शख्सियत

अपनी-अपनी बीमारी और हम

“प्रजातंत्र का सबसे बड़ा दोष तो यह है कि उसमें योग्‍यता को मान्‍यता नहीं मिलती, लोकप्रियता को मिलती है।
हाथ गिने जाते हैं, सर नहीं तौले जाते हैं।” प्रजातंत्र पर किया जाने वाला हरिशंकर परसाई का यह व्‍यंग्‍य आज भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है, जितना रचना काल के समय था। समाज के विभिन्‍न मुद्दों पर हरिशंकर परसाई ने अपने व्‍यंग्‍य के माध्‍यम से गहरा कटाक्ष किया है, जिसकी प्रासंगिकता तब से लेकर आज तक बनी हुई है या यह कहें कि और भी बढ़ती जा रही है तो अतिश्‍योक्ति नहीं होगी। समाज में घट रही घटनाओं पर आज भी परसाई जी का व्‍यंग्‍य सटीक बैठता है। हिन्‍दी साहित्‍य ने समाज के समस्‍त पहलुओं को अलग-अलग विधाओं के माध्‍यम से प्रस्‍तुत किया है, जिसमें उपन्‍यास, कहानी, नाटक, कविता, निबंध, संस्‍मरण, जीवनी, आत्‍मकथा आदि शामिल हैं। इन सभी विधाओं में से एक विधा व्‍यंग्‍य है, जिसकी चर्चा अन्‍य विधाओं की तुलना में साहित्‍य में कम होती है। व्‍यंग्‍य विधा के पुरोधा कहे जाने वाले हरिशंकर परसाई ने समाज को समझने और देखने के लिए एक नई दृष्टि दी है। उन्‍होंने व्‍यंग्‍य साहित्‍य के माध्‍यम से समाज का यथार्थ चित्रण किया है। साथ ही समाज को यह संदेश भी दिया है कि जिस तेज गति के साथ समाज की दशा और दिशा बदलती जा रही है, इन सामाजिक घटनाओं पर साहित्‍यकार की पैनी दृष्टि होनी चाहिए। प्रत्‍येक साहित्‍यकार की अलग शैली होती है। मूर्धन्‍य साहित्‍यकार हरिशंकर परसाई जी ने व्‍यंग्‍य विधा के माध्‍यम से समाज में घट रही घटनाओं पर गहरा प्रहार किया है, जो आज भी जीवंत दिखाई पड़ती है।
वर्तमान समय में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्‍नर विमर्श आदि साहित्‍य का केंद्र बिंदु बना हुआ है। जबकि व्यंग्य साहित्य की ओर लोगों का रूझान घटने लगा है। कई अखबार व्‍यंग्‍य के लिए अलग से कॉलम देने लगे हैं। टीवी और अखबारों के व्‍यंग्‍य अधिकांशत: राजनीति पर केंद्रित होते हैं, जबकि सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, भाषिक, धार्मिक आदि विषयों पर भी व्‍यंग्य शैली में लिखा जाना चाहिए। हरिशंकर परसाई ने व्‍यंग्‍य साहित्य के माध्यम से वर्तमान समाज को समझने और परखने का सार्थक प्रयास किया है। साथ ही एक नए विमर्श ‘व्‍यंग्‍य विमर्श’ की भी शुरूआत की, जिसे उनकी किताब ‘अपनी अपनी बीमारी’ के कुछ व्‍यंग्‍य लेखों के माध्‍यम से बेहतर तौर पर समझा जा सकता है। इस किताब में समाज के विभिन्‍न मुद्दों पर व्‍यंग्‍य के माध्‍यम से लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने की कोशिश की गई है।
‘अपनी-अपनी बीमारी’ लेख एक बेहतरीन व्‍यंग्‍य है, जिससे हर आदमी किसी-न-किसी रूप में जुड़ा हुआ है। समय के साथ समाज और व्‍यक्ति में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन कई प्रकार की स्थितियों से होकर गुजरता है तथा विभिन्‍न स्‍तरों पर परिवर्तन को सहजता से स्‍वीकार भी करता है। वर्तमान समाज के लोग कुछ पाने की लालसा में अपनी-अपनी बीमारी से रोग ग्रस्‍त हैं। यों तो मुख्य रूप से शारीरिक और मानसिक बीमारी को ही रोग की श्रेणी में रखा जाता है। किंतु, हरिशंकर परसाई ने ‘अपनी-अपनी बीमारी’ के माध्यम से एक नई बीमारी को रेखांकित किया है। इसके माध्‍यम से वह, यही संदेश देना चाहते थे कि आज समाज में लोग सामाजिक प्राणी की अपेक्षा लालसाग्रसित प्राणी बनता जा रहा है। इसलिए वह दुखी है। ऐसे प्राणी भ्रष्टाचारी या अपराधी बनने से भी नहीं कतराते हैं। लोग आज जीवन के सही मूल्यों को समझने, सीखने और पालन न करके, पूंजी के पीछे भाग रहे हैं। इसका सजग चित्रण करते हुए परसाई जी लिखते हैं कि- ‘‘इस देश में कुछ लोग टैक्‍स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।’’ आज समाज के केन्द्र में पूंजी है और इसी पूंजी के लिए लोग खुशहाल जीवन को अपने ही हाथों से बदहाल कर रहे हैं। आवश्‍यकता से अधि‍क पाने की चाहत में लोग ‘अपनी-अपनी बीमारी’ से पीड़ित हैं। इन बीमारियों से निकलना अत्‍यंत कठिन हो गया है, क्योंकि पूंजी केंद्रित समाज ने इसे परंपरा, प्रतिष्‍ठा और संस्कार का अमली जामा पहना दिया है।
‘अपनी-अपनी बीमारी’ में एक व्‍यक्ति 40 रूपये की बिजली का बिल नहीं चुका पाने के कारण बहुत दुखी है। किन्‍तु, इनके तीन मित्र हैं- जिसमें पहला इसलिए दुखी है कि वह 8 कमरों का मकान बनाना चाहता था, किंतु 6 ही बना पाया। दूसरा इसलिए दुखी है कि पिछले साल 50,000 की किताबें बेची थी और इस साल 40,000 का ही बिका है। तीसरा इसलिए दुखी है कि रोटरी मशीन आ गयी है और अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ रही है। अत: कहा जा सकता है कि अनावश्‍यक लालसा ही अपनी-अपनी बीमारी का मुख्‍य कारण है। इससे सचेत होने का संदेश लेखक इस व्‍यंग्‍य के माध्‍यम से देते हैं, क्‍योंकि ऐसी बीमारियों का कभी अंत नहीं हो सकता।
वहीं एक अन्‍य व्‍यंग्‍य ‘समय काटने वाले’ के माध्‍यम से परसाई जी ने समय का दुरूपयोग करने वाले लोगों की आलोचना की है। आधुनिक जीवन शैली के पीछे भाग रहे लोगों के पास समय की विकट समस्या है। जिस किसी से पूछो, वो कहता है समय नहीं है। क्या वास्तव में लोगों के पास समय की समस्या है? समय सबसे मूल्यवान होता है, जो सबके पास समान है। कुछ लोगों को छोड़कर बहुसंख्‍यक लोग समय का सदुपयोग न करके, दुरूपयोग करते हैं, जिस पर शोध करने की आवश्‍यकता है। एक सेवानिवृत व्‍यक्ति और बेरोजगार का समय कैसे कटता है, उसका जीवंत चित्रण लेखक करते हुए कहते हैं कि- ‘‘समाज का एक हिस्‍सा हमेशा गिरे मन का, नकुछपन के बोध से भरा, सिर्फ समय का बोझ ढोता रहे, यह अच्‍छा नहीं।’’ रिटायर्ड आदमी, बेरोजगार युवा, जैसे लोग समय काटने के लिए भिन्‍न-भिन्‍न तरकीब करते पाये जाते हैं। जबकि ‘समय काटने वाले’- रिटायर्ड आदमी के पास जीवन का लंबा अनुभव होता है, जिसका उपयोग घर-परिवार और समाज के हित में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। किंतु, ऐसे लोगों की पूछ-परख कम ही होती है। वहीं, दूसरी ओर बेरोजगार युवा के पास दुनिया को बदल देने की शक्ति होती है। लेकिन अभावग्रस्त जीवन के कारण इनकी शक्ति का सदुपयोग नहीं हो पाता है। समय काटने के बजाय नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी को मिलकर काम करने की आवश्‍यकता है, जिससे समय काटने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि इसी समय से नई सोच और तरक्‍की का मार्ग प्रशस्‍त होगा।
वहीं, समाज के बुद्धिजीवियों पर तीखा प्रहार करते हुए ‘बुद्धिवादी’ व्‍यंग्‍य लेख में परसाई जी ने बताया है कि बुद्धिवादी व्यक्ति अपने हाव-भाव के साथ व्यक्तित्‍व का परिचय देने के लिये कई तरह की चालाकी करता है। इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि- “कोई भूखा मर रहा हो तो बुद्धिवादी उसे रोटी नहीं देगा। वह विभिन्न देशों के अन्न-उत्पादन के आंकड़े बताने लगेगा। बीमार आदमी को देखकर वह दवा का इंतजाम नहीं करेगा, विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट उसे पढ़कर सुनाएगा …….।’’
‘बुद्धिवादी’, में उन्‍होंने बताया है कि देश-दुनिया और समाज में ज्ञान बांटने वाले बुद्धिवादी लोग ज्‍यादात्‍तर धुर्त और चालाक होते हैं। अपने स्‍वार्थ के लिए ज्ञान का सदुपयोग करने के बजाय दुरूपयोग कर अपना स्‍वार्थ साधते हैं। परंतु, जैसे ही खुद पर कोई समस्‍या आती है तो इनका ज्ञान छिन्‍न-भिन्‍न हो जाता है। जब बुद्धिवादी को एक चिट्ठी आती है, जिसमें लिखा होता है कि उसकी बेटी ने अंतरजातीय विवाह कर ली है तो उनकी बुद्धिवादी ज्ञानचक्षु की सारी दुकानें और हाव-भाव छूमंतर हो जाती है। उपदेश सिर्फ दूसरों को ही दिए जाते हैं, अपने लिए सारे उपदेश फेल हो जाते हैं।
एक अन्‍य व्‍यंग्‍य लेख ‘किताबों की दुकान और दवाओं की’ में लेखक बताते हैं कि किताबों की दुकान और दवाओं की तुलना की जाये तो वस्तुत: किताबों की दुकान की अपेक्षा दवाओं की दुकान में अपेक्षाकृत अधिक भीड़ रहती है। इस परिदृश्‍य में शारीरिक और सामाजिक बीमारी का सदृश्‍य चित्रण ‘किताबों की दुकान और दवाओं की’ शीर्षक में किया गया है। वे कहते हैं कि ‘‘पूरा समाज बीमारी को स्वास्थ्य मान लेता है। जाति-भेद एक बीमारी ही है। मगर हमारे यहाँ कई लोग हैं जो इसे समाज के स्वास्थ्य की निशानी समझते हैं। गोरों का रंग-दंभ एक बीमारी है। मगर अफ्रीका के गोरे इसे स्वास्थ्यगत लक्षण मानते हैं और बीमारी को गर्व से ढो रहे हैं। ऐसे में बीमारी से प्यार हो जाता है। बीमारी गौरव के साथ भोगी जाती है। मुझे भी बचपन में परिवार ने ब्राह्मणपन की बीमारी लगा दी थी, पर मैंने जल्‍दी ही इसका इलाज कर लिया।’’
‘किताबों की दुकान और दवाओं की’ ज्ञान और बीमारी के बीच के द्वंद का विश्‍लेषण परिवारिक और समाजिक संस्‍कार से जोड़ते हुए किया गया है। समाज में व्‍याप्‍त अनेक ऐसी सामाजिक कुरीतियां हैं, जिनको परंपरा और संस्‍कृति का नाम दे दिया गया है, जिसका उपचार करना आवश्‍यक है। मस्तिष्‍क में पहले से बने-बनाये सोच-विचार में अच्छे-बुरे की पहचान करना आसान है, किंतु उसका पालन करना अत्यंत कठिन है। इसके माध्यम से लेखक ने व्यंग्यात्मक ढंग से समाजिक बीमारियों के यथार्थ रूप को सामने लाने का प्रयास किया है।
साहित्‍यकारों की दशा को रेखांकित करते हुए व्‍यंग्‍य लेख ‘आना और न आना राजकुमार का’ में परसाई जी का कहना है कि लेखकीय जीवन में मानदेय का स्थान बेहद महत्वपूर्ण होता है। लेखक को एक समारोह में मुख्‍य अतिथि बनाया जाता है। समारोह सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता। खूब यश की भी प्राप्ति होती है, किंतु लेखक का मन यश में नहीं लगता है क्योंकि मानदेय के रूप में जो धन प्राप्त होने वाला था, वह अप्राप्त था। उसको लेकर राजकुमार नाम का युवक आने वाला था, किंतु वह किसी कारणवश विलंब कर रहा था। इस संदर्भ का उल्‍लेख करते हुए परसाई जी कहते हैं कि- “समारोह खत्म हो गया था। मुझे पहली गाड़ी से लौटना था, सामान बँध चुका था। होटल के मेरे कमरे में स्थानीय प्रबुद्ध जन और बंधु बैठे थें और मेरे भाषण की तारीफ कर रहे थें। मुझे तारीफ बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी। मैं बार-बार दरवाजे की तरफ देखता था- राजकुमार अभी तक नहीं आए…….।” समाज में अधिकांश लेखकों की स्थिति आज भी बेहतर नहीं हो पायी है। उन्‍हें जो मान-सम्‍मान मिलना चाहिए, उससे वे आज भी वंचित हैं, जिसके कारण उनके जीवन स्‍तर में सुधार होना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में मानदेय लेखकों के लिए महत्‍वपूर्ण हो जाता है।
अपनी-अपनी बीमारी, समय काटने वाले, बुद्धिवादी, किताबों की दुकान और दवाओं की, आना और न आना राजकुमार का आदि जैसे विषयों से यह स्‍पष्‍ट होता है कि समाज में अनेक ऐसे लोग हैं, जिनका जीवनयापन उनके पेशे से ही जुड़ा है। उसी के अनुरूप उनका मानसिक संतुलन बनता-बिगड़ता रहता है। दरअसल व्‍यक्ति की इच्‍छा के अनुरूप कार्य न होने की स्थिति में व्यक्ति अपनी-अपनी बीमारी से ग्रसित हो जाता है, जिससे छुटकारा पाना लगभग असंभव सा है, क्योंकि समाज में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने हिसाब से जीना चाहता है। किंतु, सामाजिक और व्‍यक्तिगत जीवन में कई प्रकार के उथल-पुथल के कारण यह कठिन होता है। इसलिए हर वर्ग से जुड़ा व्यक्ति अपनी अपनी बीमारी से ग्रसित है, जिसका उल्‍लेख व्‍यंग्‍यकार हरिशंकर परसाई ने किया है, जो आज भी बेहद ज्‍वलंत है। परसाई जी ने जिस प्रकार के व्‍यंग्‍य को रचा, वह समाज के प्रत्‍येक कालखंड में समसामयिक लगते हैं। उन्‍होंने देश की राजनीतिक पार्टियों से लेकर सामाजिक, सांस्‍कृतिक, आर्थिक आदि जैसे मुद्दों के काले पक्ष को बेहद ही गंभीर तौर पर देखा और अपने चंद लाईनों के माध्‍यम से लोगों को उस पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। उनके व्‍यंग्‍य आज भी सत्‍तापक्ष में बौखलाहट पैदा करने के लिए बेहतरीन हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किए जा रहे हैं। दशकों पूर्व रचे गए उनके व्‍यंग्‍य सोशल मीडिया पर जिस तरीके से वायरल होता है, वह उनके कल, आज और कल की प्रासंगिकता को ही दर्शाता है।
डॉ.संतोष कुमार बघेल

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संतोष बघेल

लेखक शिक्षाविद् एवं स्‍वतन्त्र लेखक हैं| सम्पर्क- +919479273685, santosh.baghel@gmail.com
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