
संसदीय राजनीति और क्रान्ति – आर डी आनंद
- आर डी आनंद
किसी भी संगठन के निर्माण के लिए कोई भी मनगढ़ंत तौर तरीका नहीं चलता है। सर्व प्रथम यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि संगठन का वर्ग-चरित्र, चिन्तन-प्रणाली और कार्य पद्धति क्या है। जन-गणतांत्रिक क्रान्ति के सिद्धांत की जटिल प्रक्रिया को समझना जरूरी है, नहीं तो वास्तविक क्रान्ति की बुनियाद गलत हो जाएगी। कभी-कभी संसदीय राजनीति के चलते कुछ गड़बड़ियां पैदा होती हैं, तो कुछ नेता जन-गणतांत्रिक क्रान्ति का मन्त्र जपते हुए संसदीय राजनीति की तरफ चले जाते हैं, दूसरी तरफ संसदीय राजनीति से ऊबे हुए कुछ लोग, जिनके मन में क्रान्ति के प्रति एक आतुरता है किन्तु उनकी चिन्तन प्रक्रिया सही नहीं है एवं जन-गणतांत्रिक क्रान्ति के सिद्धांत से वास्तविक परिस्थितियों का सही मूल्यांकन न कर सकने के कारण उनमें क्रांतिकारी भटकाव पैदा होता है जिसके फलस्वरूप राजसत्ता के हमले से क्रान्ति को नुकसान हो जाता है। व्यक्तिवाद के चलते अंत में गुटबाजी पैदा हो जाती है और आपसी तालमेल न होने के कारण संगठन टूट जाता है।
इसलिए, संगठन के निर्माण के लिए जो लोग कदम उठाएँगे उन्हें आपस में चिन्तन जगत के सभी क्षेत्रों, यहाँ तक कि व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलुओं को लेकर द्वंद्वात्मक वस्तुवाद के आधार पर आन्दोलन पैदा करके वैचारिक केन्द्रीयता के बुनियाद की रचना करनी चाहिए। सामूहिक नेतृव संगठन निर्माण की प्राथमिक संघर्ष है। इसलिए चिन्तन प्रणाली, चिन्तन की एकरूपता,कार्य-पद्धति और उद्देश्य की अभिन्नता पैदा करने से ही सामूहिक नेतृत्व की ठोस और विशेष धारना पैदा हो सकती है। जब तक ऐसा न किया जा सके तब तक यह समझना कि एक जन-सैलाब ने क्रान्तिकारी संगठन का रूप अख्तियार कर लिया है, बहुत बड़ी भूल होगी। संगठन के लिए पेशेवर क्रांतिकारी एक अति महत्वपूर्ण तत्व है। जब हम पेशेवर क्रांतिकारी कहते हैं तो उसका मतलब होता है कि वह व्यक्तिगत जीवन की अनेक सुख-सुविधाओं से ऊपर उठकर क्रांतिकारी जटिलताओं को बेहिचक आत्मसात करते हुए व्यक्तिगत विषयों को भी संगठन के हित के सम्मुख समर्पण करना होगा।
आज जब हम आमूल परिवर्तन का ख़्वाब देखने लगे हैं तब हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण विषय हो जाता है जनसाधारण और युवा के नैतिक बल को उठाना क्योंकि वर्तमान में,रूपए-पैसे के सामने, गुंडागर्दी के सामने, छोटी-मोटी नौकरी के लोभ-लालच के सामने तथा विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों के सामने अपने को बेंच रहे हैं, जनान्दोलन के द्वारा इनके नैतिक स्तर को निर्मित और संगठित करना होगा। जनान्दोलन को राजनैतिक रूप से सचेत एवं क्रान्ति की परिपूरक उन्नत रुचि, नीति-नैतिकता व संस्कृति के आधार पर एकदम ग्रामीण स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक राजनैतिक जनकमेटियों के रूप में यदि इस जनशक्ति को हम जन्म दे पाएँ-जिसे हम शोषित और उत्पीड़ित जनसाधारण की राजनैतिक शक्ति को जन्म देना चाहते हैं,तभी यह इस समाज के परिवर्तन की चालक शक्ति या प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करेगी। एक बात यहाँ स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरूरत है कि यह जनान्दोलन स्वतःस्फूर्त ढंग से चाहे जितनी बार और जितनी भी तीब्रता से क्यों न उठे, क्रान्ति का रूप कभी नहीं ले पाएगी। इसके भ्रम को पलने वालों को अन्ततः मुँहकी खानी पड़ेगी।
आजकल हम जितना नैतिक पतन देख रहे हैं उस आधार पर कहा जा सकता है कि हम आन्दोलन के लिए जितने भी साथियों को नैतिकवान बनाते हैं, यह पूँजीवादी व्यवस्था उससे कहीं ज्यादे लोगों को नैतिक अधःपतन से गर्त में धकेलता रहता है। जाहिर है इस पूँजीवादी समाज व्यवस्था का आमूल परिवर्तन करना होगा। हम भले ही शान्तिपूर्ण तरीके से पूँजीवादी समाज व्यवस्था को बदलना चाहें, लेकिन राजसत्ता अपनी सशस्त्र दमनात्मक ताकतों से हमारे शान्तिपूर्ण आन्दोलन को भी रोकना चाहती है। तब क्या हमारा आन्दोलन शान्तिपूर्ण रहेगा? इतिहास गवाह है कि हम अपनी रक्षा में उन्हें जवाब देने लगते हैं जिससे आन्दोलन शान्तिपूर्ण संपन्न नहीं होता है।
ऐसी स्थिति में हमें देखना होगा कि हमारे आन्दोलन का रास्ता क्या है? आन्दोलन का रास्ता ठीक है कि नहीं? आन्दोलन का आदर्श ठीक है कि नहीं? आन्दोलन का रास्ता ठीक है कि नहीं? इन प्रश्नों पर विचार करना जरूरी है। एक बात और ध्यान रखने की जरूरत है कि राजसत्ता सिर्फ खुले तौर पर ही जनान्दोलन पर वार नहीं करता है बल्कि आन्दोलन के भीतर अपने एजेंट भी रखता है। ये एजेंट सच्चे क्रांतिकारियों से भी अधिक लडाकूपन दिखाते हैं। हमारे मोर्चे में दरार पैदा करते हैं, विघटन पैदा करते हैं। जनान्दोलन का सबसे बड़ा हथियार किसानों-मजदूरों की निचले स्तर से ऊपरी स्तर तक की जनकमेटियां होती हैं। किसी न किसी बहाने ये एजेंट इन कमेटियों का निर्माण नहीं करने देते हैं। इस तरह देश के अंदर सभी संसदीय पार्टियां क्रांतिकारी तैयारी में बाधा डालती हैं। इसके जरिए जनता को गुमराह कर क्रांतिकारी संगठन से जनगण को दूर रखने का षडयंत्र करती हैं। इन्हें ही जनान्दोलन के मध्य सोशल डेमोक्रेट कहते हैं। इन्हें ही समझौतावादी ताकतें कहा जाता है। अतः क्रान्ति के लायक राजनैतिक शक्ति यदि नहीं ग्रहण कर पाए हैं तो लाख ईमानदार होने के बावजूद भी क्रान्ति नहीं हो पाएगी।
हमने कई बार राजसत्ता शब्द का प्रयोग किया है। आखिर ये राजसत्ता क्या है? वास्तव में, राजसत्ता ही इस पूँजीवादी-ब्राह्मणवादी व्यवस्था की रक्षा कर रही है। राजसत्ता के मूल अंग तीन हैं-1) सैन्य शक्ति, 2) न्यायपालिका और 3) पुलिस सहित नौकरशाही तथा प्रशासनिक व्यवस्था। राजसत्ता का चरित्र न चुनाव से बदलता है,न सैनिकों के तख्तापलट से बदलता है। इसको कोई अच्छी तरह संचालित करे या बुरी तरह संचालित करे, इसके ऑपरेटर इंजिनियर हो या मिस्त्री इसका चरित्र वही रहता है। इसलिए सरकार बदलने से राजसत्ता का चरित्र नहीं बदलता है। इसका चरित्र तभी बदला जा सकता है जब पूँजीवादी-ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था को बल पूर्वक उखाड़ फेककर एक नई व्यवस्था का संविधान तैयार कर बहुजन की ताना शाही के साथ-साथ राज्य की शक्तियों का प्रयोग किया जाय। लेकिन प्रारंभिक अवस्था में क्रान्ति को पराजित होनी ही पड़ती है क्योंकि राजसत्ता के सामने हमारी शक्ति सुनियोजित नहीं होती है। कई-कई बार पराजय का मुंह देखना पड़ता है, परन्तु आखिर में हमारी विजय होती है क्योंकि हम सीखते-सीखते क्रान्ति की परिपक्वता तक पहुंचते हैं। लेकिन भारत में हम परिपक्वता तक पहुँचने को कौन कहे, हम और रसातल में धंसते जा रहे हैं। दलित आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में मैं कहना चाहूँगा कि दलित कभी भी क्रान्ति के लिए आन्दोलन नहीं करता है,वह सिर्फ थोड़े से सुधारों के लिए आन्दोलन करता है जिन्हें वह जनसाधारण में क्रान्ति-क्रान्ति कहकर चिल्लाता है। भारत में क्रान्ति लायक जनान्दोलन न वामपंथ कर पाया और न दलित ही।
जंतर-मंतर पर 21मई 2017 को जो दलित जन-सैलाब देखने को मिला, वह “भीम आर्मी” द्वारा किए गए साहसिक कदम के द्वारा उत्पन्न संकट से बचाने के लिए कई दलित संगठनों और नव उदित नेताओं के आवाह्न पर एकत्रित हुआ था। वहाँ पर कोई भी राजनैतिक दल का व्यक्ति तथाकथित तौर पर नहीं था। ऊना आन्दोलन से पैदा हुए दलित नेता जिग्नेश मेवाड़ी, प्रो.रतन कुमार एवं चंद्रशेखर आज़ाद “रावण” मुख्य फ़ीगर थे। सोशल मीडिया पर भीड़ को देखकर अन्य शहरों के दलित साथी, बुद्धिजीवी, लेखक एवं कार्यकर्त्ता भी बहुत ही उत्साहित हैं। लगता है अब क्रान्ति होने वाली है। लगता है अब क्षत्रियों-ब्राह्मणों का खैर नहीं। यह उम्मीद बेईमानी नहीं है लेकिन उस भीड़ पर राजनैतिक सट्टेबाजों की दृष्टि लगी है। बीजेपी सोचती है जब दलित मारे जाएँगे,तब बेसहारा होकर हिंदुत्व के झंडे के नीचे बीजेपी के वोट बैंक बनेंगे। बसपा सोचती है जब दलित मारे जाएँगे, तब संगठित होकर बसपा के वोट बैंक को मजबूत रखेंगे। सब अपने-अपने मोहरे मैदाने-जंग में गुप्त रूप से उतार चुके हैं। बसपा जो आधिकारिक तौर पर दलितों की पार्टी है-का कोई आधिकारिक व्यक्ति सहारनपुर में नहीं गया और न ही “भीम आर्मी” को कोई राजनैतिक सम्बल ही प्रदान किया। इसके बावजूद भी जिग्नेश, डा.रतन कुमार और चंद्रशेखर रावण सुश्री मायावती में अपना विश्वास जताते रहे हैं। यह दलित खेमे की मजबूरी भी हो सकती है और दार्शनिक अदूरदर्शिता भी। एक बात उभरकर सामने आ रही है कि सुश्री मायावती के स्थान को इन नेताओं को ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो कोई और पार्टी बनाई जानी चाहिए। किन्तु, दलित बुद्धिजीवी मानते हैं कि बसपा को कमजोर करने का मतलब है कि दलित के हाथ-पांव का उखड़ना। सभी दलित चाहे वो किसी भी दलित संगठन के क्यों न हों, सभी इसी संसदीय राजनीति में विश्वास जमाए पड़े हैं। दलित यहाँ दोहरी बौद्धिक जिन्दगी जी रहा है। सपने तो क्रान्ति की देखता है लेकिन संसदीय राजनीति से ऊपर की सोच ही नहीं पाता है।
इतिहास गवाह है कि जितने भी भारतीय आन्दोलन हुए, वे सभी अपनी सैद्धांतिक कमजोरी, राजसत्ता की सही समझ न होने के कारण एवं क्रान्ति की गलत परिभाषा के चलते संसदीय राजनीति के कोल्हू में पिरो दिए जाते हैं। जो सशस्त्र क्रान्ति के लिए कदम उठाए, उन्हें आतंकवादी की श्रेणी में रखकर जेल में डाल दिया गया या फिर बहुत से साथियों को इनकाउंटर कर दिया गया। इसलिए, दलितों के इस “भीम आर्मी” को अपने प्रसंशकों से बचके सिद्धांत, रणनीति एवं रणकौशक बनाकर संसदीय राजनीति के पैंतरेबाजी से बचते हुए दलितों को सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए तैयार करे। बलबा क्रान्ति नहीं होती है, प्रतिहिंसा भी क्रान्ति नहीं होती है, रिवोल्ट भी क्रान्ति नहीं होती है, प्रतिशोध भी क्रान्ति नहीं होती है। इन तमाम कार्यवाइयों से प्रतिहिंसा-प्रतिक्रिया बढती है। कुछ ऐसे विचार व सिद्धांत विकसित करने पडेंगे जिससे निर्दोष दलितों की हत्याएँ न प्रायोजित हों। यहाँ सरकार के ऊपर इतना दबाव बना देना चाहिए कि कोई भी सरकार हो या तो दमन पर उतारू हो जाय या फिर हमारी सुरक्षा की गारंटी मुहैय्या कराए। क्रान्ति सम्पूर्ण परिवर्तन का नाम है। सम्पूर्ण परिवर्तन तभी होगा जब हम क्रांतिकारी सिद्धांत पर क्रांतिकारी संगठन का निर्माण करेंगे। संसदीय राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, प्रशासनिक अमले हमारे किसी काम के नहीं हैं। यदि इनके झांसे में रहे, यदि जंतर-मंतर वाली भीड़ पर मुग्ध हुए, तो पराजय निश्चित है। संसदीय राजनीति तत्कालीन तौर पर दलितों की मजबूरी हो सकती है परन्तु संसदीय राजनीति का प्रतनिधित्व करती हुई कोई भी दलित पार्टी व दलित नेता हमारा भला नहीं कर सकता है। याद रहे हमारे दो दुश्मन हैं – पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद। पूँजीवाद का अर्थ है मुनाफे पर टिकी उत्पादन व्यवस्था और ब्राह्मणवाद का अर्थ है जातिप्रथा। डा.आम्बेडकर ने यह कदापि नहीं कहा है कि ब्राह्मणवाद की वजह से पूँजीवाद का अस्तित्व है, बल्कि पूँजीवाद की वजह से ब्राह्मणवाद जरूर खाद-पानी पा रहा है। जातिप्रथा उन्मूलन के साथ हमें पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं है। बाबा साहब ने यह भी कहा है कि संसदीय राजनीति हमारे लिए लाभदायक कतई नहीं हो सकता है। यह हमारी मजबूरी में उठाया गया तत्कालीन कदम था। आप को शीघ्र ही अपने हित का संविधान बना लेना चाहिए,नहीं तो बहुत देर हो जाएगी। डा.आम्बेडकर संविधान में किसी भी रूप में संपत्ति का व्यक्तिगत मालिकाना नहीं चाहते थे। वे राजकीय समाजवाद चाहते थे। वे मजदूरों की सरकार चाहते थे। वे संपत्ति, उद्योग, भूमि, कृषि, बीज,पानी, बिजली इत्यादि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे। उन्होंने कहा था कि निजीकरण विषमताओं को जन्म देगा, इसलिए जितनी जल्दी हो सके,संविधान को बदल लेना। यह बात उन्होंने दलितों और मजदूरों से कही थी। इसका मतलब था कि संसदीय राजनीति के द्वारा यह सब संभव नहीं है। इसीलिए उन्होंने इशारा किया कि बिना संघर्ष किए आप को संविधान की पुनर्रचना का अवसर मिलने वाला नहीं है। डा.आम्बेडकर के राजनीतिक विश्लेषण से हम सम्पूर्ण क्रान्ति तक पहुंचते हैं। भले ही वे स्पष्ट न कह पाए हो किन्तु क्रान्ति के बिना दलित की हत्याएँ रुकेंगी नहीं। अपने और गैर दोनों ही अपने-अपने राजनीतिक फायदे के लिए दलितों की हत्याओं का प्रयोग करते रहेंगे।
लेखक भारतीय जीवन बीमा निगम में उच्च श्रेणी सहायक के पद पर कार्यरत है।
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