यत्र-तत्र

कविता में बस्तर

 

भारत में आदिवासी जीवन-पद्धति को लेकर उदग्र उत्सुकता रही है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में बरसों तक बस्तर पर, विशेषतः घोटुल को लेकर, विपुल सामग्री प्रकाशित होती रही। नेहरू-एल्विन नीति और जनजाति आयोग की रिपोर्ट के बाद बस्तर के विकास को लेकर अनेक प्रयास स्वतन्त्र भारत की राजसत्ता द्वारा किये गये लेकिन आदिवासियों की स्वायत्तता पर वे अनचाही दखलंदाज़ी साबित हुए। बस्तर भी विकास की दौड़ में खींच लाया गया था। नतीजे में बस्तर भी तेज़ी से बदल रहा है—इस अर्थ में कि शोषण और उसके प्रतिरोध के नये रूपाकार यहाँ उभर रहे हैं। आदिवासी-जीवन एक भीषण संक्रान्ति में है। नक्सलवादी हिंसा और राज्य-प्रायोजित दमन के बीच जनजीवन पिस रहा है। आधुनिक राज्यसत्ता पश्चिमी उपनिवेशवादियों के सिविलाइज़िंग मिशन को ही आगे बढ़ा रही है। व्यापार और उद्योग का तन्त्र विकसित कर उसे कथित ‘मुख्यधारा’ में लाने का पवित्र अभियान जारी है।

    हिन्दी कविता इन बदलावों से उदासीन नहीं है। उन्हें देखने-परखने और समय की गति के बीच मनुष्य की नियति की पहचान का प्रयत्न करती है । याद आता है, वर्षों पहले कवि नागार्जुन बस्तर आये थे। उन्होंने ‘शालवनों के निविड़ टापू में’ कविता लिखी थी जो आदिवासी संस्कृति के प्रदर्शनीय वस्तु में बदल जाने की नियति पर मार्मिक टिप्पणी के साथ नेहरू-एल्विन नीति की विडम्बनाओं को प्रश्नांकित करती है। विनोदकुमार शुक्ल भी बस्तर पर कविताएँ लिखी थीं जो आदिवासी जीवन में मनुष्य, प्रकृति और वन्यजीव के बीच सम्बन्धों में एकात्मता और कथित सभ्य समाज के घातक हस्तक्षेप को रेखांकित करती हैं। उनकी तीन कविताओं—‘जंगल के दिनभर के सन्नाटे में’, महुआ बीनते-बीनते, और ‘बाज़ार का दिन है’ में आदिवासी-जीवन की सरलता, सामुदायिकता, प्रकृति से तादात्म्य एक अपूर्व सांगीतिक लय में अवस्थित हैं। इसमें उन्होंने संध्याकाल में पेड़ से महुआ झर कर धरती पर फ़ैल जाने और तारों के टपककर आकाश भर देने के दृश्य को अद्भुत संवेदनात्मकता में पकड़ा है। आदिवासी जीवन में वन्य जीव और मनुष्य के बीच नैसर्गिक रिश्ते का सौंदर्य है जो अन्यथा हमारे नागरिक बोध से ओझल है और जिसे हम विस्फारित विस्मय से देखते हैं। हमारे नागरिक बोध और आदिवासी चेतना के बीच गहरा अन्तराल है जो एक्ज़ॉटिसिज़्म का विस्मय जगाता है। विनोदकुमार शुक्ल समकालीन आदिवासी समाज में शोषक शक्तियों की मौजूदगी को एक सरल जीवन-बिम्ब के ज़रिये प्रकट करते हैं—‘एक अकेली आदिवासी लड़की को / घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता / बाघ-शेर से डर नहीं लगता / पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से / डर लगता है।’ नागार्जुन और विनोदकुमार शुक्ल ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बस्तर पर जब कविताएँ लिखी थीं, तब आदिवासी-जीवन की स्वायत्तता पर हस्तक्षेप करने वाली बाहरी शक्तियों की पहुँच सीमित थी। लेकिन उन्होंने उसकी गति और विसंगति को पकड़ा था।

इधर हिन्दी-प्रदेश के दो दूरस्थ केन्द्रों, छोटा नागपुर और बस्तर से नयी काव्य-संवेदना की आमद पिछले दो दशकों की कविता के लिए नयी घटना है। छोटा नागपुर, झारखण्ड से आदिवासी कवियों की नयी पीढ़ी आयी है। लेकिन बस्तर की हिन्दी कविता वहाँ के जीवन का सीधा साक्षात्कार करने वाले ग़ैर आदिवासी कवि लिख रहे हैं। शायद इन कवियों की ग़ैर आदिवासी पृष्ठभूमि होने की वजह से उनकी कविता में झारखण्ड-छोटा नागपुर की कविता की तरह ‘आदिवासी कविता’ होने का मुखर आग्रह नहीं करती। बस्तर की हिन्दी कविता प्रेक्षक भाव की कविता है जबकि छोटा नागपुर के कवियों में भोक्ता भाव है। वे वास्तविकता से सीधी मुठभेड़ में हैं। भोक्ता की धुरी से लिखी गयी उनकी कविता स्वभावतः उसे अस्मितावाद के घेरे में खींचने का यत्न करती है। लेकिन दलित कविता की तरह अस्मिता का दुराग्रह उसे संचालित नहीं करता। उसमें न्याय की माँग और प्रतिवाद की जीवंत भंगिमा है। वह जल, जंगल, ज़मीन के संघर्ष की कविता है। उसमें पीड़ित समुदाय की चीत्कार है। वह स्वानुभूति और सहानुभूति की बहस में भी नहीं है जो दलित कविता का वैशिष्ट्य है। बस्तर का कवि भी संवेदित है लेकिन वह प्रेक्षक है। प्रेक्षक भाव उसकी संवेदना की तीव्रता को सहानुभूति में सीमित कर देता है।

बस्तर के लोकजीवन को बस्तर में जन्मे कवियों, विजयसिंह और निरंजन महावर, ने बीती सदी के अंतिम दशकों में कविता में ढालने का प्रयत्न किया। उसके समानांतर माझी अनन्त ने दक्षिण बस्तर में बिताये कुछ वर्षों के अनुभव को अपनी कविताओं में रचा। माझी अनंत की कविता में बस्तर के सांस्कृतिक जीवन की झलकियाँ हैं। उन्होंने रोज़मर्रा की वस्तुओं के इर्दगिर्द लोकसौंदर्य के नैसर्गिक संसार की लय को, उसके मार्दव और वैभव को, उसकी सादगी और सहजता में पिरोया है। उनके यहाँ बस्तर का कठोर यथार्थ नहीं है, लेकिन उसका समूचा लोकवृत्त अपने माधुर्य और अकृत्रिमता के साथ छविमान है। टँगिया, तुम्बा, ढोल, मुर्गा, लँगोट, आग, मचान, लकड़हारा, पाठशाला, घोंटुल आदि माझी की कविताओं के कुछ शीर्षक हैं जिनसे उनकी कविता के वस्तुसंसार का अनुमान लगाया जा सकता है। ये वे वस्तुएँ हैं जिनके बिना आदिवासी जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। इन कविताओं में चित्रित अनुभव दरअसल प्रकृति और मनुष्य के बीच मैत्री से उत्पन्न सन्तुलन और सामंजस्य की तलाश में रूपाकार धारण करता है। आदिवासी जीवन-शैली, रीतिरिवाज, लोकाचार, परम्परा और उसके सौंदर्यलोक से बना एक अनगढ़-अकृत्रिम किन्तु सुरम्य यथार्थ माझी अनंत की कविता को फ़ोकलोर की नृतात्विक वास्तविकता के क़रीब ले जाता है। 1985 के आसपास ‘साक्षात्कार’ में प्रकाशित उनकी कविताओं ने ध्यान खींचा था। इन कविताओं में पूर्ववर्ती हिन्दी कविता की छाया नहीं थी। वे लगभग अछूते इलाक़े के दृश्य प्रस्तुत करती थीं। इसलिए उनके द्वारा निर्मित बस्तर की लोकछवि में टटकापन और काव्यात्मक स्फूर्ति थी। हिन्दी पत्रकारिता द्वारा आदिवासी जीवन में ताकझाँक (घोटुल में युवाओं के सहजीवन को लेकर अपार जिज्ञासा और उसके चटखारे को याद करें) से बनी बस्तर की अजूबा छवियों से भिन्न यह निश्छल-निर्दोष और आत्मलीन बस्तर की उजली-मार्मिक छवि थी। उसके समानांतर उन्हीं दिनों हिन्दी कविता में लोकसंवेदना की लहर आ रही थी। माझी अनंत की मनोभूमि में इसी लोक-संवेदना की आर्द्रता थी। उनकी बस्तर-केंद्रित कविता को हिन्दी कविता की उन दिनों उभर रही लोक-संवेदना का जनजातीय संस्करण कहा जा सकता है । माझी अनंत की कविता सभ्यता-संक्रमण से अछूते-अनाविल जीवन की निष्पंक कविता है।

हमारे उठने से पहले / उठ जाता है तुम्बा/ खंगालते हुए रात का पानी / कहते हुए—‘ चल उठ, काम पर / नहीं जाना है’ / हमने जब भी रखा है तुम्बा / कभी कांधे पर कभी हथेली में / कभी गले में गलहार की तरह / उसकी / मुस्कुराहट झलकी है / चापड़ा की चटक सोंधी गंध / और कुनकुने पेज में ।

हमने जब भी हलक से नीचे उतारी है / ज़िन्दगी, ताड़ी, सल्फी, लंदा / जब भी बीना है महुआ, तेंदू / तोड़ा है पत्ता / काटा है बाँस / निकाला है चार और चिरौंजी / तुम्बे ने एक मित्र की तरह / हर बार थपथपायी है हमारी पीठ।

  विजयसिंह की आरंभिक कविताओं में आदिवासी जीवन की लगभग ऐसी ही रम्य-सुघर छवियाँ हैं। उनकी ‘छानी में तोरई फूल’ कविता में एक आदिवासी लखमू की बाड़ी में जोंधरा, मुनगा, पपीता के फूल खिलने के साथ झोपड़ी में मड़िया, पेज, पसिया पकने, छप्पर पर तोरई फूल खिलने और उस पर बैठी नानी चिरई के हँसने के दृश्य के साथ अन्त में काव्यानुभव का समाहार है—‘इस तरह / खिलेगा गाँव में / एक और सुंदर दिन’। विजयसिंह की ‘रगारग रंग की तरह’, ‘तिरिया जंगल’, ‘रोज़ छूता हूँ जंगल’, ‘जंगल की हँसी’, ‘नोनी की हँसी’ आदि कविताओं में बस्तर के सुखद लोकबिम्ब हैं। अपनी लयगति में वनजीवन का वैभव और बस्तर का समूचा लोकवृत्त उनके यहाँ स्पंदित है। उनकी ‘बस्तर’ शीर्षक कविता आश्वस्ति-भरे, निर्द्वंद्व और प्रशांत लोक-संसार को स्वायत्त करती है जिसमें न आधुनिकता की आहट है, न ही जीवन की स्वायत्त लय को भंग करनेवाली शक्तियों की अवांछित उपस्थिति। यह बस्तर की स्वकेंद्रित, आत्मलीन और अक्षत लोकछवि है-

यहाँ जंगल कांधे पर है / और खेत की मिट्टी पाँवों में / ताम्बिया शरीर को छूकर बहती है नदी, पेड़ों में बैठकर सुस्ताता है आसमान यहाँ / हरियाते दिन में आता है टँगिया / मंगल के गमछे में खिलता है / पसीने का फूल / सल्फी के नशे में नाचता है जंगल / डोंगरी में खिलखिलाती हैं लेकियाँ / पिला, डोकरे और डोकरियाँ / यहाँ आप साँस ले सकते हैं / बतिया सकते हैं जंगल से।

ज़ाहिर है, यह बस्तर की प्रागाधुनिक छवि है। उनका वस्तु-संसार एक तरह के रूमान के घेरे में अपनी सीमाओं को सहेजने का यत्न करता है। यह प्रागाधुनिक का रूमान है। प्रागाधुनिक बस्तर की रूमानी छवि आदिवासी जीवन की स्वयंपूर्णता और स्वयंपर्याप्तता से उपजी है जिस पर औपनिवेशिक आधिपत्य की स्याह छाया नहीं पड़ी है ; न ही उत्तर-पूँजी के क्रूर पंजे उस पर पड़े हैं। इसमें चित्रित जीवन-दृश्य भी प्रागाधुनिक है। विजयसिंह की काव्यभाषा में अभिधा की तथ्यपरकता लोकलय को एक तरह से स्वच्छन्द गति देती है। तथ्य इस कविता में प्रवाहलीन हैं। वे महज़ तथ्य या सूचना नहीं रह जाते; काव्यात्मक राग में गुँथ जाते हैं। यह रागात्मकता और सहृदयता रूमान का उज्ज्वल पक्ष है। बस्तर की कुछ ऐसी ही रागात्मक छवि त्रिलोक महावर की कविता में भी है-

पहाड़ों पर / धुआं-धुआँ / धूनी रमाए / जोगन-सी / बैठी है शाम / कहीं महुआ / कहीं कुड़ई, कुंद, झुईं / तो कहीं अमराई की महक / खुद-ब-खुद / इत्र की मंजूषा है / शाम / फिर उतरी है घाटी में।

त्रिलोक महावर ने कविता में चाक्षुष तत्त्व का कुशलता से प्रयोग किया है। चाक्षुष अनुभव को कल्पना लय में गूँथने से दृश्यानुभूति की एकतान संगति निर्मित हुई है। इस तरह एक सौष्ठवपूर्ण दृश्य-संरचना में उसे तब्दील कर काव्यात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा दिखाई देती है। यहाँ कवि का दर्शक भाव मुखर है-

सीढ़ी-दर-सीढ़ी दर्द भरता है जंगल में / तीर्थगढ़ के प्रपात में / पानी बूँदों में बिखर-बिखर झरता है दर्द / और पानी अजीब समानता है / दोनों में बहते हैं तो रुकते नहीं / समझाने पर भी / शाम को दूर कहीं / मांदर पर पड़ती हैं थापें / टूटे मंदिर में बूढ़ा-सा पुजारी / बजाता है घंटियाँ / तब मन को छू लेनेवाला गीत / गूंजता है वादियों में / रात में जंगल ओढ़ लेता है / धुंध की चादर / दर्द पहले की तरह झरता है।

    यही दर्शक भाव संजीव बख़्शी की कविताओं में भी है। उनकी कविताओं में ऊँघते-अनमने और अपने ही भीतर दुबककर जी रहे बस्तर के सुपरिचित दृश्य। इनमें लोग हैं, लेकिन अपनी ही दुनिया में डूबे हुए, बल्कि अपने-आपसे अनजान। एक नज़र में उनका बस्तर निश्छल-निर्लिप्त और बेहद वेध्य जान पड़ता है। उसकी मासूमियत विचलित करती है। हिन्दी कविता के लिए बस्तर की मासूमियत ख़ासी काव्योपयोगी है। बस्तर पर एकाग्र बहुत-सी कविताओं में उसकी मासूमियत और सादगी के शब्दचित्र उकेरने के प्रयत्न किये गये-

बैठी हैं महिलाएँ एक मंडप के नीचे / सुस्ता रही हैं / बतिया रही हैं / बैठे हैं पुरुष भी / युवा लड़के, लड़कियाँ / हल्बी में जाने क्या क्या बातें कर रहे हैं।/ कोई बोलता है / बोलता क्या है ठिठोली करता है और / सब ठठ्ठा लगा कर हँसते हैं, खिलखिलाते हैं / बात बहुत हँसी की न हो / फिर भी लगता है जैसे / ढेर सारी हँसी भरी है इनके भीतर / सबके चेहरे पर खुशी है / यही हाट का चेहरा है।

लेकिन विजयसिंह, त्रिलोक महावर और संजीव बख़्शी की कविता में बस्तर की मनोरम छवि के इर्दगिर्द निर्मित अपने ही रूमान को भेदकर उसके खदबदाते बेचैन बिम्ब भी जाग उठते हैं। इनमें जंगल की अर्थव्यंजक चुप्पी है। यह असामान्य चुप्पी है। बस्तर के निर्मम-निर्बाध दमन और उसकी निस्सहाय बेबसी की कथा इसमें मुखरित है। इस चुप्पी की व्यंजकता को खोलने की कोशिश करें तो बस्तर की वनसंपदा, नदी-पहाड़-आकाश, उसके समूचे पर्यावरण और अर्थप्रणाली, संस्कृति, सौंदर्य और स्वतन्त्रता पर कब्ज़ा कर चुकी शक्तियों की अतिक्रामक और आतंककारी उपस्थिति यहाँ दिखाई देती है- ‘पेड़ चुप / पत्थर पगडंडी चुप / नदी चुप चिड़िया चुप / खेत चुप / सोमारू चुप / आसमान देख रहा है / धरती में सब चुप’ (विजयसिंह)। विजयसिंह की ‘जगरगुंडा में एक दिन’ कविता इस चुप्पी का प्रतिरोध नक्सल आतंक की आहट में करती है। त्रिलोक महावर की कविता में एक भोले आदिवासी हिड़मा का ज़िक है जो ग्रीन गोल्ड का मतलब नहीं जानता और अपने सागौन वृक्ष बेच देता है। ‘आमने सामने’ कविता में बस्तर की ख्यात मुर्ग़ा लड़ाई का वर्णन है लेकिन मुर्ग़ा लड़ाई एक रूपक है, जो कौतुक में बस्तर को ताकने वाली तमाशबीन निगाहों की सचाई उधेड़ता है। उनकी कविता में इंद्रावती नदी रोती है, संगीनों के बल पर माँ की गोद से बिछड़े बच्चों की तरह धरती से उजड़ते जंगल हैं, सौंदर्य बिखेरते महुआ के फूल कोचियों की साज़िश में गोदामों की हिरासत में हैं, और बाज़ार में बिक चुके तीखुर से बचा हुआ एक फूल जुड़े में मुरझा रहा है।

बस्तर की पीड़ा का इतिहास इन कविताओं में सांकेतिक रूप में मूर्त्त हुआ है। उसे अपेक्षया सांकेतिक और कलात्मक रूप में पूनम वासम की कविताएँ व्यक्त करती हैं। उनके यहाँ बस्तर के आंतरिक संघर्ष के विशद आख्यान हैं। उनके काव्य-संग्रह ‘मछलियाँ जाएँगी एक दिन पंडुम गीत’ की कविताओं में प्रागाधुनिक बस्तर की स्मृतियाँ तरल होकर बहती हुई समकालीन बस्तर की उजाड़ वास्तविकता में हिमजड़ित हो जाती हैं। उनके यहाँ बस्तर के भूगोल और इतिहास का, मिथक और यथार्थ का, उसके अतीत और वर्त्तमान के अनुभवों का विलय अनूठा विन्यास और धज प्राप्त करता है। इनमें अन्तर्वस्तु और शिल्प का सन्तुलन भी ध्यान खींचता है। पूनम का बस्तर निपट स्थानीय और समकालिक अनुभवों की गझिन अभिव्यक्ति में सहमता-चीत्कारता-हाँफते हुए पनाह के लिये भटकती हुई एक संकटग्रस्त सभ्यता है। वह ख़ून और धूल-माटी में लिथड़ा हुआ अतिक्रांत भूखण्ड है। छली गयी और छलनी कर दी गयी धरती के अभिशप्त जीवन का समूचा मर्म उनकी कविताओं में चीख़ बनकर मुखर है। रूमान और वास्तविकता का दुर्लभ सन्तुलन इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है। ये कविताएँ स्थानीयता की उस भूमि पर गहरी जड़ें पसारती हैं जो आधुनिक राष्ट्र-राज्य और पूँजी-तन्त्र द्वारा निर्मित सामाजार्थिकी के बीच सांस्कृतिक विस्मृति की जलवायु में ज़िंदा रहने के लिये अभिशप्त है-

तुम भूल जाओ हथेलियों में झोकर पानी पीना / यहाँ तक कि उन दो हथेलियों की दो उँगलियों को भी / जिन्हें रोटी के टुकड़े पकड़ने में कम और / आदिमकाल से हाथों में पकड़े अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए ज़्यादा इस्तेमाल किया / तुम भूल जाओ जंगल की उन पत्तियों को चबाना / जिनको जीभ पर धरते ही बदल जाता था मन का मौसम / भूल जाओ / चिड़ियों की भाषा में आने वाली आपदाओं के संकेत / शिकार के वक्त बुदबुदाने वाले मंत्र! / मृतक के पैरों में चावल की पोटली बांध कर / विदा करने की परम्परा! / कि मरने के बाद भी अपने प्रिय को भूखा न देख पाने की पीड़ा / तुम्हें किसी और मिट्टी में उगने नहीं देगी / तुम्हारी स्थानीयता ही तुम्हारी सँस्कृति की चेतना है।

पूनम वासम की तरह दिवंगत कवियों, शाकिर अली और त्रिजुगी कौशिक की बस्तर-केंद्रित कविताएँ भी यथार्थ से सीधी मुठभेड़ के साक्ष्य देती हैं। उनकी अभिव्यक्ति में कलात्मक होने का झमेला नहीं, बल्कि कलात्मकता के प्रति उदासीनता की हद तक, दो टूक कथन का खरापन है। शाकिर अली तभी वह कह पाते हैं- ‘बस्तर स्वर्ग है / और यहाँ के आदिवासी, अब स्वर्गवासी’ । शाकिर अली बस्तर में सक्रिय शासनतन्त्र, कारपोरेट लूटतन्त्र और माओवादी दमनतन्त्र के समेकित दबाव को प्रश्नांकित करते हैं। उनकी छोटी-छोटी कविताओं में हिंसा, दमन और नव औपनिवेशिक लुच्चेपन के मुँहज़ोर चित्र हैं, और बस्तर के आदिवासी जीवन की विकट असहायता भी-

हेमल गंगा की लाश पड़ी हुई थी / कोई हाथ नहीं लग रहा था / मृत्यु, संगीत रायपुर के एंथ्रोपोलॉजी विभाग के शोध कक्ष / की सीडी में कैद थे / स्मृति-चिह्नों को काठ मार गया था / परिवारजन अवरुद्ध कंठ चुपचाप / उसे दफनाकर वापस आ गए थे।

त्रिजुगी कौशिक की कविताओं में भी काव्य-सौष्ठव की बजाए प्रतिरोध की बेबनाव अभिव्यक्ति है-

मुर्गे को क्या मालूम / कि लडाने वाले दो हाँथो के पीछे/ कितने हाथ हैं / उन्हें तो बस मालिक के लिये / लडना है / और कहलाना है/ एक दिन शहीद!

समकालीन कविता बस्तर जो मंथर गति से साँस लेते स्वयंपूर्ण और आत्मतृप्त लोक की तरह नहीं देखती, उसके आंतरिक घर्षण, विघटन और मानवीय त्रासदियों की पहचान करते हुए उसे एक अभिशप्त मृत्युलोक के रूप में चित्रित करती है

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जय प्रकाश

लेखक साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर पिछले 25 वर्षों से लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919981064205, jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
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