है, जहाँ बाजार है। जैसे अगर हम उत्तर प्रदेश की बात करें तो जो पूंजी है वो बांदा में नहीं जायेगी, वो आसपास के इलाकों में जाएगी जैसे कि दिल्ली और एनसीआर नोएडा और गाजियाबाद। मतलब यूपी का मतलब बांदा नहीं है, उसका मतलब है नोएडा और गाजियाबाद। यही कारण है की कानपुर जो कभी इंडस्ट्रीयल शहर होता था, अब वहाँ उद्योग धंधे बंद हो चुके हैं।
हमारे देश में रोजगार नहीं बढ़ रहा है लेकिन बेरोजगारी का आंकड़ा भी बढ़ता नहीं दिखता है। वजह यह है कि हमारे यहाँ सोशल सिक्योरिटी नहीं है। अगर आपको रोजगार नहीं मिल रहा हो तो आप ये नहीं कह सकते कि जब तक मुझे मेरे मुताबिक काम न मिल जाए तब तक मैं घर बैठ जाऊंगा। अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोप में आपको बेरोजगारी भत्ता मिलता है तो वहाँ आप वहाँ सही काम मिलने तक इंतजार कर सकते हैं।
इसलिए हमारे यहाँ पेट भरने के लिये इस बीच लोग ठेला चलायेंगे, रिक्शा चलायेंगे या सिर पर बोझा उठायेंगे तब यह मान लिया जाएगा कि उनको रोजगार मिल गया। यही कारण है कि बेरोजगारी का जो आंकड़ा पहले 3-4 प्रतिशत के आसपास रहता था, अब वो 7-8 प्रतिशत के आसपास रहता है। वो ज्यादा बढ़ता नहीं दिखता इसलिए हमारे यहाँ अंडर एम्प्लॉयमेंट बढ़ जाता है।
रिक्शा वाला अगर अपने स्टैंड पर 12 घंटे खड़ा रहता है तो उसको दो-तीन घंटे का काम मिलता है, ऐसा ही हाल ठेली वाले, चना-मूंगफली बेचने वाले, सब पर लागू होता है। लेकिन उन सभी को रोजगार वाला मान लिया जाता है। मतलब हमारे यहाँ डिसगाइज एम्प्लॉयमेंट (छुपी ही बेरोज़गारी) है, यह कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक है जहाँ खेत में जरूरत तो चार लोगों की होती है पर लगे दस लोग होते हैं।
सड़क चमका देने भर से ही नहीं मिल जाएगा रोजगार
बेरोज़गारी के सवाल पर फ़िल्म और पत्रकारिता जगत से जुड़े पौड़ी निवासी गौरव नौडियाल कहते हैं कि सरकार ने रोज़गार की जगह पुल बनाने और सड़कें चमकाने को प्राथमिकता में रखा। सारे बज़ट को कंस्ट्रक्शन में डाल दिया गया। इको-टूरिज्म से देश के कई हिस्सों में नौकरियां लाई जा सकती थी पर उसके लिए योजनाएं बनानी होंगी, मूलभूत ढांचे तैयार करने होंगे, वर्कशॉप के ज़रिए स्किल्ड लोग तैयार करने होंगे।