व्यवस्था परिवर्तन की वैचारिकी
मैं जयप्रकाश आन्दोलन का सहभागी रहा हूँ। उस आन्दोलन को लोग 1974 आन्दोलन या सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के नाम से भी जानते हैं। 1 जनवरी 1975 को आन्दोलन के दौरान छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया गया था। जिसमें हम और हमारे जैसे हजारों नौजवान शामिल हुए थे जो यह मानकर चलते थे कि हमारे नायक लोकनायक जयप्रकाश है। उनके सम्पूर्ण क्रान्ति विचार को जमीनी आधार देना हम सबका दायित्व था। उस जमाने में हम सब ने तय किया कि चुनावी राजनीति से अलग रहकर जन सरोकार के सवालों पर आम लोगों को संगठित करेंगे और इस संगठित लोक शक्ति का उपयोग राज्यशक्ति पर लोक शक्ति के दबाव के औजार के रूप में किया जाएगा। तब से लेकर बोधगया भूमि मुक्ति आन्दोलन,गंगा मुक्ति आन्दोलन, स्त्री आन्दोलन, बाल श्रमिक आन्दोलन, झुग्गी झोपड़ी आन्दोलन,कोसी आन्दोलन, किसान आन्दोलन, पंचायत आन्दोलन सहित अनेक आन्दोलनों से जुड़े रहे। उस समय की समझदारी थी कि जन सरोकार की समस्याओं का समाधान लोक शक्ति और लोक नीति से ही सम्भव है। इसके लिए शान्तिमयता और निर्दलीयता की शर्तें हम सब ने स्वीकार की थी। बेशक आन्दोलन का स्वर महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, और शिक्षा में आमूल परिवर्तन के लिए मुखर था। 1977 में लोकतन्त्र की रक्षा के लिए लोकनायक जयप्रकाश जी ने चुनाव की चुनौती स्वीकार की, दिल्ली और पटना की सरकार बदल गयी।
1974 आन्दोलन में दो तरह के लोग शामिल थे। एक वह जो पहले से किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ समूह था दूसरे वे लोग जो जयप्रकाश जी के सम्पूर्ण क्रान्ति के विचार से प्रभावित थे जाहिर है सत्ता में जो लोग गये उनकी समझ व्यवस्था परिवर्तन की नहीं थी। मैं सत्ता के गुण दोष की गिनती में अभी नहीं जाना चाहूँगा। लेकिन इतना जरुर कहना चाहूँगा की जेपी आन्दोलन की वह धारा जिसने मान लिया कि हमें चुनावी राजनीति की जरूरत नहीं है लोक नीति आधारित लोक शक्ति हम लोग खड़ा नहीं कर पाये। बाद के दिनों में बहुत सारे मित्रों ने सर्वोदय के माध्यम से, संघर्ष वाहिनी के माध्यम से और तरह-तरह के एनजीओ के माध्यम से काम करना जारी रखा लेकिन सच यह है कि हम सब अपेक्षित मंजिल से दूर होते गये। कसक आज भी मन में चल रहा है। हम सब ने नारे लगाए थे: ‘भ्रष्टाचार मिटाना है नया बिहार बनाना है,’ ‘बदलो बदलो यह शिक्षा नहीं तो मांगनी पड़ेगी भिक्षा,’ ‘रोको महँगी बाँधो दाम,नहीं तो होगा चक्का जाम’, ‘काम के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल करो’, ‘प्रतिनिधि वापसी का अधिकार जनता को दो’ इन नारों ने सपनों का जो संसार दिया उसमें अधिकांश कार्यकर्ताओं का अधिकांश जीवन बीत गया। ऐसा महसूस हुआ कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए पीपल फ्रंट के साथ-साथ पार्लियामेंट्री फ्रंट भी होना चाहिए।
1989 में सर्वोदय के विचारक आचार्य राममूर्ति जी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह जी के साथ मिलकर जनमोर्चा के माध्यम से काम करना तय किया। परन्तु सत्ता की चमक दमक के बीच पता नहीं पीपुल्स फ्रंट और व्यवस्था परिवर्तन की कामना वाले पार्लियामेंट्री फ्रंट का विचार चुनावी राजनीति के चमक दमक में कहीं गुम सा हो गया। फिर एक छोटी सी कोशिश 1995 में हुआ हम थोड़े से मित्रों ने मिलकर पार्लियामेंट्री फ्रंट खड़ा करने की जिम्मेदारी कबूल की और लोक मोर्चा के नाम से बिहार विधानसभा के चुनाव में हिस्सा भी लिया। लोक मोर्चा का प्रयोग भी आगे नहीं बढ़ पाया। बाद के दिनों में हमने अन्ना आन्दोलन को भी देखा और भारतीय राजनीति के क्षितिज पर चल रहे पक्ष और विपक्ष के नाम पर धमा चौकड़ी को भी देख रहे हैं। स्थिति भयावह है। मैं किसी एक दल की बात नहीं कर रहा हूँ 2024 में यह सवाल अपने आप से पूछ रहा हूँ कि अपने जीवन के 50 साल जिन संकल्पों और सपनों के साथ जुड़कर बिताया उससे मुँह मोड़ लिया जाए या कोशिश जारी रखूँ। सवाल व्यक्ति का नहीं है सवाल एक पूरी प्रक्रिया का है। पीपुल्स फ्रंट और पार्लियामेंट्री फ्रंट दोनों स्तर पर कोई संगठित प्रयास नहीं हो रहा है। बिहार आन्दोलन के 50 साल बीत गये। आजादी के 75 साल बीत गये। गाँधी के सपनों का भारत, जयप्रकाश के सपनों का भारत बना या नहीं बना। इसका उत्तर तो आम आदमी ही दे सकता है। निजी तौर पर हम यह महसूस करते हैं कि सपने पूरे नहीं हुए। धोखा हुआ और आज समाज और राजकाज दोनों स्तर पर विभाजन ही विभाजन दिखता है। व्यक्ति एकाकी हो चुका है ऐसी सूरत में यह महसूस हो रहा है कि बिहार आन्दोलन के 50 साल, बिहार की पीड़ा और प्रयास, बिहार के विकास और चुनौतियों को लेकर प्रयास जारी रखना चाहिए। आजादी की विरासत, बदलाव और उसकी चुनौती को रेखांकित करना चाहिए। और शायद यह कहना चाहिए कि ‘जागो फिर एक बार हारा नहीं बिहार’। इन्हीं बातों को लेकर हम आलेख को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
हम पौराणिक बातों की तरफ नहीं जाना चाहते हैं। क्योंकि पौराणिक दौर में हमारे पास वैशाली के गणतन्त्र के उदाहरण भी हैं ग्रामीण व्यवस्था के उदाहरण भी हैं। परन्तु वर्तमान दौर में स्वतन्त्रता संग्राम के दौर को अगर मानक मान लें तो गाँधी ने हमें ग्राम स्वराज की अवधारणा दी थी। ग्राम गणराज्य और ग्राम स्वराज की धुरी पर एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना जिसमें ऊपरी स्तर पर फूलों के माला की तरह गूथा हुआ सिस्टम हो। नीचे जनता के स्तर पर ज्यादा से ज्यादा ताकत मौजूद हो। आजादी मिली। देश संसदीय पद्धति के आधार पर आगे बढ़ा हमने संविधान बनाया। आज 75 साल पूरे हो गये। अब लोग यह महसूस कर रहे हैं कि सरकारें तो बदलती रही, परन्तु व्यवस्था परिवर्तन नहीं हुआ। इस वैचारिकी के 75 साल की अवधि को हमें कई चरणों में देखना चाहिए। यह चरण उस दौर के विकास की वैचारिकी का सर्वोत्तम उदाहरण है। डॉक्टर लोहिया ने देश के सामने चौखम्भा राज्य की परिकल्पना राखी। इस कल्पना के तहत केंद्र राज्य जिला और पंचायत की व्यवस्था स्वीकार की गयी। दुनिया के सामने उन्होंने और भारतीय समाज के सामने भी सप्त क्रान्ति की परिकल्पना रखी। साथ-साथ उन्होंने राजनीति को आपात धर्म के रूप में स्वीकार किया। परन्तु राजनीति की अपनी विडम्बना है। जिसमे नीति नीयत और नेतृत्व के स्तर पर लगातार गिरावटें पाई गयीं।
एक दौर 1974 का आया जब जयप्रकाश जी को यह महसूस हुआ कि सत्ता और जनता के स्तर पर काफी दूरियाँ बढ़ गयी हैं। सत्ता जनता के प्रति जवाब देह नहीं है। तब उन्होंने बिहार आन्दोलन के दौरान जनता सरकार की कल्पना रखी जिसे उनके साथ आन्दोलन में शामिल राजनीतिकर्मियों ने गम्भीरता से नहीं लिया। परिणाम यह निकला कि पूरी की पूरी लड़ाई 1977 में मात्र सत्ता परिवर्तन तक सीमित रह गयी। परिणाम सामने है आम आदमी ने सत्ता में गये लोगों को जयप्रकाश का प्रतिनिधि माना और उनसे उन सपनों को पूरा करने की अपेक्षा रखी जो सपने उन्होंने जेपी के आवाहन में सहेजा था। वैचारिकी के स्तर पर अगर देखा जाए तो ग्राम स्वराज और ग्राम गणराज्य से प्रारम्भ व्यवस्था-बदलाव का सुझाव यहाँ तक आया कि पीपुल्स फ्रंट और पार्लियामेंट्री फ्रंट के बीच एक संवाद कायम हो। लोक नीति और लोक शक्ति का राज्यशक्ति पर अंकुश कायम हो। परन्तु यह भी नहीं हुआ जाहिर है जनता ने 1947 में धोखा महसूस किया। 1967 में धोखा महसूस किया। 1977 में धोखा महसूस किया और यही परिणाम बीपी सिंह के दौर और अन्ना हजारे के दौर से निकला। अरविंद केजरीवाल के प्रयोग से किसी के भी मन में व्यवस्था परिवर्तन के प्रति उदासीनता और शंका स्वाभाविक है।
इस क्रम में गाँधी की विरासत को लेकर अगर हम समाज परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन पर विचार करते हैं तो उसे ठीक से आत्मसात करना जरूरी होगा। गाँधी कहते हैं टन भर बोलने से अच्छा है तोला भर आचरण करना। शायद इसी कारण से वह कह पाते हैं कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है। इसी प्रकार व्यवस्था परिवर्तन के लिए रचना, सत्याग्रह और ग्राम स्वराज की बात कहते हैं। ग्राम स्वराज से उनका अर्थ शासन से, स्वावलम्बन से, स्वदेशी से है। 2024 में अगर हमें गाँधी की व्याख्या करनी हो तो हम कह सकते हैं कि विकास की एक ऐसी पद्धति जिसमें स्थानीय साधन हुनर और कौशल के आधार पर विकास की नीति तय करना। अर्थशास्त्र की दृष्टि से अगर विचार किया जाए तो इसका मूल भाव लोकल प्रोडक्शन लोकल कंजप्शन होगा। इसी प्रकार समाज परिवर्तन के लिए व्यक्ति स्वयं को बदले, सामाजिक ढाँचे को ठीक करें और आवश्यकता अनुसार राजकाज को बदलने का काम करें। अगर विकास और शासन की इस प्रक्रिया को दार्शनिक स्वरूप दिया जाए तो कमजोर के संरक्षण, विलक्षणता के संरक्षण और सभ्यता की गिरावट को मिलाकर सूत्र निकलता है। आर्थिक बदलाव का मतलब बेशक जीवन स्तर में बदलाव होता है परन्तु गाँधी दृष्टि से जीवन स्तर में बदलाव के साथ-साथ जीवन मूल्यों में भी बदलाव की आवश्यकता होती है। अर्थात हमारी नियत ठीक हो, नीति भी ठीक हो और इसके मेल से उपजा हुआ नेतृत्व हो।
आज देश में गाँधी के दौर की संस्थाएँ और बचे खुचे लोगों की संख्या नगण्य है। ढाँचा मात्र है। उसकी आत्मा केवल भक्ति भाव तक सक्रिय है। आजादी के बाद आचार्य विनोबा भावे,, डॉ राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश के विचारों को गाँधी विचार के विकास क्रम के रूप में अगर हम ले सकें तो 2024 की चुनौतियाँ आशाएँ और अपेक्षाओं को रेखांकित किया जा सकता है। जाति और सम्प्रदाय को लेकर झगड़ा तब भी था। हालात अच्छे नहीं थे।
भारतीय मानस का बड़ा हिस्सा आत्महीनता का शिकार था, एक हिस्सा अहंकार से लैस था। आजादी के आन्दोलन के प्रयास और बाद के अनेक प्रयासों के कारण आज देश में उस मायने में पहले की अपेक्षा अनुकूलता ज्यादा है क्योंकि अहंकार भी टूटे हैं और आत्महीनता भी टूटी है। समाज परिवर्तन की आकांक्षा और अपेक्षा वाले सुधि जनों का यह दायित्व बनता है। टूटे अहंकार और टूटती आत्महीनता को रचनात्मक दिशा दें। पूरे देश में सियासत के दायरे में जिस प्रकार से धन बल,पशु बल, छल प्रपंच गाली गलौज की भाषा का इस्तेमाल हो रहा है। वैसी स्थिति को बदलने के लिए कठोर संयम की आवश्यकता होगी। सांकेतिक तौर पर हमें हमारी परम्परा की अच्छाइयों को सामने रखना होगा। इसी प्रकार पर आधुनिकता की अच्छाइयों को लेकर एक सम्यक चरित्र बनाना होगा। उतनी ही मजबूती से परम्परा की बुराइयों और आधुनिकता के अन्धविश्वास को लोक जीवन से खारिज करने की जरूरत है। अब यह सवाल गम्भीरता से उठेगा कि कौन करेगा इस काम को? कौन है जो दौड़ दौड़ कर गाँव गाँव जाएगा? रक्त क्रान्ति के बहम से देश को बचाएगा। उत्तर तलाशना पड़ेगा। इलाके की भी तलाश करनी होगी। क्योंकि हमारी आपकी साधन और पहुँच की सीमा है। बेशक सम्भावना भी है। ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो बिहार इसके लिए अनुकूल जगह दिखता है।
बिहार में 1974 आन्दोलन, सर्वोदय समाजवादी सहित कई संस्था संगठन समूह और व्यक्ति बिहार और उसकी पीड़ा को लेकर चिन्तित है। इस कड़ी में जन स्वराज अभियान भी चल रहा है। इसके अगुआ श्री प्रशांत किशोर जी हैं। वह गाँधी को सामने रखकर, व्यवस्था परिवर्तन को आधार मानकर, चुनावी राजनीति के लिए जनता का विकल्प तलाश रहे हैं। विगत दो वर्षों से बिहार के जिलों में पदयात्रा कर रहे हैं और बिहार बोध के लिए सक्रिय है। विगत 2 अक्टूबर 2022 से ही गाँधी आश्रम भितिहरवा, चंपारण बिहार से पदयात्रा पर हैं। सही लोग, सही सोच और साझा प्रयास के आह्वान के साथ बिहार यात्रा कर रहे हैं। परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन में भरोसा रखने वाले लोगों को इनके साथ संवाद करना चाहिए। मैं निजी तौर पर अपने कुछ साथियों के साथ जन सुराज अभियान को देखने समझने का प्रयास कर रहा हूँ। यथाशक्ति योगदान भी कर रहा हूँ। अपेक्षा है कि इस अभियान से एक नये प्रकार की सामाजिक नीति, अर्थनीति राजनीति और संस्कृति का जन्म हो। संगठन का ढाँचा ऐसा बने जिसमें चुनाव लड़ने वाले भी और न लड़ने वाले भी दोनों प्रकार के लोग एक छतरी के नीचे काम कर सके। निजी तौर पर प्रशांत किशोर जी ने अपनी भूमिका चुनाव न लड़ने वाले की रखी है। उनका अपना मानना है कि उन्हें पद की कामना नहीं है। इस तरह के अनेक लोग अभियान से जुड़ रहे हैं। गाँधी, लोहिया, विनोबा, जयप्रकाश, अंबेडकर में भरोसा रखने वाले लोगों को आगे आना चाहिए। अपनी राय प्रकट करनी चाहिए। अपेक्षा करना या उपेक्षा करना सही नहीं कहा जा सकता है। कोई राय न बनाना लोकतन्त्र की दृष्टि से सही नहीं कहा जा सकता है।
डॉ राम मनोहर लोहिया ने निराशा के कर्तव्य को लेकर एक चर्चा की है। उसको देखना चाहिए। बेशक बिहार का स्वास्थ्य, बिहार की शिक्षा, कानून व्यवस्था और सियासत, आम आदमी से दूर हो गयी है। बिहार में खेती का बुरा हाल है। पलायन बड़े पैमाने पर हुआ है। एक साथ बाढ़ और सूखा दोनों का संकट बिहार को झेलना पड़ता है। संसाधन के रूप में बिहार के पास उपजाऊ मिट्टी है। प्रचुर पानी है। और सर्वाधिक श्रम शक्ति है। कहने के लिए पंचायती राज कानून भी है। अगर इन सब चीजों को लेकर ठोस बात हो तो क्यों कोई बिहारी दस हजार कमाने के लिए बिहार से बाहर जाए। यह किसी एक जाति या सम्प्रदाय का मसला नहीं है। यह सवाल 13 करोड़ बिहारवासियों का है। जहाँ ढाई करोड़ से ज्यादा परिवार बसते हैं। बिहार का पैसा जो बैंकों में जमा होता है वह रिजर्व बैंक के निर्णय के मुताबिक 80% बिहार में खर्च होना था परन्तु ऐसा नहीं होता है। यह राशि लाखों करोड़ में है तो खेती किसानी आधारित उद्योग धन्धे इस पूँजी के आधार पर बिहार में क्यों नहीं खड़े हो सकते हैं? क्या कारण है कि 39 सांसद देने वाला बिहार विकास को लेकर भारत सरकार द्वारा एक भी बैठक न करने का रिकॉर्ड बनाता है दूसरी तरफ गुजरात जैसे उन्नत प्रदेश के लिए जहाँ से मात्र 26 सांसद आते हैं उसे और उन्नत बनाने के लिए आठ आठ बैठकें होती हैं।
बिहार की सियासत में जो लोग हैं वह चुनाव के समय जाति और सम्प्रदाय का तो सवाल खड़ा करते हैं परन्तु चुनाव के बाद जाति और सम्प्रदाय के लोगों को भी फायदा देने का काम नहीं करते। किसी की चिन्ता में अपना बेटा होता है तो किसी की चिन्ता में कुछ और चीज होती है। बिहार से बाहर जो लोग रोजी-रोटी की तलाश में जाते हैं उन्हें अपमान झेलना पड़ता है। आखिर कब तक? आखिर कमी कहाँ रह गयी है। मुझे तो लगता है कि कहीं ना कहीं हमारी इच्छा शक्ति में ही वह कमी मौजूद है। इस पर हम सबको विचार करना चाहिए।