एक फिल्मकार का हलफनामा भाग : 15
गतांक से आगे
त्रिपुरारि शरण से बात कर पूना पहुंचा। पूना फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के गेट पर ऑटो से उतर प्रवेश किया तो संतरी ने रोका। मक़सद बताया तो फोन कर मेरा नाम पता हुलिया ले कहीं फोन किया और फिर रिसीवर रख कहा कि सीधे जाकर बाईं तरफ डायरेक्टर साहेब का चैंबर है, वहीं साहेब ने बुलाया है। चैंबर में दाख़िल हुआ तो त्रिपुरारि जी मुस्कुराते मिलें और बैठने को कहा। बैठा तो पूछने लगे कि आप से कभी भेंट नहीं हुई प्रकाश झा की “विद्रोह” के समय? उन्हें याद दिलाई कि जब दिन के खाने के समय आप उनका क्लास ले रहे थें तब वहाँ मैं भी मौजूद था और रात एसपी आर. के. सिंह के यहाँ पार्टी चल रही थी तब मैं भी विजयकांत के साथ था। वे मुस्कुरा कर बोलें कि आप थके होंगे, जाकर नहा धो कर आराम करें। शाम आता हूं तो बात होगी और एक पिऊन को बुला मेरा सामान उठाने को कह उसे कहा कि इन्हें क्वार्टर पहुंचा दो।
क्वार्टर में दाखिल होते ही उनका साउथ इंडियन खानसामा मेरा इंतजार करता मिला। गेस्ट रूम में मेरा सामान रखवा अटैच्ड बाथरूम दिखला नहाने को कह चला गया। नहाने की तैयारी कर ही रहा था तबतक वह चाय रखते बोला – ‘सर आप नहा लें, तबतक खाना तैयार कर देता हूं।’
नहा धो कर कपड़ा पहन रहा था तो खानसामा आकर बोला कि सर, खाना लगा दिया है, चलिए। डाइनिंग टेबल पर बैठा तो देखा कि प्लेट सजी है और पास ही दो डोंगे ढके रखे हैं। वह गर्म रोटी लाकर प्लेट में रखा और दोनों डोंगे को खोल सब्जी दो कटोरी में डाली। एक में आलू परवल तो दूसरे में मेरी मनपसंद सब्जी करेला। भूख जोरों पर थी और गर्मागर्म आती रोटी के कारण छक कर खाया और अघाकर सोने चला गया। नींद खुली तब, जब खानसामा ने जगाया कि साहेब चाय पर बुला रहे है।
चाय पीते हुए स्क्रिप्ट पर बात हुई तो उन्होंने कहा कि इसके फिल्मांकन के लिए किस तरह के सेट की जरूरत है? मैंने उस काल के कलकत्ते के गवर्नर के चैंबर की रूपरेखा बताई तो वे बोलें कि कल ऑफिस में आइए, वहीं सेट डिजाइनर को बुलावा दूंगा उसे समझा दीजिएगा। मैं वापस अपने रूम में आ गया।
शाम ढली तब खानसामा आकर कहा कि साहेब बुला रहे हैं। बैठक में दाख़िल हुआ तो देखा एक उम्रदराज व्यक्ति के साथ त्रिपुरारि जी जाम टकराते बात कर रहें हैं। मुझपर नज़र पड़ते ही कहा – “आइए बैठिए।” और गिलास दिखाते पूछा – “लेते हैं?” तो बैठते हुए कहा कि कभी-कभी नहीं भी लेता हूं। उनके साथ बैठे व्यक्ति ने ठहाका लगाते कहा – “भई वाह ! क्या खूब कही।” मेरी बात सुन त्रिपुरारि जी भी हंसते हुए खानसामा से एक और गिलास लाने को कहा और मेरा परिचय आगंतुक से कराते बताया कि ये गया निवासी मेरे संगीत गुरू हैं। अभिवादन के बाद देर रात तक सत्संग करते संगीत पर बात होती रही। गुरुजी बीच-बीच में तान छोड़ अलापते रहें। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा कि उन संगीतज्ञ महोदय का नाम अभी याद नहीं कर पा रहा।
पुणे फिल्म संस्थान में आज उन्हीं संगीतज्ञ गुरुजी के सम्मान में एक संगीत संध्या का आयोजन था। शाम होते ही लोग उनके आवास के बड़े से ड्राइंग हॉल में जुटने लगे थे। संस्थान में त्रिपुरारि जी स्टूडेंटों के बीच काफी लोकप्रिय दिखे। इस लोकप्रियता के पीछे उनका सभी से मित्रवत व्यवहार था, चाहे वे संस्थान के फकल्टी लीडर हों या स्टूडेंट्स। इसी कारण कई स्टूडेंट इस आयोजन को सफल बनाने में जी जान से भिड़े थे। जमघट जम गई तो जाम चलने लगा और गुरुजी का तान भी। इसी बीच मेरे बगल में लाल-लाल गाल पर सफेद खूंटी नुमा दाढ़ी वाला व्यक्ति आकर बैठा तो लगा कि जाना पहचाना चेहरा है। पहचानने की कोशिश में गौर से उन्हें देखने लगा। गुरुजी के अलाप पर ‘वाह क्या बात है’ की ध्वनि से चौंका। अरे ये तो टॉम अल्टर हैं ! अब मैं चकित हो उन्हें देख रहा था तो उन्होंने जाम सिप करते मुझे देख मुस्कुरा दिए। मैं झट अपनी अवाकता पर झेंपता मुस्कुरा कर अभिवादन किया तो उन्होंने ने भी प्रत्युत्तर में पुनः मुस्कुरा दिया। इसी बीच त्रिपुरारि जी ने एक स्टूडेंट को आवाज दी – “देखो, पेंटल का गिलास खाली है।” तब मेरी गर्दन अपलक देखते टॉम अल्टर की ओर से मुड़कर पेंटल की ओर मुड़ी। क्रीम कलर के सेफाली सूट में पेंटल को पलथी मारे सभी के साथ बैठे देखा।
टॉम अल्टर अपने निकट बैठे व्यक्ति से हिन्दी में बात कर रहें थे। उनका हिन्दी ज्ञान और उच्चारण सुन हम जैसे बिहारियों के लिए, जो ‘मैं’ को सदा ‘हम’ ही बोलते हैं ! अचरज से कम न लगा। बहुत ही तल्लीन हो उन्हें सुन रहा था तो वे मुझसे मुखातिब हुए। अपना परिचय देते अपनी फिल्म संबंधित कुछ बातें बताई तो सुनकर बधाई दी।
दूसरे दिन त्रिपुरारि जी ने बताया कि आपने गवर्नर और एक सिपाही की भूमिका के लिए यहीं के किसी आर्टिस्ट को लेने की बात की थी, उसी के मुतल्लिक आपकी फिल्म में गवर्नर की भूमिका के लिए टॉम अल्टर को तैयार कर लिया है, वे सेट तैयार होने वाली तिथि को पहुंच जायेंगे। यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना न था। टॉम अल्टर पूना फिल्म संस्थान में गेस्ट लेक्चरर के तौर पर बुलाए जाते रहते हैं। उस दिन भी वे और पेंटल लेक्चर देने आए हुए थे।
बचपन से ही हिन्दी के प्रति अनुराग रखने वाले अमेरिकी मूल के टॉम अल्टर का जन्म मसूरी में हुआ था। हिन्दी फिल्म देखने के शौकीन टॉम अल्टर ने जब राजेश खन्ना की आराधना फिल्म देखी तो इन्होंने अभिनय की ओर रुख किया और इसी पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में अपना दाखिला कराया जहाँ नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी और बेंजामिन गिलानी के साथ अभिनय की बारीकियां सीखी और सत्यजीत राय जैसे महान फिल्मकार के साथ “शतरंज के खिलाड़ी” में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी। ये मेरी फिल्म में होंगे ! यह सुनकर ही मैं आकाश में उड़ने लगा और सेट तैयार होते देखना सुबहो-शाम में शामिल हो गया।
टॉम अल्टर से बात करने से पूर्व एक्टिंग क्लास के एक फ्रेंच स्टूडेंट को इसी काम के लिए त्रिपुरारि जी ने मुझसे मिलवाया और कहा कि इससे बात करके देख लें। दिखने में एक तो वो गवर्नर की तरह नहीं दिख रहा था, क्योंकि शरीर से बहुत ही दुबला-पतला छोहारा किस्म का सा दिखता था, दूसरा उसके अंग्रेजी उच्चारण पर फ्रेंच का स्पष्ट प्रभाव था। यह बात त्रिपुरारि जी को बताई थी शायद यही सोचकर उस दिन टॉम अल्टर को देख उन्होंने बात कर उस भूमिका के लिए राजी कर लिया था। यह जानकर मैं सेट बनने तक उतावला रहा। अंग्रेज सिपाही की भूमिका के लिए वहीं के एक स्टूडेंट को उन्होंने कह रखा था।
संस्थान के जिस हॉल में गवर्नर के ऑफिस का सेट तैयार हो रहा था उसे नित्य उसी उतावलेपन से मुआयना करता रहा। समय काटने अक्सर वहाँ के एक फकल्टी लीडर मिस्टर पाठक के पास चला जाता। त्रिपुरारि जी ने उनसे मिलवाते हुए कहा था कि कुछ जरूरत हो तो इनसे आप सीधे मिलकर बात कर सकते हैं। उनके चैंबर का दरवाजा नॉक कर घुसा तो पाठक जी उठकर तपाक से मिले और बैठते हुए पूछे – “कहिए कैसे आना हुआ?” उन्हें बताया कि सेट तैयार होने के बाद कुछ प्रॉपर्टीज की जरूरत पड़ेगी, वो सब कहाँ मिलेगी? उन्होंने कहा – “नो प्रोब्लम। कई प्रॉपर्टीज सप्लायर है, जो यहाँ सप्लाई करता है। लेकिन आप की फिल्म सौ साल पूर्व की पृष्ठभूमि पर है तो एक सप्लायर है जो आपके मनानुसार सामान दे देगा। आप चिंता न करें, उसके पास एंटीक सामानों का खजाना है।
एड्रेस ले उस सप्लायर के पास पहुंचा। वह उसका ऑफिस नहीं घर था और एंटिक सामानों से भरा पूरा। बहुत ही उम्रदराज गुलथुल व्यक्ति के ‘क्या चाहिए’ के सवाल पर अपनी जरूरत बताई तो उन्होंने फिर सवाल किया- “किस काल का सामान? मतलब वर्ष बताएं, 1850,60, 90 या 1900? जिस साल का जो चाहिए मिलेगा”। बगल में टेबल पर रखे बड़े बड़े मर्तवान की ओर इशारा कर कहा- “उधर देखें, इसमें 1865 से 1950 तक के बटन, हर वर्ष का अलग मर्तवान, उधर- हर वर्ष की माचिस के खोल। आपको जो सामान चाहिए उसकी लिस्ट के साथ वर्ष का उल्लेख कर दे, सब मिल जायेगा। आमीर खान की मंगल पाण्डे में मैंने ही सारी प्रॉपर्टीज हाल में सप्लाई की थी, ड्रेस भी। और भी सामान देखना चाहते है, फर्नीचर आदि तो”, और उन्होंने अपनी बेटी को आवाज दे बुलाया और कहा कि इन्हें गोदाम दिखा दो। उसके साथ नीचे जाकर एक विशाल गोदाम में प्रवेश किया तो हैरान ! तरह-तरह के ऐंटिक फर्नीचर, कुर्सी, टेबल, मेज, बेंच, आराम कुर्सियां, साधारण घरों में होने वाले फर्नीचर से लेकर हर काल में धन्नासेठ-जमींदार -राजे-महराजों तक के उपयोग में आने वाले फर्नीचर और अन्य दुर्लभ वस्तुएं ! अंदाजन यह गोदाम कई कट्ठा में फैला हुआ लगा।
इस हैरान कर देने वाले दृश्य देख लौटा तो उन महानुभाव ने पूछा – “आप के काम का कुछ दिखा, नहीं तो दूसरा गोदाम दिखाऊं?” हतप्रभ हो मैंने कहा कि नहीं, मुझे हिस्टोरिकल फिल्म के लिए एक छोटा सा सीन पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में फिल्माना है। सेट तैयार हो रहा है। कलकत्ता में 1880 – 85 के समय के अंग्रेज गवर्नर के चैंबर का दृश्य फिल्माना है….। मेरी बात काटते हुए उन्होंने कहा – “समझ गया, आप को गवर्नर के चैंबर में होने वाली बड़ी सी टेबल, टेबल के आगे कुछ लकड़ी की चमकती कुर्सियां, टेबल पर होने वाले उस काल के साजो सामान, गवर्नर के बैठने की नक्काशीदार कुर्सी, उसके पीछे गवर्नर के कोट, टोपी आदि रखने के स्टैंड, कॉर्नर पर लंबे स्टूल पर रखने के लिए बड़ी सी सीसे की लैंप, एक कोने पर लंबी मेज पर उस काल की कुछ अंग्रेजी की पुस्तकें, दीवाल पर लगाने के लिए महारानी विक्टोरिया की फ्रेम जड़ित भव्य तस्वीर तथा इंग्लैंड और उनके उपनिवेश का नक्शा, साथ ही गवर्नर के पहनने वाला सूट और सिपाहियों का ड्रेस आदि?”
मैंने कहा कि आपने तो मेरी पूरी लिस्ट ही बांच दी। हंसकर वे बोले कि अभी हाल ही में मंगल पाण्डे फिल्म में ये सब बड़े पैमाने पर सप्लाई किया था। और आप का भी पीरियड लगभग उसी के दो दशक बाद का है। खाली वायसराय दूसरा है। उन्हें कहा कि मुझे बहुत ही छोटे स्तर पर चाहिए। चलते वक्त उन्होंने कहा – “एक दिन पूर्व सामानों का लिस्ट दे देंगे और एक्जैक्ट वर्ष भी तो समय से सब सामान इंस्टीट्यूट भेजवा दूंगा।” लौटते हुए उनके एंटीक सामानों के जखीरा पर सोच रहा था कि वे इस क़दर वैसा सामान किस तरह जुटा पाएं होंगे? यह पूछने पर उन्होंने बताया था कि जब देश की आज़ादी के बाद धीरे-धीरे अंग्रेज यहाँ से जाने लगे तो अपना घर और सामान हुंडे बेचते गए। पुरानी चीजों को खरीद इकट्ठा करने का पहले मुझे शौक था, जो आगे चलकर व्यवसाय में परिणत हो गया। किसी भी फिल्मकार को जब कोई हिस्टोरिकल या किसी काल को दर्शाने की जरूरत होती है तो प्रायः मेरे ही पास आते हैं। वैसे कई लोग अब इस व्यवसाय में आ गए हैं किन्तु जो चीजें और जिस मात्रा में मेरे पास है, उतनी शायद ही यहाँ किसी के पास हो।