महात्मा गाँधी के बाद डॉ. राम मनोहर लोहिया आजाद भारत के अकेले ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने अपनी भाषा के मुद्दे पर राष्ट्रीय संदर्भ में विचार किया और आन्दोलन चलाए। उन का भाषा-चिन्तन बहुआयामी है। उसमें वर्णमाला से लेकर उसकी शिक्षा, उसमें शोध, सामन्ती भाषा बनाम लोक भाषा, देशी भाषाएँ बनाम अँग्रेजी, उर्दू जबान, अँग्रेजी हटाना- हिन्दी लादना नहीं तथा हिन्दी के सरलीकरण की नीति आदि सबकुछ शामिल है। वे देश की बहुत सारी समस्याओं का निदान भाषा-समस्या के हल में देखते हैं। मस्तराम कपूर द्वारा संपादित ‘लोहिया रचनावली’ के एक खण्ड में उनके भाषा सम्बन्धीचिन्तन पर लगभग पाँच सौ पृष्ठ शामिल हैं।
लोहिया जानते थे कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में अँग्रेजी का प्रयोग आम जनता की प्रजातन्त्र में भागीदारी के रास्ते का रोड़ा है। उन्होंने इसे सामन्ती भाषा बताते हुए इसके प्रयोग के खतरों से बारम्बार आगाह किया और बताया कि यह मजदूरों, किसानों और शारीरिक श्रम से जुड़े आम लोगों की भाषा नहीं है।
अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे पश्चिम से कोई सिद्धाँत उधार लेकर व्याख्या करने को कत्तई राजी नहीं थे। सन् 1932 में जर्मनी से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त करने वाले राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में देश से अँग्रेजी हटाने का आह्वान किया। ‘अँग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ की गणना अब तक के कुछ इने- गिने आन्दोलनों में की जा सकती है। उनके लिए स्वभाषा, राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन-ग्रंथि से उबारकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था– ‘‘मैं चाहूंगा कि हिन्दुस्तान के साधारण लोग अपने अँग्रेजी के अज्ञान पर लजाएँ नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामन्ती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके माँ-बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।’’
‘अखिल भारतीय अँग्रेजी हटाओ सम्मेलन’ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन नासिक (महाराष्ट्र) में 28-29 अक्टूबर 1959 ई. को सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन का सारा काम ऐसे लोगों को सुपुर्द किया गया जिनका सक्रिय राजनीति से विशेष सम्बन्ध नहीं था। नासिक के इस अधिवेशन में एक सचिव मण्डल सहित 45 व्यक्तियों की एक कार्यकारिणी नियुक्त की गयी। सचिव मण्डल में वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य (असम) वंदेमातरम रामचंद्रराव (आं.प्र.), प्रभुनारायण सिंह (उ.प्र.), गजानन त्र्यंबक माडखोलकर (महाराष्ट्र), लक्ष्मीकान्त वर्मा (इलाहाबाद), धनिकलाल मण्डल (बिहार), श्रीपाद केलकर (महाराष्ट्र), बीरभद्र राव (आं.प्र.), ओमप्रकाश रावल (म.प्र.), दोरायबाबू (तमिलनाडु) आदि शामिल थे।
सम्मेलन ने कुल छ: प्रस्ताव पारित किए जिसमें से पहला प्रस्ताव है, “सहभाषा के रूप में अँग्रेजी को अनिश्चित अवधि तक कायम रखने के केन्द्रीय सरकार के निर्णय का अँग्रेजी हटाओं आन्दोलन का यह प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन पूर्णतया विरोध करता है। भारतीय संविधान में उद्घोषित विचार के न केवल खिलाफ यह निर्णय है बल्कि हिन्दी और देश की सभी भाषाओं को अपना सुयोग्य स्थान प्राप्त करने के रास्ते में यह एक बड़ा रोड़ा है। …अँग्रेजी के रहते प्रजातन्त्र झूठा है।” (‘भाषा बोली’ शीर्षक अँग्रेजी हटाओ भारतीय भाषा बचाओ सम्मेलन की स्मारिका, 23 मार्च 2018 से, पृष्ठ-26)
सम्मेलन में अपने दूसरे प्रस्ताव के जरिए अँग्रेजी को शिक्षा के माध्यम से हटाने पर जोर दिया गया। अँग्रेजी को हटाए बिना देश में ज्ञान- जैसे विज्ञान, इतिहास, रसायन, फिजिक्स इत्यादि की वृद्धि नहीं हो सकती और अँग्रेजी के निर्जीव भाषा ज्ञान में ही लोग उलझे रहेंगे। इसके बाद पूरे देश में अँग्रेजी हटाओ आन्दोलन समितियों का गठन किया गया, सभाएँ की गयीं और जुलूस निकाले गये। राष्ट्रीय स्तर पर सत्याग्रह आरंभ हुए, जगह- जगह अँग्रेजी के नामपट्ट आदि हटाए गये।
अखिल भारतीय अँग्रेजी हटाओ सम्मेलन का दूसरा अधिवेशन उज्जैन में 7-10 जनवरी 1961 को, तीसरा अधिवेशन 12-14 अक्टूबर 1962 को हैदराबाद में, चौथा 20-22 दिसम्बर 1968 को वाराणसी में, पाँचवाँ 28 फरवरी से 1 मार्च 1970 को अहमदाबाद में, छठाँ 25-27 मार्च 1979 को नागपुर में और सातवाँ इटारसी के पास एक गाँव सुपरनी (जिला होशंगाबाद) में सम्पन्न हुआ। भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई में इन सम्मेलनों का ऐतिहासिक महत्व है। इन सम्मेलनों ने अँग्रेजी के वर्चस्व को कम करने और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हालांकि लोहिया भी विदेश (जर्मनी) से पढा़ई करके आए थे, लेकिन उन्हें उन प्रतीकों का अहसास था जिनसे इस देश की पहचान है। शिवरात्रि पर चित्रकूट में ‘रामायण मेला’ उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी तक अनवरत चला आ रहा है। आज भी जब चित्रकूट के उस मेले में हजारों भूखे नंगे निर्धन भारतवासियों की भीड़ स्वयमेव जुटती है तो लगता है कि ये ही हैं जिनकी चिंता लोहिया को थी।
लोहिया के अनुसार भाषा से देश के सभी मसलों का सम्बन्ध है। किस जबान में सरकार का काम चलता है, इससे जनता के सारे सवाल नाभिनालबद्ध हैं। यदि सरकारी और सार्वजनिक काम ऐसी भाषा में चलाये जाएँ जिसे देश के करोड़ों आदमी न समझ सकें तो होगा केवल एक प्रकार का जादू-टोना। जिस किसी देश में जादू, टोना, टोटका चलता है वहाँ क्या होता है? जिन लोगों के बारे में मशहूर हो जाता है कि वे जादू वगैरह से बीमारियों का अच्छी तरह इलाज कर सकते हैं, उनकी बन आती है। लाखों-करोड़ों उनके फंदे में फँसे रहते हैं। ठीक ऐसे ही जबान का मसला है। जिस जबान को करोड़ों लोग समझ नहीं पाते, उनके बारे में यही समझते हैं कि यह कोई गुप्त विद्या है जिसे थोड़े लोग ही जान सकते हैं। ऐसी जबान में जितना चाहे झूठ बोलिये, धोखा कीजिये, सब चलता रहेगा, क्योंकि लोग समझेंगे ही नहीं। सब काम केवल थोड़े से अँग्रेजी पढ़े लोगों के हाथ में है। अपने देश में पहले से ही अमीरी-गरीबी, जात-पाँत, पढ़े-बेपढ़े के बीच एक जबरदस्त खाई है। यह विदेशी भाषा उस खाई को और चौड़ा कर रही है। अँग्रेजी तो इस देश का सौ में से एक आदमी ही समझ सकता है, किन्तु अपनी भाषा तो सभी समझ सकते हैं जो पढ़े लिखे नहीं है वे भी। लोहिया इस तथ्य को बखूबी समझते थे।
‘सामन्ती भाषा बनाम लोकभाषा’ शीर्षक निबन्ध में उन्होंने विस्तार से और सूत्रात्मक ढंग से (कुल 24 सूत्रों में) अपने भाषा सम्बन्धी विचार व्यक्त किये हैं। इनमें प्रमुख सूत्र हैं..
(1) अँग्रेजी हिन्दुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुँचा रही है कि वह विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग में वह सामन्ती है। आबादी का सिर्फ एक प्रतिशत छोटा सा अल्पमत ही अँग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह उसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जन –समुदाय पर अधिकार और शोषण करने का हथियार है अँग्रेजी।
(2) अँग्रेजी विश्व भाषा नहीं है। फ्रेंच और स्पेनी भाषाएँ पहले से ही हैं और रूसी ऊपर उठ रही है। दुनिया की 3 अरब से ज्यादा आबादी में 30 या 35 करोड़ यानी, 10 में 1 के करीब, इस भाषा को सामान्य रूप में भी नही जानते।
(3) दुनिया में सिर्फ हिन्दुस्तान ही एक ऐसा सभ्य देश है जिसके जीवन का पुराना ढर्रा कभी खत्म ही नही होना चाहता। जो अपनी विधायिकाएँ, अदालतें, प्रयोगशालाएँ, कारखाने, तार, रेलवे और लगभग सभी सरकारी और दूसरे सार्वजनिक काम उस भाषा में करता है, जिसको 99 प्रतिशत लोग समझते तक नहीं।
(4)कोई एक हजार वर्ष पहले हिन्दुस्तान में मौलिक चिन्तन समाप्त हो गया, अबतक उसे पुन: जीवित नहीं किया जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण है अँग्रेजी की जकड़न। अगर कुछ अच्छे वैज्ञानिक, वह भी बहुत कम और सचमुच बहुत बड़े नहीं, हाल के दशकों में पैदा हुए हैं तो इसलिए कि वैज्ञानिकों का भाषा से उतना वास्ता नहीं पड़ता जितना कि संख्या या प्रतीक से पड़ता है।
(5) हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं की सामर्थ्य का सवाल बिल्कुल नहीं उठना चाहिए। अगर वे असमर्थ हैं, तो इस्तेमाल के जरिए ही उन्हें समर्थ बनाया जा सकता है। पारिभाषिक शब्दावली निश्चित करने वालों या कोश और पाठ्य पुस्तकें बनाने वाली कमेटियों के जरिए कोई भाषा समर्थ नहीं बनती। प्रयोगशालाओं, अदालतों, स्कूलों जैसी जगहों में इस्तेमाल के द्वारा ही भाषा सक्षम बनती है।
(6) हिन्दुस्तानी के दुश्मन वास्तव में बंगला, तमिल या मराठी के भी दुश्मन हैं। ‘अँग्रेजी हटाओ’ का मतलब ‘हिन्दी लाओ’ नहीं होता। अँग्रेजी हटाने का मतलब होता है तमिल या बंगला और इसी तरह अपनी -अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा।
(7) कभी हिन्दी और कभी हिन्दुस्तानी का मैं इस्तेमाल करता हूँ और उर्दू के बारे में भी मैं वही कहना चाहूँगा। ये एक ही भाषा की तीन विभिन्न शैलियाँ हैं। … मुझे विश्वास है कि आगे के बीस-तीस वर्षों में ये एक हो जाएँगी। ….हमें सावधान रहना चाहिए कि अँग्रेजी कायम रखने की बहुत बड़ी साजिश चल रही है और सभी तरह के झगड़े वही खड़े करती है।
(8) सबसे बुरा तो यह है कि अँग्रेजी के कारण भारतीय जनता अपने को हीन समझती है। वह अँग्रेजी नहीं समझती इसलिए सोचती है कि वह किसी भी सार्वजनिक काम के लायक नहीं है और मैदान छोड़ देती है।
(9) लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ लोग यह गलत सोचते हैं कि उनके बच्चों को मौका मिलने पर वे अँग्रेजी में उच्च वर्ग जैसी ही योग्यता हासिल कर सकते हैं। सौ में एक की बात अलग है, पर यह असंभव है। उच्च वर्ग अपने घरों में अँग्रेजीका वातावरणबना सकते हैं और पीढ़ियों से बनाते आ रहे हैं। विदेशी भाषाओं के अध्ययन में जनता इन पुस्तैनी गुलामों का मुकाबला नहीं कर सकती।
लोहिया जितना हिन्दी के पक्ष में हैं उतना ही दूसरी भारतीय भाषाओं के भी। वे साफ कहते हैं कि यह आन्दोलन हिन्दी की स्थापना के लिए नहीं, लोक भाषाओं की स्थापना के लिए है। वे बार-बार एक ही बात कहते हैं कि अँग्रेजी हटे कैसे? प्राँतीय भाषाएँ कैसे आगे बढ़ें? बंगाली, मराठी, तमिल को अँग्रेजी के सामने कैसे प्रतिष्ठित किया जाए? और इसीलिए हिन्दी की बात लोहिया जब भी कहते हैं दूसरी भाषाओं के साथ बराबरी के स्तर पर। वे कहते हैं कि हिन्दी की हिमायत वही कर सकता है, जो उसकी बराबरी में अँग्रेजी को न लाये, बल्कि हिन्दुस्तान की दूसरी भाषाओं को और जो हिन्दी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ राष्ट्र की उन्नति का साधन और अँग्रेजी को गुलामी का साधन समझे।
लोहिया के अनुसार अँग्रेजी की साम्राज्यशाही नीति खत्म करने का इरादा सरकार का नहीं है। पं. नेहरू की भाषा नीति की आलोचना करते हुए वे लिखते हैं, “लेकिन यह नेहरू साहब चतुर आदमी हैं। यह कभी अपने को साफ नहीं करते, छुपा कर रखते हैं, क्योंकि वे तो नेता आदमी हैं। उनको करोड़ो को साथ रखना है। इसलिए वे चालाकी के शब्द बोलते हैं। वे यह नहीं कहते कि अँग्रेजी को लाओ। वह कहते हैं कि नहीं अँग्रेजी को हटाओं, लेकिन धीरे-धीरे। नेहरू साहब ऐसे राजगोपालाचारी हैं जो दोस्त के कपड़े पहन कर आए हैं लेकिन हैं दुश्मन। जो दुश्मन है वह दुश्मन के कपड़े पहन कर आता है तो उसको पहचान लेते हो, उससे बच सकते हो। लेकिन जो दुश्मन, दोस्त के कपड़े पहन कर आए वह बहुत ही खतरनाक है।”
लोहिया के अनुसार, सरकार ने हिन्दी को भी अँग्रेजी की साम्राज्यशाही का एक छोटा हिस्सा दिलाने की कोशिश की। अँग्रेजी का कुछ हिस्सा हिन्दी को भी मिल जाए। यही सरकारी नीति रही। लोहिया कहते हैं कि अब यह साफ बात है कि हिन्दी की साम्राज्यशाही नहीं चल सकती। गैर हिन्दी इलाके इसको कभी स्वीकार नहीं करेंगे। सरकार की इस साजिश ने हिन्दी को बहुत नुकसान पहुँचाया। गैर हिन्दी लोगों को अपनी नौकरियों वगैरह का डर लगा। सरकारी नीति के कारण ही कई बड़े इलाकों के लोग हिन्दी की कट्टर मुखालफत करने लगे। महात्मा गाँधी के बाद लोहिया पहले व्यक्ति थे जो तमिलनाड़ु में लगातार 25 सभाओं को हिन्दी में सम्बोधित किया। लोगों ने उन्हें क्यों सुना? तमिलनाड़ु में हिन्दी का घोर विरोध है। उन्हें पता था कि उन्हें लोगों ने इसलिए सुना कि वे हिन्दी और तमिल को बराबर महत्व देते हैं।
डॉ. लोहिया मानते हैं कि जिस तरह बच्चा पानी में डुबकी लगाए बिना, छपछपाने, डूबने-उठने बिना तैरना सीख नहीं सकता, उसी तरह असमृद्ध होते हुए भी इस्तेमाल के बिना भाषा समृद्ध नहीं हो सकती। इसीलिए वे चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल सब जगह हो और फौरन हो। वे सवाल करते हैं कि, “बच्चा किसके साथ अच्छी तरह से खेल सकता है, अपनी माँ के साथ या परायी माँ के साथ? अगर कोई आदमी किसी जबान के साथ खेलना चाहे तो जबान का मजा तो तभी आता है जब उसको बोलने वाला या लिखने वाला उसके साथ खेले, तो कौन हिन्दुस्तानी है जो अँग्रेजी के साथ खेल सकता है?” डॉ. लोहिया लोकभाषा के बगैर लोकतन्त्र की कल्पना भ्रामक मानते हैं, वे लिखते हैं, “जब हिन्दुस्तान का काम लोकभाषा में नहीं चले, तो लोकशाही कैसी होगी? यह जनतन्त्र नही यह तो परतन्त्र है। लोकशाही के लिए तो जरूरी है कि वह लोकभाषा के माध्यम से चले। मैं यह कहूँगा कि अगर वहाँ तुम हिन्दुस्तानी में बहस नहीं कर सकते हो, तेलुगू में भाषण दो, बंगाली में दो, तमिल में दो, लेकिन अँग्रेजी में मत दो।”
उर्दू के बारे में उनकी मान्यता है, “यों तो हिन्दी और उर्दू एक ही है, इस तरह जैसे सती और पार्वती। फिर भी, जबतक हिन्दी और उर्दू एक नहीं हो जाती तबतक अरबी हरुफ (लिपि) में लिखी हुई उर्दू को सरकारी तौर पर इलाकाई जबान का स्थान मिलना चाहिए।” वे मानते हैं कि, “उर्दू जबान हिन्दुस्तान की जबान है और इसका वही रुतबा होना चाहिए जो हिन्दुस्तान की किसी जबान का।” वे मानते हैं कि भाषा का मसला विशुद्ध संकल्प का है और सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं। यह केवल इच्छा का प्रश्न है। अगर अँग्रेजी हटाने और हिन्दी अथवा तमिल चलाने की इच्छा बलवती हो जाये तो मूक वाचाल हो जाये।
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लोहिया ने छठें और सातवें दशक में अपनी भाषाओं को लेकर जो आन्दोलन चलाए शायद उसी का नतीजा था कि 1967 ई. के आसपास आने वाले शिक्षा आयोग की सिफारिश में अपनी भाषाओं में पढ़ने की बात पुरजोर तरीके से की गयी। शायद उसी आन्दोलन के ताप का असर था कि 1979 ई. में कोठारी आयोग की सिफारिशें संघ लोक सेवा आयोग ने स्वीकार कीं जिसके कारण सिविल सर्विस तथा अन्य केन्द्रीय सेवाओं की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में अवसर उपलब्ध हुए।
भाषा के सवाल को जिस तरह छोड़कर राम मनोहर लोहिया गये थे, सवाल आज और भी गंभीर हो गये हैं। उनके जन्मदिन पर हम उनके अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प ले सकते हैं।
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