प्रेम और वासना के बीच चित्रलेखा
प्रारंभिक दौर से ही साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में रेखांकित किया जाता रहा है। यह समाज में ज्ञानवर्द्धन और मनोरंजन का तो जरिया रहा ही है, साथ ही उन अनछुये पहलुओं को भी सामने लाने का काम करता रहा है जो समाज के लिए बेहद आवश्यक है। इनमें से एक है- महिलाओं की स्थिति। समाज में महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की चर्चा लंबे समय चली आ रही है। शायद इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली है। किंतु, पुरूषों की मानसिकता पुरूषवादी सोच से आज भी जकड़ी हुई है, जिसमें महिलायें आज भी सिर्फ भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं है। हाँ, ये बात और है कि महिलाओं के शोषण का स्वरूप बदल गया है। इसी शोषण का यथार्थ चित्रण ‘चित्रलेखा’ उपन्यास में देखने को मिलता है।
सदियों से पाप और पुण्य समाज में व्याप्त ऐसी अवधारणा है, जिसके आधार पर किसी व्यक्ति, परिवार या समाज के मूल्य निर्धारित किये जाते हैं। किसी व्यक्ति का जीवन इसी अवधारणा पर बनता-बिगड़ता रहता है। यह तय नहीं होता कि कोई व्यक्ति कब पुण्य करेगा और कब पाप? यह तो उसकी सामाजिक वातावरण और मनोस्थिति पर निर्भर करता है। पाप और पुण्य के तराजू में किसका पलड़ा भारी रहेगा, यह भी व्यक्ति के आचार-विचार और व्यवहार के आधार पर तय किया जा सकता है। किन्तु, किसी व्यक्ति के लिये जो पुण्य है, वह किसी अन्य के लिये पाप भी हो सकता है। पाप और पुण्य के इस कसावट में भगतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘चित्रलेखा’ वर्तमान समाज में बेहद प्रासंगिक दिखाई पड़ता है। लेखक ने ‘चित्रलेखा’ के माध्यम से प्रेम की अवधारणा में निहित पाप और पुण्य को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
चित्रलेखा की कथा प्रेम और वासना के चक्रव्यूह में उलझी प्रतीत होती है। पाप क्या है? उसका निवास कहाँ है? से उपन्यास की कथा आरंभ होती है। पाप के अर्थ को समझने के लिए उपन्यासकार ने महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्यों को माध्यम बनाया है। महाप्रभु रत्नाबंर के दो शिष्य हैं – श्वेतांक और विशालदेव, जो गुरुकुल के शिष्य हैं। इन्हें सांसारिक जीवन में प्रवेश कराकर प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास किया है। रत्नाबंर अपने पहले शिष्य, श्वेतांक को सामंत और भोगविलास में डूबे ‘बीजगुप्त’ के पास भेजते हैं तथा दूसरे शिष्य को योगी संत ‘कुमारगिरि’ के शरण में भेजते हैं। एक तरफ भोगविलास में लिप्त पुरुष बीजगुप्त हैं तो दूसरी तरफ मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक समाधी पुरुष कुमारगिरि हैं। इस तरह रत्नांबर ने अपने दोनों शिष्यों का प्रवेश सांसारिक जीवन में पाप और पुण्य की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिये भेजते हैं।
पाप और पुण्य के इस कसावट के बीच चित्रलेखा का पर्दापण उपन्यास में होता है। चित्रलेखा का वैवाहिक जीवन अत्यंत दुखद था। महज 18 वर्ष की आयु में ही पति और पुत्र दोनों के गुजर जाने के बाद की स्थिति कितनी भयावह होती है, यह शब्दों में बयां करना मुश्किल है। इस विपदा के बाद चित्रलेखा ने अपने आप को किसी तरह से संभाला और जीवन की नयी शुरूआत, एक विधवा नर्तकी के रूप में की। नर्तकी होने के बावजूद चित्रलेखा का रहन-सहन किसी महारानी से कम नहीं था। उसका अलौकिक सौंदर्य इतना आकर्षक था कि कोई भी मोहित हो जाये। रूपवती होने के साथ-साथ वह बोलचाल में गुणवती भी थी। चित्रलेखा के इसी रूप और अदाओं को देखकर, बीजगुप्त उस पर मोहित हो जाता है और चित्रलेखा से प्रेम करने लगता है। इस प्रेम को चित्रलेखा की भी स्वीकृति मिल जाती है। इस तरह दोनों साथ रहने लगते हैं। इसी दौरान जब श्वेतांक, बीजगुप्त के पास पाप का पता लगाने जाता है, तो उसका सामना चित्रलेखा से होता है। पहली मुलाकात में ही चित्रलेखा के सौंदर्य को देखकर कुछ देर के लिये इतना आनंदित हो जाता है कि वह अपनी नजरें ही नहीं हटा पाता। तमाम कोशिशों के बावजूद अंतत: वह वैभवपूर्ण जीवन में संलिप्त हो ही जाता है।
दूसरी ओर विशालदेव, कुमारगिरि के पास उनका सेवक बन कर जाता है। कुमारगिरि एक योगी पुरुष हैं, जिनका दावा है कि उन्होंने संसार के समस्त वासनाओं पर विजय पा लिया है। संसार के प्रति उनका विरक्ति भाव है। ऐसे योगी-पुरुष की जब चित्रलेखा से पहली मुलाकात होती है तो चित्रलेखा योगी पुरुष से प्रभावित हो जाती है और न चाहते हुए भी उसका रुझान बढ़ते चला जाता है।
इधर मृत्युन्जय अपनी बेटी (यशोधरा) का विवाह बीजगुप्त से करना चाहते हैं, किंतु बीजगुप्त, चित्रलेखा के मायाजाल में फंसे हुए थे। इसलिये वह विवाह से इन्कार कर देता है। चित्रलेखा जब इस स्थिति से अवगत होती है, तो उसे एहसास होता है कि वह एक अभिशप्त स्त्री है, जो बीजगुप्त की अर्द्धांगिनी बनने योग्य नहीं है। इसलिये बीजगुप्त को अपनी यथास्थिति से अवगत कराते हुये, यशोधारा से विवाह करने के लिए उसे राजी कर लेती है और स्वयं सारा वैभव त्याग कर संत कुमारगिरि के शरण में सेवा के उद्देश्य से चली जाती है। जब से बीजगुप्त के जीवन से चित्रलेख गयी थी, तब से उनके जीवन में खालीपन आ गया था। तमाम कोशिशों के बावजूद वह चित्रलेखा को नहीं भूल पा रहा था। इधर यशोधारा, बीजगुप्त के बारे में जितना अधिक जानने लगी थी, उतना बीजगुप्त की ओर आकर्षित होती चली जा रही थी। वहीं, दूसरी तरफ श्वेतांक, यशोधारा से प्रेम करने लगा था। जबकि चित्रलेखा के जाने के बाद भी बीजगुप्त उसी के प्रेम में खोया हुआ रहता था। उसे अपना जीवन नीरस और व्यर्थ लगने लगा था।
कुमारगिरि ईश्वर की आराधना में लीन रहता है, लेकिन जब से चित्रलेखा उसके जीवन में आयी थी, तब से कुमारगिरि के स्वभाव में बदलाव देखने को मिल रहा था। कुमारगिरि न चाहते हुए भी चित्रलेखा के सौंदर्य के सामने नतमस्तक हो गया था। चित्रलेखा भी अपना सारा वैभव और विलास त्याग कर संत कुमारगिरि के पास दीक्षा प्राप्त करने आ गयी थी। वह तपस्वनी बनना चाहती थी। शांति प्राप्त करना चाहती थी। लेकिन कुमारगिरि चित्रलेखा के सौंदर्य से अपने आपको दूर नहीं रख पाता है और एक रात अवसर मिलते ही वह चित्रलेखा को अपनी वासना का शिकार बना लेता है। इस घटना के बाद से चित्रलेखा का मन कुमारगिरि के प्रति खिन्न रहने लगा था।
यशोधरा, बीजगुप्त से प्रेम करने लगी थी। किंतु, बीजगुप्त का प्रेम सिर्फ और सिर्फ चित्रलेखा के प्रति था। जब बीजगुप्त को यह पता चलता है कि यशोधारा से श्वेतांक प्रेम करता है, तब वे यशोधारा के पिता मृत्युंजय से श्वेतांक के विवाह की बात करते हैं। किंतु, मृत्युंजय इस विवाह के लिए आपत्ति व्यक्त करता है। श्वेतांक के पास न तो धन-संपत्ति है और न ही वह किसी सामंती परिवार से ताल्लुक रखता है। इसलिए वह इस विवाह के लिए राजी नहीं था। ऐसी स्थिति में बीजगुप्त ने श्वेतांक को अपना दत्तक-पुत्र बनाकर अपना समस्त राज-पाठ उसे विधिवत सौंप देते हैं। अंतत: मृत्युंजय अपनी पुत्री का विवाह श्वेतांक से करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस तरह दोनों का विवाह तय हो जाता है।
बीजगुप्त ने सोच था कि यशोधारा और श्वेतांक के विवाह के पश्चात् वैराग्य धारण करके दूसरे राज्य में चला जाउंगा। लेकिन जैसे ही चित्रलेखा को इस बात की जानकारी होती है, वह बीजगुपत से मिलने के लिए व्याकुल हो जाती है। इसलिये कुमारगिरि के आश्रम में तमाम विडम्बनाओं के बावजूद वह बीजगुप्त से मिलती है और अपने साथ घटित घटना को बताती है। इस घटना को सुनकर बीजगुप्त निश्छल प्रेम के भाव से चित्रलेखा को स्वीकार करता है और वैराग्यपूर्ण जीवन जीने के लिये दोनों आगे बढ़ जाते हैं।
इस समस्त संसार में न जाने आज भी ऐसे कितने लोग होंगे, जिनके अंदर का नैतिक मूल्य जीवित है। वर्तमान परिवेश को देखते हुए यह कह पाना अत्यंत कठिन है कि इंसान कब रक्षक बन जायेगा और कब भक्षक बन जाये, भले ही वह संत हो या कोई आम इंसान। यह भी तय कर पाना कठिन है कि इस संसार में न जाने कितने लोग अदृश्य तरीके से पाप में डुबकियां लगा रहें हैं।
इस उपन्यास में जिसे हम योगी समझते हैं, वह भोगी निकलता है और जिसे हम सामंत या भोग-विलास में डूबा हुआ व्यक्ति समझते हैं, वह चित्रलेखा के प्रेम में डूब कर बिलासिता पूर्ण जीवन त्याग कर योगी बन जाता है। यह संसार योगी और भोगी के बीच घूमता रहा है। वर्तमान समय के अनुसार कोई भी व्यक्ति कब किन परिस्थितियों में बदल जायेगा, यह कहना अत्यंत कठिन है। पाप और पुण्य के पलड़़े में पाप का भार इस कलयुग में भारी होता दिखाई पड़ता है।
चित्रलेखा, जो कि संसारिक माया-मोह के जाल में फँसकर अंततः सिद्ध पुरुष की पहचान कर लेती है। लोगों को अपने कर्तव्य बोध का न सिर्फ ज्ञान होना आवश्यक है। बल्कि, उसका पालन करना भी नितांत जरूरी है। तब कहीं जाकर पाप और पुण्य की अवधारणा को कुछ हद तक समझा जा सकता है। उपन्यास की रचना इसी अवधारणा को स्पष्ट करने के लिये की गयी है कि आज का व्यक्ति निजि स्वार्थ और लालच में पड़कर इतना अंधा हो गया है कि पुण्य की जगह पाप ही बढ़ता जा रहा है। इस उपन्यास में यह भी स्पष्ट तौर पर चित्रित किया गया है कि एक महिला को वासना से नहीं प्रेम से ही हासिल किया जा सकता है। वासना से सिर्फ शरीर प्राप्त हो सकता है, प्यार नहीं। साथ ही स्त्री अपनी मर्जी से जीना चाहती है, भले ही कितनी वह अबला और लाचार क्यों न हो, यह भी इस उपन्यास का स्पष्ट संदेश है। एक वेश्या से भी उसकी मर्जी के बिना रिश्ता नहीं बनाया जा सकता। इसलिए इस भोगवादी संस्कृति का अंत आवश्यक है।