साहित्य, समाज और राजनीति
हर साल अपनी कक्षा के नए छात्रों से पूछता हूँ कि उनमें से कितने लोग साहित्य पढ़ने में रुचि रखते हैं। मैं उन्हें साफ़-साफ़ कहता हूँ कि यदि साहित्य में उनकी रुचि नहीं है तो बेहतर होगा कि समाज अध्ययन पढ़ना छोड़ कर वे कुछ और करें। अपने तीन दशक के अध्यापन के अनुभव से यह कह सकता हूँ कि साहित्य पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में निरन्तर भारी कमी आयी है। ऐसे कुछ होते भी हैं तो उनमें अधिकतर अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने वाले हैं। मैं विश्वास से कह सकता हूँ कि हिन्दी साहित्य पढ़ने वालों की संख्या पिछले तीन दशकों में निरन्तर घटती जा रही है। हमें इसके कारणों और परिणामों पर विचार करने की ज़रूरत तो है, बुद्धिजीवियों को इस संकट से निकलने का रास्ता भी खोजना होगा।
इसके पहले कि हम साहित्य में घटती रुचि के कारणों और परिणामों पर विचार करें पुस्तक के कारोबार को भी थोड़ा समझ लें। मेरे एक मित्र जो कवि और लेखक भी हैं और हिंदी की पुस्तकों के प्रकाशक भी हैं। अपना पूरा जीवन हिन्दी के लिए समर्पित कर दिया। स्तरीय अंतराष्ट्रीय साहित्य को हिन्दी पाठकों को उपलब्ध करवाना ही उनके जीवन का उद्देश्य है। अपनी सारी आमदनी को इसी काम में झोंक देते हैं। बताते हैं कि हिन्दी प्रकाशकों में साहित्य को लेकर कोई उत्साह नहीं है। ज़्यादातर प्रकाशक पाठकों तक पुस्तकों को पहुँचाने की चिन्ता के बदले किसी तरह से सरकारी ख़रीदारी के जुगाड़ में रहते हैं। लेखक को कोई रॉयल्टी देने की परम्परा तो शायद ही है और लेखक को लोकप्रिय बनाने की चिन्ता या कोशिश भी नहीं है। राजाराम मोहन राय पुस्तकालय एक बड़ा ख़रीददार है ऐसी पुस्तकों का। बस प्रयास यह रहता है कि उनके चयनकर्ताओं के साथ जुगाड़ बिठा कर लाभ कमा लिया जाय और फिर अगली पुस्तक की चिन्ता की जाए। मेरे इस मित्र का यह भी मानना है कि साहित्य की दुर्गति के पीछे प्रकाशकों का जितना हाथ है, उससे कम पाठकों का भी नहीं है। पुस्तक ख़रीदने की क्षमता के बावजूद उनमें पुस्तकों के प्रति कोई रुचि नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी साहित्य जनता से कट कर केवल विश्वविद्यालय के परिसरों में सीमित हो गया है। साहित्यकार भी पुरस्कार के चक्कर में रहने लगे हैं। फिर विश्वविद्यालयों में साहित्यकारों की अपनी-अपनी लॉबी है और साहित्य की रचनाशीलता उसमें खो जाती है। इसके साथ ही साहित्य समाज का दर्पण न होकर एक प्रोडक्ट हो जाता है।
साहित्य के माध्यम से समाज अपने सदस्यों को उन विचारों से अवगत करवाता है, जिससे समाज बनता है। मुझे याद है मुल्कराज आनंद से मेरी छोटी सी मुलाक़ात। दिल्ली के हौज़ख़ास स्थित उनके आवास पर एक बार मैं अपने मित्र के साथ उनसे मिलने गया था। मैं तो उन्हें केवल साहित्यकार समझता था, लेकिन साहित्य उनका माध्यम था समाज से संवाद करने का। उन्होंने बताया कि एक बार वे गांधी जी के पास गए और उनसे पूछा कि आपके आन्दोलन में मैं क्या सहयोग कर सकता हूँ, मैं तो लेखक हूँ लेकिन हिन्दी में लिख नहीं सकता हूँ। गाँधी ने उनसे कहा कि लेखकों का दायित्व है समाज में विचार की क्षमता को विकसित करना। आपके लेखों, उपन्यासों से समाज बदलेगा। आप को हिन्दी नहीं आती है तो अंग्रेज़ी में लिखें और फिर कभी उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद भी हो जाएगा। लेकिन आपका लिखते रहना बेहद ज़रूरी है। राजनीतिज्ञों की बातें समाज में ऊपर -ऊपर ही रह जाती हैं। साहित्य लोगों के मन में गहरे उतर पाता है। मुल्कराज आनंद ने उसके बाद कई उपन्यास लिखे जिसमें प्रसिद्ध उपन्यास ‘क़ुली’ भी शामिल है। गाँधी समझते थे कि साहित्य समाज के की वैचारिकी को ठीक करने के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है।
मुल्कराज आनंद की एक और ख़ास बात थी। पुस्तकों से हुई अपनी आमदनी से चार गाँवों के विकास के लिए काम करते थे। जिस दिन मेरी उनसे मुलाक़ात हुई वे महीने भर के लिए गाँव जा रह थे। यह गाँव उनके अपने नहीं थे, उन्होंने गोद लिया था। गाँव का गोद लेना केवल राजनीतिज्ञों के लिए सुरक्षित नहीं है, बल्कि उनकी गोद में गाँव बेजान हो गये हैं। साहित्यकारों को भी गाँव गोद लेना चाहिए और गाँवों को भी साहित्यकारों को गोद लेने की परम्परा शुरू करनी चाहिए। हिन्दी नहीं लिख पाने को लेकर मुल्कराज आनंद बेहद दुखी थे। उन्होंने हिन्दी सीख कर उसमें भी लिखना शुरू किया। लेकिन उनका कहना था कि हिन्दी पाठक पुस्तकें ख़रीदते नहीं हैं। उन्हें उन पुस्तकों से कोई ख़ास रॉयल्टी नहीं मिलती है और उन्हें उन गाँवों के लिए पैसे की ज़रूरत होती है। इसलिए में लिखना बन्द कर दिया। हिन्दी के ज़्यादातर लेखक यही कहते हैं कि प्रकाशक उन्हें कोई रॉयल्टी नहीं देता है। प्रकाशक कहता है कि पुस्तकें बिकती नहीं हैं। समझ में नहीं आता है कि जिस देश में हिन्दी के अख़बार अंग्रेज़ी अख़बारों की तुलना में कई गुणा ज़्यादा प्रकाशित होते हैं, हिन्दी सिनेमा जगत विशाल धन कमाता है, वहीं हिन्दी लेखक बदहाली में क्यों रहते हैं।
लेखकों की शक्ति का अन्दाज़ा आपको लग सकता है यदि आप उन्नीसवीं सदी के मध्य में हुए फ़्रांस के प्रसिद्ध लेखक एमील जोला को याद करें। उनके उपन्यास ‘नाना’ ने फ़्रांस में तहलका मचा दिया दिया। इसमें पेरिस की एक वेश्या के जीवन के माध्यम से शहरी जीवन की क्रूरता पर प्रकाश डाला गया है। लेकिन लेखक की शक्ति का परिचय यदि आपको चाहिए तो एक यहूदी सैनिक ऑफ़िसर द्रेफ की कहानी को याद करना होगा, जिसे एक प्रपंच में फ़ंसा कर सज़ा दे दी गयी थी। ऑफ़िसर की पत्नी ने जोला से अनुरोध किया कि अब केवल वही उसे न्याय दिला सकता है। जोला ने एक क्लब में फ़्रांस के बुद्धिजीवियों को आमन्त्रित किया और अपना प्रसिद्ध आरोप पत्र ‘मेरा अभियोग’ पढ़ा। पेरिस में हंगामा हो गया। जोला पर सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह का मुक़ाद्दमा चलाया गया। जोला को सज़ा हो गयी। मित्रों ने फ़्रांस छोड़ने की सलाह दी। न चाहते हुए भी जोला लंदन चला गया और वहाँ से लगातार फ़्रांस की सरकार के ख़िलाफ़ लिखता रहा। दुनिया भर में फ़्रांस की बदनामी होने लगी और न्यायालय ने मुकदमा फिर से खोला। न केवल जोला आरोप मुक्त हुए, बल्कि ऑफ़िसर भी आरोप मुक्त हो गये। जोला भारतीय साहित्यकारों का भी आदर्श होना चाहिय।
फ़्रांस के ही एक दूसरे साहित्यकार मीशेल ओलबेक को लें। हाल ही में अपने उपन्यास ‘सबमिसन’ के लिए बेहद चर्चित रहे हैं। मेरे ख़याल से उनकी दो पुस्तकों को एक साथ पढ़ना चाहिए। अपनी पहली पुस्तक ‘एटोमाइज्ड’ में उन्होंने वर्तमान फ़्रांसीसी समाज की कड़ी आलोचना की है। बताया है यह समाज इतना एकाकी हो गया है कि यहाँ लोगों के लिए पहचान का संकट पैदा हो गया है। काम वासना ही उनके लिय मनुष्य होने का मापदण्ड हो गया है। इसका मुख्य पात्र जिनोम वैज्ञानिक है और जिन एडिटिंग पर शोध करता है, जिससे मनुष्य के दैहिक संरचना में आमूल परिवर्तन की सम्भावना बन रही है। एक नये तरह के मनुष्य की रचना हो सकती है। इच्छा अनुसार बच्चों में गुणों को विकसित किया जा सकता है। मसलन आप तय कर सकते हैं कि आपका बच्चा लम्बा हो। अपने दूसरे उपन्यास में उन्होंने कल्पना की है कि 2029 में फ़्रांस इस्लामिक राज्य घोषित हो जाता है। इस बात को लेकर ही काफ़ी विवाद शुरू हो गया है। ग़ौर करने की बात है कि इस पुस्तक के विमोचन के अगले दिन ही चार्ले हेब्डो नामक पत्रिका के दफ़्तर पर आतंकवादी हमला हुआ था। लेकिन इस पुस्तक को यदि उनकी पहली पुस्तक के साथ पढ़ें तो आप समझ सकते हैं कि लेखक का उद्देश्य आधुनिकता के विकृत रूप की कटु आलोचना करना है। इसी सन्दर्भ में लेखक मानता है कि इस विकृति से ऊब कर लोग सम्भवतः धार्मिक काट्टरपन्थ को भी स्वीकार कर लें। यह एक तरह से समाज को आगाह करने का प्रयास भी है। यही साहित्य का काम है।
साहित्य के दायित्वबोध को भारत से ज़्यादा कौन समझ सकता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में साहित्य की भूमिका को कौन नकार सकता है। प्रेमचंद, प्रसाद, निराला, टैगोर और न जाने कितने छोटे बड़े साहित्यकारों ने भारतीय राष्ट्रवाद की नींव रखी थी। पश्चिमी उग्र राष्ट्रवाद के विपरीत यहाँ एक समावेशी राष्ट्रवाद बना था। राष्ट्रीय मूल्य मानवीय मूल्यों का संयोग था। अन्तर्राष्ट्रीयवाद भी भारतीय राष्ट्रीयवाद का हिस्सा था। हिन्दी साहित्य ने जिन मूल्यों से भारतीय राष्ट्रवाद को सींचा था आज कहीं ग़ायब हो गये हैं। इसलिय आज मूल्यहीन और उग्र राष्ट्रवाद हमारे समाज को खाता जा रहा है। ऐसे राष्ट्रवाद के लिए ही कहा गया है ‘निज मन ही निज तन को खाए’। आज हमारा समाज जो मूल्य हीनता झेल रहा है उसके पीछे एक कारण आम लोगों का घटता साहित्य प्रेम भी है। हर समाज अपने साहियकारों को सम्मान देता है। पश्चिम में आप पाएँगे कि हर छोटे बड़े साहित्यकार के घरों को, उनके पुस्तकालय को समाज ने सुरक्षित रखा है। लोग वहाँ जाते हैं और उनके मूल्यों को याद करते हैं। आप यदि आज के भारत में उन साहित्यकारों के गाँवों में जाएँ तो उनका नमोनिशान मिलना मुश्किल होगा।
साहित्य केवल मूल्यों के लिए ही नहीं सामाजिक विश्लेषण के लिए भी ज़रूरी है और इस मायने में आधुनिक समाजशास्त्र से ज़्यादा धनी है। समाज को यदि आप समझना चाहते हैं तो आपको साहित्य का सहारा लेना ही होगा। ख़ास कर यदि आप यह जानना चाहते हैं समाज किस दिशा में जा रहा है तो समाजअध्ययन से बेहतर समझ समय साहित्य से मिल सकता है। फ़्रांस के लेखकों का ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। भारत में यदि ग्रामीण समाज को समझना है तो प्रेमचंद, फ़णीश्वर नाथ रेणु जैसे लेखों की रचनाओं को पढ़े बिना आप कैसे समझ सकते हैं। यह बात ख़ास कर हासिये के समाज के लिय लागू होती है। तुलसी राम की आत्मकथा मुर्दाहिया से बेहतर शायद ही कोई समाजअध्ययन दलित समाज के बारे में हमें बता सकता है। यहाँ तक कि बहुत से दार्शनिक और समाजशास्त्री भी आख़िर में साहित्य का सहारा लेते हैं। ओक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में दर्शन की प्राध्यापिका रही आइरिस मर्डोक ने तो दर्शन की केवल एक या दो पुस्तकें लिखी और तीस-पैंतीस उपन्यास लिखा। इटली के इतिहासकार एंबेरतो ईको ने भी अपनी इतिहास की समझ को अंततः उपन्यासों के माध्यम से परोसना शुरू किया। समाजशास्त्र के पहले भी लोग समाज के बार में विश्लेषण करते रहे हैं और उसकी विधा साहित्य की ही रही है। समाजशास्त्र की स्थिति के आकलन के लिए बनाए गये गुलबेंकियन कमिसन, जिसके सदस्य नोबेल पुरस्कार विजेता इलिया प्रोगोजिन और एमानुएल वालेंस्टिन भी थे, ने अपनी रिपोर्ट में तो यहाँ तक भी कह दिया है कि धार्मिक साहित्य को भी समाजशास्त्र का हिस्सा मानना चाहिए क्योंकि आधुनिक समाजशास्त्र के पहले इन्हीं माध्यमों में समाज अपनी समझ को अभिव्यक्त करता था।
अब सवाल है कि साहित्य के प्रति हम नयी पीढ़ी में रुचि कैसे जगाएँ। इस सन्दर्भ में मैं एक पहल की चर्चा करना चाहता हूँ। अभी मुझे पता चला कि बिहार-झारखंड के एक विद्यालय के पूर्ववर्ती छात्रों के एक संगठन ने यह तय किया है कि दिल्ली के केंद्रीय विद्यालयों के साथ मिल कर कविताओं की अन्त्यक्षरी प्रतियोगिता आयोजित की जाएगी। इसमें कविताओं का बड़ा हिस्सा प्रस्तुत किया जाएगा। इस विद्यालय की यह पुरानी परम्परा रही है, जिसे याद कर वहाँ के पूर्ववर्ती छात्र रोमांचित हो जाते हैं और इसलिए उसे देश के और हिस्सों में ले जाना चाहते हैं। इसमें लगभग सत्तर दिन का कार्यक्रम होगा और हर दिन एक विशेष कवि को समर्पित किया जाएगा, जिसके बारे में बच्चों को बताया जाएगा। उनके नाम पर उस विद्यालय में बच्चे एक पेड़ भी लगाएँगे। इस प्रतियोगिता को धीरे-धीरे पूरे देश के स्तर पर आयोजित करने की योजना है। यह बात मुझे बेहद अच्छी लगी। यदि हर गाँव भी अपने इलाक़े के कवियों को याद करे, उनकी कविताओं का पाठ करे, उनके नाम पर पेड़ लगाए तो शायद हमारा समाज उनके मूल्यों को भी समझ पाएगा।
क्या ऐसा ही कोई कार्यक्रम कहानियों और उपन्यासों के लिए भी सोचा जा सकता है? कविताएँ तो गेय भी होती हैं और उसमें रस ज़्यादा होता है। लेकिन कहानियों और उपन्यासों को पढ़ने के लिए ज़्यादा संयम की ज़रूरत होती है। समाज की पूर्णता में समझ उपन्यासों से ज़्यादा हो सकती है। कुछ कार्यक्रमों में मैंने उपन्यासों के कुछ हिस्सों को पढ़े जाने का प्रयास देखा है। इससे उपन्यास में पाठकों की रुचि तो बनती है लेकिन कितने पाठक इसके बाद उपन्यास ख़रीद कर पढ़ते हैं कहना कठिन है। विद्यालयों, महाविद्यालयों, और विश्वविद्यालयों में उपन्यास को पढ़ने की परम्परा को डालने के किसी तकनीक का इजाद आवश्यक है।
मेरे विचार से विज्ञान और समाज अध्ययन के विषयों के साथ भी साहित्य का कम-से-कम एक कोर्स तो ज़रूर होना चाहिए। युवा छात्रों के लिय अपने समाज और उसके मूल्यों के बारे में जानकारी होना अत्यन्त ही आवश्यक है। और साहित्य इसका इस बेहतर तरीक़ा हो सकता है। साहित्य के अध्ययन की कमी ने ही समाज में ऐसी स्थिति ला दी है कि हम मूल्यहीन होते जा रहे हैं। आए दिन सामूहिक हत्या, बलात्कार और आत्महत्याओं का सिलसिला आज चल रहा है उसके अनेक कारण हो सकते हैं लेकिन साहित्य से समाज का दूर जाना भी निश्चित रूप से उनमें से एक है। इसका दूरगामी प्रभाव राजनीति पर पड़ना लाज़िमी है। आज राजनैतिक बहस का माध्यम मीडिया है जिसमें बहस का केवल विकृत रूप ही होता है। साहित्य में इस बहस का रूप ज़्यादा गम्भीर भी होता है और उसका प्रभाव दूरगामी भी होता है।
लेकिन साहित्य को समाज में सही स्थान मिले इसके लिए प्रबुद्ध वर्गों को भी कोई पहल करनी होगी। एक समय था जब साहित्यकार सीधे प्रधानमन्त्री से बातें करते थे। मुझे याद है मुल्कराज आनंद से बातें करते हुए मैं अचम्भित था क्योंकि जब-जब वे कहते थे कि ‘मैंने नेहरू से कहा था कि आप ऐसा नहीं कर सकते हो….’ मुझे लगता था क्या यह सम्भव होता होगा। बाद में मैंने आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और निराला से नेहरू जी के पत्राचाओं को पढ़ा तो विश्वास हुआ। द्विवेदी जी ने एक बार उन्हें लिखा था कि जो पैसे उन्हें शान्ति निकेतन में मिलते थे यथेष्ट नहीं थे, काग़ज़ तक नहीं ख़रीद सकते थे, पैसे बचाने के लिए उन्होंने सुबह की चाय छोड़ दी थी। नेहरू जी का जवाब था कि इसका ज़रूर कुछ इन्तजाम करेंगे। इसी तरह नेहरू जी ने निराला के लिए कुछ मासिक वज़ीफ़ा का इन्तजाम किया था। लेकिन महीने के शुरू में ही पैसे ख़त्म हो जाते थे। नेहरू जी के अनुरोध पर महादेवी वर्मा ने निराला के पैसे अपने पास रखना शुरू किया। लेकिन निराला थे अपना तो पैसा ख़त्म हो ही जाता था, किसी की दवा के लिए, किसी के भोजन के लिए महादेवी के हिस्से का पैसा भी माँग लाते थे। महादेवी जी ने नेहरू जी को लिखा कि अब इस ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना सम्भव नहीं लग रहा है। यह सब वार्तालाप अब सपना सा लगता है।