तिल तिल जकड़ती अजब रिश्तों की ‘सांकल’
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लेखक/निर्देशक – देदीप्य जोशी
निर्माता – आनंद राठौड़, देदीप्य जोशी
स्टार कास्ट – तनिमा भट्टाचार्य, चेतन शर्मा, मिलिंद गुनाजी, हरीश हरिऔध, जगत सिंह, समर्थ शांडिल्य आदि
आखरी बार आपकी आंखें कब नम हुई थीं किसी फिल्म को देखते हुए! आखरी बार कब आपने महसूस किया किसी औरत के दर्द को! आखरी बार कब ऐसी मार्मिक प्रेम कहानी देखी! आखरी बार कब तालियां बजाईं आपने सिनेमाघरों में! मैं खान तिकड़ी या कपूर खानदानों की बात नहीं कर रहा। आखरी बार… आखरी बार… आखरी बार…
ऐसे न जाने कितने ही आखरी बार सवाल छोड़ जाती है ‘सांकल’, यह सांकल है रिश्तों में जकड़े हुए उस भारतीय समाज के ग्रामीण परिवेश की हकीकतों की जिसे आपने, हमने अपने आम जीवन में या तो भोगा है या फिर आसपास घटित होते हुए देखते आए हैं। यह सांकल है प्रेम में आज़ाद होने के ख्याल और सपने बुनने वालों के पांवों की बेड़ियों की। यह ‘सांकल’ है ‘कांचली’ के निर्देशक की। यह सांकल है पितृसत्तात्मक समाज की, यह सांकल है महिलाओं के उन पांवों में बन्धें प्रतीकों को जिन्हें हम और हमारा समाज पाजेब या पायल कह देता है। हमारे भारतीय घरों में पायलों की रून झुन में जब कोई महिला अब आपके आसपास से गुजरे तो देखिएगा कहीं उन मधुर गीतों में उसकी अश्रुपूरित नेत्रों का जल बिंदु तो नहीं छलक रहा।
खैर आपको क्यों इतनी चिंता होने लगी। हम मर्दों को दो समय खाना बना हुआ मिल जाए और जब मन किया मसलने के लिए अपने नीचे एक औरत मिल जाए इससे ऊपर हम उठ ही कहाँ पाएं हैं। यह ‘सांकल’ जब अबीरा के पांवों में पड़ी तो उससे आजाद कराने, छुड़ाने आया उससे आधी से भी कम उम्र का उसका पति जो प्रेमी भी बन गया और अपनी अमिट प्रेम कहानी लिखवा ले गया। इस अबीरा (तनिमा भट्टाचार्य) के पति केसर (चेतन शर्मा) को स्कूल में मास्टर साहब कहते हैं – ‘लुगाई काम आवे न आवे, पढ़ाई काम आवेगी।’ तो दूसरी ओर जब दाई मां (शोभा चंदर पारीख) जब ये कहती है – ‘ये दुनिया हम लुगाइयों से है जरूर पर हम लुगाइयों के लिए ना है।
मर्दों की इस दुनिया में एकली नार रे सौ यार होवे हैं।’ तो लगता है वे हम मर्दों पर ऐसा करारा तमाचा जड़ना चाहती है कि हम मर्द अपने होश संभालें और महिलाओं को कम से कम महिला तो समझें। उसके दुःख, दर्द भले न बांट सकें लेकिन उनके साथ तो खड़े हों।जब इस ‘सांकल’ के ये संवाद आपके कानों में पड़ते हैं तो आज तक की विचारों की जमी उस मैल को बाहर निकाल कर उसमें पीड़ा और प्रेम का सीसा पिघलाकर डाल दिया हो मानों किसी ने ऐसा महसूस होता है।
खैर यह फ़िल्म राजस्थान की मरुभूमि बीकानेर जैसलमेर-बाड़मेर-पाकिस्तान सीमा के एक गांव खेतु की ढाणी में घटती है। जहां रस्मों और रिवाजों से घिरे गांव में भारत के आजाद हो जाने के कई सालों बाद भी दूसरी बिरादरी में अपनी लड़की ब्याहना मानों जैसे नाक कटवाने जैसा था। लेकिन जब लड़कियां उम्र दराज होने लगीं तो उनके ब्याह, निकाहनामे मासूम लड़कों से करवाए जाने लगे। इधर कुछ लड़के मनमर्जी से दूसरी बिरादरी की लड़कियों से भी शादी करने लगे। हम आजाद तो हो गए अंग्रेजों की गुलामी से लेकिन अपनी सोच की गुलामी हम आज भी कर रहे हैं। कभी सोचा है आपने इसका कारण? नहीं तो जब भी यह फ़िल्म देखेंगे तो यह खुद-ब-खुद तुम्हें उस जकड़न में और कसती चली जाएगी। जिसकी जकड़न की छटपटाहट में आप इसका हल खोज निकालोगे। ठीक केसर की तरह जो बीते हुए वक्त को बदलना तो चाहता है, बदलता भी है लेकिन उसे बदले जाने का अहसास नहीं हो पाता। दर्शक जरूर उस अहसाह को महसूस करता है और सोचता है बर्दाश्त करने के लिए सिर्फ औरतें ही क्यों बनी हैं।
फ़िल्म का लेखन इतना खूबसूरत है, आंखें भिगोता है और कई दिन तक अपनी जड़कन में मजबूत सांकल से जड़के रखता है। राजस्थान में ‘सांकल’ लोहे की बनी एक रस्सीनुमा होती है जिससे पशुओं को बांधा जाता है। यह इतनी मजबूत होती है कि इसे कोई भी नहीं तोड़ सकता। लेकिन देदीप्य जोशी अपने लेखन और निर्देशन से इस सामाजिक सांकल को तोड़ने का काम बखूबी करते हैं। बाकी बचा हुआ काम इसके एक्टर, सिनेमेटोग्राफर, म्यूजिक डायरेक्टर, गीतकार, बैकग्राउंड स्कोर देने वाले, कैमरामैन आदि कर जाते हैं।
अपने अभिनय के माध्यम से सबसे ज्यादा इस सांकल की जकड़न में जकड़ते हैं तो तनिमा भट्टाचार्य और चेतन शर्मा। एक महिला के दुःख, दर्द, प्रेम , स्नेह, दुलार हर रूप को तनिमा पर्दे पर जीती है और क्या कमाल जीती है। वहीं प्रेमी , पति, विद्रोही हर रंग-रूप में चेतन भी लुभाते हैं। बीच-बीच में आने वाली दाई मां बनी शोभा चंदर पारीख, पंच बने संजीव, उस्मान के रूप में हरीश, जवान केसर के रूप में जगत सिंह, अपूर्व सिंह भाटी के किरदार में मिलिंद गुनाजी प्रभावित करते हैं। केसर के बचपन का किरदार निभाने वाले समर्थ शांडिल्य भी खास तौर पर लुभाते हैं।
ऐसी फिल्मों में मेकअप, सेट डिजाइनिंग, गीत-संगीत, बैकग्राउंड स्कोर भी आला दर्जे का होता है। अंश व्यास, कुसुम जोशी, कैलाश देथा के लिखे गीत, शिप्रा महर्षि के डायलॉग, शिवांग उपाध्याय-निशांत कमल व्यास का म्यूजिक और शिवांग का बैकग्राउंड स्कोर, लोक गीत ‘पाळो कइयाँ काटू’ शाक़ूर खान की आवाज में मोहता है। ‘कुरजा’ , ‘सांकल’ थीम सॉन्ग, ‘धीमा-धीमा’, ‘दिल दरिया’ सभी गाने बार-बार सुनने का मन करता है।
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अफसोस की ऐसी फिल्मों को थियेटर नहीं मिल पाते। बावजूद इसके की उसने दो दर्जन से ज्यादा प्रतिष्ठित फ़िल्म समारोहों में लगभग हर कैटेगरी पुरुस्कार अपने नाम किए हों। इसलिए इस फ़िल्म को बनाने के बाद निर्माता, निर्देशक देदीप्य जोशी और सांकल के निर्माण में उनके साथी आनंद राठौर को खुद ही मशक्कत करके 24 जिलों में मात्र 24 शो रखवा पाने में कामयाबी मिली। इसमें दोष निर्माताओं, निर्देशकों का नहीं है क्योंकि हमें भी अच्छा, बढ़िया सिनेमा देखने, कहानी सुनने की आदत जो नहीं है। लेकिन इसमें दोष हम लोगों का ही है कि हमें पर्दे पर क्या देखना है। खान तिकड़ी, या करन जौहर। क्योंकि उन जैसों की फिल्में पसंद करने वालों के लिए यह सिनेमा कतई नहीं बना है, ऐसा सिनेमा वो न तो देख पाएंगे, न समझ पाएंगे बल्कि इससे उनका हाजमा ही बिगड़ सकता है।
यह सिनेमा है धीर, गंभीर, सोच-विचार करने वालों का, उन लोगों का जो सच में देश-दुनिया समाज के लिए अच्छा सोचते हैं। तमाम खूबियों के बावजूद दाई मां लगभग वैसी ही दिखती है और यह फ़िल्म पूरी तरह से राजस्थानी सिनेमा होने के बावजूद राजस्थानी भाषा में क्यों नहीं फिल्माई गई इसका दुःख भी सालता है। लेकिन जब यह पूरी तरह अपनी जकड़न में आपको तिल-तिल जकड़े रखे तो यही इसकी सार्थकता भी बन जाती है। ऐसी फिल्म बनाने वालों के लिए जितना लिखा, कहा जाए कम है और अगर उस चौखट को प्रणाम कर लिया जाए जहां से यह निकलकर आई है तो सिनेमा का मंदिर भी पूरा हो जाता है। ऐसी फिल्में आपको रुलाती है, सोचने पर मजबूर करती हैं और महिलाओं को एक दूसरे नजरिये से देखने के लिए पुरजोर आवाज़ उठाती है।