आधी आबादी का सच
पिछले सौ से अधिक वर्षों से महिला दिवस मनाया जा रहा है। हर वर्ष महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। जीवन और समानता का अधिकार देने का संकल्प भी किया जाता है। उनकी स्थिति में सुधार के लिए नये नियम और नीतियाँ भी बनाई जाती या उनमें सुधार किये जाते हैं। लेकिन विचार करने का प्रश्न यह है कि महिलाओं की स्थिति में बुनियादी तौर पर कितना सुधार हुआ है। हमारे देश को आजाद हुए 73 साल पूरे हो चुके हैं। हमारा देश भी दुनिया के साथ महिलाओं के अच्छे जीवन के लिए प्रयासरत है। यह भी गर्व की बात है कि महिलाएँ आज हर क्षेत्र में अपनी पूरी क्षमता और उत्कृष्टता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवा रही हैं।
फिर भी यह समाज अब भी उनके साथ समानता का व्यवहार करने में बहुत उत्साह नहीं दर्शाता। महिलाओं की स्वतन्त्रता, समानता, इज्जत और सम्मान की जिन्दगी जीने के साथ-साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता का उनका सपना आज भी कठिनाई से साकार हो पाता है। सामंती और पुरुष प्रधान समाज, मध्ययुगीन परम्पराएँ, रूढियाँ, अंधविश्वास आदि से त्रस्त महिलाओं को आंशिक मुक्ति ही मिल सकी है। इसका कारण स्पष्ट है कि आजादी के बाद समझौतावादी धारा का समर्थक धनी, पूँजीपति वर्ग सत्ता में आने के बाद निहित वर्ग-स्वार्थ के कारण महिलाओं की मुक्ति की दिशा में ठोस कदम उठाने से हमेशा परहेज करता रहा। इतना ही नहीं, आजादी के बाद समस्याएँ लगातार जटिल होती गयीं हैं।
चाहे उनका सामाजिक अवस्था हो या पारिवारिक स्थिति, चाहे स्वास्थ्य हो या फिर व्यक्तित्व का विकास। विकास के तमाम वादों और तकनीकी-आर्थिक उन्नति के बावजूद समाज के एक हिस्से में कन्या भ्रूण हत्या, अपहरण, बलात्कार, दहेज हत्या, देहव्यापार, घरेलू हिंसा जैसी घटनाएँ लगातार बढती जा रहीं हैं। आज भी स्त्री इतनी असुरक्षित है कि वह कहीं भी और किसी समय अपहरण, हत्या, दहेज हत्या और यौन उत्पीडन की शिकार हो सकती है। दुर्भाग्य से यदि किसी महिला के साथ ऐसी जघन्य और नृशंस घटना घटती है तो हमारे पुरुष प्रधान समाज में उसकी इतनी छीछालेदर होने लगती है कि उसके सामने आत्महत्या जैसे अनचाहे कदम भी उठाने को मजबूर हो जाना पड़ता है।
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सच्चाई यह है कि महिलाओं का संघर्ष तो माँ की कोख से ही शुरू हो जाता है। जब एक महिला की कोख में दूसरी औरत के जीवन का अंकुर फूटता है तो दो महिलाओं के संघर्ष की शुरुआत होती है। एक संघर्ष उस नये जीवन का जिसे धरती पर आने से पहले ही रौंदने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं और दूसरा संघर्ष उस माँ का जो जीवन को धरती पर लाने का जरिया है। इस सामाजिक संघर्ष के अलावा एक संघर्ष और जो उसका शरीर करता है, कुपोषण में नौ महीने तक पल-पल अपने खून अपनी आत्मा से अपने भीतर पलती ज़िन्दगी को सींचा में, उसकी मानसिक स्थिति को कौन समझ पाता है। यह सब उस समय घट रहा है जब कि हमारे यहाँ लड़कियों, महिलाओं की पूजा होती है और नदियों को भी माँ कहा जाता है।
मुसलमानों को उनके नबी ने बेटियों की सही परवरिश कर घर बसाने के लिए स्वर्ग की बशारत दी है। सम्मानित जीवन और समानता का अधिकार देने को कहा है। इन सब धार्मिक मान्यताओं के बावजूद यह दुखद है कि भारत में लड़कियों के बलात्कार और हत्या की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी हम स्त्री को केवल वस्तु और उपभोग की चीज़ समझते हैं। कोई धर्म, संस्कार यह सोच नहीं बदल पाया तभी तो 2.5 से 3 साल तक की बच्चियों से बलात्कार की खबरें आती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में प्रतिदिन 93 महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। 2010 से इसमें सात से 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक तिहाई मामलों में पीड़िता की उम्र 18 वर्ष से कम पाई गई।
अक्सर महिलाएँ कार्यालयों, खेतों और स्कूलों में बलात्कार की शिकार हुईं। बलात्कार के मामले में भारत तीसरे पायदान पर है। सबसे अधिक बलात्कार की घटनाऐ अमेरिका में होती हैं। भारत में दिल्ली सबसे ऊपर है। छोटे शहरों, कस्बों के मुकाबले मेट्रो नगरों में रैप की घटनाएँ अधिक होती हैं। इसके बड़े कारणों में से एक लड़कियों की कमी और शादियों का महंगा होना है। परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी में कमी आई है। देश के कई राज्यों में एक हज़ार पुरुषों के लिए 900 लड़कियाँ नहीं हैं । पंजाब में 2005 में हजार लड़कों पर सिर्फ 734 लड़कियाँ थीं और हरियाणा में 836 अब हरियाणा में 860 लड़कियाँ हैं। पंद्रह सालों में स्थिति सुधरी जरूर है लेकिन अब भी संख्या कम है। इस कमी ने झुग्गी झोपड़ी, गाँव, छोटे शहरों और ग़रीब परिवारों से बच्चों के अपहरण जैसे अपराध जिनमें बच्चियों की संख्या अधिक होती है ने लड़कियों की तस्करी जैसे अपराध को जन्म दिया है।
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अब सवाल यह है कि आखिर इस नारकीय स्थिति से महिलाओं की मुक्ति कैसे सम्भव है? ऊपर इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि कैसे समाजवादी सोवियत संघ ने अपने देश की महिलाओं की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें पुरुषों के समान इज्जत- प्रतिष्ठा और आर्थिक आत्मनिर्भरता का अवसर उपलब्ध कराने के अपने ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह किया। ऐसा वहाँ सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व का पूरी तरह से खात्मा कर किया गया। इसी से महिलाओं को वहाँ सही अर्थों में आजादी मिल सकी।
अपने देश के महिलाओं को भी पूरी गम्भीरता से सोचना होगा। यदि वे वास्तव में पुरुष-शासित समाज के शोषण-उत्पीडन से स्थाई रूप में मुक्ति चाहती है तो उन्हें सम्पत्ति को व्यक्तिगत स्वामित्व से मुक्त कराने और उसकी जगह सामाजिक स्वामित्व की स्थापना के संघर्ष में शामिल होकर इस उद्देश्य को सफल बनाना होगा। ऐसा इसलिए भी कि समाज की मुक्ति के साथ नारी मुक्ति का सवाल अभिन्न रूप से जुड़़ा हुआ है। दोनों को एक-दूसरे से अलग कर नहीं देखा जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की प्रणेता क्लारा जेट्किन ने भी कहा था कि सर्वहारा महिला जगत की पूर्ण मुक्ति केवल समतावादी समाज में ही सम्भव है क्योंकि इसमें आर्थिक और आर्थिक सम्बन्धों के विलोप के साथ ही सम्पत्तिवानों और सम्पत्तिहीनों, पुरुष और महिला तथा बौद्धिक और शारीरिक श्रम के बीच का द्वंद्व भी विलुप्त हो जाता है। इस प्रकार मुक्त श्रम वाले समाज में ही महिलाएँ सम्मानपूर्ण जिन्दगी जी सकेंगी।