आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ‘इतिहास’ फिर से एक बार विवादों में है
मैं ऐसे पुरखों पर गर्व करता हूँ जो मानवीय समीपता के वाहक थे, साम्राज्यवादी नहीं। लेकिन गर्व अपने आप में समीपता का विरोधी है। – राममनोहर लोहिया
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ फिर से एक बार विवादों में है। इस बार के विवाद और बहस का मैदान है फेसबुक। बहस के लिए खड़ा करने वाले हैं शुक्ल जी की ही ‘पीठ’ हिन्दी विभाग, बी. एच. यू. के एक शोध-छात्र और युवा कवि विहाग वैभव। यहाँ आप देख रहे होंगे कि विहाग वैभव के नाम से उनकी जाति के बारे में किसी तरह की जानकारी नहीं मिलती। पर, भारत की सामाजिक संरचना में बिना जाति और धर्म की पहचान के एक व्यक्ति की अपनी कोई मुकम्मल पहचान नहीं मानी जाती। सो, विहाग वैभव की भी जाति खोज कर निकाल ली गयी। शुक्ल जी के लिए तो यह प्रयास करना भी नहीं था।
बहरहाल, आते हैं विहाग वैभव की शुक्ल जी के ‘इतिहास’ पर उठाई गयी आपत्तियों पर। युवा कवि विहाग वैभव ने पिछले दिनों फेसबुक पर रामचन्द्र शुक्ल की ‘इतिहास’ की पुस्तक पर एक टिप्पणी की। उस टिप्पणी को शुक्ल जी के ‘इतिहास’ से अधिक शुक्ल जी पर हमले की तरह लिया गया और उनके ‘इतिहास’ से अधिक उनके संरक्षण में लोग फेसबुक पर विहाग को घेरने लगे। उससे संवाद करने की बजाय उसे पूर्वग्रह से ग्रसित, मूर्ख, उद्धत और भी न जाने किस किस तरह की गालियों से नवाजने लगे। चलिए, एकबार यह मान लें कि विहाग पूर्वग्रह से ग्रस्त हो सकता है पर इस पूरे विवाद में संवाद की जगह पूर्वनिर्णीत मान्यताओं और वैधताओं को किस नजर से देखा जाय। संवाद एक बहुत ही लोकतान्त्रिक और पारस्परिकता वाला शब्द है।
संवाद के बिना वाद-विवाद का कोई अर्थ नहीं, वह ठूँठ है, पुष्पित-पल्लवित नहीं हो सकता, नतीजतन निष्फल रह जाता है। विहाग वैभव ने शुक्ल जी के ‘इतिहास’ को लेकर अपनी तीखी आपत्ति दर्ज़ की। निश्चय ही उसमें एक निर्णयात्मक स्वर है। पर, आज हम जिस समय और माहौल में रह रहे हैं, क्या यह इकलौता निर्णयात्मक स्वर है? अधिकांश लोग रोज ही अपने घरों में न जाने कितने स्तरों पर निर्णयात्मक जीवन जीते हैं, हमारे चारों ओर आज जो शोर है, उसकी अबाध निर्णयात्मक गूँजें-अनुगूंजें, उसके ताव और तेवर अधिकांश लोगों को इसलिए पसन्द आते हैं क्योंकि वह जजमेंटल स्वर उनकी पूर्वनिर्णीत धारणाओं, आस्थाओं, पूर्वग्रहों और विश्वासों को आश्वस्त करता है, उनकी अनगिनत वासनाओं और विकारों को तृप्त करता है।
लेकिन ज्यों ही इस ‘कन्डीशनिंग’ कर दी गयी दृष्टि और समय से बाहर का कोई व्यक्ति अपनी बात रखता है तो उस पर नेजे, कटार, बर्छियाँ लेकर कुछ लोग टूट पड़ते हैं और घेर कर उसकी हत्या करने पर उतारू हो जाते हैं। यह संवाद और बहस का कौन सा लोकतान्त्रिक व अकादमिक ढंग है? विहाग से ज्यादा विहाग के ऊपर लगातार किए जा रहे हमलों ने हस्तक्षेप के लिए मुझे उत्प्रेरित किया। इस पूरे विवाद में संवाद की जगह बनाने के लिए एक हस्तक्षेपकारी भूमिका के बतौर ही इस संक्षिप्त लेख को पढ़ा जाना चाहिए। विहाग वैभव ने अपनी टिप्पणी में जो आरोप तय किए हैं, उस टिप्पणी में सिर्फ तीन वाक्य हैं :
विहाग के पहले वाक्य से मैं इत्तेफाक रखता हूँ। पहले वाक्य की विहाग की चिन्ता के आलोक में ही उसके दूसरे वाक्य की कामना से भी मैं इत्तेफाक रखता हूँ। चूँकि, रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास साम्प्रदायिक और जातिवादी इतिहास है, इसलिए उसे संग्रहालय की वस्तु मान लिया जाना चाहिए, विहाग के इस तीसरे वाक्य से मैं असहमत हूँ।
चूँकि, यह विवाद नया नहीं है। पर ‘नया’ न होने को लेकर इतनी जड़ता इतना आग्रह क्यों ? विचार और संकल्पनाओं के आधार पर चलने वाले दूसरे अनुशासनों की तरह साहित्य और इतिहास में कोई अन्तिम सत्य या निर्णय नहीं हुआ करता। अध्ययन, शोधों और ज्ञान के आलोक में पूर्व निर्धारित विचार-दृष्टियाँ और स्थापनाएँ प्रश्नांकित होती रही हैं और बदलती रही हैं। शुक्ल जी का ‘इतिहास’ स्वयं इसका उदाहरण है। इसलिए, मैं यह जानते हुए कि अधिकांश बातें पहले कही जा चुकी हैं अपनी सहमति और असहमति को यहाँ विस्तार से विश्लेषित करने की बजाय बिन्दुवार उन्हें रखने की कोशिश करूँगा।
सहमति के बिन्दु :
शुक्ल जी के साहित्येतिहास की जो संकल्पना है, उसका जो फार्मेट है, उसमें साम्प्रदायिकता और जातिवाद के किंचित आधार मौजूद हैं। उसे सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक तीनों फार्मेट्स में ढूँढना मुश्किल नहीं है :
यह कुछ तत्काल में सूझ रहे बिन्दु हैं। जब इनके विस्तार में जाएँगे तो इनसे सम्बन्धित सन्दर्भ और तथ्य सोदाहरण जुड़ते चले जाएँगे। ‘इतिहास’ में ही उपस्थित किए गये दृष्टान्तों और प्रकरणों में अन्तर्निहित अर्थों और ध्वनियों से इसकी तस्दीक की जा सकती है। इसलिए जो लोग शुक्ल जी के ‘इतिहास’ को हिन्दी साहित्य के ‘संविधान’ की तरह पवित्र और निर्दोष मान कर चल रहे हैं वे लोग वही भूल कर रहे हैं जो ‘संविधान’ को लेकर एक वर्ग के कुछ लोग करते हैं। कुछ लोग शुक्ल जी के बचाव में ‘उपनिवेशवाद’ का तर्क रख रहे हैं। उन लोगों से बस इतनी सी दरख्वास्त है कि ऐसी ढाल न बनाइये जो दूर तक बचाव न कर सके। बालगंगाधर तिलक और ज्योतिबा फुले ये दोनों भी उसी ‘उपनिवेशवादी’ दौर में थे जिसमें शुक्ल जी थे। पर दोनों के ‘फार्मेट’ में अन्तर है।
असहमति के बिन्दु :
कोई वस्तु जब तक सबके लिए अनुपयोगी न हो जाए, किसी भव्य-स्थापत्य में जब तक किसी तरह की आवाजाही का स्पेस बना रहे, मेरी समझ से वह संग्रहालय की वस्तु नहीं। विहाग के ‘संग्रहालय’ वाले प्रस्ताव पर मेरी असहमति इसलिए है कि अपनी सीमाओं, विवादी स्वरों और अन्तर्विरोधी विचारों के बावजूद व्यवहार में यह देखा और पाया गया है कि शुक्ल जी का ‘इतिहास’ अभी भी संग्रहालय में नहीं पुस्तकालय में ही जगह पाने का अधिकारी है। आज भी किसी न किसी रूप में वह अपनी उपयोगिता बनाए हुए है। इस पक्ष से विचार के कुछ बिन्दु (जिनमें से अधिकांश अनेकों बार, पहले भी बताए जा चुके हैं, इसलिए जो लोग नवता और मौलिकता को ही पहनते-ओढ़ते हैं उनके लिए इसका महत्त्व शायद न हो। यह विहाग से मेरा संवाद है।) :
यह सहमति-असहमति के कुछ बिन्दु हैं। यहाँ शुक्ल जी की किसी अन्य रचना से कोई उद्धरण या सन्दर्भ या प्रभाव जानबूझकर नहीं लिया गया। जानबूझकर ‘इतिहास’ मात्र को ही केन्द्र में रखा गया है क्योंकि आपत्ति ‘इतिहास’ को लेकर है। इस विवाद में शुक्ल जी का समग्र मूल्यांकन मेरा उद्देश्य नहीं है। फेसबुक जैसे त्वरा वाले माध्यम पर यह सम्भव भी नहीं है। जहाँ, किसी स्टेटस की शुरुआती पंक्ति पढ़कर ही कुछ लोगों के पेट में तेज़ मरोड़ उठने लगती है और वे पतली टट्टी करने लगते हैं। जहाँ “अपनी धारणाएँ अपने मत स्थिर करने में कोई देर नहीं लगती।
जोश में या बिना जोश के अपनी राय आदमी बहुत जल्दी बना लेता है, वहीं, उस राय को निरंतर खोजते रहने, विचारते रहने, उसको काटते-छाँटते रहने और फिर उस राय को दायित्वपूर्ण राय बनाने की भी अतिरिक्त ज़िम्मेदारी लेने का श्रमसाध्य कार्य” (विजयदेव नारायण साही के शब्द) आलोचक का कार्य है। शुक्ल जी जैसे आलोचक से मैं यह लगातार सीखता रहता हूँ। इस बात को लेकर उन पर ‘श्रद्धा-भक्ति’ और ‘गर्व’ करना चाहिए या नहीं, नहीं मालूम।