नुक्कड़ पर ‘अस्मिता’ की दस्तक
आज के समय में सत्ता के दुर्ग द्वार के सम्मुख जहां रंगकर्मियों की एक बड़ी फौज लगभग आत्मसमर्पण कर चुकी है … रंगकर्मियों का एक ऐसा भी ग्रुप है, जो रोज नियम से अपने घरों से निकलकर, बसों – ट्रामों में सफर तय कर गांव – शहर – महानगर के एक कोने से दूसरे कोने में जाकर ऐसे फैल जाते हैं जैसे फैल जाती है हवाएं … समंदर में उठती हैं ज्वार भाटाएँ। सब एक रंग के कपड़े में होते हैं। काले रंग के कुर्ते में। जेंडर का कोई भेद नहीं। लड़के – लड़कियां सब एक ही रंग और एक ही तरह के कुर्ते में। कहीं भी काले कुर्ते में कोई दिख जाय, लोग दूर से ही पहचान जाते हैं कि ये ‘अस्मिता’ वाले हैं। जरूर कोई नुक्कड़ नाटक दिखाने आ गए हैं। अचानक उनमें से कोई थाप देना शुरू कर देता है। ताली बजा – बजाकर स्वर देने लगते हैं – सुनो जी, सुनो जी, सुनो जी …
हाल – फिलहाल से नहीं, लगभग 25 वर्षों से ‘अस्मिता’ थिएटर ग्रुप नुक्कड़ नाटक कर रही है। जहां से लोग बुलाते हैं, वहां जाते हैं। जहां से लोग नहीं भी बुलाते हैं, जरूरत पड़ने पर वहां भी जाते हैं। कहीं भी कोई आंदोलन दिखाई जाय, ये चल देते हैं। कहीं भी कोई धरना की खबर मालूम पड़ जाय, जोर – जुल्म के विरोध में जुलूस निकलने वाली हो, उसमें शामिल हो जाते हैं। सस्वर गीत गाते हैं। जहां कोई गोल घेरा मिल जाय, बिना विलंब किये नाटक भी करने लगते हैं। दिल्ली के लोगों के लिए इनके नाटक तो जैसे जिंदगी का एक हिस्सा बन चुका है।
वरिष्ठ रंग चिंतक एवं नाट्य समीक्षक डॉ सतेंद्र तनेजा का कहना है कि ‘अरविंद गौड़ का रंगकर्म सीधे अपने समाज और जीवन से जुड़े मसलों को नुक्कड़ नाटक में उठाता है। नुक्कड़ नाटकों की सार्थकता यही है कि दर्शक अपने समय के कटु यथार्थ का सामना करें। अरविंद गौड़ आज के इन मुद्दों और ज्वलन्त सवालों को अपने नुक्कड़ नाटकों में उठाते हैं और उन पर अपनी तीखी शैली प्रदर्शन पद्धति के साथ दर्शकों को झकझोरते हैं। उनके नाटकों की सार्थकता और प्रासंगिकता निर्निवाद है।’
अपनी बात कहने के लिए अरविंद गौड़ को किसी रैखिक कथा की जरूरत नही पड़ती है। उन्हें जो कहना होता है छोटे – छोटे दृश्यों , चंद संवादों से कह देते हैं। विशेष किसी पात्र से कहलाने के बजाय, कोरस से कहलाने में उन्हें सुविधा होती है। कलाकारों का समूह अरविंद गौड़ की सबसे बड़ी ताकत हैं। इसलिए उनके अधिकतर नाटकों में एक्टर्स की एक बड़ी संख्या नजर आती है। इन एक्टर्स का इस्तेमाल भी तरह – तरह से करते हैं। ये कभी प्रॉपर्टी बन जाते हैं, कभी कोई पात्र तो कभी गायक – वादक।
अरविंद गौड़ के नाटकों को देखने और पढ़ने के बाद लगता है कि बड़े – बड़े सवालों से टकराने के बजाय छोटी – छोटी बुनियादी समस्याओं को टच करना ही उनकी प्राथमिकता है। ऐसे विषयों को जिसे रंगमंच में इग्नोर किया गया है, तवज्जो नहीं दिया गया है, अरविंद गौड़ ने अपने नुक्कड़ नाटक का विषय बनाया है। पहले इन विषयों को कल्याणकारी संस्थाओं के हवाले छोड़ दिया जाता था। समझा जाता था कि ये सब्जेक्ट तो एनजीओ वालों के लिए हैं। और एनजीओ वालों के बारे में आज भी यह धारणा रहती है कि चूंकि ये बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कॉरपोरेटों से फंडेड होते हैं, इसलिए ये उनके विरुद्ध नहीं जा सकते हैं, चाहे समस्यायों को कितनों संवेदनात्मक तरीके से दिखा ले। अन्ततः नाटक को एक अंधी गली में छोड़ कर वही सुधारवादी आलाप भरने लगेंगे। ऐसे रंगकर्म को प्रतिक्रियावादी भी कहते हैं। कहने का मतलब ये सारे जो विषय हैं, उनके बारे में पहले से ही धारण बनाकर रिजेक्शन के खाने में डाल देते हैं।
अरविंद गौड़ राजनीति के बड़े – बड़े सवालों को सुलझाने के पहले छोटे – छोटे सामाजिक समस्याओं को हल करने को ज्यादा जरूरी समझते हैं। वे इन सवालों को एनजीओ के हवाले करने के बजाय खुद हल करना चाहते हैं। और उनका जो नजरिया है, वो एनजीओ की तरह नहीं है। वे सामाजिक सवालों को धर्म सत्ता – राज सत्ता से अलग करके नहीं देखते हैं। उन्हें पता है कि समाज में जो यौन हिंसा, लिंग के आधार पर असमानता, अशिक्षा, चिकित्सा जैसे सवाल हैं, सिस्टम में व्याप्त खामी के कारण है। सत्ता का जो चरित्र है, उससे उपजी ये समस्या है। फिलहाल इन सामाजिक सवालों को उठाकर लोगों को सांस्कृतिक रूप से जगाना ज्यादा जरूरी है। केवल राजनीतिक रूप से सजग होने से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। भले आप पॉलिटकली स्ट्रांग हो लेकिन घर – परिवार – समाज में स्त्री – दलित – आदिवासी – अल्पसंख्यक के क्रिटिक हैं तो व्यवस्था के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई में आप दूर तक नहीं जा सकते हैं। एकदिन आप सत्ता की कतार में खड़े दिखाई देंगे और वही बोली बोलने लगेंगे जो हुक्मरान बोलते हैं।
इसलिए अरविंद गौड़ कहते हैं कि नुक्कड़ नाटक बदलाव की उम्मीद का दो टूक, सडक़ पर मारपीट, खून के अभाव में भटकते लोग, बुढ़ापे की यातना, जाति – धर्म और इंसानियत की बातें, हाशिये के समाज की पीड़ा जैसे सैकड़ों मुद्दे नाटकों के विषय बनने लगे।
अस्मिता केवल नाटक करने के लिये नाटक नहीं करता है। जहां इन्हें नाटक करना होता है, उससे उनका एक रिश्ता होता है। नहीं होता है तो बनाते हैं। मंच नाटक की तरह दर्शकों से उनका रिलेशन परफ़ॉर्मर और स्पेक्टेटर तक का नहीं होता है। दर्शक उनके लिए बस्स कस्टमर नहीं होते हैं। जो करते हैं दर्शकों के सहयोग से करते हैं। नाटक समाप्त होने के बाद अस्मिता के कलाकार धूल झाड़कर वहां से प्रस्थान नहीं कर जाते हैं। वे दर्शकों से बातें करते हैं। नाटक पर उनसे प्रतिक्रिया मांगते हैं। सुझाव देने को कहते हैं। अगर किसी को किसी बिंदु पर असहमति होती है तो विचार – विमर्श करते हैं। जरूरत पड़ने पर अगली प्रस्तुति में जोड़ भी देते हैं।
अरविंद गौड़ कहने से ज्यादा दिखाने में बिलीव करते हैं इसलिए अपने नुक्कड़ नाटकों में बड़े दृश्यों की अपेक्षा छोटे – छोटे सीन ज्यादा लिखते हैं। बड़े और लंबे संवादों के बजाय छोटे संवाद अपने कलाकारों से बुलवाते हैं। फ़िल्म पटकथा की तरह ‘कट टू कट’ तकनीक का प्रयोग नुक्कड़ नाटक में भी करते हैं। यहां तक कि अपनी बात को दर्शकों तक संप्रेषित करने के लिए जरूरत पड़ने पर लोकप्रिय फिल्मी गीत के मुखड़ों का भी बेहिचक इस्तेमाल करते हैं। अरविंद गौड़ को जब अपने नाटक में कुछ कहना होता है तो वे किसी परंपरागत कहानी, पात्र की तलाश नहीं करते हैं। नए तरीके ढूंढ़ने लगते हैं। वे लोगों से बातें करने लगते हैं। कभी उनकी बातें सुनने लगते हैं। कलाकारों के मन में कोई आईडिया आ गया तो उसे ले लेते हैं। अस्मिता में कोई भी कुछ भी कह सकता है। अरविंद गौड़ अपने कलाकारों को अपनी राय रखने के लिए पूरी लिबर्टी देते हैं। कहते भी हैं कि नाटक लिखना सामूहिक टीम वर्क है। वैसे ही इसके मंचन के लिए कलाकारों को खुली स्वतंत्रता देते हैं। तभी तो ये किसी नाटक को बीस कलाकारों में करते हैं और कभी दो सौ के साथ। इन नाटकों के मंचन रुकते नहीं हैं। कलाकार बदलते रहते हैं लेकिन नाटक चलते रहता है।
अरविंद गौड़ कहते भी हैं कि ‘नुक्कड़ नाटकों में जिंदगी की सांसें हैं। मेरी, इसकी, उसकी, सबकी बातें हैं पर उन बातों को रेखाकित करने वाले ये नाटक आपके ही हैं। मैंने और मेरी टीम ने इन्हें किया है और आप तक पहुंचाया है।‘ नुक्कड़ पर अस्मिता की दस्तक यह संभावना तो जगाती ही है कि आज नहीं तो कल दुर्ग के बंद द्वार टूटेंगे, खुलेंगे...