हिन्दी में नवयुग के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र
हिन्दी-साहित्य में भारतेन्दु नवयुग के प्रवर्तक थे। जब देश की भीषण परिस्थितियों से अनभिज्ञ होकर आँखें मूँदे हुए कविगण किसी अज्ञात नायिका को अभिसार का उपदेश दे रहे थे, जब कविता राजदरबार की चेरी बनी हुई थी और राधा-कृष्ण की आड़ में कलुषित प्रेम की शत-सहस्त्र उद्भावनायें हो रही थीं; उसी समय हिन्दी-साहित्य-भाल के ‘इन्दु’ भारतेन्दु का अवतरण शरद्चंद्र की नवीन प्रभा की भाँति हुआ। भारतेन्दु की महाप्राण प्रतिभा ने, हिन्दी-साहित्य में पहली बार, जीवन के साथ साहित्य को साटा।
विभिन्न आयामों का साहित्य-वैपुल्य उनकी अद्भुत प्राण-क्षमता का परिचायक है। वे एक साथ ही कवि, नाटककार, निबंधकार, व्यंग्यकार, आलोचक, इतिहासज्ञ, पत्रकार और समाज सुधारक थे। मात्र पैंतीस वर्षों का अल्प जीवन पाकर भी उन्होंने लगभग पौने दो सौ छोटे-बड़े ग्रन्थों का प्रणयन किया, अनेक पत्रिकाओं का संपादन किया, समाज में नवजागरण और राष्ट्रीयता का पांचजन्य फूँका, अनेक सभा, क्लब और असोशिएशन की स्थापना की और अनेक लोगों को अपनी संजीवनी प्रेरणा का स्पर्श दिया। उनके इसी लोकोत्तर प्रतीत होने वाले अवदानों के कारण जब ‘सारसुधानिधि’ पत्र में रामेश्वर दत्त व्यास ने उन्हें ‘भारतेन्दु’ की पदवी देने का प्रस्ताव रखा तो जनता ने बड़े उत्साह से उसका स्वागत किया।
ऐतिहासिक दृष्टि से भारतेन्दु संक्रांतिकालीन कवि थे। भारतेन्दु के पूर्व की सामंतवादी पद्धति और मनोवृत्ति ने विलास को उत्प्रेरित किया था। उस विलास के केंद्र में नारी का मांसल शरीर था। रीतिकालीन कवि राज्याश्रित थे। अत: उनके काव्य में विलासितापूर्ण नारी की स्थिति स्पष्ट रूप से घूँघट उठाकर झाँकती है। भारतेन्दु इसी क्षीण होती हुई परंपरा की अंतिम कड़ी के रूप में दिखाई पड़ते हैं। परन्तु भारतेन्दु रूपी कड़ी के अगले छोड़ से आधुनिकता भी बद्ध है। अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो जाने के बाद औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिला, जिससे नवीन पूंजीवाद का विकास हुआ। अंग्रेजी शिक्षा के कारण वैज्ञानिक और तार्किक बुद्धि को प्रोत्साहन मिला, जिसके आलोक में भारतीयों को अपनी दुर्दशा, शोषण एवं पराधीनता की स्थिति स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगी। सन 1857 की क्रांति ने सदियों से सुषुप्त जनमानस को झकझोड़ कर जगा दिया और नए विचारों और मूल्यों के लिए रास्ता खोल दिया। इस नवजात चेतना को सबसे पहले भारतेन्दु ने अपने साहित्य में जगह दी। इस तरह भारतेन्दु में अतीत की आसक्ति और और नवीन आकांक्षा की पुलक – दोनों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है।
यद्यपि भारतेन्दु रीतिकालीन परम्परा के अन्तिम कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनका शृंगार-वर्णन वही नहीं है, जो रीतिकालीन कवियों का था। भारतेन्दु की कविता प्रकृतित: रीतिकालीन कविता से भिन्न है। रीतिकालीन कविता में रचनाकार का व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में नहीं झलक पाता था, वहीं भारतेन्दु की रचनाओं में सर्वत्र उनके व्यक्तित्व की छाप मिलती है। डॉ. रामविलास शर्मा ‘भारतेन्दु-युग’ में कहते हैं – “उनके छंद लक्षणग्रन्थों के आधार पर नहीं बने, उनमें आत्माभिव्यंजना के लिए एक नया प्रयास है।”
परन्तु भारतेन्दु का महत्व उनकी शृंगारिक रचनाओं के कारण नहीं है। भारतेन्दु का वास्तविक महत्व हिन्दी साहित्य में नये विषय, नयी राह गढ़ने के कारण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ‘चिंतामणि’ में ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’ शीर्षक निबंध में कहते हैं कि “कविता की नवीन धारा के बीच भारतेन्दु की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति का था।” सामयिक परिस्थितियों और राष्ट्रीयता की भावनाओं से उद्वेलित उनकी रचनाएँ सर्वाधिक मौलिक एवं तेजस्वितापूर्ण हैं। यही वह बिन्दु है, जहाँ से भारतेन्दु नवीन पगडंडियों का निर्माण करते हैं। ‘नीलदेवी’, ‘भारत-दुर्दशा’ आदि नाटक तथा बहुत सारी स्वतंत्र कविताओं में देश की अतीत गौरव-गाथा का गर्व, वर्तमान की अधोगति की क्षोभभरी वेदना और भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता मिलती है।
भारतेन्दु ने इतिहास प्रसिद्ध राजभक्त जगतसेठ अमीचन्द के कुल में जन्म लिया था। प्रारंभ में वे भी समझौतावादी थे, इतने कि उन्हें राजभक्त भी कहा जा सकता है। परंतु बाद में उन्होंने अपना रुख स्पष्ट किया और ब्रिटिश शासन की खुलकर आलोचना करनी शुरू कर दी। अंग्रेजों की कुव्यवस्था से उनका हृदय जार-जार रोया –
रोअहु सब मिलि कै आवहु भारत भाई।
हा! हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई। ।
उन्होंने वर्तमान अधोगति को ध्यान में रखते हुए प्राचीन गौरव का गान किया है। भारतीय वीरता के जन्म एवं प्रदर्शन के स्थल चित्तौर, पानीपत आदि के स्मरण के द्वारा वर्तमान राष्ट्रीयता को उद्वेलित करना चाहा है –
हाय पंचनद! हा पानीपत! अजहूँ रहे तुम धरनि विराजत।।
हाय चित्तौर! निलज तू भारी। अजहूँ खरो भारतहिं मंझारी।।
वे विवश एवं मूक की भाँति केवल रो-पीटकर नहीं रह गये, वरन पराधीनता के मूल कारण को पकड़ा और अंग्रेजों की शोषण-नीति का भंडाफोड़ करते हुए देशवासियों को स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया, जो बाद में चलकर गाँधी ने भी अपनाया –
मारकीन मलमल बिना चलत कछू नहीं काम।
परदेसी जुलहान को मनहु भए गुलाम।।
कहीं-कहीं हास-परिहास के माध्यम से उन्होंने जीवन की असंगतियों को छू दिया है। उनकी ‘मुकरियाँ’ और ‘चूरन के लटके’ जन-जागरण में अतीव सहयोगी हुए। बढ़ती बेरोजगारी पर उनका प्रसिद्ध व्यंग्य है –
तीन बुलाये तेरह धावे, निज निज विपदा रोइ सुनावे।
आंखो फूटी भरा न पेट, क्यों सखि सज्जन, नहीं ग्रेजुएट।।
अंग्रेजों की नीति के प्रति उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा –
भीतर-भीतर सब रस चूसे, हँसि-हँसि के तन मन धन मूसे।
जाहिर बातन मे अति तेज, क्यों सखि सज्जन नहिं अंगरेज।।
भारतेन्दु समाज के पुराने ढाँचे से ही संतुष्ट नहीं थे। उनकी परिकल्पना के भारत में केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता ही नहीं थी। बल्कि उन्होंने मनुष्य मात्र की समता, एकता और भाईचारे का साहित्य परोसा है। इसीलिए डॉ. रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु साहित्य को ‘जनवादी’ साहित्य कहा है।
वस्तुत: हिन्दी-साहित्य-भाल के इन्दु भारतेन्दु का साहित्य उस दीपशिखा की भाँति है, जो अतीत के जीवन-रस से वर्तमान की बाती में जलकर भविष्य के पथ को प्रशस्त करने के लिए प्रभा विकीर्ण करता है। पंत ने उनकी स्तुति करते हुए ठीक ही कहा है –
‘भारतेन्दु कर गए भारती का वीणा-निर्माण।‘
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