सनातन संस्कृति को संजीवनी प्रदान करने वाला महानायक
विवेकानंद का तात्पर्य ख़ुशी से है। विवेक+आनंद अर्थात विवेकानंद। विवेक का सम्बन्ध ज्ञान से है। आनंद का सम्बन्ध सुख और दुःख से परे है। जो व्यक्ति सुख और दुःख दोनों स्थितियों में समभाव (एक सामान) रहता है वही आनंदित है। खुश वह है जो आनंदित है। कर्म का सम्बन्ध विद्वता से है। कर्म, ज्ञान प्राप्ति के लिए होना चाहिए। ज्ञान समता का मूलक है। अज्ञानता विषमता का मूलक है। कहने का तातपर्य ज्ञानी व्यक्ति आनंदित है।
यहां ज्ञान का तात्पर्य आध्यात्मिक ज्ञान से है। सुख, शांति का प्रतीक है। दुःख, अशांति का प्रतीक है। शांति और अशांति के बीच तारतम्यता बैठा लेना ही आनंद है। गौतम बुद्ध ने कहा था- वीणा के तार को उतना भी मत कसो की वह टूट जाए और इतना ढीला भी मत रखो की उससे सुर ही न निकले। कहने का तातपर्य यह है कि सुख में बहुत ज्यादा सुखी न होना और दुःख में बहुत ज्यादा दुखी न होना। जीवन में वीणा (वाद्य यन्त्र) के तार की भांति संतुलन बनाए रखना ही असली आनंद है। जो आनंदित है वही खुश है। जो खुश है वही संतुष्ट है। संतुष्टि ,सफलता का द्योतक है।
स्वामी विवेकानन्द का कहना था कि सर्वश्रेष्ठ विचारक गौतम बुद्ध ही थे। गौतम बुद्ध की छवि स्वामी विवेकानन्द में झलकती थी। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि भगवान श्रीकृष्ण के बाद बुद्ध ही हैं जो वास्तव में कर्मयोगी हैं। वे भारत के लोगों को बुद्ध की तरह कर्मयोगी बनाना चाहते थे, इसलिए बार–बार इस बात पर बल देते रहे कि हमें बुद्ध की तरह ही बनना चाहिए।
सनातन संस्कृति के संदेश वाहक स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 ई. कलकत्ता में पवित्र मकर संक्रांति के दिन हुआ था। भारत में प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस, स्वामी विवेकानंद की जयंती पर मनाया जाता है। इस वर्ष 2022 में विवेकानन्द जी की 159 वी जयंती है। वर्ष 1984 में, भारत सरकार ने 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में घोषित किया। 1985 से भारत में, इस कार्यक्रम को प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। यह भारत के युवाओं को प्रेरित करता है।
स्वामी विवेकानन्द में अदम्य साहस था। स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। नरेंद्र नाथ विचारशील थे। 15 अगस्त 1886 ई. की मध्य रात्रि को श्री रामकृष्ण परमहंस समाधि में लीन हो गए। रामकृष्ण परमहंस, नरेंद्र नाथ (विवेकानंद) के गुरु थे। रामकृष्ण द्वारा सौंपे गए कार्य को निभाने का उत्तरदायित्व नरेंद्र नाथ पर आ पड़ा। नरेंद्र नाथ 25 वर्ष की आयु में परिव्रज्या ग्रहण कर वह समग्र भारत की यात्रा पर निकल पड़े। नरेंद्र नाथ अब स्वामी विवेकानन्द के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
स्वामी विवेकानंद सदैव यही आग्रह किया करते थे कि यदि हमें इस देश की समस्या का सही निदान ढूढ़ना है तो सर्वप्रथम इस देश को देखना होगा। विवेकानंद ने भारत यात्रा में भारतीय जनता का वास्तविक रूप देखा। भारत माता के इस स्वरुप को देखकर उन्होंने भारतीय युवकों को सन्देश दिया – आगामी 50 वर्षो तक तुम लोग अपनी जननी जन्म भूमि की अराधना करो और इस समय तुम्हारा एक मात्रा देवता है तुम्हारा राष्ट्र।
किसी भी देश का युवा उस देश के विकास का सशक्त आधार होता है। जब यही युवा अपने सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियों को भूलकर विलासिता के कार्यों में अपना समय नष्ट करता है, तब देश बर्बादी की ओर अग्रसर होने लगता है। आज के युवा वर्ग में देश का भविष्य निहित है। अतएव आज के युवा वर्ग को अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ लेना चाहिए। हमें ऐसा प्रयास करना होगा ताकि युवाओं के भीतर जगी हुई प्रेरणा तथा उत्साह ठीक पथ पर संचालित हो।
पूरे विश्व में भारत को युवाओं का देश कहा जाता है। वर्ष 2014 तक हमारे देश की सरकार 13 से 35 साल तक के लोगों को युवा मानती थी। वर्ष 2014 में नेशनल यूथ पॉलिसी आई और युवा की परिभाषा बदल गई। अगर आप भारत में रहते हैं और आपकी उम्र 15 से 30 साल के बीच है तो आप युवा हैं। 15 साल से ज्यादा और 30 साल से कम उम्र के ही लोग सरकारी रिकॉर्ड में युवा माने जाते हैं। इस लिहाज से देश में 37 करोड़ युवा हैं। भारत की कुल जनसँख्या लगभग 139 करोड़ है। हमारे देश में अथाह श्रमशक्ति उपलब्ध है।
आवश्यकता है आज हमारे देश की युवा शक्ति को उचित मार्ग दर्शन देकर उन्हें देश की उन्नति में भागीदार बनाने की। उनमे अच्छे संस्कार, उचित शिक्षा एवं प्रोद्यौगिक विशेषज्ञ बनाने की। उन्हें बुरी आदतों जैसे- नशा, जुआ, हिंसा इत्यादि से बचाने की। देश के निर्माण के लिए, देश की उन्नति के लिए, देश को विश्व के विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा करने के लिए युवा वर्ग को ही मेधावी, श्रमशील, देश भक्त और समाज सेवा की भावना से ओत प्रोत होना होगा। राष्ट्र के विकास की आधारशिला है “युवा शक्ति”।
स्वामी विवेकानंद युवा शक्ति के प्रेरणास्रोत थे। कठोपनिषद् में मंत्र है : उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।। (कठोपनिषद्, अध्याय 1, वल्ली 3, मंत्र 14) – जिसका अर्थ कुछ यूं हैः उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना। स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्र वाक्य विख्यात है -उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। इससे प्रतीत होता है कि विवेकानंद जी का वैदिक चिंतन तथा अध्यात्म में उनकी श्रद्धा थी। इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को अज्ञानजन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी।
कदाचित् अंधकार से उनका तात्पर्य अंधविश्वासों, विकृत रूढ़ियों, अशिक्षा एवं अकर्मण्यता की अवस्था से था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत स्वामी विवेकानंद जी राष्ट्र भक्त भी थे। अमेरिका के शिकागो नगर में 1893 ई. के सितम्बर में एक सर्व सर्व धर्म सम्मेलन होने वाला था ,उसमे भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द 1893 ई. मई में जहाज से निकले। वैसे सम्मेलन समिति की ओर से उन्हें प्रतिनिधि के रूप में निमंत्रण नहीं था किन्तु काफी असुविधाएं सहन करने के बाद उन्हें सम्मेलन में प्रवेश मिला। पहले ही दिन (11-09-1893) भाषण से उन्होंने सारे अमेरिका को जीत लिया। ऐसे विशाल समूह के समक्ष भाषण देने का उनका यह पहला अवसर था। उन्होंने प्रारम्भ में अमेरिका वासियों को बहनों और भाइयों जैसे शब्दों से वहां के श्रोताओं को सम्बोधित किया। उनके इस सम्बोधन ने पाश्चात्य जगत को मंत्र मुग्ध कर डाला।
स्वामी विवेकानन्द का सन्देश जनजीवन का सन्देश था। स्वामी जी ने अपने जीवन में जो कार्य किया उसके दो पहलु हैं राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय। इन दोनों क्षेत्रों में उन्होंने जो कार्य किया तथा जो शिक्षा दी वह सचमुच ही अलौकिक है। 11 सितम्बर 1893 ई. को भारत के युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य सभ्यता को बौना साबित कर दिया था। हम भारतवासी 09/11 (नाइन इलेवन) को न्यूयार्क के लिए नहीं, शिकागो के लिए याद करते हैं। 09/11 को असहिष्णुता के लिए नहीं, सहिष्णुता के लिए याद करते हैं। 09/11 को कट्टरता के लिए नहीं, सनातन संस्कृति के लिए याद करते हैं। 09/11 को ओसामा बिन लादेन के लिए नहीं, स्वामी विवेकानन्द के लिए याद करते हैं। ये (09/11) वही दिन था जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण से भारत को विश्व गुरु साबित किया।
स्वामी विवेकानन्द वास्तव में अद्वितीय छवि के दूत थे। स्वामी विवेकानंद ने वैश्विक पटल पर सनातन संस्कृति को अमरता प्रदान की। जिससे भारत विश्व गुरु कहलाया। अतएव हम कह सकते हैं कि सनातन संस्कृति को संजीवनी प्रदान करने वाला महानायक कोई और नहीं बल्कि स्वामी विवेकानन्द ही थे।