- अरुण तिवारी
हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनावी नतीजों में किसानों की कर्ज माफी के वादे को एक निर्णायक आधार माना जा रहा है। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि यह समाधान नहीं, महज् कुछ समय के लिए राहत देने वाला कदम है। किंतु यह कदम किसान को स्वावलंबी और सशक्त नहीं बना सकता। अतः भारत की कृषि समस्याओं के समाधान की दृष्टि इसकी बहुत तारीफ भी नहीं की जा सकती।
यह सच है कि न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य और सरकारी खरीद…दोनो की क्षमता बढ़ाने तथा किसानों को न्यूनतम मूल्य से कम में फसल बेचने के लिए विवश करने वाले खुले बाज़ार पर सख्ती बरतकर किसानों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। उत्पादक से उपभोक्ता के बीच सक्रिय दलालों के मुनाफे को नियंत्रित करना भी एक आवश्यक कदम है। किंतु कारपोरेट नियंत्रित वर्तमान राजनीतिक दौर को देखते हुए जन-दबाव बनाये बगैर ये कदम संभव नहीं दिखते। है। अतः इस के लिए जन दबाव बनाने के जो भी शांतिमय तरीके हों; आजमाने चाहिए। लेकिन कृषि, कर्ज़ और बाज़ार का गठजोड़ बनाते हुए हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सरकार और बाज़ार….दोनो ही कभी भी किसान के नियंत्रण मेें नहीं रहे। जब तक किसान अपनी फसल के भण्डारण की स्वावलंबी क्षमता हासिल नहीं कर लेता; तब तक आगे भी ऐसी कोई संभावना नहीं होने वाली; लिहाजा, सरकार, कर्ज़ और बाज़ार के भरोसे खेती करना अब पूरी तरह जोखिम भरा सौदा है।
यहां गौर करने की बात है कि नफे-नुकसान के गणित में लागत भी एक अन्य आवश्यक मद है। फसल उत्पादन लागत में घटोत्तरी करना भी मुनाफा बढ़ाने का एक स्थाई उपाय है। इस उपाय की खासियत यह है कि इसकी कुंजी, काफी कुछ स्वयं किसान के हाथ में है। अतः यह ज़रूरी है कि लागत में घटोत्तरी के उपायों की दिशा में अमल शुरु हो।
यह कैसे हो ?
कृषि में लागत मूल्य के मुख्य 10 मद हैं: भूमि, मशीनी उपकरण, सिंचाई, बीज, खाद, कीट-खरपतवारनाशक, मड़ाई, भण्डारण, समय और आवश्यक श्रम। कृषि ज़रुरत की इन चीजों पर किसान का स्वयं का नियंत्रण हुए बगैर न कृषि की लागत घटाई जा सकती है और न ही खेती को स्वाभिमानपूर्वक उदर – पोषण करने वाले कार्य की श्रेणी में लाया जा सकता है। जो भूमिहीन किसान, दूसरों के खेत किरायेदारी पर लेकर खेती करते हैं, उनकी भूमि किरायेदारी लागत घटाने के लिए जबरन किया गया कोई भी प्रयास अंततः सामाजिक विद्वेष खड़ा करने वाला साबित होगा। जैसे-जैसे खेत मालिक की शर्त पर श्रम की उपलब्धता घटती जायेगी, यह लागत स्वतः कम होती जायेगी; यह भरोसा रखें।
दूसरा पहलू देखें तो सस्ते श्रम की उपलब्धता घटने से खेती में श्रम की लागत बढ़ी है। इसका एक पक्ष यह भी है कि बुआई, सिंचाई, निराई, कटाई, मड़ाई आदि के जो काम मानव श्रम से संभव थे, अब उन्हे आधुनिक मशीनी उपकरणों से करने की बाध्यता है। किंतु भारत के ज्यादातर किसानों के पास कृषि जरूरत के सभी उपकरण खरीदने क्षमता नहीं है। इस तरह आधुनिक मशीनी उपकरण, बडे़ किसान के लिए तो एक मुश्त लागत का मद है, लेकिन छोटे किसानों को हर फसल पर इनके सेवा ठेकेदारों को दाम चुकाना पड़ता है, जोकि काफी अधिक होता है।
हमारे वैज्ञानिक व इंजीनियरों ने सस्ते, स्वावलंबी और लंबी आयु वाले कृषि उपकरण ईजाद तो कई किए, लेकिन इनमें से ज्यादातर के व्यापक उत्पादन को सरकारों ने प्रोत्साहन नहीं दिया। बायोवेद संस्थान, श्रृंगवेरपुर (इलाहाबाद) में एक बैल मात्र चलने वाला कोल्हूनुमा टयुबवैल बिना बिजली-डीजल तीन इंच पानी देता है। सरकार, बिजली में तो सब्स्डिी देती है, लेकिन बिना बिजली चलने वाले उपकरणों को प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी नहीं रखती। बिना मवेशी, बिजली, ईंधन चलने वाले ’मंगलसिंह टरबाइन’ को ईजाद करने वाले किसान मंगलसिंह (ज़िला ललितपुर, उ.प्र.) को तो उलटे हतोत्साहित किया गया। शेष जो कृषि उपकरण उद्योगपतियों और व्यापारियों की शरण में पहुंचे, वे किसान तक मंहगे होकर ही पहुंचे।
लिहाजा, कृषि मशीनी उपकरण खरीद और उपयोग लागत घटाने का तात्कालिक उपाय यही है कि किसान मशीनी उपकरण खरीद तथा रखरखाव की सामिलात व्यवस्था करें।
सामिलात व्यवस्था होगी, तो एक ही उपकरण 20-25 किसानों के काम आ सकेगा। उपकरण खराब होने पर ठीक करने के हुनर को भी किसान समूहों को खुद ही हासिल करना होगा। इससे लागत घटेगी; साझा बढ़ेगा। साझा बढ़ते ही लागत घटोत्तरी के कई मार्ग स्वतः खुल जायेंगे। मेरे पास श्रम है, आपके पास ट्युबवैल। मैं आपकी दो बीघा खेत में गेहूं की बुआई, कटाई, मड़ाई मुफ्त कर दूंगा, आप मेरे दो बीघा गेहूं की तीन सिंचाई मुफ्त कर देना। आप मुझे सरसों के अच्छे बीज दे देना; मैं आपको मटर के अच्छे बीज दे दूंगा। इसी तरह उपज की खरीद-फरोख्त भी बाज़ार की जगह, पहले आपस में होने लगेगी। इससे लागत घटेगी और मुनाफा बढ़ेगा। पारंपरिक खेती और बार्टर पद्धति का सद्गुण यही था।
श्रम लागत बढ़ाने वाले कुछ और कारणों को समाप्त करना ज़रूरी है, जिनका प्रवेश ट्रेक्टर और बाज़ारू बीज के साथ हुआ।
कल्टीवेटर युक्त ट्रेक्टर यदि पूरे खेत में तीन बार जुताई करता है, तो इस दौरान वह किनारों पर कई गुना अधिक बार घूम जाता है। परिणाम यह होता है कि किनारे दब जाते हैं। खेत किनारे से ढाल हो जाता है। लिहाजा, हर दो-चार साल बाद रोटाबेटर लगाकर खेत को समतल कराने के लिए काफी अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। रोटाबेटर की जुताई मंहगी भी है। उग आई घास को कतरने के लिए लोग रोटाबेटर से जुताई की सलाह देते हैं। यदि घास पहले से एकदम सूखी न हो, तो कतरी घास कई गुना होकर पनपती है और लागत खर्च और बढ़ाती है। हल-बैल से जुताई, इसका एक समाधान है। जुताई उपकरण के डिजायन तथा जुताई के तरीके में सुधार कर भी इस अतिरिक्त श्रम खर्च को घटाया जा सकता है।।
खर-पतवारों की अधिकता ने भी श्रम लागत बढ़ाई है।
जिस इलाके में जो खर-पतवार कभी नहीं होते थे, खेत अब उनसे पटे पड़े हैं। कारण, षडयंत्र है। ये खर-पतवार, कंपनियों द्वारा उर्वरकों तथा बीजों के में मिलावट कर खेतों तक पहुंचाये जा रहे हैं; ताकि कंपनियों की खर-पतवार नाश करने वाले जहरीले रसायन बिकें। जो किसान, इन जहरीले रसायन से बचे रहना चाहते हैं; मानव श्रम लगाकर खर-पतवार उखाड़ते हैं; स्पष्ट है कि बचत तभी हो सकती है कि जब बाज़ार से उर्वरक और बीज न खरीदने पड़े। यदि ऐसा हो गया तो बीज और उर्वरक मद में लागत खर्च तो स्वतः घट जायेगा। उपाय साधारण हैं, लेकिन धीरज चाहिए।
शुरुआत देसी बीज संजोने से संभव है। हर गांव की बूढ़ी अम्मा यह कला जानती है, उनसे सीखें। मिश्रित बीज बोयें। मतलब यह कि गेहूं की बुआई करनी है, तो एक खेत मेें गेहूं के ही कम से कम दो तरह के देसी बीज मिश्रित करके छींट दें। उनसे जो फसल पैदा होगी, वह स्वतः उन्नत किस्म की होगी प्राप्त फसल को अगले वर्ष बीज के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा। ऐसे प्रयोग लगातार करें और जांचें। यदि देसी बीज उपलब्ध नहीं है, तो बाज़ार से ऐसा-वैसा बीज खरीदने की बजाय, ‘ब्रीडर सीड’ व ‘फाउण्डेशन सीड’ ही खरीदें; ताकि आप अपनी भावी ज़रूरत का बीज खुद तैयार कर सकें।
उर्वरक व कीटनाशकों से मुक्ति का एक ही उपाय है, वह है जैविक खाद।
कंपोस्ट खाद, केचुंआ खाद, मानव मल की खाद और हरी खाद के अलावा गोमूत्र, गुड़ आदि के मिश्रण से जैविक खाद बनाने जैसे कई प्रयोग इधर चर्चा में आये हैं; इन्हे अपनायें। मवेशियों की संख्या बढ़ायें। मवेशियों की संख्या बढ़ाने के लिए चारे वाले पौधे व फसल तो लगायें ही, मवेशियों को उनके चारागाह लौटायें। जैसे ही किसान खेत से रासायनिक उर्वरक हटायेगा; जैविक खाद तीन लाभ एक साथ लायेगी। जैविक खाद, केचुओं आदि भू-जीवों को न्योता देकर ऊपर बुला लेती है। लिहाजा, आप देखेंगे कि मिट्टी की उर्वरकता हर साल घटने की बजाय, बढ़ने लगेगी। जैविक खाद, मिट्टी के ढेलों को बांधकर रखती है। लिहाजा, कम सिंचाई में भी खेत में ज्यादा लंबे समय तक नमी बनी रहेगी। बहुत संभव है कि एक बारिश होने पर सरसों, चना, मटर जैसी फसलें बिना सींचे ही होने लगें। इससे सिंचाई खर्च घटेगा। कीटनाशक को खेत से बाहर करने के तीन साल के भीतर अपने बच्चों को कीट खिलाकर पालने वाली गौरैया जैसी चिड़ियां वापस लौट आयेंगी। इसके व्यापक लाभ होंगे।
किसान का सबसे ज्यादा खर्च समय और सिंचाई के रूप में होता है। इसी वर्ष चौमासे के तुरन्त बाद नवम्बर महीने से ही महाराष्ट्र, बुंदेलखण्ड, राजस्थान समेत देश के कई राज्यों से आ रही सूखे की खबरें कह रही हैं कि सिंचाई खर्च इसी वर्ष बढ़ोत्तरी होने जा रही है।
उपाय क्या है ?
उपाय है कि नीलगाय, जंगली सुअर आदि जीवों को यदि उनके जंगल, झुरमुट और पेयजल स्त्रोत लौटा दिए जायें तो रखवाली में जाया होने वाला समय स्वतः बच जायेगा। महाराष्ट्र आदि में आज ऐसे इलाके कई हैं, जहां सिंचाई के लिए पानी 750 फीट गहरे से ऊपर लाना होता है। जलसंचयन स्त्रोतों, छोटे बरसाती नालों, नदियों और इनके किनारे झड़ियों-जंगलों के पुनर्जीवित होते ही हम पायेंगे कि भू-जल स्तर स्वतः ऊपर उठ आया। मेड़बंदी ऊंची हो; खेत समतल हो; बूंद-बूंद सिंचाई तथा फव्वारा जैसी अनुशासित सिंचाई पद्धतियां इस्तेमाल हों, तो कम पानी में पूरे खेत में सिंचाई संभव है। स्पष्ट है कि इन कदमों के उठते ही सिंचाई लागत में अप्रत्याशित घटोत्तरी देखने को मिलेगी। इस दिशा में सरकारों के कुछ कार्यक्रम हैं। उनका लाभ सभी तक कैसे पहुंचे; इसके लिए कुछ लोग, पंचायतों को सक्रिय करने में लगें तो कुछ बिना किसी की प्रतीक्षा किए खुद शुरुआत करने में। यह भी भारत के अन्नदाता की रक्षा का एक आंदोलन ही होगा। इसमें हिंसा नहीं, साझा, सहकार और स्वावलंबन फैलेगा। (ये लेखक के निजी विचार हैं)
अरूण तिवारी
लेखक टिप्पणीकार हैं.