बिहार का अतीत लोक सांस्कृतिक व नाट्य शैली में समृद्ध रहा है। जिसके चर्चा पूरे देश भर के अलग-अलग राज्यों में होती है। आंचलिक प्रदेश और उत्तर बिहार के क्षेत्रों में प्राकृतिक उत्सव के रूप में मौसमी लोकगीत तथा नृत्य कला का आयोजन होता है। जिसका सीधे जुड़ाव प्रकृति से होता है। जट-जटिन उन्हीं लोकनाट्य में से एक है जो अभी भी मिथिलांचल के गाँवों, मोहल्ले में खेली व गीत गायी जाती है। इस नृत्य का मूल सम्बन्ध जाट और जतिन की प्रेम सम्बन्धों से भी माना गया है।
जट-जटिन नाट्य का प्रारम्भ
इस लोकनाट्य का आरम्भ मिथिलांचल के समस्तीपुर जिले की पटोरी नामक गाँव से माना जाता है। जिसको लेकर कई प्रकार की लोक कथाएं प्रचलित है। लेकिन उन्हीं लोक कथाओं में से एक कथाएं प्रचलित हैं। लेकिन लोककथाओं से इतर जट-जटिन का सम्बन्ध गाँवों में वर्षा ऋतु से जोड़कर देखा जाता है। जब पानी के बिना धरती तप रही होती है और खेतों में लगे फसल बारिश के बीना सुखने के कगार पर आ पहुंचता है तब इंद्र देव को रिझाने के लिए ग्रामीण औरतें जट-जटिन नृत्य खेलती है और उसके गीत गाती है ऐसा माना गया है कि इसके बाद इंद्रदेव प्रसन्न होकर जोरदार बारिश कराते हैं और गाँव का खेत-खलिहान पानी से लबालब हो जाता है।
महिलाएँ ही नृत्य प्रस्तुति के केंद्र में होती है
मिथिलांचल क्षेत्र का यह लोकनाट्य अब आंचलिक प्रदेश, मगध और कोशी क्षेत्रों में भी लोकप्रियता हासिल कर ली है। इस नाट्य को एक जोड़े में करने की परंपरा रही है। जिसमें दो पक्षों का होना अनिवार्य है। दोनों पक्षों के बीच गीतों द्वारा संवादों का आदान-प्रदान होता है। एक पक्ष जट की तरफ से बोलता है और दूसरा पक्ष जटिन के तरफ से। इस नाट्य में गीतों को वार्तालाप शैली में प्रस्तुत की जाती है। इस नाट्य में सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें दोनों तरफ से महिलाएँ या कुंवारी लड़कियों की टोली प्रस्तुत करती है और अपने मधुर संवादों से लोक गीत गाती हुई समां बांधती है।
इस नाट्य में लघु प्रहसन का भी मिश्रित रूप देखने को मिलता है। जिससे दर्शक देखने के क्रम में हंसते हुए लोटपोट हो जाते हैं। जो पक्ष जाट की तरफ से होता है वह अपने माथे पर मोटा सफेद पगड़ी बांधते हैं तथा तन पर सफेद बंडी पहन कर नृत्य प्रस्तुत करता है। जबकि जटिन के पक्षों वाली महिलाएँ फूलों से अपने आप को सुसज्जित कर लेती हैं और साथ में अन्य सहयोगी महिलाएँ भी थिरकते हुए साथ देती हैं। सभी एक साथ कमर से ऊपर भाग शरीर को आगे की ओर झुका कर दोनों हाथ आगे-पीछे करते हुए सामूहिक गीत व नृत्य प्रस्तुत करती है।
गाँवों, अंचलों में उपजते नृत्य कला
आंचलिक उपन्यास- ‘मैला आंचल’ में फणीश्वर नाथ रेणु ने ग्रामीण जीवन के लोकगीतों कला संस्कृति और भाषा पर भी प्रकाश डालते हुए जट-जटिन पारंपरिक क्षेत्रिय नृत्यों का भी जिक्र करते हैं। सामान्यतः विशेष अध्ययनों के बाद सांस्कृतिक कला प्रेमियों ने पाया है कि जट-जटिन की कथा अत्यंत लघु है जो दांपत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच संवाद होता है या प्रेमी जट द्वारा प्रेमिका जटिन के फरमाइश पर उसके हर फरमाइश को कैसे पूरा करता है? जिसका प्रसंगों में लोकगीतों के माध्यम से वर्णन मिलता है।
वैसे मैथिली लोकगीतों में अंत हमेशा सुखांत होता है। तथा गीत, नृत्यों की शुरुआत गाँवों मोहल्ले से ही शुरू हुआ है। लेकिन इस लोकगीतों के माध्यम से यथार्थ से परिचय कराया गया है। जिसमें सामाजिक कठिनाइयां, सूखा, बाढ़ तथा प्राकृतिक आपदाओं पर विमर्श का स्वर उठता है। जिसके सहारे गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, दुख और व्यापार, चिंता के विषय को भी अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। जिसे कलाकार मंचों पर अभिनय करके प्रस्तुत करता है।
मंचों पर लोकनृत्य का प्रस्तुतीकरण
इन दिनों राज्य में नृत्य कला पर संकट के बादल उमड़ने लगे हैं। लोगों का जुड़ाव सांस्कृतिक कला शैली की ओर कमतर होते जा रहा है जिसके कारण सांस्कृतिक विरासत को संरक्षण प्रदान करने में काफी कमी आ गयी है। लेकिन सांस्कृतिक मंचों पर जट- जटिन नाट्य का मंचन देखने को मिल रहा है जिसे दर्शक खूब पसन्द भी करते हैं। जट-जटिन के गीतों में मिथिलांचल के मैथिली शब्दों का समाहित होने से गीतों की मिठास बढ़ जाती है दर्शक देखते हुए झूम उठता है। लेकिन अभी जरूरत है इस नाट्य शैली को बचाए रखने की ताकि नृत्य गीतों के माध्यम से ही मानव प्राणी प्रकृति से जुड़ पाता है। तभी हमारी संस्कृतिक परंपरा के कण-कण में प्राकृतिक प्रेम भाव समाहित है।
आलेख संदर्भ:-
- रविशंकर उपाध्याय के लेख का अध्ययन
- आधुनिक साहित्य- प्रीतिमा वत्स पृष्ठ- 38, 39, 40 से