हठी गाँधीवादी का हठ : एसएन सुब्बाराव
आजाद भारत के असली सितारे- 49
गाँधीजी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अकेले पड़ गए थे। उन्होंने कहा था कि देश का बँटवारा मेरी लाश पर होगा किन्तु देश बँट गया और वे जीते जी यह सब देख रहे थे। पं. नेहरू जब 15 अगस्त सन् 47 को लाल किले पर तिरंगा फहरा रहे थे तो गाँधी जी दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर नोआखाली में साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए उपवास कर रहे थे। पं. नेहरू और सरदार पटेल के निमंत्रण पत्र के जवाब में उन्होंने कहा था कि जब अपने देश के हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे की जान ले रहे हैं तो ऐसे में मैं जश्न मनाने के लिए कैसे आ सकता हूँ? आजादी के बाद कुछ वर्षों तक लोक कल्याणकारी राज्य के बहाने एक सीमा तक गाँधी के आदर्शों के अनुसार देश को आगे ले जाने की कोशिश की गई किन्तु धीरे- धीरे हम गाँधी जी के दिखाए रास्ते से उल्टी दिशा में मुड़ गए और अब तो उल्टी दिशा में चलते चलते बहुत दूर आ चुके हैं।
किन्तु गाँधी जी के कुछ ऐसे भी अनुयायी थे जिन्हें पद और प्रतिष्ठा में गाँधीजी की ही तरह कोई रुचि नहीं थी। उन्हें गाँधी जी की शिक्षाओं में अटूट विश्वास था। उन्हें भरोसा था कि गाँधी जी के दिखाए रास्ते पर चलने से ही इस देश के सबसे अन्तिम छोर पर खड़े आदमी को भी आजादी का स्वाद मिल सकता है। ऐसे विरले लोगों में एक थे एसएन सुब्बाराव। जिन्हें लोग ‘भाईजी’ कहकर पुकारा करते थे।
“मैं स्वतंत्र भारत का आदर्श नागरिक हूँ। इस वास्ते मेरे दिमाग में अच्छे विचार आने चाहिए, मेरे मुँह से अच्छी बात निकलनी चाहिए, मेरे हाथ से अच्छे काम होने चाहिए।”
यह संकल्प आमतौर पर ‘भाईजी’ युवाओं से कराते थे। अपने जीवन में उन्होंने इस संकल्प को मंत्र की तरह आचरण में उतार लिया था। गाँधीजी के बाद देश में उनके सच्चे प्रतिनिधि के रूप में वे युवाओं का मार्गदर्शन करते रहे और गाँधीजी के अधूरे कामों को पूरा करने की कोशिश करते रहे। इस असाधारण कर्मयोगी संत का पूरा नाम है सलेम नंजुदैया सुब्बाराव जिन्हें संक्षेप में एसएन सुब्बाराव कहा जाता है।
गाँधीजी के बताए पथ पर चलते हुए प्रेम, शान्ति, अहिंसा, सामाजिक सद्भाव, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता के बलपर एक नए समाज के निर्माण के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर देने वाले एसएन सुब्बाराव (07.02.1929- 27.10.2021) का जन्म बंगलौर में हुआ था। इनके पिता नंजुदैया एक प्रतिष्ठित वकील थे। वे अन्याय और झूठ आधारित मुकदमों को अस्वीकार कर देने के लिए मशहूर थे। जाहिर है, उनका असर उनके बेटे सुब्बाराव पर भी था। सुब्बाराव की आरंभिक शिक्षा बंगलौर में ही हुई और उन्होंने उच्च शिक्षा राम कृष्ण वेदांत कॉलेज मल्लेश्वरम्, बंगलौर से प्राप्त की।
एसएन सुब्बाराव के क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत मात्र 13 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी। 9 अगस्त 1942 को गाँधीजी ने “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आन्दोलन का आह्वान किया था। गाँधीजी के उस आह्वान का बालक सुब्बाराव के मन पर गहरा असर पड़ा। वे उस समय बैंगलौर के एक स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने स्कूल की दीवारों पर “अंग्रेजों भारत छोड़ो” लिखना शुरू कर दिया। पकड़े गए और इसके लिए उनकी गिरफ्तारी भी हुई, किन्तु उम्र कम होने की वजह से इन्हें जेल में नहीं रखा गया और मुक्त कर दिया गया। सुब्बाराव रिहा तो हो गए किन्तु गाँधीजी के आह्वान का असर इनके ऊपर जीवन भर रहा।
बालक सुब्बाराव आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। वे छात्र कांग्रेस तथा राष्ट्रीय सेवा दल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। ‘गाँधी साहित्य संघ’ नामक एक स्थानीय संगठन से जुड़कर वे अपने क्षेत्र के युवकों और श्रमिकों के बीच काम करने लगे। अपने क्षेत्र के युवाओं के बीच लगातार काम करने का ही परिणाम था कि 1946 में गुर्लहोसुर (जिला बेलगाम) में होने वाले 31 दिन के ट्रेनिंग कैम्प में शामिल होने के लिए उनका चयन हो गया और वे उस कैम्प में शामिल हो गए।
इसके बाद 1948 में वे चित्तौड़गढ़ के कैम्प में भी शामिल हुए। वहाँ उनका परिचय डॉ. एन.एस. हार्डीकर से हुआ। डॉ. हार्डीकर का सुब्बाराव पर व्यापक प्रभाव पड़ा। डॉ. हार्डीकर एक तरह से इनके मार्गदर्शक बन गए। कानून में स्नातक की डिग्री लेने के बाद 1951 में डॉ. हार्डीकर के आमंत्रण पर वे कांग्रेस सेवा दल से जुड़ गए। यद्यपि डॉ. हार्डीकर ने उन्हें मात्र एक वर्ष के लिए ही आमंत्रित किया था किन्तु सुब्बाराव वहाँ जाने के बाद फिर वापस नहीं लौटे। वे 7, जंतर मंतर रोड, नई दिल्ली से जुड़कर देशभर में युवाओं के शिविर लगाने लगे और उन्हीं के बीच काम करने लगे। सुब्बाराव युवाओं के बीच रम गए। 1970 तक वे इस संगठन से जुड़े रहे। उनकी निष्ठा और काम के प्रति समर्पण भाव को देखकर पं. नेहरू, के. कामराज तथा दूसरे बड़े नेता बहुत प्रभावित हुए थे और उनके मन में सुब्बाराव के प्रति बहुत आदर का भाव था।
वर्ष 1969 में गाँधी शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था तो सुब्बाराव भारत के युवाओं में गाँधी- दर्शन को प्रचारित करने और गाँधी के दिखाए पथ पर चलने की प्रेरणा देने के लिए रास्ते तलाशने लगे। उन्होंने सरकार को एक नए तरीके से गाँधी शताब्दी वर्ष मनाने का परामर्श दिया।
इसी क्रम में “गाँधी दर्शन ट्रेन” की योजना बनी। सुब्बाराव “गाँधी दर्शन ट्रेन” के निदेशक नियुक्त किए गए। योजना के अनुसार महात्मा गाँधी के जीवन व कर्म से संबंधित दृष्य-श्रव्य माध्यमों की प्रचुर सामग्री से युक्त और सुसज्जित होकर ये दो ट्रेनें भारत- भ्रमण के लिए रवाना की गईं। इनमें एक मीटर गेज की ट्रेन थी और दूसरी ब्रॉड गेज की। यह कारवाँ पूरे एक वर्ष के लिए था जिसमें देश के छोटे से छोटे स्टेशनों पर से होकर उसे गुजरना था ताकि देश के सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले युवा भी गाँधी के कार्यों और उनकी शिक्षाओं से परिचित हो सकें। वर्ष भर ये ट्रेनें छोटे-छोटे स्टेशनों पर पहुँचती-रुकती रहीं और स्कूल कॉलेज के विद्यार्थी तथा आम नागरिक भी इनके माध्यम से गाँधी दर्शन का साक्षात्कार करते रहे। यह देश के युवाओं से जुड़ने और उनसे जीवंत संपर्क का एक महा-अभियान था।
सुब्बाराव के निर्देशन में इन ट्रेनों ने देश भर में लाखों युवा स्वंयसेवकों को रचनात्मक कार्यों से जोड़ा। वर्ष 1970 में केन्द्रीय मंत्री और प्रख्यात गाँधीवादी आर.आर.दिवाकर के आग्रह पर सुब्बाराव, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के आजीवन सदस्य बन गए। इसके बाद से गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान का कमरा नं. 223 उनका स्थाई निवास बन गया। उल्लेखनीय है, उन्होंने न तो विवाह किया था और न उनका कहीं अपना कोई घर था। यहाँ भी वे कम ही रहते थे। उनके जीवन का ज्यादातर समय देश-विदेश में शिविर लगाने में ही चला जाता था। बरसात के दिनों में जब भारत में मौसम शिविर के अनुकूल नहीं होता था तो वे शिविर लगाने के लिए विदेशों में चले जाते थे। उन्होंने हजारों शिविर लगाए। उनका सबसे बड़ा शिविर केवड़िया (गुजरात) का था जिसमे 23 हजार लोगों ने हिस्सा लिया था। उनके शिविरों में रोज सायँ काल भजन होता था जिसमें गाँधी जी का प्रिय भजन “रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीताराम” जरूर गाया जाता था। उनकी आवाज बहुत सुरीली थी और वे बहुत सुमधुर स्वर में गाते थे।
उन दिनों मध्य प्रदेश का चंबल क्षेत्र खूँखार डाकुओं से आक्रान्त था। सुब्बाराव ने इस समस्या को एक चुनौती की तरह लिया। उन्होंने डाकुओं से प्रभावित चंबल क्षेत्र में शिक्षा की ज्योति जगाने की जरूरत महसूस की। उन्हें लगा कि सही शिक्षा ही अज्ञान के अँधेरे से इस क्षेत्र के लोगों को मुक्त कर सकती है। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले जगह-जगह श्रम शिविर लगाने का निश्चय किया। इसी क्रम में उन्होंने 1964 में चंबल घाटी में जौरा (जिला मुरैना) नामक कस्बे में 10 महीने का लंबा श्रम शिविर लगाया जिसमें देश भर के युवाओं ने हिस्सा लिया था। इसके बाद उन्हें गाँधी दर्शन ट्रेन के निदेशक के रूप में जो मानदेय मिला था उसको लेकर जौरा कस्बे में 27 सितंबर 1970 को “महात्मा गाँधी सेवा आश्रम” की नींव रखी। यही वह आश्रम है जहाँ बाद में चंबल के कुख्यात डकैतों द्वारा आत्म समर्पण की ऐतिहासिक घटना हुई।
सुब्बाराव को इस काम में आसानी से सफलता नहीं मिली। उन्होंने डकैतों से हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने का आग्रह किया किन्तु वे बिल्कुल तैयार नहीं हुए। सुब्बाराव अकेले उनके पास गए। उनसे मिले। आत्म समर्पण के लिए नहीं मानने पर उनके परिवार को साथ लेकर उनके पास गए। उन्हें आश्वासन दिया कि सरकार की ओर से नई जिंदगी शुरू करने के लिए उन्हें सहूलियतें दी जाएंगी। डाकू जब राजी हुए तो उन्होंने सरकार से भी इस बारे में बात की। तब जाकर चंबल के बीहड़ों में खौफ का पर्याय बन चुके माधो सिंह, मलखान सिंह और मोहर सिंह जैसे डकैतों को सुब्बाराव ने सरेंडर के लिए तैयार किया था। दस्यु सरदार माधो सिंह के गैंग में 400 से ज्यादा डाकू थे। पुलिस उन तक पहुँच नहीं पाती थी।
सुब्बाराव के प्रयासों से डकैतों के लिए खुली जेल स्थापित की गई। डकैतों के ऊपर लगे सभी केस वापस लिए गए। उनके परिवार के सुयोग्य सदस्यों को पुलिस में नौकरी दिलवाई गई। सरकार की ओर से डकैतों के परिवारों को जमीन दी गई। इसके बाद जौरा के पास पगारा गाँव में 70 डाकुओं ने एक साथ आत्मसर्मपण किया था। इस मौके पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण व एमपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी मौजूद थे। 14 अप्रैल 1972 को मोहर सिंह और माधो सिंह जैसे डकैतों ने अपने साथियों के साथ आत्म समर्पण किया। इसके बाद अनेक डकैतों ने उत्तर प्रदेश के बटेश्वर तथा राजस्थान के तालाबशाही में आत्म समर्पण किया था। इस तरह सुब्बाराव के प्रयासों से चंबल क्षेत्र के कुल 654 डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था। इसके बाद जौरा का यह आश्रम इन डकैतों के परिवारों के पुनर्वास का केन्द्र बन गया।
निश्चय ही चंबल क्षेत्र में सुब्बाराव ने जो काम किया, वह अनोखा था। सरकार करोड़ों रुपये खर्च करके और भारी पुलिस-बल लगाने के बाद भी जो नहीं कर सकी उसे सुब्बाराव ने गाँधी मार्ग पर चलकर संभव बना दिया। उनके आह्वान पर डाकुओं की एक टोली ने अपनी बंदूकें रखकर कहा, “हम अपने किए का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं!” यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था, जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने-समझने पर मजबूर कर दिया। सुब्बाराव के द्वारा किया गया अहिंसा का यह एक विलक्षण प्रयोग था।
वर्ष 1981 में सुब्बाराव के नेतृत्व में चंबल के गाँवों में युवाओं की एक साइकिल रैली निकाली गई जो 47 गाँवों से होकर गुजरी। इस रैली का उद्देश्य गाँवों की समस्याओं को जमीनी स्तर पर पता करना था और प्रशासनिक स्तर पर उनका समाधान ढूँढना था। इसमें भी उन्हें भरपूर सफलता मिली।
आज जौरा का यह आश्रम खादी ग्रामोद्योग शिविर, यूथ नेतृव, रोजगार पैदा करने तथा ग्रामीणों में स्वरोजगार विकसित करने का एक प्रमुख केन्द्र बन चुका है। यह आश्रम आज गाँधी विचार के आधार पर रचनात्मक कार्य करने का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ सिर्फ चरखे के बल पर ही तीन हजार से अधिक परिवारों को रोजगार मिला हुआ है जिससे पाँच हजार से अधिक लोगों की रोजी चल रही है।
गाँधीवादी विचारक व पूर्व विधायक सूबेदार सिंह सिकरवार कहते हैं कि एसएन सुब्बाराव के साथ काम करने का उन्हें मौका मिला है। 1972 के डकैत समर्पण कार्यक्रम में राव की भूमिका काबिले तारीफ है। हमारे जैसे कई लोगों ने उनके साथ काम किया और इस अंचल में अमन-चैन स्थापित करने के लिए सुब्बाराव के प्रयासों में सहयोग किया। आज यहाँ डकैतों की समस्या लगभग खत्म हो चुकी है। इसका श्रेय सुब्बाराव को जाता है।
पन्द्रह से अधिक भाषाओं के जानकार सुब्बारावजी बहुआयामी व्यक्तित्व और विविधता में एकता के हिमायती थे। वे महात्मा गाँधी सेवा आश्रम में अपने कार्यों व गतिविधियों के माध्यम से समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान के लिए समर्पित रहे। खादी ग्रामोद्योग, वंचित समुदाय के बच्चों विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा, शोषित व वंचित समुदाय के बीच जनजागृति व प्राकृतिक संसाधनों पर वंचितों के अधिकार, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण, युवाओं के विकास में सहभागिता के लिए नेतृत्व विकास, महिला सशक्तिकरण, गरीबों की ताकत से गरीबोन्मुखी नियमों के निर्माण की पहल आदि के माध्यम से समाज में शांति स्थापना करने के लिए वे संकल्पबद्ध थे।
सुब्बारावजी अंत समय तक काम करते रहे। उनके लिए आजादी का अर्थ समय के अनुसार बदलता रहा। कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का संघर्ष तो कभी अंग्रेजीयत की मानसिक गुलामी से आजादी का संघर्ष। जब कांग्रेस दो गुटों में बँट गया तो वे दोनो गुटों से अलग हो गए और अपने को सिर्फ सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। बाद में आचार्य विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर वे उनके साथ आ गए थे और उनके साथ पूरी मजबूती से डटे रहे। वे आजाद भारत में कभी गरीबों के साथ खड़े होते तो कभी किसानों के साथ। लेकिन उनका विश्वास गाँधीवाद में दृढ़ रहा।
सुब्बाराव राष्ट्रीय सेवा योजना के भी सदस्य रहे। उन्होंने नेशनल यूथ प्रोजेक्ट की स्थापना की थी। जौरा में उन्होंने पहला गाँधी आश्रम स्थापित किया। वे खुद भी इसी आश्रम में रहते थे। इसके बाद देश के कई हिस्सों में गाँधी आश्रम बनाए गए। आज करीब 20 देशों में गाँधी आश्रम चल रहे हैं।
उन्होंने जीवन भर युवाओं को जागरूक करने की मुहिम चलाई। विदेशों में भी उन्होंने नई पीढ़ी को गाँधी की शिक्षाओं के महत्व को बताया। यहाँ के संस्कार, संस्कृति, अनेकता में एकता का सन्देश उन तक पहुँचाने का कार्य किया।
सुब्बाराव ने कभी भी अपना पहनावा नहीं बदला। वे हाफ पैंट और शर्ट पहनते थे। हँसमुख स्वभाव वाले सुब्बाराव जी बहुत सर्दी होती थी तो पूरी बाँह की शर्ट पहन लेते थे। अटल विश्वास, अदम्य साहस, निर्भीकता उनके रग-रग में थी किन्तु अपने व्यवहार में वे अत्यंत विनीत और सरल थे। धारा के विपरीत महात्मा गाँधी के आदर्शों को लेकर एकनिष्ठ भाव से चलते रहने वाले एस.एन. सुब्बाराव महात्मा गाँधी के प्रतिनिधि की तरह 2021 तक हमारे बीच रहकर हमारा मार्गदर्शन करते रहे।
92 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से 27 अक्टूबर 2021 को सुबह 4 बजे जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में उनका निधन हो गया। आज जन्मदिन के अवसर पर हम समाज के प्रति एसएन सुब्बाराव के असाधारण योगदान का स्मरण करते है और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।