छूटती जाती आदिवासी जमीन
- नेह अर्जुन इंदवार
सदियों से आदिवासी समाज का वन पतराओं के साथ सह-अस्तित्व रहा है। जब कभी भी उनके जल-जंगल-जमीन को छीनने की कोशिश की गई, वह बहुत अशान्त हो जाता है। झारखंडी चाहे असम, भोटांग (बंगाल) गया या अंडमान, सुंदरवन गया, वह जल-जंगल-जमीन से हमेशा जुड़ा रहा। आदिवासियों ने असम और बंगाल के जंगलों को साफ करके चाय बागान बनाया था। चाय बागान के साथ अपनी खेतिहर जीविका को विस्तार देने के लिए भी उन्होंने जंगल साफ करके खेत-खलिहान बनाया। जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग जिले के डुवार्स-तराई के वन-बस्ती में 1850 के दशक से ही आदिवासी खेती-किसानी करते आ रहे हैं। आज अधिकतर झारखंडी रेवेन्यू विलेज में ही बसते हैं साथ ही सैकड़ों परिवार जंगल के साथ लगे फरेस्ट विलेज में रहते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 21 राज्यों में वनभूमि क्षेत्र से उन परिवारों को हटाने का आदेश दिया है, जिनके दावों को विभिन्न समर्थनयोग्य कागजातों के अभाव में खारिज कर दिया गया था। इस आदेश की जद में पश्चिम बंगाल के झारखंडी भी आ गए हैं। यह निर्विवाद तथ्य है कि आदिवासी समुदाय प्राचीन काल से ही वन अच्छादित क्षेत्रों में रहते रहे हैं और आजादी के बाद क्रियान्वयन में लाए गए कानूनों के तहत उन्हें अवैध निवासी कहा जा रहा है। शहरों और तमाम प्रशासनिक तामझाम से दूर रहने वाले समुदायों से किसी शहरी की तरह स्थानीय निवासी होने के प्रमाण-पत्र, दशकों पुरानी रेवेन्यू और भूमि सम्बन्धी सबूत मांगे जा रहे हैं। यदि उनके पास पर्याप्त भूमि और संसाधन होते तो वे क्यों नहीं अपने लिए मुकम्मल आवास और भोजन का प्रबंध करते? शहरों में सड़क के किनारे और वन-बस्तियों के पास जीवन व्यतीत करने वालों के पास संपत्ति और संसाधन के नाम पर क्या होता है? यदि शहरों की मलिन बस्तियों को शहरी ढाँचागत विकास और मानवीय आधार पर रेग्यूलेट किया जा सकता है तो वन-पतरों के पास जीवन जीने वालों के साथ ऐसा ही मानवीय दृष्टिकोण क्यों नहीं अपनाया जा सकता है ?
झारखंडी आदिवासियों ने अपने अदम्य परिश्रम के बल पर जंगल को कृषि योग्य बनाया था और अधिकतर भूमि उनके कब्जे में थी। पूरा क्षेत्र मलेरिया के लिए कुख्यात था और उसे ‘मरघट’ क्षेत्र कहा जाता था। तब मलेरिया से बचाव का कोई इलाज नहीं था। तमाम प्रतिकूल परिस्थियों में हजारों लोगों को खोने के बावजूद आदिवासियों ने क्षेत्र को खेती लायक बनाया। आदिवासियों ने सैकड़ों स्थान यथा लोथाबाड़ी, सताली, चकियाभाटी, चखुआखाता, भरनोबाड़ी, रिनपनीया, बंदापानी, बंदरहाट आदि का नामकरण अपने हाथों किया था।
तब जीविका के भरपूर साधन थे। स्थानीय मूल निवासी बोड़ो, राभा आदि बागानों में चाकरी करना पसन्द नहीं करते थे। उनके पास जीविकापर्जन के लिए जमीन और साधन थे। कम जनसंख्या के कारण वे अतिरिक्त भूमि और अन्य संसाधनों के अर्जन के प्रति बहुत उत्सुक भी नहीं थे।
ऊधर ब्रिटिश सरकार चाय बागान में काम करने के लिए झारखण्ड और अन्य क्षेत्रों से लगातार मजदूर ला रहे थे। इसके लिए कई कानून बने थे। खेतीबारी में दक्ष आदिवासी चाय बागानों के इत्तर खेती योग्य जमीन को अपने नाम करते गए। चाँदी के सिक्कों से लैस आदिवासियों ने काफी जमीन खरीद ली थी। उनके पास इतनी जमीन थी कि वे स्थानीय भाषा में मोंडोल अर्थात् जमींदार के नाम से प्रसिद्ध हो गए। मदारीहाट के सलाह मोंडोल, बिरसा मोंडोल, बीरपाड़ा के पास के भगतपाड़ा के मंगलदास भगत मोंडोल, सताली बस्ती के विनोदबिहारी, चरवा मोंडोल, लोथाबाड़ी बस्ती के लाल एतवा मोंडोल, महादेव मोंडोल, बनचुकामारी के बिही मोंडोंल, रंगाली बजना के बिरसा मोंडोंल, क्रांति के कृष्ण भगत मोंडोल, गोपालपुर बागान के पास चपागुड़ी के हीरालाल भगत मोंडोल आदि सैकड़ों बड़े भू-स्वामी थे।अधिकतर मोंडोल के पास 100 बीघा से लेकर 4000 बीघा से भी अधिक जमीन थी। प्रायः सभी घोड़े की सवारी करते थे। कुछ के पास हाथी भी थे। आज के अलिपुरद्वार जिला शहर का आधा क्षेत्र बनचुकामारी के बिही मोंडोल का जमीन था। जब अंग्रेज घोड़गाड़ी पर दौरा करते थे तब उनके पास इंपोर्टेड मोटर थी। उन्होंने क्षेत्र में सार्वजनिक कार्यों के लिए विशाल भूमि दान में दी थी। लोथाबाड़ी हिन्दी हाई स्कूल का जमीन लाल एतवा का दान था। बीरपाड़ा (शहर) हाई स्कूल बनाने के लिए हीरालाल मोंडोल ने 75 बीघा जमीन दी थी। उन्होंने मोहनसिंह हाई स्कूल रंगाली बजना के लिए भी 49 बीघा जमीन दी । कई चाय बागानों को भी अपनी जमीन बेची। जमींदारों ने गाँवों में सैकड़ों स्कूलों के लिए जमीन दिए, जो बाद में सरकारी स्कूल बने।
ये जमींदार आम आदिवासियों की तरह ही सीधे-सादे हुआ करते थे। उन्होंने सामंतवादी व्यवहार सीखा नहीं था । अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित होने के कारण सरकारी नियम कायदों से परिचित नहीं थे। शायद आदिवासी रक्त में घुले बिजनेस विरोधी तत्त्व ने उन विशाल भूमि खण्डों का व्यापारिक उपयोग करने से उन्हें रोक दिया था। वे चाहते तो वहाँ चाय बागान बना सकते थे। जानकारी की कमी और सादगी ने दुनिया में आ रहे बदलाव को भांपने में उनका साथ नहीं दिया।
1947 में पूर्वी पाकिस्तान बना। लाखों शरणार्थी इस क्षेत्र में आये। जनसंख्या के स्वरूप में बदलाव हुआ। 1971 में बंगला देश बना और शर्णार्थियों का हुजूम आकर क्षेत्र में फैल गया । भूमि और अन्य संसाधनों की मांग एकाएक बढ़ गयी। उधर 1977 में मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की नयी सरकार आयी। जून 1978 में बड़े खेतों को छोटे किसानों में बाँटने का ‘ऑपरेशन बर्गादार’ शुरू हुआ। भूमि सुधार के इस ऑपरेशन को कानूनी रूप देने के लिए वामफ्रंट सरकार ने बेंगल लैंड होल्डिंग रिवेन्यू एक्ट 1979 लाया। इस कानून ने बड़े-बड़े जमींदारों में खलबली मचा दी । दो वर्षों तक राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किया। दक्षिण बंगाल के चालाक जमींदारों ने इसका लाभ उठाया और जमीन बचाने में कामयाब रहे। लेकिन अशिक्षित आदिवासी मोंडोलों को इस बारे कुछ भी जानकारी नहीं थी। यह कानून 14 अप्रैल 1981 में लागू हुआ तो एक परिवार के नाम 8 एकड़ (24 बीघा) जमीन छोड़ कर सभी भूमि को सरकार ने अपने कब्जे में कर लिया। आदिवासी मोंडोलो पर यह एक सर्जिकल स्ट्राईक थी, कठिन परिश्रम से तैयार की गई तकरीबन 50 हजार एकड़ आदिवासी भूमि एकबारगी छीन ली गई।
20 फरवरी 2019के सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी आदिवासी समुदायों के लिए किसी बम विस्फोट से कम नहीं था। कोर्ट के इस आदेश ने सभी को सकते में डाल दिया है। लोग विभिन्न आदिवासी संगठनों के तले आन्दोलन के लिए इकट्टा हो रहे हैं।
फारेस्ट राईट के नाम पर अनेक संगठन आदिवासी कल्याण के लिए दशकों से काम कर रहे हैं। इन संगठनों के पदाधिकारी विदेश में भी आवाज़ उठाते हैं। वे दक्षिण बंगाल के जमींदारों की तरह कानूनों की कमजोरी का फायदा नहीं उठा सके। वे चाहते तो सुप्रीम कोर्ट में चल रहे इस मामले पर कैवियट दायर करके एक पक्ष बन कर अपनी बात रख सकते थे। लेकिन ऐसा करने में वे असफल रहे। केन्द्र सरकार के वकील भी सुनवाई में नहीं पहुँचे। लेकिन यदि आदिवासी संगठन जागरूक होते तो शायद इस तरह का एकपक्षीय निर्णय नहीं आता।
आदिवासी जल जमीन और जंगल की लड़ाई लड़ते आ रहे हैं। फारेस्ट एक्ट में अपने दावे के सबूत में आदिवासी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकें, जबकि वे सदियों से वहाँ रहते हैं। उनके पास कानूनी कागजात नहीं है। जल-जमीन-जंगल का विशाल बाजार मूल्य होता है। आदिवासी उससे बेखबर रहता है। बाजार की दाव-पेंच उन्हें समझ में नहीं आती है। इन जंगलों में बेहिसाब दौलत छुपी हुई है जिसे आदिवासी पहचान नहीं पाते हैं। लेकिन व्यापार करने वालों की नज़रें उसे तुरंत ताड़ लेती हैं।
डुवार्स तराई के हजारों आदिवासी परिवार जंगल से विस्थापित होने के कगार में हैं। वहीँ चाय बागान के मजदूर जिन घरों में सौ-डेढ़-सौ वर्षों से रहते आ रहे हैं, उनका आवासीय पट्टा अधिकार उनके पास नहीं है। वे कई सालों से पट्टा-अधिकार की मांग सरकार से कर रहे हैं, लेकिन अब तक सरकार इस मामले में चुप है। दूसरी ओर पड़ोसी देशों से आने वाले लोंगों को सरकार भूमि पट्टा का वितरण कर रही है, आदिवासी जमीन रोज लूट रही है। नये-नये एस टी बने लोग धड़ल्ले से आदिवासी भूमि को हस्तांतरित करने में लगे हुए हैं। आदिवासियों को नियमों कानूनों और बाजार के दाँव-पेंच की कोई जानकारी नहीं है। अन्याय होने पर वे सिर्फ रैली करके आवाज़ उठा सकते हैं। ऐसा लगता है, आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन की लड़ाई तब तक खत्म नहीं होगी, जब तक कि वे कानून और बाजार को मुकम्मल रूप से न समझ लें।
लेखक खानाबदोश जिन्दगी के साथ आदिवासी समाज, धर्म की विडम्बनाओं और चाय मजदूरों के शोषण और संघर्ष पर लेखन करते हैं|
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