चर्चा मेंदेशमुद्दा

हमारे समय के समाज में विकल्प हैं क्या?

sablog.in समय के अलग अलग दौर होते हैं और हर दौर में समय के मायने बदल जाते हैं. हमारे समय के समाज में कुछ खास प्रवृत्तियां दिखाई दे रहीं हैं जो समाज की गहरी दरारों की तरफ इशारा कर रही हैं. इन दरारों को नजर अंदाज किया गया तो यही दरारें कालान्तर में सामाजिक विघटन और बिखराव का बड़ा कारण बनेगी.
प्रत्येक समाज चाहे वो अफ्रीका का हो, यूरोप या एशिया का हो सभी की एक सामूहिक चेतना होती है. जहां उसके आदर्श, सपने, कल्पनाएँ जीवित रहते हैं. हर समाज अपने सदस्यों को आत्मविश्वास देता है कुछ बड़े सपने देखने का. हौसला देता है लीक से हटकर सोचने का. साहस देता है अपनी नियति को स्वयं से लिखने का. एक लाइन में कहे तो आत्मबल देता है ताकि उसके सदस्य जीवन के अहम प्रश्नों और युद्ध में कमजोर न पड़ें, लेकिन आज के समय में हमारे समाज मे चारों तरफ हताशा और निराशा पसरी हुई है. कहीं कोई उम्मीद की किरण नज़र नहीं आती. अगर कहीं नज़र आती भी है तो अंधेरा गचाक से आकर उसे ढक लेता है. व्यक्ति मानसिक तौर पर खाली हो चुका है. न उसके बड़े सपने हैं. न कोई जीवन और समाज के प्रति प्रतिबद्धता. संवेदना तो जैसे कोई बाहरी वस्तु हो. यह आशाहीनता की स्थिति हर तरफ व्याप्त है.

सामाजिक संबंध तो समाज के आधार स्तंभ होते थे जो व्यक्ति को ताजग़ी देते थे. उसे जीवंत बनाते थे. वो महज अवसर, सुविधा और जरूरत का आधार बनकर रह गए. जिनका आधार प्रेम और सम्मान होता था वो उस दौड़ के महज एक सहयोगी बनकर रह गए हैं. सबलोग भाग रहे हैं. कहीं पहुँचने की जल्दी और हड़बड़ाहट है. लेकिन कहां जा रहे हैं? कुछ पता नहीं है. कहाँ पहुंचना है? क्या यहीं पहुँचना था? किसी को साथ लेकर भी जाना है या अकेले ही चले जाना है ? सब प्रश्न अब अप्रासंगिक हो गए हैं. सभी को एक हड़बड़ी और जल्दबाजी है. किसी को अपने आत्म मूल्यांकन का वक्त ही नहीं है. संस्थाओं को कहां लेकर जाना है? नीतियों में कितनी दूरदर्शिता है? देश-समाज के लिए कोई दिशा नहीं है. एक दिशाहीनता की स्थिति व्याप्त है.

प्रकृति और कला से टूटता रिश्ता, व्यक्ति का प्रकृति से क्या संबंध हो, आज यह प्रश्न ही अप्रासंगिक हो गया है, कला महज आनंद का सुख का माध्यम बनकर रह गई है. जब व्यक्ति का प्रकृति से, कला से कोई नाता ही नहीं रहा तो उस व्यक्ति में संवेदना कहाँ से मिलेगी? प्रकृति और कला की यात्रा तो जीवन की तलाश की यात्रा होती है, वो जीवन को नए नजरिए से देखने का साहस देती है. व्यक्ति को गिरकर उठाती है. जंगल, नदी, पहाड़, झरने तो व्यक्ति को जीवन के करीब लेकर जाते हैं. कला हर दिन व्यक्ति में नए रंग भरती है. लेकिन हमने प्रकृति को केवल उपभोग की और कला को मनोरंजन की वस्तु मान लिया और खुशहाली का पैमाना जीडीपी को बना दिया जिससे संवेदनहीनता की स्थिति पैदा हो गई है.

किसी भी समाज की सबसे बड़ी ताकत या खूबी इस बात से तय नहीं होती कि वो कितनी बड़ी अर्थव्यवस्था है? वहां प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत कितनी है? वहां प्रति व्यक्ति आय कितनी है? बल्कि इस बात से तय होती है कि वहां लोगों की स्मृति कितनी तेज है? उनका दृष्टिकोण कितना साफ है? उनको अपनी समृद्ध परंपराओं का कितना ज्ञान है? उसको जीवन शैली और सभ्यता की कितनी परख है? उनको अपने समाज में तनाव के बिंदुओं और सहयोग के बिंदुओं का भली भांति ज्ञान है या नहीं?

वो अपनी खूबियों और कमजोरियों से वाकिफ हैं या नहीं? लेकिन आज के दौर में व्यक्ति स्मृति विहीन हो गया है. वो केवल अपने तक सिमट गया है. उसने सामूहिकता से एक अलगाव पैदा कर लिया है. स्मृति विहीन होने पर न साहित्य की रचना संभव है और न ही समाज की. न इतिहास का ज्ञान होता है और न भविष्य की चाप को सुन पाते हैं. इससे अपने समाज से एक अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है.

किसी भी समाज की बुनियाद वहां की शिक्षा व्यवस्था होती है जो व्यक्ति को समाज के करीब लाती है. उसे इंसान बनाती है. लेकिन हम दोनों ही अर्थों में फेल हो रहे हैं. आज शिक्षा व्यक्ति और समाज में एक खाई का निर्माण कर रही है. नौकरी पाना आजीविका का लक्ष्य हो सकता है जीवन का लक्ष्य कतई नहीं. शिक्षा तो समाज के विमर्श को बनाने में उसे एक निश्चित दिशा देने में उन परंपराओं, विचारों, नीतियों को तर्क की कसौटी पर कसने में, समाज को उसके दोषों, कमियों से अवगत करवाने में एवं उनका विकल्प तलाशने में अहम भूमिका निभाती है. अगर एक लाइन में कहा जाए तो शिक्षा, समाज को विचार देती है जो समाज में परिवर्तन लाए, लेकिन वो महज कागज के एक पेज में सिमट कर रह गई है. जिन लोगों पर उस विचार को बनाने की ज़िम्मेदारी थी वो तो कोचिंगों के एजेंट बन गए हैं और विचार गायब है.

समाज में सुसाशन कितना है? यह इस बात से तय होगा कि वहां राजनीतिक विमर्श कैसा है? और किसी समाज में राजनीतिक विमर्श कैसा है? यह इस बात से तय होगा कि वहां विमर्श के विषय कौन से हैं और उसका दायरा कैसा है? इस विमर्श को बनाने में, उसे दिशा देने में वहां के सिविल समाज का सबसे अहम योगदान होता है? लेकिन आज सिविल समाज ने डर और तठस्थता की चादर ओढ़ ली है. विमर्श के अहम सवाल गायब हैं. विमर्श अत्यंत संकीर्ण मुद्दों पर सिमट गया है. उससे तो संवादहीनता की स्थिति पैदा होना तय है.

जब समाज आशाहीन, संवेदनहीन, विचारशून्य, संवादहीन, स्मृतिविहीन और दिशाहीन हो, यही स्थिति तो अंधकार काल है. त्रासदी की बात यह है कि हर कोई इससे निकलने के लिए राजनीतिक जीत की बात कर रहा है. कोई भी समाज के दिल- दिमाग को नहीं जीतना चाहता और केवल राजनीतिक जीत से क्या हासिल होगा? हर कोई यूथ-यूथ की बात करता है. क्या किसी के पास उस यूथ के लिए कोई ठोस योजना है? क्या किसी के पास इस समाज को अंधकार से बाहर निकालने का कोई रास्ता है? क्या समाज में आशाहीनता को समाप्त करने के लिए उम्मीद की कोई किरण है?
हमें कुछ प्रश्नों का जवाब तलाशना होगा. हम किस तरह के समाज का ताना-बाना बुन रहे हैं? समाज का ताना बाना कैसा होना चाहिए? कहीं हम उत्पीड़न की संस्कृति की ओर तो नहीं जा रहे? अपने विचार को प्रखर रखने का यह मतलब तो नहीं है कि हम दूसरे की बात को दबा दें? आखिर नई व्यवस्था कैसी होनी चाहिए? और उस व्यवस्था में हमारी भूमिका कितनी होनी चाहिए ?

आज राजनीति छुट्टा साँड हो गई है. विकल्प ऐसा होना चाहिए जो न केवल उसके ऊपर नकेल कस सके, बल्कि उसे एक दिशा भी दे सके. विकल्प ऐसा होना चाहिए जो विमर्श तय कर पाए. उन मुद्दों को केंद्र में रख पाए. विकल्प ऐसा होना चाहिए जो संवादहीनता को तोड़े. कुछ उम्मीद की किरण दिखा सके. राजस्थान में वर्तमान विमर्श गायब है. वही दल हैं. वही मुद्दे. लेकिन समाज की स्थिति लगातार पिछड़ती हुई. हर स्तर पर समाज हार रहा है. शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय के मुद्दे तो विमर्श का हिस्सा ही नहीं हैं. विमर्श में गाय, मुस्लिम, दलित है. वही राजनीतिक दल, वही सरकारें. आखिर कोई भी दल, सरकार सुधार का एजेंडा क्यों नहीं रख रही? कहीं ऐसा तो नहीं है कि दलगत राजनीति का दौर चला गया है? प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर दवाई है न डॉक्टर. स्कूल की बिल्डिंग का पता है न शिक्षक का. आम व्यक्ति न्याय की उम्मीद में सालों से अधीनस्थ न्यायपालिका में भटक रहा है. युवक-युवतियां रोजगार की तलाश में ठोकरें खा रहे हैं. ब्योरोक्रेट्स राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर मौज कर रहें हैं.


विकल्प ऐसा होना चाहिए जो समाज को, उसके सदस्यों को नैतिक तौर पर मजबूत बनाए. उनको बड़े ख़्वाब दे सके जहां वो कुछ बड़ा करने का सोचे. अपनी सोच का समाज गढ़ने का सोचे. विकल्प ऐसा हो जो व्यक्ति को आध्यात्मिक तौर पर सशक्त बनाए, न कि उसे धर्मानंद में अंधा कर दे. विकल्प ऐसा होना चाहिए जो प्रकृति और कला को व्यक्ति के साथ जोड़े. विकल्प ऐसा होना चाहिए जो कुछ आदर्श दे पाए. कुछ ऐसे किरदार सामने रख पाए जिन्हें देखकर जीवन में साहस का, ऊर्जा का संचार हो सके. जिन्हें देखकर, सुनकर और मिलकर जीवन को ताजगी मिल पाए. कुछ ऐसे प्रतीक सामने रख पाए जो व्यक्ति के जीवन को रोशनी दिखा पाए. आखिर कब तक बुझे हुए तारों से रोशनी की उम्मीद करेंगे? हमे अपनी ज्योत्ति स्वयं से बनना होगा.
दुनिया उन लोगों ने बदली है जो अलग रास्ते पर चले और अकेले पड़ने पर कभी घबराए नहीं. जो आराम की जिंदगियां होती हैं वो बीत जाती हैं. फिर उनकी कोई याद भी नहीं रहती लेकिन जो अनसेटल जीवन होते हैं वही आगे चलकर हमारे नज़रिये को ठीक करते हैं और ऐसा पूरी दुनिया में हुआ है. अनसेटल जीवन ने ही हमें यह बताया है कि हम अपने जीवन में सेटल कैसे होंगे.

 

अश्वनी कबीर

लेखक स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं.
अध्यक्ष- CJAR राजस्थान चैप्टर, विकास के वैकल्पिक मॉडल पर रिसर्च कर रहे हैं।

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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