
आधुनिकता और भूमण्डलीकरण
पश्चिमी यूरोप में आधुनिकता की आहट औद्योगिक पूँजीवाद के उदय के साथ अठारहवीं शताब्दी के आसपास सुनाई पड़ने लगी थी। उसी समय सड़कों से लेकर सेनाओं तक तमाम चीजों के नियोजन और पुनर्निधारण के लिए तकनीकी तार्किकता का इस्तेमाल भी बढ़ने लगा था। भारत में अँग्रेजों के पहले मुगल और दूसरी सेनाओं में भी बढ़ती नौकरशाही व्यवस्था के साथ आधुनिकता की आहट सुनाई पड़ने लगी थी। जब इस पूरे इलाके पर अँग्रेज काबिज होने लगे तो आधुनिकता को और बल मिला तथा वह अपने अनूठे ढंग से विकसित होने लगी।
बहुत लोगों के अनुसार आधुनिकता की एक बड़ी समस्या यह है कि आधुनिकता स्थानीय विविधताओं को नजरअंदाज कर देती है और सब पर एक ही उत्तर थोपने का प्रयास करती है। यह एक सार्वभौमिक चरित्र का दिखावा तो करती है, मगर वास्तव में यह सार्वभौमिक नहीं होती। सार्वभौमिकता का दिखावा असल में दूसरे विकल्पों का दमन होता है। जब भी हम संस्कृति और पहचान के धरातल पर आधुनिकता को लागू करते हैं, जिसमें नौकरशाहीकरण और पूँजीवाद भी शामिल है, तो हर जगह समस्याएँ सिर उठाते लगती हैं। अब लोग आधुनिकता के खिलाफ संघर्ष भी छेड़ने लगे हैं। ये आलोचक कहते हैं कि आज का यह समय आधुनिकता की अस्वीकृति का, उसको खारिज करने का है। उनके अनुसार, ईरान से लेकर अमेरिका तक तमाम देशों के लोग फिर से पहचान और धर्म की ओर लौटने लगे हैं। आधुनिकता के शिखर काल में विज्ञान की सर्वोच्चता इस अपेक्षा पर आधारित थी कि वह हर चीज का उत्तर दे सकता है। लेकिन, हमारे उथल-पुथल भरे दौर को देखकर ऐसा लगने लगा है कि किसी भी चीज का कोई एकल उत्तर हो ही नहीं सकता। हमारे सामने असंख्य संस्कृतियाँ हैं और हम इस बात को स्वीकार करते जा रहे हैं कि वे हमेशा हमारे साथ अस्तित्व में रहने वाली हैं। इस तरह के आलोचकों की राय में नौकरशाही और तर्कशीलता को खारिज करना अनिवार्य है।
बीसवीं शताब्दी के मध्य में आधुनिकतावादी सिद्धांत का बडा बोलबाला सुनाई पड़ता था। यह सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित था कि अंततः सारे देश पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के विकसित देशों जैसे बन जाएँगे। कहा जा रहा था कि जब हर देश एक निर्वाचित संसद की स्थापना कर लेगा, वहाँ अमेरिका और सोवियत संघ जैसी नौकरशाही संस्कृतियों के अनुसार चलने वाले उद्योग होंगे, वहाँ अमेरिका और सोवियत संघ जैसे विश्वविद्यालय होंगे, तो हर देश आधुनिकीकरण की उच्च अवस्था में पहुंच जाएगा। आज आधुनिकीकरण का यह सिद्धांत क्षत-विक्षत पड़ा दिखाई पडता है। उदाहरण के लिए जापान अमेरिका के मुकाबले बिल्कुल अलग ढंग की औद्योगिक प्रबन्धकीय संस्कृति के सहारे एक बेहद ताकतवर आर्थिक शक्ति बन गया। सिंगापुर और सऊदी अरब लोकतन्त्र के अंशमात्र के बिना भी दुनिया के सम्पन्न राष्ट्रों में है।
कुछ लोग पहचान के उदय और सार्वभौमवाद के सामने मौजूद चुनौतियों के बल पर यह घोषणा कर रहे हैं कि हम एक उत्तर-आधुनिक युग में पहुँच गये हैं, जहाँ आधुनिकता का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। उनका कहना है कि आधुनिकता के अपने लाभ हैं, मगर अब हम उस अवस्था के आगे आ चुके हैं। इसके विपरीत, कुछ लोग हैं, जो कहते हैं कि आधुनिकता यों भी कभी कोई बहुत महान विचार नहीं था और हमारे प्राचीन तौर-तरीके इससे कहीं बेहतर थे। उनकी घोषणा है कि जितना जल्दी हम अपने पुरखों के तौर-तरीकों पर लौट जाएँगे, अब सबके लिए उतना ही बेहतर होगा। अगर हम पहले समूह को उत्तर-आधुनिकतावादी कहते हैं, तो दूसरे समूह को आधुनिकता विरोधी कहा जा सकता है। इनके अलावा कुछ ऐसे भी हैं, जो पहचान व संस्कृति तथा उनकी तरफ से आधुनिकता पर खड़े किये गये सवालों को समझने के लिए एक ज्यादा एहतियात भरा रुख अपनाते हैं। उनका कहना है कि आधुनिकता अभी भी एक सामाजिक रुझान के रूप में हमारे सामने विद्यमान है और यह विदा नहीं हुआ है। इन लोगों का कहना है कि हमारा दौर उत्तर-आधुनिकता का नहीं, बल्कि आधुनिकता की ही उत्तरवर्ती अवस्था का समय है। यह एक ऐसा दौर है जब हम आधुनिकता को खारिज करने के बजाय इसको सुधारने और इसमें संशोधन का प्रयास कर रहे हैं। उनका कहना है कि जिन मूलभूत प्रक्रियाओं ने आधुनिकता को आकार दिया है, अभी भी वे हमारे साथ हैं। हम अभी भी जटिल समाजों में मिलकर साथ रहने की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। बाजारीकरण और पूँजीवाद अभी भी दुनिया में सबसे निर्णायक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ हैं। नौकरशाहीकरण अभी भी संस्थानों की कार्यशैली का निर्णायक आधार है। अगर कोई बदलाव आया भी है तो वह यही है कि इन सारी परिघटनाओं की ताकत और बढ़ गयी है, बजाय इसके कि उसमें कमी आती।
व्यावहारिकता की बजाय संस्कृति-केन्द्रित जीवन और पहचान की इंसानी चाह के लिए आधुनिकता द्वारा प्रस्तुत की गयी चुनौतियों के चलते प्रायः आधुनिकता को नकार दिया गया है। कुछ लोगों का तर्क है कि आधुनिकता पहचान को विकृत करती है, उसे दूसरों पर प्रभुत्व की एक हिंसक, आक्रामक चाह में तब्दील कर देती है। मसलन वैश्वीकरण दुनिया पर प्रभुत्व की चाहत पर आधारित सोच रहा है। वैश्वीकरण इस्लामिक पहचान के एक ऐसे बोध को भी सींच रहा है जो दुनिया के विशाल भागों पर राजनीतिक नियन्त्रण को बहाल करने के लिए खलीफाओं के जमाने को बहाल करना चाहता है। मगर हमारे सामने ऐसे लोग भी हैं, जो यह दलील देते हैं कि आधुनिकता के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। आधुनिकता हमें ज्यादा नयी, ज्यादा विस्तृत पहचानें रचने का अवसर भी उपलब्ध कराती है। उदाहरण के लिए, टैगोर की यही आशा थी जब उन्होंने यह चाहत व्यक्त की थी कि हमारा राष्ट्रवाद देश के पड़ोसियों के प्रति घृणा की बजाय संस्कृतियों के खिलने पर आधारित हो। यह राष्ट्रवाद की एक ऐसी कल्पना थी जो अपनी ऊर्जा और जीवन्तता के लिए पड़ोसियों से भयभीत या उनसे घृणा पर आधारित नहीं थी। बहुत सारे लोगों का मानना है कि आधुनिकता ने पहचान का एक ज्यादा संकुचित, ज्यादा आक्रामक बोध को जन्म दिया है जो तमाम तरह के मतभेदों और विविधताओं को कुचलकर इस बात पर जोर देता है कि एक राष्ट्र में केवल एक ही संस्कृति हो सकती है। मगर साथ ही हमारे पास ऐसे चिन्तक भी हैं जो विश्वास रखते हैं कि हमारे नागरिक सिर्फ एक संस्कृति या एक समुदाय के सदस्य नहीं हैं, बल्कि वे बहुत सारे समुदायों और संस्कृतियों से भी सम्बद्ध हैं। यह आधुनिकता का नकार नहीं है बल्कि उसके परे जाने, उसे और विस्तार देने, उससे और सीखने का तर्क है।
एँथनी गिडन्स जैसे बहुत सारे विद्वानों ने इस रवैये को एक विवेकशील (रिफ्लेक्टिव) आधुनिकता की ओर बढ़ने की चाहत का नाम दिया है। उनके अनुसार, यह विश्वास अब तक जो कुछ हुआ है, उसकी समीक्षा करने और उसको बेहतर बनाने की एक चेष्टा है। आधुनिकता के लाभों को संभाले बिना उसको पूरा का पूरा खारिज कर देना खुद को पुनः अंधकार-युग में धकेल देने जैसा कृत्य होगा। बेहतर होगा कि बहुत सारे संवर्धनकारी सुधार आधुनिकता पर केन्द्रित किये जाएँ। इसके लिए हमें एक ऐसी समीक्षात्मक प्रक्रिया से गुजरना होगा जो यह सवाल खड़ा करे कि हम दरअसल क्या करना चाहते हैं- हम एक ऐसी व्यवस्था रचना चाहते हैं जो हमारी मानवीयता को अभिव्यक्ति दे या एक ऐसी व्यवस्था रचना चाहते हैं जो केवल और अधिक मुनाफे और अधिक नियन्त्रण की चाहत को बढ़ावा दे।
हम पिछले दिनों तक अपने सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार को प्रायः परम्परा और आधुनिकता का एक जटिल मिश्रण कहकर एक सरलीकृत उत्तर देने की कोशिश करते थे, जबकि इनके अपने निर्धारित सत्व हैं। इसमें इन परम्पराओं की पहचान दो मुख्य गुणों से होती है-बहुलता एवं तर्क-वितर्क की परम्परा। भारतीय परम्पराओं में लगातार परिवर्तन होते रहे हैं और उन्हें पुनर्परिभाषित करने की सामाजिक-बौद्धिक चेष्टा कभी नहीं रूकी है। इसका साक्ष्य 19 वीं सदी के समाज-सुधारों और उनके आन्दोलनों में दिख चुका है। ये प्रक्रियाएँ आज भी जीवंत हैं।
आधुनिक पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का मतलब ऐसी प्रक्रिया है जिसमें धर्म के प्रभाव में कमी आती है। आधुनिकीकरण के सिद्धांत के सभी प्रतिपादक विचारकों की मान्यता रही है कि आधुनिक समाज ज्यादा से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष होता है। धर्मनिरपेक्षीकरण के सभी सूचक मानव के धार्मिक व्यवहार उनके धार्मिक संस्थानों से सम्बन्ध (जैसे चर्च में उनकी उपस्थिति), धार्मिक संस्थानों का सामाजिक तथा भौतिक प्रभाव और लोगों के धर्म में विश्वास करने की सीमा को विचार में लेते हैं। यह माना जाता है कि धर्मनिरपेक्षीकरण के सभी सूचक आधुनिक समाज में धार्मिक संस्थानों और लोगों के बीच बढ़ती दूरी के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, लेकिन हाल ही में धार्मिक चेतना में अभूतपूर्व वृद्धि और धार्मिक संघर्ष के उदाहरण सामने आये हैं।
हालांकि अतीत की भांति एक विचार यह भी है कि आधुनिक युग धार्मिक जीवन को आवश्यक रूप से विलुप्त करेगा। भारत में किये जाने वाले कुछ अनुष्ठानों में प्रत्यक्ष रूप से धर्मनिरपेक्षीकृत प्रभाव भी रहा है। वस्तुतः अनुष्ठानों के धर्मनिरपेक्ष आयाम पंथनिरपेक्षता के लक्ष्यों से पृथक होते हैं। इनसे पुरुषों और महिलाओं को अवसर मिलता है कि वे अपने मित्रों-सहेलियों से और अपनी उम्र से बड़े लोगों से भी घुलें-मिलें और अपनी सम्पत्ति का भी कपड़े और जेवर पहनकर प्रदर्षन करें। पिछले कुछ दशकों से अनुष्ठानों के आर्थिक, राजनीतिक और परिस्थिति आयामी पक्ष ज्यादा उभर कर सामने आये हैं। दिखावे की प्रवृत्ति को इस बात से समझा जा सकता है कि शादी-ब्याह के अवसर पर घर के बाहर लगी मोटर गाडियों की कतार और अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति (वीआईपी) के मेहमान बनकर आने को उस परिवार की समृद्धि व विशेषता समझा जाता है। स्थानीय समुदाय में ऐसे परिवारों को ऊँची नजर से देखा जाता है।
जाति के धर्म-निरपेक्षीकरण का अर्थ किस तरह लिया जाए इस पर भी जबरदस्त वाद-विवाद होता रहा है। पारम्परिक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था धार्मिक चैखटे के अंदर क्रियाशील थी। पवित्र और अपवित्र से सम्बन्धित विश्वास व्यवस्था इस क्रियाशीलता का केन्द्र थी। आज के समय में जाति एक राजनीतिक दबाव समूह के रूप में ज्यादा कार्य कर रही है। समसामयिक भारत में जाति संगठनों और जातिगत राजनीतिक दलों का उद्भव हुआ है। यह जातिगत संगठन अपनी मांग मनवाने के लिए दबाव डालते हैं। जाति की इस बदली हुई भूमिका को जाति पंथ-निरपेक्षीकरण कहा गया है।
रजनी कोठारी के अनुसारः ‘सभी जानते हैं कि भारत में पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था जाति-संरचना और जातीय पहचान के इर्द-गिर्द संगठित है। लेकिन आधुनिक परिदृष्य में जाति और राजनीति के सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए आधुनिकता के सिद्धान्तों से बना नजरिया एक प्रकार के भय से ग्रसित होता है। वह इस प्रश्न से शुरू होता है कि क्या जाति समाप्त हो रही है। निश्चित रूप से कोई भी सामाजिक व्यवस्था इस तरह समाप्त नहीं हो जाती। एक ज्यादा उपयोगी दृष्टि अलबत्ता यह होगी कि आधुनिक राजनीति के प्रभाव में जाति कौन-सा रूप लेकर सामने आ रही है और जातिअभिमुखित समाज में राजनीति की क्या रूपरेखा है?
जो लोग भारतीय राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, दरअसल वे ऐसी राजनीति की खोज में हैं, जिसका समाज में कोई आधार ही नहीं। राजनीति एक प्रतियोगात्मक प्रयास है जिसका उद्देश्य होता है शक्ति पर कब्जा कर कुछ निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति करना। एक महत्त्वपूर्ण बात संगठन का होना तथा सहायता का निरूपण है। जहाँ राजनीति जन-आधारित हो वहाँ ऐसे संगठन के द्वारा जिससे जन साधारण का जुड़ाव हो, सहायता का निरूपण किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ जातीय संरचना एक ऐसा संगठनात्मक समूह प्रदान करती है, जिसमें जनसंख्या का एक बड़ा भाग निवास करता है, राजनीति को ऐसी ही संरचना के माध्यम से व्यवस्थित करने का प्रयत्न करना चाहिए। राजनीतिज्ञ जाति-समूहों को इकट्ठा करके अपनी शक्ति को संगठित करते हैं। जहाँ अलग प्रकार के समूह और संस्थानों के अलग आधार होते हैं। राजनीतिज्ञ उन तक पहुंचते हैं और जैसे कि वे कहीं पर भी ऐसी संस्थाओं के स्वरूपों को परिवर्तित करते हैं वैसे ही जाति के स्वरूपों को भी परिवर्तित करते हैं।
आधुनिकता के पश्चिमी विचारों ने भारतीय राष्ट्रवादियों की काल्पनिकता को निर्मित किया। कुछ पारम्परिक शास्त्रों और ग्रंथों को एक नये दृष्टिकोण देने के लिए तत्पर हुए, जबकि एक अन्य समूह ने इन पारम्परिक ग्रंथों को अमान्य करार दिया। पश्चिमी सांस्कृतिक स्वरूपों की हमारे समाज में पैठ हुई। इसके अनुरूप ही सब नये प्रकार के सामाजिक व्यवहार के मानदण्ड सामने आये कि पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का आचरण किस प्रकार का हो? कलात्मक अभिव्यक्तियों में भी इसकी छाप नजर आयी। हमारे समाज सुधार आन्दोलनों और राष्ट्रीय आन्दोलन पर पाश्चात्य समानता और लोकतन्त्र के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। इन सबसे एक ओर जहाँ पश्चिमी विचारों को भारतीय समाज में स्वीकृति मिली, वहीं दूसरी तरफ भारतीय परम्परा पर प्रश्न किये गये तथा उसकी पुनर्व्याख्या की गयी।
यह सही है कि भूमण्डलीकरण का सामाजिक आशय बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेकिन समाज के विभिन्न हिस्सों पर इसका प्रभाव बहुत ही भिन्न प्रकार का होता है। इसलिए भूमण्डलीकरण के प्रभाव के बारे में लोगों के विचार एक समान न होकर बहुत ही विभाजित हैं। कुछ का विश्वास है कि भूमण्डलीकरण बेहतर विश्व के अग्रदूत के रूप में अत्यंत आवश्यक है। दूसरों को डर है कि विभिन्न समूहों के लोगों पर भूमण्डलीकरण का असर बहुत ही अलग-अलग प्रकार का होता है। उनका कहना है कि अधिक सुविधा-सम्पन्न वर्गों में बहुत से लोगों को तो इससे लाभ होगा लेकिन पहले से ही सुविधा-वंचित आबादी के बहुत बड़े हिस्सों की हालत बद से बदतर होती चली जाएगी।
भूमण्डलीकरण संस्कृति को कई प्रकार से प्रभावित करता है। हम जानते हैं कि युगों से भारत सांस्कृतिक प्रभावों के प्रति खुला दृष्टिकोण अपनाए हुए है और इसी के फलस्वरूप यहाँ सांस्कृतिक दृष्टि में कई बड़े-बड़े सांस्कृतिक परिवर्तन हुए हैं, जिनसे यह डर पैदा हो रहा है कि कहीं हमारी स्थानीय संस्कृतियाँ पीछे न रह जाएँ। हमारी सांस्कृतिक परम्परा ‘कूपमंडूक’ यानी जीवन भर कुएँ के भीतर रहने वाले उस मेंढक की स्थिति से सावधान रहने की शिक्षा देती रही है जो कुएँ से बाहर की दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानता और हर बाहरी वस्तु के प्रति शंकालु बना रहता है। वह किसी से बात नहीं करता और किसी से भी किसी विषय पर तर्क-वितर्क नहीं करता। वह तो बस बाहरी दुनिया पर केवल संदेह करना ही जानता है। सौभाग्य से हम आज भी अपनी परम्परागत खुली अभिवृत्ति अपनाए हुए हैं। इसलिए हमारे समाज में राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर ही नहीं बल्कि कपड़ों, शैलियों, संगीत, फिल्म, भाषा, हाव-भाव आदि के बारे में भी गरमागरम बहस होती है। 19 वीं सदी के सुधारक और प्रारम्भिक राष्ट्रवादी नेता भी संस्कृति तथा परम्परा पर विचार-विमर्श किया करते थे। मुद्दे वर्तमान में भी कुछ दृष्टियों में वैसे ही हैं और कुछ अन्य दृष्टियों में भिन्न भी हैं। शायद अंतर यही है कि अब परिवर्तन की व्यापकता और गहनता भिन्न है।
मुख्य रूप से यह दावा किया जाता है कि सभी संस्कृतियाँ एक समान यानी सजातीय (होमोजिनस) हो जाएँगी। कुछ अन्य का यह मत है कि संस्कृति के भूस्थानीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। भूस्थानिकरण का अर्थ है- भूमंडलीय के साथ स्थानीय का मिश्रण। यह पूर्णतः स्वतः प्रवर्तित नहीं होता और न ही भूमण्डलीकरण के वाणिज्यिक हितों से इसका पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किया जा सकता है। यह एक ऐसी रणनीति है जो अक्सर विदेशी फर्मों द्वारा अपना बाजार बढ़ाने के लिए स्थानीय परम्पराओं के साथ व्यवहार में लायी जाती है। भारत में कई टी.वी. चैनल और कार्टून नेटवर्क जैसे सभी विदेशी टेलिविजन चैनल भारतीय भाषाओं का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि मैकडानल्डस भी भारत में अपने निरामिष और चिकन उत्पाद ही बेचता है, गोमांस के उत्पाद नहीं जो विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। नवरात्रि पर्व पर तो मैकडॉनाल्ड्स विशुद्ध निरामिष हो जाता है। संगीत के क्षेत्र में ‘भांगड़ा, पॉप, इंडिपॉप’, फ्यूजन म्यूजिक’, यहाँ तक कि रीमिक्स गीतों की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखा जा सकता है।
सांस्कृतिक पहचान के एक निश्चित परम्परागत स्वरूप का समर्थन करने वाले लोग अक्सर महिलाओं के विरूद्ध होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहारों और अलोकतांत्रिक प्रथाओं को सांस्कृतिक पहचान का नाम देकर बचाव करते हैं। इस प्रकार की अनेक प्रथाएँ प्रचलित रही हैं- जैसे-सती प्रथा, पर्दाप्रथा से लेकर महिलाओं की शिक्षा तथा उन्हें सार्वजनिक क्रिया-कलापों से दूर रखना। महिलाओं के प्रति अन्यायपूर्ण प्रथाओं का समर्थन करने के लिए भूमण्डलीकरण का हौवा खड़ा किया जा सकता है। सौभाग्य से भारत में हम एक लोकतांत्रिक परम्परा और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने में अभी तक सफल रहे हैं जिससे हम संस्कृति को अधिक समावेषात्मक और लोकतांत्रित रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
अक्सर जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो हम पहनावे, संगीत, नृत्य, खाद्य आदि की चर्चा करते हैं। किन्तु जैसा कि हम जानते हैं संस्कृति इन बातों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसका सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन-शैली से है। संस्कृति के दो रूप हैं जिनका उल्लेख भूमण्डलीकरण विषयक किसी भी संदर्भ में होना चाहिए। वे हैं-उपभोग की संस्कृति और निगमित संस्कृति। सांस्कृतिक उपभोग की उस निर्णायक भूमिका पर विचार कीजिए जो भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में विशेष रूप से नगरों को एक रूप प्रदान करने की प्रक्रिया में अदा की जा रही है। 1970 के दशक तक उत्पादन उद्योग नगरों की वृद्धि में प्रमुख भूमिका निभाते रहे हैं। लेकिन अब सांस्कृतिक उपभोग (कला, खाद्य, फैशन, संगीत, पर्यटन) अधिकतर नगरों की वृद्धि को एक आकार प्रदान करता है। यह तथ्य भारत के सभी बड़े शहरों में विशाल बिक्री भंडारों, शॉपिंग मॉल्स, बहुविध सिनेमाघरों, मनोरंजन उद्यानों और जल-क्रीडा स्थलों के विकास में आयी तेजी से स्पष्ट होता है। अधिक उल्लेखनीय तथ्य तो यह है कि विज्ञापन और सामान्य रूप से जन सम्पर्क के सभी माध्यम एक ऐसी संस्कृति को बढावा दे रहे हैं, जिसमें पैसा खर्च करना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पैसे को संभाल कर रखना अब कोई गुण नहीं रहा। खरीददारी को समय बिताने की गतिविधि के रूप में सक्रियता से प्रोत्साहित किया जाता है।
‘ब्रह्माण्ड सुन्दरी’ (मिस यूनिवर्स), और ‘विश्व-सुन्दरी’ (मिस वर्ल्ड) जैसी फैशन प्रतियोगिताओं के समारोहों की उत्तरोत्तर सफलताओं के कारण फैशन, सौंदर्य-प्रसाधन एवं स्वास्थ्य उत्पादों से सम्बन्धित उद्योगों की अत्यधिक वृद्धि हुई है। युवा लड़कियाँ ग्लैमर की दुनिया के सपने देख रही हैं। टेलीविजन पर आने वाले प्रतिस्पर्धात्मक कार्यक्रमों से वास्तव में ऐसा प्रतीत होने लगा है कि कुछ ही चीजों से हमारा भाग्य बदल सकता है। निगम संस्कृति (कार्पोरेट क्ल्चर) प्रबन्धन सिद्धान्त की एक ऐसी शाखा है जो किसी फर्म के सभी सदस्यों को साथ लेकर एक अद्भुत संगठनात्मक संस्कृति के निर्माण के माध्यम से उत्पादकता और प्रतियोगात्मकता को बढावा देने का प्रयत्न करती है। ऐसा सोचा जाता है कि एक गतिशील संस्कृति-जिसमें कंपनी के कार्यक्रम, रीतियाँ एवं परम्पराएँ शामिल होती हैं, कर्मचारियों में वफादारी की भावना को बढाती हैं और समूह की एकता को प्रोत्साहन देती हैं। वह यह भी बताती है कि काम करने का तरीका क्या है और उत्पादों को कैसे बढावा दिया जाए और उनको कैसे पैक किया जाए।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रसार और सूचना प्रौद्योगिकी में आयी क्रांति के फलस्वरूप अवसरों की उपलब्धता में वृद्धि हो जाने से भारत के महानगरों में ऐसे उर्ध्वगामी व्यावसायिकों (प्रोफेशनलों) का एक वर्ग बन गया है जो सॉफ्टवेयर फर्मों, बहुराष्ट्रीय बैंकों, चार्टेड लेखाकार फर्मों, स्टॉक बाजारों, यात्रा, फैशन डिजाइन, मनोरंजन, मीडिया और अन्य सहबद्ध क्षेत्रों में कार्यरत हैं। इन महत्त्वाकांक्षी व्यावसायिकों की कार्य-अनुसूची अत्यन्त तनावपूर्ण होती है। उनके वेतन-भत्ते बहुत ज्यादा होते हैं और बाजार में तेजी से बढ़ते उपभोक्ता उद्योगों के उत्पादों के वे ही प्रमुख ग्राहक होते हैं।
सांस्कृतिक रूपों एवं भूमण्डलीकरण के बीच एक अन्य सम्बन्ध अनेक स्वदेशी शिल्पों एवं साहित्यिक परम्पराओं और ज्ञान व्यवस्थाओं की दशा में दृष्टिगोचर होता है। यह याद रखना भी महत्त्वपूर्ण है कि आधुनिक विकास ने भूमण्डलीकरण की अवस्था से पहले भी परम्परागत सांस्कृतिक रूपों और उन पर आधारित व्यवसायों में अपनी घुसपैठ बना ली थी। लेकिन अब परिवर्तन का अनुपात और उसकी गहनता अत्यधिक तीव्र है। उदाहरण के लिए लगभग 30 थियटर समूह जो मुम्बई महानगर के परे और गोरेगाँव की कपड़ा मिलों के इलाके के आसपास सक्रिय थे, अब निष्क्रिय एवं बन्द हो चुके हैं, क्योंकि इन इलाकों के मिल मजदूरों में से अधिकांश लोगों की नौकरी खत्म हो चुकी है। कुछ वर्ष पहले आन्ध्र प्रदेश के करीम नगर जिले के सरसिला गाँव और उसी राज्य के मेढक जिले के डुबक्का गाँव के पारम्परिक बुनकरों द्वारा बहुत बड़ी संख्या में आत्महत्या किये जाने की खबरें मिली थीं। इसका कारण यह था कि इन बुनकरों के पास बदलती हुई उपभोक्ता रूचियों के अनुरूप अपने आप को ढालने और विद्युत कर्घों से मुकाबला करने के लिए प्रौद्योगिकी में निवेश करने के लिए कोई साधन नहीं थे।
इसी प्रकार परम्परागत ज्ञान व्यवस्थाओं के विभिन्न रूप जो विशेष रूप से आयुर्विज्ञान और कृषि के क्षेत्रों से सम्बन्धित थे, सुरक्षित रखे गये हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे जाते रहे हैं। तुलसी, रुद्राक्ष, हल्दी और बासमती चावल के प्रयोग को पेटेंट कराने के लिए हाल में कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जो प्रयत्न किये गये उनसे स्वदेशी ज्ञान-व्यवस्थाओं के आधार को बचाने की आवश्यकता प्रकाश में आयी है। वैसे भूमण्डलीकरण ने जिन विभिन्न और जटिल रूपों में हमारे जीवन को प्रभावित किया है उसे संक्षेप में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। हम ऐसा प्रयास भी नहीं करेंगे इसलिए सभी को सचेत दृष्टि से इसके प्रति आलोचनात्मक रूख अपनाने की आवश्यकता है।