
फिल्मी हस्तियों को पद्म अलंकरण से नवाज़ने का पैमाना क्या..?
हमारे देश में हर साल गणतन्त्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्र के चुनिंदा लोगों को पद्म पुरस्कारों से नवाज़े जाने की घोषणा की जाती है। भारत रत्न के बाद दूसरे सर्वोच्च नागरिक अलंकरण के रूप में इन पुरस्कारों की अहमियत इसलिए भी है कि इन्हें एक गरिमामय समारोह में भारत के राष्ट्रपति स्वयं अपने करकमलों से प्रदान करते हैं। इसीलिए किसी भी विधा में पद्म पुरस्कार के लिए चुना जाना सम्बन्धित व्यक्ति के लिए जीवन पर्यंत विशिष्ट नागरिक के बतौर सम्मान सूचक सम्बोधन का गौरव हासिल करने से कम नहीं होता। हाल के वर्षों में पद्म अलंकरणों के लिए नामांकन की प्रक्रिया में बदलाव के बावजूद इन पुरस्कारों के चयन को लेकर ऊंगलियाँ उठती रही हैं।
इस बार पद्म पुरस्कारों से नवाज़े जाने वालों की ताज़ा सूची में करण जौहर, सरिता जोशी, एकता कपूर, कंगना रनौत, अदनान सामी और सुरेश वाडकर जैसे आधा दर्जन नाम फिल्म और टेलीविजन क्षेत्र से जुड़े हैं। अधिकांश नामों को लेकर तो कहीं कोई आवाज नहीं उठी लेकिन अदनान सामी की नागरिकता से जुड़े मुद्दे ने राजनीतिक स्तर पर विरोध को हवा दी। पक्ष विपक्ष के नेताओं/प्रवक्ताओं को समर्थन और विरोध में अपनी अपनी दलीलें रखने का एक मौका और मिल गया।
हालांकि फिल्मोद्योग से जुड़ी हस्तियों के सम्मान के लिए भारत सरकार दादा साहब फाल्के पुरस्कार सहित विभिन्न श्रेणियों में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पहले से ही देती आ रही है। ये पुरस्कार भी भारत के राष्ट्रपति के हाथों से दिये जाते हैं। गाहे बगाहे इन पुरस्कारों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते रहे हैं। जाहिर है फिल्म क्षेत्र में दादा साहब फाल्के पुरस्कार जैसा शिखर अलंकरण भारतीय फिल्मों के विकास में असाधारण योगदान, सुदीर्घ साधना और उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के आधार पर दिया जाता है, लेकिन इस कसौटी पर भी जब भारत में एक शताब्दी पूरी कर चुके सिनेमा की विकास यात्रा में एक सौ से अधिक नाम चुटकियों में निर्विवाद रूप से गिनाए जा सकते हों तो असंतोष और विवादों का उभरना स्वाभाविक ही है।
‘पंगा’ लेने के लिए मशहूर अभिनेत्री कंगना रनौत ने बड़ी विनम्रता से इस सम्मान के लिए देश के प्रति आभार जताते हुए इस सम्मान को भारत की हर उस नारी, बेटी और माँ को समर्पित किया है, जो सपने देखने का साहस जुटाती है.. ऐसे सपने जिनसे हमारे देश का भविष्य संवरेगा। हँसमुख मसखरे मिजाज़ वाले करण जौहर के लिए शायद नि:शब्द कर देने वाले मौके कम ही आते हैं। पद्मश्री मिलने की सूचना पाकर ‘कभी खुशी कभी गम’ का भावुक निर्देशक कह उठता है- “काश, इस गर्वीले क्षण को साझा करने के लिए पापा साथ होते..!”

सत्रह साल की उम्र में निर्माता की हैसियत से मनोरंजन उद्योग में पदार्पण कर धूम मचाने वाली एकता कपूर पद्मश्री मिलने की घोषणा पर आभार व्यक्त करते हुए कहती हैं- “बेटे के जन्म की पहली वर्षगाँठ के दो दिन पूर्व मिली इस गुड न्यूज की इससे बेहतर टाइमिंग और क्या हो सकती थी..!” गौरतलब है कि कभी जम्पिंग जैक रहे जितेंद्र के बेटे तुषार कपूर और बेटी एकता कपूर दोनों अविवाहित हैं और करण जौहर की तरह न केवल बच्चों को गोद लेकर बल्कि एकता ने तो सरोगेसी के जरिए गत वर्ष पुत्र जन्म का सुख प्राप्त किया है। एकता ने कितनी स्तरीय फिल्में और टेलीविजन धारावाहिक बनाकर मनोरंजन उद्योग के विकास में विशेष योगदान किया है, यह पड़ताल करना फिलहाल यहाँ मौज़ू नहीं होगा। सिर्फ ‘सास भी कभी बहू थी’ और ‘वीरे दी वेडिंग’ को संदर्भित करने भर से काम चल सकता है।
बॉलीवुड से इस वर्ष पद्मश्री के लिए हकदार बने गायक अदनान सामी लंदन में पाकिस्तानी परिवार में जन्मे हैं और लम्बे अरसे से मुंबई में रहकर गायन के क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। पद्मश्री का यह खिताब उन्हें संगीत की दुनिया में कितना लिफ्ट करायेगा, यह तो समय ही बतायेगा पर फिलवक्त उन्हें केन्द्रीय मंत्री किरण रिजिजु के हाथों मिले भारतीय नागरिकता के प्रमाणपत्र की ताजगी उनके भोले चेहरे मोहरे की रौनक तो बढ़ा ही रही है।
78 वर्षीय सरिता जोशी को दर्शक फिल्मों से ज्यादा टेलीविजन धारावाहिकों के जरिए पहचानते हैं पर उन्होंने सबसे ज्यादा काम गुजराती और मराठी थिएटर में किया है। एनएफडीसी (राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम) द्वारा निर्मित फिल्म गंगूबाई (2013) में उन्होंने केन्द्रीय भूमिका निभाई थी।
अब मुद्दे की बात पर आते हैं जो लगभग भुला दिये गये पार्श्व गायक सुरेश वाडकर का नाम पद्मश्री दिये जाने वालों की सूची में पाकर न केवल चौंकाता है बल्कि सरकारी कामकाज की निपट औपचारिकता निभानेवाली कागजी कार्यवाही के असंवेदनशील रवैये को भी दर्शाता है। इस बार जिन 118 विशिष्ट लोगों को पद्मश्री देने लायक माना गया है उस सूची में श्री सुरेश वाडकर का नाम सबसे आखरी में 117 वें क्रम पर है। यदि इसे बौद्धिक न सही कारकूनी भूल भी माने, तो भी यह एक संजीदा, समर्पित और सुयोग्य संगीत साधक ही नहीं वरिष्ठ नागरिक के प्रति सहज आदर के स्थान पर उपेक्षा और अनदेखी का सपाट भाव झलकता है।
पद्मश्री से सम्मानित होने वालों की सूची कोई सरकारी योजना का लाभ पाने वाले हितग्राहियों की या किसी अखबार के पाठकों के लिए चलाई जा रही इनामी योजना के भाग्यशाली विजेताओं की सूची नहीं है। आखिर इन सुपात्र (?) लोगों को किसने चुना है..! हमारे यहाँ तो हर छोटे बड़े प्रसंगों में नेग और शगुन भी सलीके से देने का रिवाज है, जिसमें उम्र और पद (सरकारी नौकरी वाले पद नहीं) का विशेष ध्यान रखा जाता है। फिर आप तो सरकार हैं| जहाँ पद और प्रतिष्ठा महंगे कालीन पर चलती है।
पद्मश्री की नवीनतम सूची में शामिल शख्सियतों को कला, सामाजिक कार्य, सार्वजनिक मामले, विज्ञान एवं इंजीनियरिंग, व्यापार एवं उद्योग, चिकित्सा, साहित्य और शिक्षा, खेल, नागरिक सेवा आदि क्षेत्रों में उनके योगदान के आधार पर चुने जाने से भला किसी को क्या एतराज हो सकता है। पर उसे प्रकाशन के लिए अंतिम रुप दिये जाने की प्रक्रिया में श्रेणीवार वरिष्ठता का ध्यान तो रखा ही जा सकता है। मसलन यदि कला श्रेत्र की ही बात करें तो बॉलीवुड के संदर्भ में सुरेश वाडकर का नाम कोई मूढ़मति व्यक्ति ही कंगना रनौत, करण जौहर और एकता कपूर तो ठीक अदनान सामी के बाद लेगा। कहने वाले कह सकते हैं कि इस अदनी सी भूल से कहाँ किसी का कद छोटा या बड़ा होने लगा, मगर आँखों देखी मक्खी कोई क्यूँ निगले..! बेहतर तो यह होता कि उन्हें पद्मश्री के स्थान पर पद्म भूषण के लिए चुना जाता।
बहरहाल, मृदुल स्वभाव लेकिन पक्का गाने में निष्णात सुरेश वाडकर पद्मश्री के लिए चुने जाने पर खुश हैं और सरकार के प्रति आभारी भी, लेकिन इस फौरी प्रतिक्रिया से उनके मन की कसक बयां होती है- “यदि यही सम्मान ‘समय पर’ मिलता तो मुझे और ज्यादा खुशी होती। मालूम नहीं इसके लिए चुने जाने का क्राइटेरिया क्या है, क्योंकि कई लोग जो मुझसे काफी जूनियर हैं, दस बारह साल पहले इसे प्राप्त कर चुके हैं। मैं इस इंडस्ट्री में 45 साल से हूँ। आपको नहीं लगता कि वरिष्ठों को इस तरह के सम्मान उनसे कनिष्ठ लोगों से पहले यथासमय मिलने चाहिए..! फिर भी मैं सरकार का आभारी हूँ कि उसने मुझे इसके लायक समझा।”
आज का युग एक हाथ में माइक और दूसरे हाथ में मोबाइल पकड़े सिंग अलांग कराओके तकनीक से ट्रैक पर फिल्मी गीत गाने का साहस जुटा लेने भर वाले घर घर ‘गायकों’ की भीड़ का समय है। टीवी पर ‘इंडियन आयडल’ तलाशते फैशनपरस्त डिजाइनर गायकों के जगमगाते स्टेज परफॉर्मेंस वाले युग में लगे हाथों याद करते चलें कि सुरेश वाडकर फिल्मों में पार्श्व गायन के लिए किसी के पास काम मांगने नहीं गये थे।
बल्कि 1976 में मुम्बई में शास्त्रीय संगीत के स्वनामधन्य आयोजन सुर सिंगार संगीत सम्मेलन की गायन स्पर्धा के इस विजेता ने स्वर कोकिला लता मंगेशकर को भी इस कदर प्रभावित किया था कि उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी और खय्याम सरीखे स्थापित संगीतकारों से इस नई आवाज़ को फिल्मों में अवसर देने की अनुशंसा की थी। लेकिन सुरेश वाडकर को फिल्मों में गाने का पहला मौका दिया संगीतकार जयदेव ने, जो सुर सिंगार की उस गायन स्पर्धा के निर्णायकों में से एक थे। ‘गमन’ फिल्म के इस गीत ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है’ के जरिए सुरेश वाडकर की ताजगीभरी आवाज लोगों के दिल में उतर गई। ‘गमन’ से लेकर विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ तक इस आवाज ने कभी सुर का सलीका ऊपर नीचे नहीं होने दिया।
64 वर्षीय सुरेश वाडकर ने एक म्यूजिक टीचर के बतौर जब अपने कैरियर की शुरुआत की थी तब तो कंगना रनौत पैदा भी नहीं हुई थीं और न ही लंदन में अदनान सामी के दूध के दाँत टूटे होंगे.. करण जौहर और एकता कपूर की बात तो छोड़ देना ही ठीक रहेगा..! सुरेश वाडकर आज भी सुर के सिंगार में समष्टि भाव से रमे हैं।
कभी मुम्बई के आर्य विद्या मंदिर में संगीत शिक्षक रहे इस शख्स का आज खुद का संगीत स्कूल, म्यूजिक अकादमी और संगीत की ओपन युनिवर्सिटी है, जिनके माध्यम से वे मुम्बई से लेकर न्यूयॉर्क और न्यू जर्सी तक विद्यार्थियों को संगीत की विधिवत शिक्षा देने मे जुटा है। सरकार के पास पद्मश्री की सूची में सुरेश वाडकर का नाम सबसे अन्त में दर्ज करने की गलती सुधारने का एक मौका अभी भी है। वह चाहे तो अलंकरण समारोह में सूत्रधार को सुरेश वाडकर का नाम कंगना रनौत, करण जौहर, एकता कपूर और अदनान सामी के पहले बल्कि कला क्षेत्र में सबसे पहले पुकारने का अवसर देकर यह प्रायश्चित कर सकती है।
.