सिनेमा

सिनेमा: मनोरंजन बनाम फूहड़ता

 

  • कर्ण सिंह

 

आज समय की रफ्तार को तो जैसे पंख लग गए हैं, वक्त के साथ हर चीज का व्यवसायीकरण होता जा रहा है। हर कोई अपनी तिजौरियों को भरने में लगा हुआ है, सामाजिक, नैतिक मूल्यों की तो जैसे किसी को परवाह ही नहीं है। पूँजीवाद के इस कड़वे सच की कल्पना शायद हमारे पूर्वजों ने कभी नहीं की थी। समय के साथ सिनेमा के क्षेत्र में आए गम्भीर बदलाव दर्शाते हैं कि पूँजीवाद कैसे हमारे नैतिक मूल्यों पर हावी हो गया है। मनोरंजन को पहले मानव जीवन में नीरसता को दूर करने के साधन के रूप में समझा जाता था परन्तु आज इसका अर्थ बेमानी हो गया है। मेरी स्मरण शक्ति पर जोर देने से याद आता है कि बचपन में कैसे हम बिना रंगीन तस्वीर के बॉक्सनुमा डिब्बे को देखने के लिए जद्दोजहद करते थे, छत पर लगे 2-4 इंच के एंटीना से धुंधली तस्वीर को दूर करने के लिए आए दिन कसरत करते थे। लेकिन विज्ञान के चमत्कारों के सामने खास चीजें आम हो गई है, आए दिन होने वाले आविष्कारों के सामने हर चीज बौनी नज़र आती है। इस प्रगति ने दुनिया को छोटा कर दिया है साथ ही टीवी की पहुंच आमजन तक लाने का श्रेय भी वैज्ञानिक तकनीक को जाता है। किसी भी देश के लिए तकनीकी विकास स्वागत योग्य है लेकिन इस प्रगति से अगर सांस्कृतिक और पारिवारिक मूल्यों का ह्रास कतई तारीफ योग्य नहीं हो सकता।

आज के दौर में मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता हर घर में परोसी जा रही है जो कि किसी भी देश के सामाजिक सरोकार के लिए उचित नहीं हो सकता। हम सब ने ऐसा दौर भी देखा है जब पूरा परिवार एक साथ बैठकर रामायण, महाभारत जैसे पौराणिक कथाओं के जीवन्त रूप को टीवी पर देखकर आनन्दित होते थे। इस तरह के धारावाहिकों को देखने के लिए पूरी गली, मौहल्ले में सन्नाटा पसर जाता था, वहीं आज का दौर है जहाँ सिर्फ मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता को परोसा जाता है। आज कोई भी व्यक्ति सपरिवार टीवी नहीं देख सकता, अगर गलती से पूरा परिवार एक साथ बैठकर देखने लग भी गया तो अश्लीलता की परकाष्ठा ऐसी है कि एक दूसरे की बगले झांकने लगते है।

दरअसल देश में विकास के जरिए आने वाले बदलाव का दुष्प्रभाव सिनेमा के क्षेत्र पर भी पडा है, जिसके परिणामस्वरूप हम ताजा उदाहरण ‘वीरे दी वेंडिग’ जैसी फिल्मों में देख सकते है जिसमें फूह़डता को परोसा गया है। वहीं नग्नता का ताजा-ताजा माध्यम की बात करें तो इसको वेब सीरीज में देखा जा सकता है, जिनके जरिये अश्लीलता मनोरंजन के नाम पर सीधा घर में परोसी जा रही है। उदारहण के तौर पर सीक्रेड गेम, मिर्जापुर, गंदी बात इत्यादि अनेकों वेब सीरीज है जो आपको अपने कंटेंट के जरिये भारतीय सामाजिक स्थिति को कंलकित करते नजर आएंगे। ऐसे बहुत सी फिल्में, धारावाहिक इत्यादि भी है जो सामाजिक नैतिकता मूल्यों के स्तर को गिराते जा रहे है। इस तरह सिने-सिनेमा जगत में मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता दिखाने से युवा पीढ़ी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि युवा हमेशा फिल्मों और उनके किरदारों से प्रेरित होकर उनकी नकल करने की कोशिश करते है। हमारे सामने ऐसे कई फिल्मों के उदाहरण है जिनके कारण युवाओं की मानसिकता पर गलत प्रभाव पड़ा है।

विश्व में हमारे देश को सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर के रूप में जाना जाता है ऐसे में इस तरह की फूह़डता कहाँ तक वाजिब है यह भी सोचनीय विषय है। हमारे समाज में संस्कारों और संस्कृति पर ही पूरी पारिवारिक प्रथा टिकी हुई है अगर हम भी पाश्चिमी संस्कृति से अभिभूत हो जाएंगे तो समाज में असंतोष फैल जाएगा। आजकल हर टीवी चैनल टीआरपी के चक्कर में अश्लीलता को परोस रहा है चाहे उसका माध्यम कोई भी हो जैसे- प्रिंट मीडिया, इलैक्ट्रानिक मीडिया, न्यू मीडिया। आज फिल्मों ने तो नग्नता की सारी हदें पार कर दी है, नायक-नायिका के बीच निजी पलों को बड़ी ही खुले तौर पर दिखाया जाता है। आज सिनेमा क्षेत्र में जरूरत है कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर कार्यक्रम बनाए जाए, ताकि मनोरंजन के साथ-साथ समाज में सकारात्मक प्रभाव भी पड़े। आज लोगों को आदर्श उदाहरणों की जरुरत है ना कि ऐसे कार्यक्रम जो हमारी मानसिकता को दूषित करें।

लेखक ज्ञानार्थी मीडिया कॉलेज, काशीपुर उत्तराखंड में  पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विभागाध्यक्ष एवं सहायक प्रोफेसर हैं|

सम्पर्क- +918826590040, karan11ksingh@gmail.com

 

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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