
आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व
आधुनिकता के विरोधाभास को समझने के लिए आधुनिकता की अर्थवत्ता को समझने की जरूरत है। अपने शाब्दिक अर्थ में आधुनिकता समयानुकूल होने में है, पर ऐतिहासिक नजरिये से यह युगबोध से जुड़ी एक अवधारणा है।
यह वैज्ञानिक चेतना और तार्किकता थी जिसके बल पर मनुष्य ने मध्यकालीन जड़ता, रूढ़ियों और अन्ध परम्पराओं से मुकाबला करते हुए आधुनिक युग में प्रवेश किया। मानव सभ्यता का विकास उसके क्रमशः विचारवान और विवेकशील होने का है।
आधुनिकता हर प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध समता और मुक्ति का सन्देश लेकर आयी और संस्कृति में उसने मानवीयता का उच्च मूल्य स्थापित किया। यह परियोजना लम्बी चली – उन्नीसवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी तक। किन्तु यह समाज को पूरी तरह बदल पाती इससे पहले ही इसमें कई दूसरी चीजें शामिल होती चली गईं और यह अपनी मूल राह से भटक गई।
आधुनिकता अपने साथ समता का जो उच्च मानवीय सन्देश लेकर आयी, उसने स्त्रियों के लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया। सदियों से स्त्री पर जो पहरे लगाए गये थे, उनपर सवाल उठने लगे। समाज समझ रहा था कि आधी आबादी को मुक्त किए बिना समाज की मुक्ति सम्भव नहीं, सन्तान को संस्कार देने के लिए माता का शिक्षित होना जरूरी है। तो राष्ट्र के उद्धार के लिए और सन्ततियों के व्यक्तित्व के विकास के लिए नारी मुक्ति की अनिवार्यता महसूस की गयी। इसलिए आश्चर्य नहीं कि स्त्री मुक्ति की प्रारम्भिक आवाजें पुरुषों द्वारा उठाई गयीं। किन्तु उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक तक आते-न-आते यह बागडोर स्त्रियों ने अपने हाथ में ले ली और बीसवीं सदी में कई महत्त्वपूर्ण स्त्री आन्दोलन हुए। आजादी के बाद कुछ समय के लिए यह आवाज मंद तो पड़ी, किन्तु अवसर आते ही स्त्रियों ने बार बार अपनी आवाज बुलंद की। बीसवीं सदी का सातवाँ आठवाँ दशक कई महत्त्वपूर्ण स्त्री आन्दोलनों का गवाह रहा। किन्तु नौवें दशक में स्त्री आन्दोलन मंद पड़ गये। इसके कई कारण रहे। यही समय था जब आधुनिकता की राह बंकिम हो गयी। आधुनिकता का मूल तत्त्व संशय था। उपभोक्तावाद ने उसकी राह कुंठित कर दी और वह सुखवाद और आध्यात्मिकता के ब्लैक होल में विलुप्त हो गयी।
अब आया बाजार। बाजार तो पहले भी था, पर तब वह जरूरत था – अब वह मूल्य बन गया, बल्कि जीवन की धुरी बन गया। आज इसकी परिणति यह है कि पहले बनिया एक समुदाय होता था, अब हर कोई व्यापारी बन गया – डॉक्टर, शिक्षक जैसे पेशे भी अपनी पारम्परिक गरिमा को भूलकर वे सारे (कु) कर्म करने लगे जो अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए जरूरी होता है। राजनीति के साथ पूँजी का जो गठजोड़ कभी लुके छिपे होता था, अब वह खुलेआम ही रहा है। कहीं पैसे से डिग्रियाँ खरीदी जा रही हैं, कहीं दूल्हे तो कहीं जनप्रतिनिधि! हर प्रकार की नैतिकता से परे उपभोक्तावाद सबके सर पर सवार है और सादगी के मूल्य जीवन से बहिष्कृत हो गये हैं। जो बाजार सप्ताहान्त या सप्ताह में एक दो बार लगते थे, अब वे मॉल के लुभावने रूप में परिणत हुए, फिर संचार क्रांति के पंखों पर सवार होकर हमारे बेडरूम में प्रवेश कर गये और हमारी उंगलियों से संचालित होने लगे हैं।
इन नयी परिस्थितियों में समाज में आमूल चूल परिवर्तन आया और पारम्परिक मूल्यों में तेजी से विघटन हुआ। जहाँ तक स्त्रियों की बात है तो इसका फायदा उन्हें यह मिला कि वे जकड़नें जिनसे मुक्त करने के लिए पितृसत्ता अभी प्रस्तुत नहीं थी, वे एक झटके से टूट गयीं और घर के दरवाजे स्त्री के लिए खुल गये। तकनीक ने भी स्त्री को घर और उसकी असमाप्त जिम्मेदारियों से मुक्ति दिलाने में बड़ी मदद की। कूकर हो या वाशिंग या मिक्सी ग्राइंडर जैसे मशीनी साधन, कौन इनकार कर सकता है कि रसोई और घर से मुक्त कर स्त्री के लिए स्पेस उपलब्ध कराने में इनकी कितनी बड़ी भूमिका रही। आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद पितृसत्ता स्त्री को घर से मुक्त करने को प्रस्तुत नहीं थी। कभी उसे असुरक्षा का भय दिखाया गया, कभी माता की भूमिका याद दिलाई गयी और कभी संस्कृति और मर्यादा की दुहाई दी गयी। यह साजिश भाषा में भी चली – मर्यादा और संस्कृति शब्द यूं ही स्त्रीलिंग नहीं हैं! यहाँ पितृसत्ता ने एक बड़ी साजिश की।
पुरुष ने स्त्री पर घर की सारी जवाबदेहियाँ सौंप कर अपने को आजाद कर लिया। क्षमा शर्मा का सवाल बहुत वाजिब है – ‘क्यों बाहर के सारे सुख पुरुषों के लिए और घर के सीलन भरे अँधेरे कोने स्त्रियों के लिए?” पुरुष के सारे कुकर्मों के बाद भी न संस्कृति पर आंच आती है न मर्यादा खंडित होती है! यह सब कुछ स्त्री के हिस्से कर वह स्वयं मुक्त था। अब जब स्त्री आजादी मांगने लगी और उसे घर टूटने का भय सताने लगा तो वह मर्यादा की बात करने लगा बिना इस दायित्वबोध के कि घर जितना स्त्री का है, उतना ही पुरुष का भी, और उसकी भी घर के प्रति जवाबदेही होनी चाहिए। भला हो उस बाजारवाद और उदारीकरण का जिसने एक झटके से परम्परा की सारी दीवारें ध्वस्त कर दीं।
अब स्त्री थी और उसके सामने एक खुली दुनिया थी, और था बाजार। किन्तु यह बाजार भी पितृसत्ता से संचालित था। नतीजा – मुक्त होती स्त्री को बाजार ने लपक लिया और वह एक बार फिर गुलाम बना ली गयी और इस बार उसमें उसकी अपनी मर्जी शामिल थी। उसे विज्ञापनों में जलील किया गया, विश्वसुंदरी का तगमा देकर बंधक बनाया गया और नाना प्रकार के सौन्दर्य सामग्रियों के द्वारा उसे लूटा जा रहा है। तमाम तरह के प्रसाधनों से लैस वह अपने आपको आधुनिक मान रही है जबकि सच यह है कि वह फिर वहीं आ खड़ी है जहाँ से उसने अपने आधुनिक होने की यात्रा शुरू की थी – अर्थात रीतिकालीन नायिका की भूमिका में आ कर वह देह तक सिमट गयी है। आधुनिकता की यह स्त्रीवादी विडम्बना ही तो है! व्यक्ति बनते बनते वह बाजार की चपेट में आ जाती है और करवा चौथ का व्रत करने लगती है। अब करवा चौथ में संस्कृति का तत्त्व कितना है और बाजार का कितना, यह कौन बताए! सवाल यह है कि क्या बाजार को अनिवार्यतः स्त्री विरोधी माना जाए? यह ठीक है कि बाजार की नजर स्त्री की देह पर होती है और उसकी देह का इस्तेमाल कर उसे पण्य वस्तु में परिणत कर देता है। किन्तु कहीं ऐसा तो नहीं कि बाजार का भय दिखाकर पितृसत्ता फिर से स्त्री को घर में लौटा लाना चाहती है ताकि उसकी खुद की मुक्ति निर्बाध बनी रहे और वह घर के प्रति निश्चिंत रहे? बाजार स्त्री के लिए यदि चुनौती है, तो वह चुनौती पुरुष के लिए भी है! स्त्री को इसकी साजिश को समझना होगा। सफलता का शॉर्टकट उसे अवमूल्यन की दिशा में ले जाएगा, इसे समझे बिना मुक्ति की राह सम्भव नहीं।
बकौल प्रख्यात आलोचक डॉ. शंभुनाथ, आज तर्क उन्माद में और मूल्य छद्म में परिणत हो गये हैं – ऐसे में संस्कृति की राह बहुत जटिल हो गयी है। कला साहित्य के सूक्ष्म तंतुओं से संस्कृति का कैनवास निर्मित होता है जिसमें विचार का अंतःसूत्र विद्यमान होता है। संस्कृति उच्च मूल्यों का समन्वय होती है। उसके सरोकार में व्यापक मानवीय हित शामिल होते हैं। बाजार ने संस्कृति का अवमूल्यन किया है और उसे भी विक्रय की वस्तु बना दिया है। बाजार और मानवीय सरोकार परस्पर विरोधी तत्त्व हैं – बाजार का लक्ष्य मुनाफा है और बाजार यदि मानवीय सरोकार के मूल्य को शामिल करने लगे तो उसका मुनाफा प्रभावित होगा जो उसे स्वीकार नहीं होगा। तो मध्यकाल से आगे आधुनिकता की यह यात्रा आज एक विकट पथ पर है। मुक्ति के लिए कोई सपना होना चाहिए, अन्यथा वह अराजकता में परिणत हो जाती है। व्यक्ति स्वातंत्र्य सामाजिक सरोकार से मुक्त हो कर ‘मेरी मर्जी’ में सिमट गया है जहाँ सिर्फ और सिर्फ ‘मैं’ है। प्रसाद ने ‘सुख से सूखे जीवन में’ आंसुओं के ‘प्रभात हिमकण’ सा बरसने की कामना की थी – आज का शुष्क सुख आनंद से परे एक निर्द्वन्द्व अट्टहास में परिणत है।
मानवीय संवेदना से रहित इस अट्टहास में हास्य उपहास बन गया है और उपहास में हिंसा के तत्त्व अनायास ही शामिल हो जाते हैं। हम इतना हँसने लगे हैं कि रोना भूल गये हैं। रणवीर अल्लाहबादिया की अश्लीलता और निर्लज्ज हँसी एक दिन की उपज नहीं है। समूचा समाज कॉमेडी शो में शामिल हो दुनिया भर की स्टैंड अप कॉमेडी, सिद्धू, अर्चना पूरन सिंह और कपिल शर्मा की ‘हो-हो’ करती विचारहीन हँसी वाले विख्यात शो से होते हुए ‘बेशर्म रंग’ हो रहा है। सौन्दर्यानुभूति की जगह उत्तेजना ने ले ली है, सौन्दर्य अभिभूत करने से आगे बढ़कर उपभोग बन गया है और ‘सेक्सी-सेक्सी’ जैसे गीत बच्चों के मासूम होठों पर सवार हैं। बाजार देह और अनुभूति दोनों का अतिक्रमण कर अश्लीलता के उस चरम पर पहुँच रहा है जहाँ से आगे निर्लज्ज पशुता की राह ही शेष दिखती है। अश्लीलता का अवश्यम्भावी प्रभाव स्त्री पर पड़ रहा है और कोई आश्चर्य नहीं कि स्त्रियों पर हिंसा बढ़ी है। आधुनिकता की यह परिणति तो नहीं होनी थी! स्पष्ट है कि हमारे समाज में आधुनिकता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पायी- यही कारण है कि सामन्ती और पितृसत्ता के अवशेष समाज में बचे रह गये जो समय असमय सुप्त विषाणुओं की तरह सर उठाते रहते हैं। हाल ही में एल एँड टी के निदेशक एस एन सुब्रह्नयन की यह टिप्पणी कि रविवार को आप पत्नियों को कितना निहारेंगे, पितृसत्ता और बाजार का क्रूर और निर्लज्ज कॉकटेल ही है। यह स्त्री पर अभद्र टिप्पणी तो है ही, समाज और परिवार भी यहाँ गायब है, नजर सिर्फ और सिर्फ मुनाफे पर है।
इसके पहले कि व्यक्ति सामन्ती मानसिकता से पूरी तरह मुक्त हो वैज्ञानिक चेतना और मानवीय विवेक के साथ आधुनिक होता, बाजार और तकनीक जीवन में शामिल हो गये। सामन्ती मानसिकता और पितृसत्ता में गहरा गठजोड़ होता है – दोनों की आधारभूमि एक ही होती है। बदलाव और व्यापक रूपांतरण से गुजरे बिना आधुनिक होने की प्रक्रिया की अनिवार्य परिणति यह हुई कि आधुनिकता कपड़ों, अँग्रेजियत और आडम्बर का पर्याय बन गयी। बौद्धिक दरिद्रता की इस पूँजी का बाजार ने भरपूर दोहन किया। ऐसे ही समाज में कोरोना गो, रिकॉर्ड तोड़ दीपोत्सव और अमृत स्नान का विराट आडम्बर सम्भव हो सकता है! संस्कृति से विचार और मूल्य गायब हो गये हैं और वहाँ आडम्बर शामिल हो गया है। संस्कृति के नाम पर बाजार और राजनीति का खेल चल रहा है और विवेक को ताख पर रख लोग उसमें शामिल हो रहे हैं। नवजागरण के सुदीर्घ और महान प्रयासों से हमने मध्ययुगीन जड़ता और अन्धविश्वासों से मुक्ति पायी थी, वे एक बार फिर जीवन में शामिल हो रहे हैं और पूरे तामझाम के साथ। संस्कृति और परम्परा के नाम पर लोक पर्वों और उत्सवों को इवेंट बनाया जा रहा है। यहीं से संस्कृति का बाजारीकरण भी सम्भव हुआ। रचनाशीलता का स्थान बाजार ने ले लिया। हमारे पहनने से लेकर घर की सज्जा, त्यौहार और उत्सव में पैसा फेंको और तमाशा देखो का खेल शामिल है। महत्त्व रचनात्मकता का नहीं, चयन का रह गया है।
नब्बे के दशक में ही बाजारवाद के साथ संचार क्रांति भी आयी। समूचा विश्व संचार के एक सूत्र में बंध गया। भारत के बंद समाज में इसका प्रतिफलन यह हुआ कि इंटरनेट पर सबकुछ ओपेन था पर समाज में उसकी स्वीकृति नहीं थी। इस कारण भी स्त्री पर हिंसा बढ़ी है। सोशल मीडिया इक्कीसवीं सदी की संस्कृति है। इसने लोकतांत्रिक स्पेस तो सुलभ कराया, पर केंद्रीय नियंत्रण के अभाव में अराजकता भी फैलायी। कभी अज्ञेय ने कहा था कि हमें नए बिंब तलाशने होंगे क्योंकि देवता इन प्रतीकों से कर गये हैं कूच। तेजी से विस्तृत होते बाजार की संस्कृति में बड़ी होती नयी पीढ़ी नवीनता तलाशते वहाँ खड़ी है जहाँ गाली बिना बात नहीं बनती। गाली भी आज की नयी संस्कृति है। और गालियों का समाजशास्त्र बताता है कि इनकी दुनाली स्त्री की ओर ही होती हैं। गाली की यह हिंसा पहले भाषा में प्रवेश करती है और फिर जीवन में जगह बनाती है। सोशल मीडिया पर हाल में घटित कई घटनाएँ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यहाँ भी स्त्री की मर्यादा दांव पर लगाई जा रही है।
ऐसे में स्त्री कहाँ खड़ी है? उसने पाया कि पितृसत्ता की संरचना में बदलाव के बिना जो बाजार और तकनीक आयी, उसे पितृसत्ता द्वारा हथिया लिया गया और इनको उसके दोहन का माध्यम बनाया जा रहा है। बाजार उसकी देह का इस्तेमाल कर रहा है तो तकनीक का उपयोग भी उसके विरुद्ध हो रहा है। कितना आसान हो गया है जन्म से पहले कोख में ही स्त्री को मार डालना! और अब निर्बंध आभासी दुनिया है जहाँ कितना आसान है स्त्री को नंगा किया जाना। और संस्कृति? वह स्त्री के पक्ष में थी ही कब? धर्म, परम्परा, इतिहास और मर्यादा – ये सब पुरुष निर्मितियाँ हैं इसलिए अनायास नहीं कि ये स्त्री विरोधी हैं। इनका उपयोग स्त्री की चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचने में हुआ। विभिन्न शोधों में यह प्रमाणित हो चुका है कि धर्म और परम्परा ने सबसे ज्यादा स्त्री को बांधा है। सदियाँ लगीं स्त्री को इस साजिश को समझने में।
अब बाजार है पितृसत्ता का आगामी विस्तार। पर अब वह सजग है। बाजार की साजिशों को भी वह समझ रही है। वस्तुतः समझ तब विकसित होगी जब सामना करने का अवसर मिलता है। वह औरों की तरह बाजार से अभिभूत नहीं है, ऐसा नहीं है, पर अब वह उसे समझने लगी है, और मुकाबला कर अपनी राह भी निकाल रही है। प्रतिष्ठित कवयित्री पूनम जी की एक कविता है – ” अजंता की गुफाओं से मुक्त होती इस स्त्री को देखो/ अब वह समर्पण का शिल्प नहीं/ प्रतिरोध का नया स्वर है।” हर बदलाव की समानांतर कई भूमियाँ होती हैं। बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा समाज कई अतिरेकों से भी गुजरता है। कुछ समय बाद थिरता आती है और अतिरेक से परे एक पुख्ता जमीन हासिल होती है। स्त्री मुक्ति भी अपने अतिरेक के दौर से गुजर रही है। इसपर कई तरह के आक्षेप लगाए जाते रहे हैं। अब यह कहा जाने लगा है कि बहुत हुआ स्त्री विमर्श, अब और इसकी जरूरत नहीं। स्त्री विमर्श ने स्त्रियों को पांवों के नीचे ठोस जमीन तो उपलब्ध करायी है किन्तु मध्यवर्ग की स्त्रियों की बदलती दुनिया से परे एक बड़ी दुनिया गाँव देहात की है जहाँ समय ठहरा हुआ है। दूसरी तरफ एक दुनिया महानगरों और बड़े शहरों की हैं जहाँ स्त्रियाँ सामाजिक-पारिवारिक दायित्व को नकारते हुआ निर्बंध जीवन और आत्मकेंद्रित सुखवाद में मुक्ति को परिभाषित कर रही हैं। मुक्ति की मुक्कमल राह इन दोनों के बीच कहीं है। और जबतक यह हासिल नहीं हो जाती, तबतक स्त्री विमर्श की जरूरत कैसे खत्म हो जाएगी।