बिहार के गाँधी : लक्ष्मी नारायण
9 मई: लक्ष्मी नारायण की पुण्यतिथि पर
बिहार खादी आन्दोलन को अपने अविस्मरणीय योगदान से उसे ऊँचाई पर पहुँचाने वाले लक्ष्मी नारायण को लोग आज भूल चुके हैं। उनके सहयोगियों ने भी उन्हें भुला देने की कोशिश की। जिस कारण ” ‘त्याग’ और ‘जन्मसिद्ध निरहंकारिता’ की सजीव मूर्ति ” को उनका शहर भी नहीं जानता पहचानता ! जबकि बिहार में खादी आन्दोलन के जनक माने जाने वाले लक्ष्मी नारायण का जीवन चरित्र ही दरअसल बिहार खादी आन्दोलन का जीवन्त दस्तावेज है। तभी जय प्रकाश नारायण ने कहा था कि “बिहार के खादी आन्दोलन का इतिहास एक बहुत बड़े अंश में स्व.लक्ष्मी बाबू के जीवन-चरित्र का इतिहास है।” खादी आन्दोलन के अग्रदूत होने की वजह से आचार्य कृपलानी ने उन्हें ‘आजातशत्रु’ कहा।
लक्ष्मी नारायण को ‘बिहार का गाँधी’ कहा गया। वे बिहार खादी आन्दोलन, खादी ग्रामोद्योग, भूदान आन्दोलन से जुड़ कर आदर्श, मृदुभाषिता, सहृदयता, संवेदनशीलता, कर्तव्यनिष्ठता, आचरणशीलता और सादगी की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे व्यक्त करते आचार्य जे.बी.कृपलानी ने उनके बारे में कहा कि ” जिस बिहार में दलबन्दियों और जातीय प्रतिद्वंद्विताओं का ऐसा संघर्ष रहा हो, वहाँ भी मुझे सार्वजनिक क्षेत्र में कोई ऐसा व्यक्ति न मिला जिसने लक्ष्मी बाबू की प्रशंसा न की हो।”
आखिर उन्हें ऐसी प्रशंसा क्यों मिली ? किस भट्टी में तप कर कुन्दन बने थे श्री लक्ष्मी नारायण ? उसकी मिसाल 1934 की प्रलयंकारी भूकम्प से पता चलता है। 8.4 रिएक्टर स्केल की तीव्रता से आयी इस भूकम्प में उनकी पत्नी, पुत्र, पुत्री समेत घर के आठ सदस्य की मौत मुजफ्फरपुर स्थित उनकी कोठी धँस जाने से हो गई थी। उस समय वे बेगूसराय में थे। यह दुःखद समाचार उन्हें भेजा गया तो उन्होंने कहा – “वहाँ और लोग हैं वे देख लेंगे, किन्तु मुंगेर में बहुत तबाही हुई है ! बहुत लोग मरे हैं उन्हें कौन देखेगा !” और ‘पर दुःख-कातरता’ स्वभाव के कारण वे घर न आकर मुंगेर चले गए जहाँ पूरा इलाका मलवे में तब्दील हो चुका था।
तबाही का ऐसा मंजर था कि गाँधी, नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ.सम्पूर्णानन्द, मदनमोहन मालवीय, सरोजनी नायडू, यमुना लाल बजाज, अब्दुल गफ्फार खां, कृपलानी को भी वहाँ पहुँच कर मलवा साफ करना पड़ा था। लेकिन वहाँ सबसे पहले पहुँचने वालों में लक्ष्मी नारायण ही थे। भूकम्प पीड़ितों को देखने जब महात्मा गाँधी मुजफ्फरपुर आये तो सीधे लक्ष्मी नारायण के घर पहुँच उनकी माँ से मिले। घर के बारे में जब पता चला तो उन्होंने लक्ष्मी नारायण को लौटने का आदेश भेजा। तब वे मुजफ्फरपुर आये लेकिन सीधे घर नहीं जाकर पहले शहर के पीड़ितों से हाल लेते रहे, उसके पश्चात घर की ओर रुख किया। ऐसे निर्मोही थे लक्ष्मी नारायण।
लक्ष्मी नारायण का जन्म सन 1898 में बेगूसराय के उलाव स्टेट के धनाढ्य जमींदार अग्रवाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ईश्वरी प्रसाद था। ईश्वरी प्रसाद के परदादा बाबू मनसाराम अग्रवाल की जमींदारी मुजफ्फरपुर के साथ कई अन्य जिलों में फैली थी। महाजनी और जमींदारी को सुचारू रूप से चलाने के लिए लक्ष्मी नारायण के दादा श्री लालजी ने मुजफ्फरपुर के नयी बाजार में एक हवेली बनवायी और 1903 में स्थायी रूप से यहीं बस गयें। श्री लालजी को विद्रोहियों की मदद करने के कारण 1857 के गदर में भूमिगत होना पड़ा था।
बचपन से ही अपनी तेजस्विता के बल पर लक्ष्मी नारायण 1914 में मैट्रिक में सर्वप्रथम आयें और एम.एस.सी. तक की पढ़ाई मेधा-छात्रवृत्ति के बल पर की। पटना से 1918 में बी.एस.सी. केमेस्ट्री ऑनर्स में सर्वप्रथम आये। एम.एस.सी. की पढ़ाई करते समय उन्हें ‘इंडिपेंडेंट’ पत्रिका पढ़ते देख अंग्रेज प्राध्यापक कॉडवेल ने नाराजगी व्यक्त करते कहा – “या तो यह ‘इंडिपेंडेंट’ पत्रिका पढ़ो, या इस कॉलेज में रहो। दो में से जो अच्छा लगे, चुन लो। दोनों साथ नहीं चल सकते।” तो उन्होंने ‘इंडिपेंडेंट’ चुना और पढ़ाई छोड़ वापस मुजफ्फरपुर लौट पड़े। घर वालों की दविश से वे पुनः एम.एस.सी. करने कलकत्ता गये। वहाँ 1919 में जब गाँधी जी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ का बिगुल फूँका तो वे सिक्स्थ ईयर की पढ़ाई छोड़ वापस लौट पड़े। इस बात से घर वाले दुखी हो जब बिगड़े कि एमएससी कर के यह करना चाहिए तो उन्होंने कहा – “जब एमएससी पास कर ही लिया, तो फिर त्याग की मात्रा ही कहाँ बचेगी ?” इक्कीस वर्षीय इस युवा ने फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा और आजीवन देशप्रेम में डूब गाँधी-मार्ग पर चल पड़े।
कांग्रेस में सक्रियता के कारण 1919 में वे जिला कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य चुने गए और उन्हें कोष सम्भालने का कार्य सौंपा गया। 1922 में जब ‘ तिलक स्वराज्य कोष ‘ की स्थापना हुई तब उन्हें कोषाध्यक्ष बनाया गया। 1922 में बिहार प्रान्तीय कांग्रेस समिति ने खादी विभाग का गठन किया। इसके संचालन के लिए पाँच सदस्यीय संचालन समिति में वे भी थे। इसी वर्ष, दक्षिण-भारत के बेजवाडा में कांग्रेस ने बीस लाख चरखा-निर्माण और एक करोड़ रुपये एकत्र करने का जब निर्णय लिया तब मुजफ्फरपुर का प्रभारी इन्हीं को बनाया गया। 1923 में अखिल भारतीय खादी मण्डल के प्रभारी बने। 1925 में कांग्रेस-अधिवेशन में जिस अखिल भारतीय चरखा-संघ की नींव पड़ी उसके प्रथम प्रान्तीय प्रधान-मन्त्री लक्ष्मी नारायण को बनाया गया। इसके प्रभारी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे।
चरखा-संघ के विकेन्द्रीकरण की बात जब अक्टूबर 1946 में गाँधी जी ने दिल्ली के अखिल भारत संघ में रखी तब लक्ष्मी नारायण के नेतृत्व में बिहार में विकेन्द्रीकरण की बात लिखित तौर पर गाँधी जी को सौंपने वाले वे पहले व्यक्ति थे, जिसके फलस्वरूप ‘बिहार खादी समिति’ नामक संस्था के रूप में बिहार में खादी के विकेन्द्रीकरण को स्वतन्त्रता मिली। इसकी शुरूआत 1947 से शुरू हुई जिसके प्रथम मन्त्री लक्ष्मी नारायण को ही बनाया गया। बाद में ग्रामोद्योग का इसमें विलय हुआ तो इसका नाम ‘बिहार खादी ग्रामोद्योग संघ’ पड़ा। जिसका प्रधान कार्यालय आज भी मुजफ्फरपुर में स्थित है। भारत सरकार द्वारा 1956-57 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग का गठन किया गया तो कुल पाँच सदस्यों में लक्ष्मी नारायण भी थे। वे आजीवन खादी को प्रतिष्ठित करने और उसके उत्थान के लिए रचनात्मक कार्य करते रहे।
बिनोवा भावे ने 1952 में भूदान-आन्दोलन शुरू किया तो खादी समिति के मन्त्री पद से इस्तीफा देकर लक्ष्मी नारायण भूदान-आन्दोलन में कूद पड़े। अभिजात्य कुल में जन्म होने के कारण स्कूल भी घोड़ागाड़ी से जाने वाले इस सख्स ने पद-यात्रा का व्रत ले भूदान-यज्ञ की ऐसी मशाल जलायी कि देश भर में जितनी जमीन भूदान में एकत्रित हुई उसकी आधी जमीन, करीब 23 लाख एकड़ लक्ष्मी नारायण के पद-यात्रा प्रयास से ‘बिहार भूदान यज्ञ समिति’ को मिली। बिनोवा भावे ने लोगों से जब अपनी दस प्रतिशत जमीन भूदान में देने की अपील की तब बिना देरी किये श्री लक्ष्मी नारायण ने अपनी जमीन दान में दे दी। कुछ जमीन उन्होंने खरीदकर भी दान की।
अखिल भारतीय सर्व सेवा संघ, वाराणसी ने 1960 में लिखा कि “खादी के इतिहास में बिहार का अपना स्थान है। स्व.लक्ष्मी बाबू की जीवन साधना के कारण यहाँ खादी-ग्रामोद्योग काम सर्वोदय आन्दोलन से जुड़कर नव-समाज रचना की बुनियाद बनता जा रहा है।”
मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन की जब शुरुआत गाँधी जी की तो लक्ष्मी नारायण ने अपने घर में सेप्टिक-टैंक वाला शौचालय बनवाया। इस बात की चर्चा करते हुए उनके प्रपौत्र स्व.अशोक कुमार लिखते हैं कि “एक बार घर की पैखाना टँकी वे खुद और पिता जी मिलकर साफ कर रहे थे, तब मेरा कौतूहल देख कर मुझे भी मिट्टी के छोटे बर्तन में टँकी का एकत्रित मल फेंकने को दिया। उस दिन से किसी भी गन्दगी को खुद साफ करने की झिझक जो टूटी, वह अभी भी मेरे अन्दर कायम है।” उन्होंने न केवल गाँधीजी के सिद्धान्त को अपने जीवन में आत्मसात किया।
गाँधी की तरह ही आजीवन ठेहुने तक धोती और चादर में जीवन गुजारा। स्वदेशी के हिमायती लक्ष्मी नारायण चिकनी मिट्टी से बनाया साबुन ही उपयोग करते रहे। उन्होंने कभी भी बाजार का साबुन, तेल, कंघी, तौलिया का उपयोग नहीं किया। खादी ग्रामोद्योग के पद पर रहते हुए उन्हें जो भी वेतन मिलता रहा, उसे परिवार वाले कभी नहीं जान पाए क्योंकि उस वेतन को वे खादी ग्रामोद्योग या भूदान कार्यों में खर्च कर देते थे। घर-परिवार का खर्च उनके पुस्तैनी आय से चलती, किन्तु ढहती जमींदारी और भूदान में दी गई एक तिहाई जमीन से सिकुड़ती पुस्तैनी आय से जब घर चलाना मुश्किल होने लगा, तब जमीन बेचते और उसका तीन भाग करते। एक बेटे के लिए, दूसरा भाग बेटी को और तीसरा हिस्सा जरूरतमंदों, भूदान या खादी पर खर्च करते। ऐसे विरल संत थे श्री लक्ष्मी नारायण !
‘विशुद्ध सनातन हिन्दू धर्म परिवार में जन्में’ और ‘छुआछूत’ मानने वाले लक्ष्मी नारायण ने इसे भी गाँधी की तरह तोड़ते हुए हरिजनों के साथ बैठकर भात खायी जिस कारण उनसे उनके सगे-सम्बन्धियों ने सम्बन्ध तोड़ लिया लेकिन वे ‘अविचल’ रह बोले – “मानव मानव एक समान। एक हरि की सब संतान।” इस घटना ने उन्हें ‘आजीवन रूढ़िवाद, जातिवाद, छुआछूत और विषमता का कट्टर शत्रु बना दिया।’
उनकी सादगी और आदर्शवादिता की मिसाल यह भी रही कि जब उनके एक मात्र पुत्र की शादी के लिए लोग आने लगे तो उन्होंने शर्त रखी कि पुत्र की शादी उसी लड़की से करेंगे जो चरखा से सूत काट सके। उसके काते सूत के कपड़े मैं पहनूँगा और मेरे काते सूत की वो पहनेगी। इस तरह शादी जब तय हुई तो कन्यापक्ष को बुलवाकर उन्होंने घर के पास ही एक मुस्लिम परिवार में ठहराया और अपने काते सूत के वस्त्र पहना कर अत्यन्त सादगी से विवाह सम्पन्न किया। इस शादी में उन्हीं के काते सूत की माला वर-वधु ने एक दूसरे को पहनायी।
विवाहोपरांत गरीबों और हरिजनों को भोज करा कर इस विवाह का समापन किया। महात्मा गाँधी के ‘नई तालीम’ और ‘बुनियादी तालीम’ शिक्षा-नीति के वे पक्षधर ही नहीं थे बल्कि स्वयं पर भी लागू किया। उन्होंने अपनी पुत्री शशिमुखी को गाँधी जी द्वारा स्थापित मोतिहारी के ढाका स्थित मधुबनी कलाशाला के “बाल-बाड़ी” में शिक्षा दिलवायी।
इस स्वावलम्बी महापुरुष ने भूदान से जुड़ने के बाद पद-यात्रा कर भूदान के लिए जमीन एकत्रित की और उसी कार्य को करते हुए दरभंगा में पद-यात्रा के दौरान अमर-यात्री बने। उनकी मृत्यु 09 मई 1958 को हुई। इस समाचार को सुन खादी ग्रामोद्योग संघ और भूदान से जुड़े लोग रो पड़े। श्री लक्ष्मी नारायण के परम मित्र राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति निवास, शिमला से उनके पुत्र हर्षवर्धन के नाम अपने शोक-संदेश में लिखा “…..अकस्मात यह समाचार पाकर मैं स्वयं स्तब्ध सा रह गया। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ कि वे हमें छोड़ कर चले गये। अभी दो दिन ही हुए उनका पत्र आया था और उनकी बीमारी इत्यादि का कोई समाचार मुझे नहीं मिला था, इससे मालूम होता है कि अचानक ही उनका देहान्त हो गया है। जब मैं स्वयं ही इतना धीरज नहीं रख पा रहा हूँ तो समझ में नहीं आता कि तुम बच्चों को किस तरह से धैर्य बँधाऊँ।”
1942 के स्वतन्त्रता आन्दोलन में ढाई साल की सजा काटने वाले देशभक्त, गाँधी-राजेन्द्र-बिनोवा के परम प्रिय श्री लक्ष्मी नारायण लोभ-लालच से दूर रहे। अपने किये कार्यों के प्रचार-प्रसार की लालसा नहीं की जिस कारण वे गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उनकी मृत्यु पश्चात उनके अनन्य सहयोगी ध्वजा प्रसाद साहू उनके पुत्र हर्षवर्धन के पास जा बोले – “हरषु, लक्ष्मी बाबू की सभी चीजें मुझे दे दो। उनकी वो सभी वस्तुएं लक्ष्मीनारायण भवन में रखी जायेगी ताकि लोग उस पुण्यात्मा की चीजें देख सकें। वह सब तुम्हारे काम की तो है नहीं, पड़े-पड़े नष्ट हो जाएगी।” वर्षों पिता के सहयोगी रहे ध्वजा प्रसाद पर अविश्वास का कोई कारण न था।
हर्षवर्द्धन ने लक्ष्मी नारायण के नाम लोगों की चिट्ठियाँ, कागजात, उनके द्वारा काते गए सूत, दस-बारह चरखा, चश्मा, कपड़े, साबुन (जो वे प्रयोग करते थे) आदि उठा कर ले गए। कुछ दिनों बाद जब उनकी बहन आयीं तो लक्ष्मीनारायण भवन गईं , लेकिन वहाँ उन्हें उनका कोई सामान नहीं दिखा। ध्वजा प्रसाद साहू से पूछने पर उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। खादी आन्दोलन की उनकी निशानी को चालाकी से नष्ट कर उनके अवदान पर मिट्टी डाल दी गई। हालांकि ध्वजा बाबू अपने अंतिम समय रोकर स्वीकार किया कि लक्ष्मी बाबू पुण्यात्मा थे। “वे अपनी आँखों अपनी संस्था का विघटन नहीं देख पाये। यह मेरे पूर्व पापों का परिणाम है।”
स्वतन्त्रता प्राप्ति पश्चात बहुत से लोग शासन के उच्च पदों पर विराजमान हुए किन्तु उन्होंने उस पद-प्राप्ति के मोह से परे रचनात्मक कार्यों को वरीयता दी और इससे विचले नहीं। ‘मरते-मरते करो’ के अपने कथन पर अमल करते हुए दिवंगत हुए ! आज उस सन्त को स्मरण करने में खादी ग्रामोद्योग दलबन्दी का शिकार हो चला है।