स्त्रीकाल

युद्ध की विभीषिका और स्त्री-जीवन

 

प्रसिद्ध विदुषी लीला दुबे ने अपने महत्त्वपूर्ण आलेख धरती और बीज’ में स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार व्यक्ति का खेत तथा उसकी फसल पर अधिकार होता है, ठीक वैसी ही स्थिति स्त्री-शरीर की भी है। धरती अनाज पैदा करती है और स्त्री, बच्चे। सीमा-क्षेत्र पर भी सैनिकों को माँ (धरती) की रक्षा के लिए तैनात किया जाता है और यह प्रशिक्षित भी किया जाता है कि उन्हें माँ की रक्षा के लिए हर प्रकार से सदैव तत्पर रहना चाहिए और इसकी रक्षा के लिए हिंसा करने से भी नहीं हटना चाहिए। धरती (क्षेत्र) राष्ट्र की इज्जत का प्रतीक मानी जाती है उसी प्रकार स्त्री, देश-समुदाय, परिवार, जाति और धर्म की इज्जत से जोड़कर देखी जाती है। जिस प्रकार किसी राष्ट्र की सेना द्वारा दूसरे राष्ट्र की धरती पर कब्जा या वर्चस्व स्थापित कर उसे परास्त किया जाता है ठीक उसी प्रकार किसी देश-समुदाय, जाति, परिवार और धर्म की स्त्री को अपहृत, प्रताड़ित, बलात्कार और अन्य तरह की हिंसा करके उस पूरे समुदाय को परास्त करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार स्त्री- शरीर युद्ध-भूमि का वह क्षेत्र बना दिया गया है जहाँ देश, समुदायों, जातियों, परिवारों और धर्मों के बीच युद्ध लड़ा जाता है। अत:, किसी भी तरह का युद्ध हो उसमें सबसे ज्यादा पीड़ित और प्रभावित स्त्री ही होती है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कबीलाई समाज में, स्त्री का इस्तेमाल तो किया ही जाता था लेकिन, स्त्री- शरीर पर हिंसा नहीं की जाती थी। पुरुषों को अपने वश में करने के लिए स्त्री को अपने अधीन करने की प्रथा थी ताकि, उस स्त्री से जुड़े हुए पुरुष स्वतः ही उनके अधीन आ जाएँ। स्त्री को अपने अधीन करने का प्रमुख कारण यह भी था क्योंकि, वे ही बच्चे पैदा कर सकती थीं। इसके इतर सामंती समाज में भी ज्यादातर पुरुष को ही बँधुआ-मजदूर की तरह रखने का चलन था। इस व्यवस्था में भी सीधे स्त्री पर हिंसा जैसा कोई स्वरुप नहीं दिखाई देता है लेकिन, अप्रत्यक्ष तौर पर यहाँ भी स्त्रियों के साथ हिंसा की जाती थी। आज भी बहुत पिछड़े इलाकों में इस तरह की घटनाएँ होती रहती हैं जो सामने नहीं आ पातीं।

आधुनिक समाज में जैसे-जैसे शिक्षा, समाज-सुधार, जागरूकता, अधिकार और इसी तरह के अन्य उपायों के जरिए समाज में चेतना फैलनी शुरू हुई तो लोगों पर वर्चस्व और अधिकार बनाए रखना कठिन सा होने लगा। इस कारण से नए-नए तौर तरीके खोजे जाने लगे। जातीय संघर्ष इसका एक बड़ा उदाहरण है। सांप्रदायिक हिंसा भी उसी का प्रतिफल है। अलग-अलग संस्कृतियों को मानने वाले समुदायों के बीच भी हिंसा अक्सर जन्म लेती रहती है और कई बार भयानक स्वरुप में हमारे सामने उपस्थित होती है। लेकिन, उसके स्वरुप में कई स्तरों पर विभिन्नताएँ भी हैं।

वर्तमान में हो रही हिंसा पर यदि दृष्टिपात की जाए तो हम पाते हैं कि पहले के समाजों में स्त्री पर बिना हिंसा किए वर्चस्व बनाए रखने की प्रवृत्ति थी वहीं आज, स्त्री-शरीर पर हिंसा करते हुए उस  समाज पर वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यह स्थिति आज इतना विकराल रूप ले चुकी है कि स्त्री-शरीर को निशाना बनाए बगैर किसी भी तरह की हिंसा को अंजाम नहीं दिया जा रहा है और न ही समाज पर वर्चस्व प्राप्त किया जा रहा है। इस प्रकार स्त्री- शरीर न केवल वर्चस्व प्राप्त करने का एक साधन या जरिया है बल्कि विजय संकेत’ के रूप में स्थापित होती जा रही है।

युद्ध पुरुष-वर्चस्व की मानसिकता पर आधारित कृत्य है। यह विध्वंस को बढ़ावा देता है। साथ ही सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से पुरुष-तंत्र को मजबूत बनाता है। युद्ध का सबसे नकारात्मक एवं विचारणीय पक्ष यह है कि यहाँ स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। युद्ध संबंधी सभी गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी प्रत्यक्ष रूप में न के बराबर है। इन सबके बावजूद युद्ध की त्रासदी की दोहरी मार स्त्रियां ही झेलती हैं। युद्ध के समय व्यापक स्तर पर सामाजिक एवं पारिवारिक क्षति होती है। 

इस संदर्भ में नारीवादी चिंतन से पहले विशेष ध्यान नहीं दिया गया। नारीवादी चिंतकों में जीन बेथ, सिंथिया इनलो, सान्ध्रा व्हाईट वर्थ, जे. एन. टिकनर आदि ने अपने अनेक रचनाओं एवं सर्वेक्षणों के माध्यम से स्त्री संबंधी सभी समस्याओं को युद्ध के संदर्भ में समझने और उनका समाधान निकालने का प्रयास किया है। जिन बेथ एल्स्टन की पुस्तक (वूमन एण्ड दि वार) परंपरागत युद्ध की प्रथाओं पर एक अध्ययन है। युद्ध को लेकर क्या कहा गया, क्या किया गया, और क्या दावे किए गए, इसके साथ ही गैर-परंपरागत आयामों को रखकर वे युद्ध का परीक्षण करती हैं।  उनके अनुसार, युद्ध के दौरान होने वाले यौन-अपराध, सामूहिक-बलात्कार, हिंसा, अपहरण, लूटपाट आदि सभी अमानुषिक कृत्य महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं निजी-अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसके साथ ही उसे मनोवैज्ञानिक रूप से भी असंतुलन की अवस्था तक पहुँचा देते हैं। विश्व-स्तर पर अनेक संगठनों एवं संस्थाओं ने भी युद्ध के दौरान स्त्रियों की स्थिति पर अपने अध्ययन प्रस्तुत किए हैं।

संयुक्त-राष्ट्र की मानवीय विकास रिपोर्ट के मुताबिक, “युद्ध के दौरान जनसंख्या के अस्त-व्यस्त होने के संदर्भ में स्त्री और बच्चे शरणार्थी, जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिस्सा हैं। विश्व स्तर पर होने वाले सशस्त्र विवादों के फलस्वरूप यह शरणार्थी जनसंख्या 1970 में तीस लाख थी जो कि 1994 में बढ़कर 2-7 करोड़ तक पहुँच गई। यह रिपोर्ट बोस्निया में युद्ध के दौरान होने वाले बलात्कारों के विषय में एक अध्ययन है। इसके अनुसार “युद्ध के दौरान बलात्कार सिर्फ एक दुर्घटना नहीं होता वरन् क्रमबद्ध युद्ध राजनीति का हिस्सा होता है।” क्रिस्टिन टी. हेगन अपनी शोध में लिखती हैं – “द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लगभग 19 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। पाकिस्तानी सैनिकों ने बांग्लादेश की लगभग 2 लाख महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। क्रोएशिया, बोस्निया तथा हर्जेगोविना में युद्ध के दौरान लगभग 60 हजार बलात्कार के मामले सामने आए। 

1992 में हुए क्रोएशिया और सर्बिया के युद्ध में औरतों की दिल दहला देने वाली दुर्दशा को गरिमा श्रीवास्तव इस प्रकार बताती हैं- “वे (लड़कियाँ) बारी-बारी सर्व सैनिकों द्वारा ले जाई जातीं और बलात्कार के बाद लुटी-पीटी घायल अवस्था में स्पोर्टस हाल में बंद कर दी जातीं। सेनाओं ने घरों, दफ्तरों और कई स्कूलों की इमारतों को यातना शिविरों में बदल डाला था। एक बोस्नियाई स्त्री ने बताया- ” पहले दिन हमारे घर पर कब्जा करके परिवार के मर्दों को खूब पीटा गया। मेरी माँ कहीं भाग गयी, बाद में उसका कुछ पता नहीं चल पाया। वे मुझे नोचने खसोटने लगे। भय और दर्द से मेरी चेतना लुप्त हो गई जब जगी तो मैं पूरी तरह नंगी और खून से सनी हुई फर्श पर पड़ी थी। यही हाल मेरी भाभी का भी था।” 1994 में रवांडा के गृह-युद्ध में लगभग ढाई से पाँच लाख महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किए गये। एक अनुमान के अनुसार युद्ध के दौरान 91 प्रतिशत बलात्कार सामूहिक होते हैं।”  

एमनस्टी इंटरनेशनल के 2004 के रिपोर्ट के अनुसार, युद्ध में स्त्रियों के साथ बर्बरतापूर्ण यौन-उत्पीड़न के सबूत मिलते हैं जिसमें बताया गया है कि स्त्रियों के जननांगों को काटना उनके गुप्त-अंगों के आसपास गोली मारना आदि युद्ध के दौरान सामान्य बात है। प्रथम व द्वितीय दो विश्वयुद्धों में कई देशों में सैन्य व अर्ध सैन्य बलों ने सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं को अंजाम दिया।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाए तो, स्थितियाँ और भी भयावह होती जा रही हैं। रूस की गोलीबारी और बमबारी के चलते, महिलाओं द्वारा अंडरग्राउंड मेट्रो-स्टेशनों पर बच्चे पैदा करने और नवजात बच्चों को हड़बड़ी में अस्थायी तौर पर बनाए गए बम से बचने के ठिकानों में ले जाने की तस्वीरें पहले ही सोशल मीडिया पर देखी जा रही हैं। इसके अलावा रूसी सैनिकों द्वारा यूक्रेन की महिलाओं और नाबालिग लड़कियों और यहां तक कि दस साल उम्र वाली बच्चियों से भी बलात्कार के आरोप लगे। इसके बाद भी, वास्तविक स्थिति को पूरी तरह से नहीं बताया गया। इस युद्ध में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे जुर्मं के आधिकारिक आंकड़ों भी सामने नहीं आ रहे हैं। हालांकि, एक कड़वा सच ये है कि यूक्रेन पर रूस के हमले के बीच वहाँ की महिलाएं कई सेवाओं से महरूम हो गई हैं। उन पर देख-रेख करने की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आ गई है और यूक्रेन की महिलाओं के यौन-शोषण और जुल्म के शिकार होने का खतरा और भी बढ़ गया है। यानी महिलाओं को इस युद्ध के चलते औरों से ज़्यादा बोझ उठाना पड़ रहा है और इसकी न तो राष्ट्रीय और न ही कोई अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही तय हो पा रही है।

यूक्रेन में पारंपरिक रूप से पुरुषवादी-समाज होने और लैंगिक असमानता के नियमों और सोच के चलते महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं और न्याय सेवा तक पहुँच पहले ही हासिल नहीं थी। अब इस युद्ध के चलते महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह तलाश पाना और भी मुश्किल हो गया है। एक समाचार के अनुसार गर्भवती महिला की स्ट्रेचर पर अपना फूला हुआ पेट पकड़े-पकड़े मौत हो जाने की घटना ने उन स्त्रियों की परेशानियों को उजागर किया है, जिन्हें प्रसव से पहले बहुत देख-रेख की ज़रूरत है और जैसा कि एक अनुमान लगाया गया है कि यूक्रेन में अगले तीन महीनों में लगभग 80 हज़ार महिलाओं की डिलीवरी होगी। इस तरह से यूक्रेन के समाज में महिलाओं की सुरक्षा और सहयोग के पारंपरिक ढांचे के तितर-बितर होने के चलते, देश की नियमित स्वास्थ्य सेवाएं बहुत सीमित हो गई हैं। इससे महिलाओं के लिए स्वास्थ्य की बुनियादी सेवाएं और ख़ास तौर से प्रजनन और यौन-संबंधी रख-रखाव हासिल कर पाना और भी मुश्किल हो गया है।

इसके साथ-साथ महिलाओं के साथ पहले से होनेवाली हिंसा की समस्या जिससे हम सब वाकिफ हैं ही। पूर्वी यूक्रेन में तो महिलाएं पिछले आठ साल से जंग और हिंसक दुर्व्यवहार के साए तले जी रही हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड (UNFPA) द्वारा 2019 में प्रकाशित किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, यूक्रेन की 75 फीसद महिलाओं ने 15 साल की उम्र से ही किसी-न-किसी तरह की हिंसा का शिकार होने की बात बताई। इसके अलावा हर तीन में से एक महिला ने किसी-न-किसी तरह की शारीरिक या यौन हिंसा भी झेली। चूंकि संघर्षों के दौरान दुश्मन देश अक्सर यौन-हिंसा और बलात्कार को हथियार बनाकर अपनी ताकत दिखाते रहे हैं, तो रूस के सैन्य आक्रमण के चलते यूक्रेन की महिलाओं के यौन और शारीरिक हिंसा, शोषण, बलात्कार और जुल्म के शिकार होने की आशंका और भी बढ़ गई है।  

अप्रवास के अंतरराष्ट्रीय संगठन (IOM) के मुताबिक़, यूक्रेन में युद्ध के चलते देश छोड़ने वाले एक करोड़ से ज़्यादा लोगों में महिलाओं और बच्चों की तादाद आधी से भी ज़्यादा है। परिवार की देख-भाल की इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी का बोझ बढ़ने से महिलाओं की चुनौतियों से निपटने की क्षमता बोझिल हो गई है। इसके चलते उन्हें मानसिक सेहत की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। वो चिंता, तनाव, डिप्रेशन और भय की शिकार हो रही हैं।

यहाँ महिलाओं के यौन-हिंसा के शिकार होने की आशंका इस बात से और बढ़ गई है कि उन्हें युद्ध के चलते अपने घर-बार को छोड़ने को मजबूर होना पड़ा है। विदेश में पनाह लेनी पड़ी है और नए माहौल में अपनी जान बचाने के लिए बाल-विवाह या सेक्स करने को मजबूर होना पड़ा है, जिससे आखिरकार वो शोषण और ज़ुल्म की और भी शिकार होती हैं। यौन-हिंसा के साथ-साथ युद्ध के दौरान वेश्यावृत्ति की दर में तेजी से वृद्धि की बात चर्चे में है। सैनिक अड्डों के आसपास कई ऐसे सामाजिक ढाँचे हैं जहाँ स्त्रियों को अगवा कर उन्हें वेश्यावृत्ति के लिए बेचा जाता है। सान्ध्रा व्हाईट वर्थ अपने एक शोध में बताती हैं कि, यौन-हिंसा के मानसिक एवं भावनात्मक प्रभावों के अतिरिक्त युद्ध के दौरान अपने पति के मारे जाने, लापता होने अथवा नजरबंद होने से स्त्रियों पर अपने परिवार के भरण-पोषण का दायित्व बढ़ जाता है और उपयुक्त नौकरी और भूमि जैसे संसाधनों पर स्वामित्व न होने के कारण उनकी चुनौतियाँ और अधिक बढ़ जाती है। फलतः, अपने अस्तित्व की रक्षा तथा जीवन-निर्वाह के लिए उन्हें गैर-कानूनी कार्यों जैसे वेश्यावृत्ति, नशीले पदार्थ की तस्करी आदि का सहारा लेना पड़ता है, जिस कारण समाज में अपराधों के दर में वृद्धि होती है। यह शोध एक सामाजिक मानसिकता और तमाम व्यावहारिक संकट को भी दृश्यांकित करता है। स्त्री का शरीर एक ऐसा संकेत बन गया है जो जीत और वर्चस्व को स्थापित करता है जबकि, उस वर्चस्व को हासिल करने की प्रक्रिया में स्त्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है।

कुल मिलाकर स्पष्ट होता है कि, इन तमाम युद्धों ने महिलाओं और पुरुषों की पुरानी पारंपरिक भूमिका को और भी मज़बूती दी है, साथ ही महिलाओं पर नई ज़िम्मेदारियों का बोझ भी डाल दिया है। हालांकि, इस मौजूदा समस्या का दूरगामी और शांतिपूर्ण समाधान निकालने के लिए हालात का लैंगिक आधार पर विश्लेषण करना न सिर्फ़ महत्वपूर्ण हो गया है बल्कि, ये क़दम तुरंत उठाना भी अनिवार्य हो गया है। उपरोक्त सभी स्थितियों/घटनाओं पर विचार और विश्लेषण के उपरांत यह समझ बन पाती है कि, किसी भी स्तर का युद्ध/संघर्ष हो उसमें केवल स्त्री ही एक ऐसे ऑब्जेक्ट’ के रूप में सामने आती है जो प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष तौर पर हिंसा का शिकार होती है लेकिन, आम तौर पर घटना के बाद की स्थितियों में इस तरह के विश्लेषण और आंकड़े नहीं के बराबर प्रस्तुत किए जाते हैं बल्कि, तथ्यों/मुद्दों को गौण कर देने का भरसक प्रयास किया जाता है जो कि स्थिति को और भी भयावह होने की तरफ संकेत कर रही है

आधार ग्रंथ –

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  • वॉल्ज केन्थ, (1997), थ्योरी ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स,  न्यूयार्क
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आकांक्षा

लेखिका सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करती हैं। सम्पर्क +919773760825, akanksha3105@gmail.com
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