लोकपरिवहन सुविधा के अभाव में मध्यप्रदेश के लोग बुरी तरह से परेशान हैं। सड़कों पर यात्री वाहन नदारद है और नागरिकों के पास आने जाने का कोई विकल्प नही है। किसान बोवनी के लिए बाजार जाकर खाद, बीज, कीटनाशक लाने के लिए या तो अपने ट्रेक्टर का सहारा ले रहे हैं या बाइक का। डीजल पेट्रोल की आसमान छूती कीमतों के चलते यह नया संकट किसानों की कमर तोड़ रहा है। किसानों के अलावा गरीबों औऱ निम्नमध्यवर्गीय परिवारों के सामने लोकपरिवहन के आभाव ने रोज मर्रा के तमाम संकट खड़े कर दिये हैं। प्राइवेट बस ऑपरेटरों ने 22 मार्च से ही मध्यप्रदेश में बसों का परिचालन बन्द कर रखा है। ऑपरेटर लोकडाउन अवधि का टैक्स माफ करने की माँग पर अड़े हुए हैं जो व्यावहारिक रूप से ठीक भी है।
बहरहाल इस मामले को केवल कोविड संकट के सीमित दायरे में ही समझने की जरूरत नही है बल्कि यह अफ़सरशाही औऱ नेताओं के गठजोड़ द्वारा जनता को दिया गया एक दर्दनाक दंश भी है। मध्यप्रदेश में 2005 में तबके मुख्यमन्त्री बाबूलाल गौर ने सड़क परिवहन निगम को बन्द करने का इकतरफा निर्णय लिया था। दावा किया गया था कि निगम का घाटा लगातार बढ़ रहा है जबकि हकीकत यह थी कि लोकपरिवहन के धन्धे पर नेताओं की नजर काफी लम्बे समय से थी और वे इसे सरकारी नियन्त्रण से पूरी तरह मुक्त कराकर इस पर एकाधिकार चाहते थे। आज मध्यप्रदेश में लगभग हर जिले में प्रभावशाली नेता बस ऑपरेटर है।
मध्यप्रदेश की कहानी असल नेताओं और अफसरों की मिलीभगत की केस स्टडी भी है जिसका अनुशरण अधिकतर राज्य कर रहे हैं या कर चुके हैं। 1990 तक मध्यप्रदेश में निगम को अफसर चलाते थे लेकिन बाद में सरकार ने इसमें नेताओं को मन्त्री का दर्जा देकर बिठाना शुरु कर दिया। 1994 में आईएएस भगीरथ प्रसाद ने 450 कर्मचारियों की भर्ती कर ली जबकि उस समय 1500 कर्मी अतिशेष यानी सरप्लस थे। इनमें से अधिकतर नेताओं, अफसरों के नजदीकी थे। 1995 से 1997 के बीच आईएएस यूके शामल ने गोवा की एक कम्पनी से 400 बस दोगुनी से ज्यादा कीमत पर खरीदी जबकि ऐसी बसें निगम की तीन सर्वसुविधायुक्त कर्मशालाओं में आसानी से निर्मित हो सकती थीं।
1998 से 2001 के मध्य के सुरेश ने 16 ऐसी निजी फाइनेंस कम्पनियों से 1हजार बसे खरीदने के लिए 90 करोड़ का ऋण 16 फीसदी ब्याज पर लिया औऱ शर्त यह भी रखी गयी कि अगर निगम किश्त चुकाने में नाकाम रहता है तो 18 से 36 फीसदी पैनल्टी वसूली जायेगी। जबकि सरकारी बैंको में यही ऋण 10 फीसदी पर उपलब्ध था। इस तरह के स्वेच्छाचारी निर्णयों से निगम का दिवाला निकलना सुनिश्चित हो गया। जिस समय निगम में तालाबन्दी की गयी तब मासिक घाटा लगभग साढ़े तीन करोड़ ही था। हालाँकि इसे बन्द करने की प्रक्रिया तो 1993 से ही शुरू हो गयी थी लेकिन दिग्विजयसिंह कैबिनेट में यह प्रस्ताव पारित नही हो सका था। 2005 में मुख्यमन्त्री बाबूलाल गौर ने इसे बगैर केन्द्र सरकार की अनुमति से बन्द कर दिया। जबकि 29.5 फीसदी केन्द्रीय भागीदारी इन निगमों की रहती है।
2013 में मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह ने निजी ऑपरेटरों के लिए अनुदान की घोषणा की लेकिन उस पर कोई अमल नही हुआ। 23 जून 2018 को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सूत्र बस सेवा का उद्घाटन किया दावा किया गया नगरीय निकाय इनके संचालन को पूर्ववर्ती निगम से भी बेहतर करेंगे। केन्द्र सरकार की अमृत औऱ स्मार्टसिटी योजनाओं से फण्ड दिलाये गये। इंटीग्रेटेड कमाण्ड सेन्टर खड़े किये गये लेकिन जिन 1600 बसों के संचालन का दावा था उनमें से आज 160 भी सड़कों पर नही हैं। मजबूर नागरिक निजी ऑपरेटर की मनमानी औऱ लूट का शिकार है।
बेहतर होगा मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्य यूपी, ओडीसा, कर्नाटक, हिमाचल के मॉडल को अपनाकर अपने निगमों को पुनर्जीवित करें क्योंकि निम्नमध्यवर्गीय औऱ गरीब आदमी के लिए आज सड़क तो है लेकिन परिवहन की सुविधा नहीं। डीजल पेट्रोल की बढ़ती खपत को रोकने के लिए भी सार्वजनिक परिवहन समय और पर्यावरण की माँग है।