बुधिया! … सम्बोधन में सिर्फ तुम्हारा नाम, बिना किसी विशेषण के, प्रेमचंद जी ने तो तुम्हें माधव की बीवी बुधिया कहकर कहानी आरम्भ की और ‘बैकुंठ की रानी’ बनाकर कहानी समाप्त कर दी मानो सचमुच तुम्हें मुक्ति मिल गयी। पर क्या सचमुच! सचमुच ‘तुम मायाजाल से मुक्त हो गयी…जंजाल से छूट गयी?’ पर बुधिया, तुम्हें ये घर-संसार रास क्यों न आया, तुमने क्यों इतनी जल्द मोह-माया के बंधन तोड़ दिये’? प्रसव वेदना से भीगी तुम्हारी दर्दनाक चीखें आज भी साहित्यिक गलियारों में गूंजती रहती हैं, जिसके सिर्फ एक मायने समझ में आते हैं मुझे, बुधिया! तुम बहुत कष्ट में थी! फिर मौन क्यों रही, आज भी स्त्री की ‘मौन अभिव्यंजना’ समझता कौन है?
संवाद के महत्व को जानते हुए भी प्रेमचंद जी तुम्हें एक अदद संवाद न दे पाए! सिर्फ़ कुछ चीखें… वो भी ‘पृष्ठभूमि’ में। काश, तुम भी जानती बुधिया कि ‘साहित्य का उद्देश्य’ में ‘सौन्दर्य की कसौटी’ बदलने की आकांक्षा रखने वाले प्रेमचंद जी ‘जीवन संग्राम’ में सौन्दर्य का चरमोत्कर्ष स्वीकार करते हैं। और जब सौन्दर्य की बात स्त्री सन्दर्भ करतें हैं तो वह सौन्दर्य उन्हें ‘मुरझाएं हुए होंठों और कुम्हलाएँ हुए गालों के आंसुओं में त्याग, श्रध्दा और कष्ट सहिष्णुता में’ मिलता है जो ‘उदास और उदासीन’ है और तुम्हारा ‘जीवन संग्राम’, मुरझाएं होंठ, कुम्हलाएँ गाल, जिन पर त्याग, श्रध्दा और कष्ट सहिष्णुता के आंसू थे, उसे प्रेमचंद जी क्यों न देख ही न पायें?
वरना एकाध बार तुम्हारे ‘उस उदास-सौन्दर्य’ का वर्णन करते मगर…इसलिए तो कह रहीं हूँ कि तुम ही जरा कुछ बोलती बुधिया, तो हम बहुत कुछ समझ पाते, तुम्हारे संवादों से कथा की मूल संवेदना भटक तो न जाती ना? लेकिन ये क्या, कथा के आरम्भ में ही तुम्हारा अंत हो गया! लेकिन माधव की स्मृति यानी फ्लैशबैक पद्धति में ही आकर कुछ कह जाती, जाने कितनी बातें खुलती, कितनी गलतफ़हमियां या खुशफ़हमियां दूर हो जाती पर तुम! तुम बुधिया, तुम तो अधूरा इतिहास छोड़, चली गयी बैकुंठ! अपना अंश भी साथ ले गयी। तुम्हारी जैसी जाने कितनी अधूरी कहानियों का इतिहास भरा पड़ा है एक अभागिन बिबिया भी थी, तुम्हें बैकुंठ में मिली क्या?
ओह! उसे कहाँ बैकुंठ में स्थान मिला होगा, वो तो जंगली लड़की थी न! पालतू बनने से इनकार कर दिया तो बेटे ने ही कलंक की कालिमा पोत दी, समाज को तो निष्काषित करना ही था, और जो ‘विद्रोह की कभी राख़ न होने वाली ज्वाला थी…कुछ न कर सकी तो मर गयी’ भदही यमुना के मटमैले पानी से बार-बार कुल्ला करते पागलों के सामान हँसते हँसते उसी में अन्तर्धान हो गयी। लेकिन बुधिया तुम तो पैदायशी पालतू थी न फिर भी तुम्हारा ये हश्र? काश! तुम कैसे भी करके बता पाती कि ‘स्त्रीमुक्ति’ बैकुंठ में ही क्यों संभव है? आज भी जबकि स्त्री-विमर्शों की भरमार है ‘स्त्रीमुक्ति’ का मार्ग कफ़न का मोहताज़ क्यों है?
तुम सोच रही होगी की मैंने कैसे अचानक तुम्हें याद किया? सच कहूँ तो भूल तो मैं भी गयी थी लेकिन अभी एक फिल्म देखी ‘बैकुंठ’ और वहाँ तुम्हें देखकर चौंक गयी, वो तुम्हीं थी बुधिया, बिलकुल तुम्हीं! लेकिन इक्कसवीं सदी के इस नये जन्म में भी तुम फिर उसी तरह ‘प्रसव-वेदना’ का कष्ट सहती हुई अपना सर्वहार कर वापस बैकुंठ चली गयी। मैं समझ नहीं पा रही हूँ बुधिया, कि जिस बदहाल, अभावग्रस्त भूख से संघर्ष करते हुए, दीन-हीन अवस्था में घीसू ने, 60 साल धृष्टता के साथ मज़े में निकाल दिये और माधव, उसके पदचिन्हों पर चलकर उसका नाम उजागर कर रहा है तो बुधिया उन्हीं परिस्थितियों में, तुम कैसे न जी पाई?
जबकि तुमने ही तोउनके ‘ख़ानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोज़ख भरती रही’ फिर वो कौन सी ‘व्यवस्था’ थी, जिसने तुम्हें बैकुंठ भेज दिया। ये भी तो सच ही है न, दूसरों का पेट भरने वाले अक्सर भूखे रह जातें हैं, पर तुम किसान तो न थी बुधिया। और ये क्या, जबकि खानदान फलने-फूलने का समय था तो शाख मुरझा गयी और चटक कर कर अलग भी हो गयी। ऐसा तो तभी होता हैं न, जब जड़े खोखली हों, उनमें कीड़ा लगा हो।
परिवेश, चरित्र और स्वयं प्रेमचंद जी वक्तव्य को सामाजिक परिदृश्य के साथ कथा-परिक्रमा करती हूँ तो मेरा ‘स्त्रीमन’ इतना ही समझ पाता है, बुधिया! तुम्हारी मृत्यु का कारण मात्र प्रसव-वेदना नहीं हो सकता, हाँ मानती हूँ, दवा-दारु, सेवा का अभाव था ‘भूख’ तो सर्वोपरि होगा ही लेकिन और भी कई जटिल कारण रहें होंगें जिनका तुमने जिक्र तक न किया और घुट-घुट कर मर गयी। हाँ, सही है, स्त्रियों को तो घुट-घुट कर ही जीने का सबक सिखाया जाता है, तुम्हें भी कब खुली हवा का अहसास मिला होगा?
सुनो, आज भी स्त्री को खुली हवा में साँस लेने के लिए लड़ना पड़ता है, कितना अजीब है न, अपनी ही चीज़ के लिए अपनों से ही लड़ना पड़े। तुमसे पूछने का मन हो रहा है बुधिया! तुमने अपने छोटे-से जीवन में कभी लड़ाई की क्या? खेल-खेल में ही सही, क्या कभी तुमने अपनी किसी पसन्द की चीज़ के लिए माँग की, और नहीं मिलने पर झगडा किया क्या? जानती हूँ लड़ना तो सिखाया ही नहीं गया होगा, क्या घर, क्या बाहर बस चुप रहो, सहो, और अपनी बात रखने का फायदा? ये भी तुमने बचपन में ही सीख लिया होगा। उन्हीं संस्कारों से बद्ध तुम ‘उस पराये’ घर से ‘इस पराये’ घर में आई।
जिस तरह से तुमने ‘इस पराये घर’ आकर घर-बाहर के कार्यों को कुशलता से संभाला हुआ था, कौन कहेगा तुम आत्मनिर्भर न थी, फिर विवाह, वो भी माधव से, क्यों? लगता है तुम्हारे माता-पिता के घर में भी रोज़ फांके लगते थे, बुधिया तुमने भी कभी सुना होगा कि पहले पेट पूजा पीछे काम दूजा एक पंक्ति ये भी है कि भूखे भजन न होए गोपाला फिर विवाह की जल्दी? ‘भूख’ ने उन्हें तुम्हारे शीघ्र विवाह के लिए विवश नहीं किया होगा, वही सदियों का परम्परागत सामाजिक दबाब होगा न? विवाह के बिना जीवन की मान्यता पर ही प्रश्नचिह्नलग जाया करता है, पर बिबिया? उसे तो तीन बार ब्याहा गया क्या हुआ, तुम्हें बता ही चुकी हूँ?
आज भी बुधिया बहुतयात में लड़कियों को जन्म के साथ ही बोझ माना जाता है, तुम्हारे पिता ने भी सोचा होगा, जो पहला रिश्ता मिले बाँध दो खूंटे से, जितनी जल्दी हो गंगा नहाकर आयें। और बहुत छोटी ही उम्र में तुम्हें ब्याह दिया, मुझे कैसे पता? तभी तो तुम्हारा कमजोर शरीर इतने दबाव एक साथ न झेल पाया। दूसरी ओर मधुआ! उसके निक्कमेपन को जानते समझते हुए आस-पास के गाँव में कौन उसे अपनी लड़की देता? जाने किस दूर-दराज के गाँव से खोजकर तुम्हें ले आए, ब्याह के नाम पर, समझ सकती हूँ, प्रसव के समय तुम्हारें घर सेकोई भी क्यों न न आया, हाँ ये भी हो सकता है कि तुम बिन माँ बाप की बच्ची हो, उन्होंने सोचा हो, किसी के भी साथ बाँध दो जून की रोटी तो मिल ही जायेगी।
पर बुधिया तुम तो उससे भी ‘महान आत्मा’ निकली, अपना ‘स्त्रीधर्म’ और पत्नी-धर्म खूब निभाया तुमने! जीते जी भी उनका दोज़ख भरती रही और मरने के बाद भी उनकी जिन्दगी भर की लालसा यानी एक बार भरपेट खाना खाने की तृप्ति, वो पूरी कर गयी। बुधिया, क्या तुम जानती हो कि आजकल जबकि कोरोनाकाल में चारों ओर बीमारी, भुखमरी, और बेरोजगारी से मौत का सामान तैयार हो रहा हैं, तुम्हारी ही तरह जाने कितनी ही कामकाजी बुधियाएं अपना पारिवारिक कर्तव्य निभा रहीं हैं, तुम्हारे आने पर जैसे माधव और घीसू आरामतलब हो गए थे बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे उसी तरह यहाँ लॉकडाउन में भी घर के पुरुष और भी आरामपरस्त और हिंसक होते गये, मनोवैज्ञानिक कहते हैं हताशा, निराशा, अवसाद की वजह से ऐसा हो रहा है लकिन स्त्रियाँ! उन्हें हताशा नहीं होती, उनकी निराशा का क्या? अवसाद के कारण तुम हिंसक क्यों नहीं हो गयी थी बुधिया? आज इन स्त्रियों पर दोहरा दबाब पड़ रहा है, मुझे तो लगता है सब तुम्हारे पास बैकुंठ में आएँगी, पूछना उनसे, इन दिनों के उनके अनुभव।
जानती हो बुधिया, हमारे साहित्यिक विद्वान समाज-मनोवैज्ञानिकों की तरह माधव और घीसू को तुम्हारी मृत्यु के लिए दोष तो देते रहें हैं लेकिन उसकी मूल जड़ वे उस सामन्ती व्यवस्था में खोजते हैं जिसके शोषण ने दोनों को अमानवीय और असंवेदनशील बना दिया स्वयं प्रेमचंद जी ने भी तो उनको ‘क्लीन चिट’ दे दी थी न? व्यंग्य में ही सही उन्होंने तो माधव और घीसू को किसानों से ज्यादा विचारवान माना कि ‘जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे वहाँ इस तरह की मनोवृति पैदा होना कोई अचरज की बात न थी’ वही मनोवृति, प्रकृति और स्वभाव तुम क्यों न अपना पाई?
कम से कम तुम्हें जी तोड़ मेहनत तो न करनी पड़ती और तुम्हारी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! तुमने उनकी तरह आकाश वृति क्यों न अपना ली? लेकिन ये भी क्या विडम्बना नहीं कि माधव-घीसू भी सामन्ती व्यवस्था से विद्रोह करने के बजाये तुम्हारे प्रति ही विरोध या अमानवीयता दिखाते हैं, वो भी ऐसी मार्मिक क्षणों में, जबकि तुम्हें उनकी सबसे ज्यादा ज़रुरत थी, तुम माधव से एक बार तो पूछती बुधिया, कि मैं मर रही हूँ, मैं पराई सही लेकिन मेरे गर्भ में तुम्हारा अंश है उसकी खातिर भी मेरा ध्यान न रखोगे?
मुझे विश्वास-सा नहीं होता कि अपने बालक के प्रति उसमें ममता और स्नेह न पनपा होगा? मन बिलकुल नहीं चाहता ये मानने को कि दलित परिप्रेक्ष्य में जो प्रक्षिप्त कहानी गढ़ी गयी, कि ये बच्चा जमींदार के दुष्कर्म का फल था कहीं…इसलिए ही तो गाँव वालों ने तुम्हारा बहिष्कार नहीं कर दिया? और गाँव की एक भी स्त्री ने भी तुम्हारे पास आना उचित न समझा और तभी क्या माधव चिढ़कर बोला-मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?
लेकिन उसके घिनौने कृत्य की सज़ा तुम्हें क्यों? जबकि‘बेदर्द माधव’ जिसने साल भर तुम्हारे साथ सुख-चैन से बिताये, मानवीयता के नाते ही सही, तुम्हारे हाथ को सहला भर देता। भूख ने क्या इतना विवेकहीन बना दिया था उसे? की तुम तेदेपा रही हो और वो भुने आलू खाने में मशगूल था या फिर आने वाला बालक ही उनकी चिंता का विषय था, पर इस अर्थ में कि तुम्हारी प्राथमिकताएं बदल जाएँगी उनका दोज़ख कौन भरेगा? लेकिन तुम्हारे मौन के कारण, तुम्हारी ही तरह कितना कुछ पृष्ठभूमि में चला गया न!
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स्त्री अस्मिता और विमर्श को प्रखरता से आरम्भ करने वाले विद्वान भी तुम्हें, तुम्हारी प्रसव वेदना, कफन और मौत के सन्दर्भ को कहानी से जोड़ ही न पाए, इसे मात्र घीसू-माधव के सामन्ती शोषण से जोड़कर ‘मानवता और मृत नैतिक हताशा की कहानी मान लिया जो मनुष्य के आदित्य को आदिम के स्तर तक ले आती है’ लेकिन इस अमानवीयता अथवा मृत नैतिकता का परिणाम बुधिया तुन्हें क्यों भुगतना पड़ा, इसलिए ही न! तुम मौन रही, बोली ही नहीं। मुझे तब तो बहुत कष्ट हुआ जब तुम बैकुंठ फ़िल्म में दुबारा आती हो, और फिर तमाम वैवाहिक, पारिवारिक, सामाजिक संस्कारों को अकेले ही ढोती, पुन: बैकुंठ चली जाती हो वो भी बिना कफ़न के, वैसे तो सन 36 में जब तुम बैकुंठ गयी थी तब भी कफ़न मिला था या नहीं, पता नहीं क्योंकि उस समय भी बहुत सी बातें अनकही रह गयी थी।
हाँ, संस्कारों से याद आया बुधिया, ‘त्याग की प्रतिमूर्ति’ सुधा भी तो वहीँ होगी न! चंदर की सुधा, जिसने विवाह की वेदी पर सहर्ष धीमे-धीमे अपने को होम कर दिया, और तमाम गुनाह करके भी चंदर ‘देवता’ बन संसार का भोग करता रहा। चाहे तो पूछ लेना सुधा से, उसे भूख की समस्या थोड़े ही थी, उसने तो खुद ही उपवास-व्रत कर अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर दी थी। बुधिया, एक बात बताओ न इहलौक की ज्ञात-सत्ता पर बैठे देवों के कारण उस बैकुंठ में अब तक तो देवियों का अम्बार लग गया होगा न?
तुम सभी उस सीमित जगह में रह कैसे पा रही हो? क्या वहाँ भी एडजस्ट करके रह रही हो? वहाँ भी समझौतावादी प्रवृति ने पीछा न छोड़ा। फिर फायदा क्या बार-बार जन्म लेने का? ‘त्याग की प्रतिमूर्ति’ बनने से तो बेहतर है ‘मौन का त्याग’ करो पूजा पाठ, भजन-कीर्तन से अच्छा है अपनी अभिव्यंजना को मुखर करो ताकि हम समझ पायें बुधिया कि तुम कफ़न ओढ़ने की स्थिति में क्यों और कैसे आई?
तुम्हारे संवाद का इंतज़ार रहेगा बुधिया! …