मीडिया

आजाद भारत की पत्रकारिता के दृश्य-दर-दृश्य

 

किसी देश की पत्रकारिता उस देश की नब्ज होती है। इस नब्ज को सही-सही पढ़ने से जाना जा सकता है कि देश का ऊंट किस करवट बैठा हुआ है। यह भी कि भविष्य में वह ऊंट किस दिशा में दौड़ेगा। कहा जाता है,  भारत में आज इस ऊंट पर दो व्यावसायिक घराने सवार हैं। इन व्यावसायिक घरानों का मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता या मीडिया नहीं है। एक घराने का मूल व्यवसाय है: पेट्रोरसायन और ऊर्जा; मूलभूत सुविधाएं और ढांचा; फुटकर और खुदरा तथा दूरसंचार। दूसरे काबिज व्यावसायिक घराने का मूल व्यवसाय है: कोयला खनन और निर्यात; विद्युत और ऊर्जा; हरित ऊर्जा और गैस; पेट्रोलियम और बंदरगाह; तथा ट्रेडिंग और निर्यात। पिछले एक दशक में दोनों व्यावसायियों ने अपने व्यवसाय को दुनिया के कोने-कोने में फैलाया और अपनी संपत्ति बेतहाशा बढ़ायी है।

वह आठवां दशक था जब भारत के चुनिंदा व्यावसाइयों को लगा था उनके पास अपने दूसरे व्यवसायों को फैलाने के लिए अखबार का होना जरूरी है। इस दौर में कई महत्वाकांक्षी व्यावसायियों ने दैनिक या साप्ताहिक निकाले। मकसद था राजनीति और सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाने की कोशिश करना। आज जिन दो व्यावसायिक घरानों का सम्पूर्ण कब्जा है,  उनका मकसद इससे इतर नहीं है। राजनीतिकों, पार्टियों और सत्ताधारियों को अतिरिक्त सेवाएं देकर विपुल मात्रा में अतिरिक्त पाना लक्ष्य है इनका। डिजिटल माध्यम और दृश्य माध्यम इस मकसद को पूरा करने में अधिक सफल साबित हुआ है।

इनके अतिरिक्त पत्रकारिता और मीडिया के ऐसे घराने भी हैं जिनका पत्रकारिता और मीडिया ही मुख्य व्यवसाय है। वे हैं इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप; हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप; टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप,आजतक, और ज़ी टीवी। राजस्थान का पत्रिका ग्रुप। हिन्दी-अँग्रेजी से इतर देश की दूसरी भाषाओं में ऐसे मीडिया ग्रुप हैं जिनका पत्रकारिता या मीडिया का व्यवसाय मुख्य है। बंगाल में एबीपी ग्रुप। तमिलनाडु का द हिन्दू ग्रुप। केरल का मलयाला मनोरमा ग्रुप। ये वे बड़े ग्रुप हैं जिनका मीडिया मुख्य व्यवसाय है। इनकी विश्वसनीयता तुलनात्मक रूप से कायम है।

अलग-अलग राज्यों में छोटी-छोटी ऐसी कंपनियां और हैं जिनका पत्रकारिता या मीडिया ही मुख्य व्यवसाय है। बंगाल, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में ऐसे मीडिया संस्थान हैं। आज मीडिया व्यवसाय में केवल अखबार, पत्रिका और खबर चैनल्स नहीं हैं। इवेंट और मनोरंजन मीडिया व्यवसाय के आनिवार्य हिस्से हैं अब। मीडिया के बड़े घराने इस काम को प्राथमिकता के साथ कर रहे हैं।

इनके अतिरिक्त डिजिटल मीडिया में ऐसे कई चैनल्स हैं, जो व्यक्ति विशेष द्वारा निजी उपक्रम के रूप में चलाए जा रहे हैं। हर भाषा में ऐसे उपक्रम लाखों हैं। वे काफी देखे और सुने जा रहे हैं। वैयक्तिक चैनलों के अतिरिक्त प्राय: सभी अखबारों के डिजिटल प्लैटफॉर्म हैं। इन डिजिटल प्लैटफार्मों ने यह भरोसा दिला दिया है कि अब खबरों के लिए अखबार हाथ में लेकर पढ़ना जरूरी नहीं है। 1990 के बाद की जन्मी पीढ़ी ने शायद ही पढ़ने के लिए अखबार उठाया हो। अब टीवी के समाचार चैनल्स भी खूब नहीं देखे जाते। यही वजह है कि कोरोना के बाद टीवी समाचार चैनल्स ने अपने को टीआरपी से मुक्त कर लिया है।

भारतीय मीडिया के वर्तमान का एक मुकम्मल परिदृश्य उपर्युक्त विवरण से बनता है। मीडिया में इन दिनों सिनेमा शामिल है। सिनेमा और मनोरंजन को शामिल करते हुए सम्पूर्ण मीडिया व्यवसाय का भारत के जीडीपी में एक प्रतिशत का योगदान है। जीडीपी में भले ही इनका प्रभावशाली आंकड़ा न हो, शहर से गांव तक आदमी के दिमाग पर इनका प्रभाव गहरा है। खास कर उन घरानों का जिनका मीडिया और मनोरंजन मुख्य व्यवसाय नहीं है। यानी मीडिया जिनका पूरक व्यवसाय है।

आज का समाचार उद्योग दो भागों में साफ-साफ बंटा हुआ है। एक है जो बताने से ज्यादा छुपाता है। दूसरा है जिनका तेवर पोल खोलने का ज्यादा है,बताने का कम। मजे की बात यह है विश्वसनीयता के मामले में दोनों खोटे सिक्के हैं। अविश्वसनीयता के दायरे में दोनों समान रूप से है। दोनों मिलकर आम जनता को अन्धकार की ओर ढकेल रहे हैं। हिन्दी पत्रकारिता अपने दो सौ वर्षों की यात्रा में कभी व्यक्ति केंद्रित नहीं रही। आज मीडिया पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रित है। एक का जो नायक है वही दूसरे का खलनायक। मीडिया इतना सीमित है कि वह अब आवाज नहीं है,  केवल शोर है।

आजादी के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन बड़े संस्थान बने, उन्होंने अपना बेमिसाल इतिहास रचा। हिन्दुस्तान ग्रुप बिरला ग्रुप का संस्थान है। इस संस्थान से हिन्दी और अँग्रेजी के दैनिक थे, कई पत्रिकाएं थीं- साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी और नंदन। टाइम्स ग्रुप हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में व्यवसाय कर रहा था। इस ग्रुप से दोनों भाषाओं में दैनिक थे, दोनों भाषाओं में कई-कई पत्रिकाएं थीं। हिन्दी की पत्रिकाओं ने इतिहास रचा है। पत्रिकाएं थीं- धर्मयुग, सारिका, दिनमान, माधुरी, और पराग। अगंरेजी का साप्ताहिक था इलस्ट्रेटेड वीकली और फिल्म फेयर। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप केवल हिन्दी और अंग्रेजी में व्यवसाय नहीं कर रहा था, पश्चिम और दक्षिण की भाषाओं में भी इस ग्रुप के दैनिक थे। पत्रकारिता के इन तीन ग्रुपों ने पत्रकारिता का व्यवसाय करते हुए पत्रकारिता का मान न केवल बनाए रखा, ऊंचा किया। इन्होंने हिन्दी पाठकों की एक बड़ी दुनिया बनाई।

हिन्दी और अंग्रेजी में व्यवसाय करते हुए दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं ने अपना कमाल का पाठक वर्ग तैयार किया। दिल्ली प्रेस की जिन पत्रिकाओं ने अपना रंग जमाया था वे थीं- मुक्ता, सरिता, चंपक और वनिता। चंपक हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में थीं। अंग्रेजी की एक पत्रिका थी कैरावन। करंजिया के हिन्दी और अँग्रेजी के बिलिट्ज को कहाँ भुलाया जा सकता है! पीत पत्रकारिता जैसा विशेषण बिलिट्ज की वजह से बना था।

इसी दौर में इलाहाबाद के मित्र प्रकाशन की कई पत्रिकाओं ने धाक जमा रखी थी। ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ खूब और खूब पढ़ी जाने वाली पत्रिकाएं रहीं। यह वह दौर है जब पत्रकारिता का व्यवसाय करने वाले संस्थान विशुद्ध रूप से व्यवसाय कर रहे थे और अपने व्यवसाय के हित में पाठकों की संख्या और संसार बढ़ाते रहते थे।

इनके समानांतर देश भर में बौद्धिकों का वह वर्ग था जिसका मानना था कि ये व्यावसायिक घराने के अखबार और पत्रिकाएं लाभ के लिए निकाली और बेची जाती हैं, परिणामतः ये प्रकाशन भारत के हिन्दीभाषी समाजों में बौद्धिक विकास की परिस्थितियों को बरगलाते हैं और लोकप्रियता के तत्वों का मिश्रण करके अपना व्यावसायिक लक्ष्य पूरा करते हैं। बात गलत नहीं थी। नतीजा यह निकला कि इन बड़े व्यावसायिक संस्थानों के बरक्स लघु पत्रिकाओं की लम्बी शृंखला बनी।

लघु पत्रिका का दौर लगभग तीस वर्षों का रहा। मगर दो दशकों लघु पत्रिकाएं जगमगाती रहीं। ये लघु पत्रिकाएं वैयक्तिक रूप से निकलती थीं, वैचारिक बोध से भरी होती थीं। वे जो लोग लघु पत्रिकाएं निकालते थे,अपना पेट काट कर निकालते थे। जिन हमकदमों और हमसफरों से सहयोग मांगा जाता था और मिलता था, वे भी अपना पेट काट कर सहयोग करते थे।

हिन्दी पत्रकारिता की व्यावसायिक धारा के सामने साहित्यिक-वैचारिक धारा की यह बुलंद पत्रकारिता थी। इस धारा ने भी इतिहास रचा। साहित्यिक-वैचारिक पत्रकारिता की यह धारा व्यावसायिकता के विरुद्ध खड़ी हुई थी, मगर यह धारा ऐसी नहीं बन सकी कि लोकप्रिय पत्रकारिता की व्यावसायिक धारा को ध्वस्त कर सके।

नतीजा यह निकला कि हिन्दी पत्रकारिता की दोनों धाराओं ने अपने-अपने रास्ते चलकर अपना उत्कर्ष हासिल किया। मगर 1990 आते आते ऐसी परिस्थितियां बनीं कि हिन्दी पत्रकारिता की दोनों धाराएं विलुप्त हो गईं। वे परिस्थितियां क्या थीं कि यह अपशकुन घटित हुआ?

यह जानने के पहले हिन्दी पत्रकारिता का वह दृश्य देख लेते हैं जो कलकत्ता के ‘उदंत मार्तण्ड’ से शुरू होकर दिल्ली के ‘दिनमान’ में उत्कर्ष प्राप्त करता है। ‘दिनमान’ विचार और विश्लेषण की पत्रिका थी आजादी के बाद की। इसके शुरुआती सम्पादक अज्ञेय थे। बाद में रघुवीर सहाय इसके सम्पादक हुए।

‘दिनमान’ की सम्पादकीय नीति थी कि वह अपने पृष्ठों पर प्रधानमन्त्री के लिए केवल प्रधानमन्त्री लिखेगा, प्रधानमन्त्री का नाम नहीं छपेगा। इंदिरा गाँधी का नाम किसी लेख या रपट में नहीं छपता था। पत्रकारीय मूल्यों का उत्कर्ष तब दिखा जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई और अखबारों-पत्रिकाओं के लिए यह अनिवार्य कर दिया कि कुछ भी छापने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी। अखबार और पत्रिकाएं अपनी सामग्री छापने से पहले सरकार को भेजते थे। सरकार सामग्री के जिस अंश से अपने को अनकंफर्टेबल समझती थी वह अंश काटकर अखबारों और पत्रिका को छापने के लिए वापस करती थी।

सरकार के इस नए कायदे को मानते हुए ‘दिनमान’ एक कदम आगे बढ़ गया। रघुवीर सहाय सरकार द्वारा सम्पादित सामग्री छापते थे। जिन अंशों को छापने से मना किया होता था, उसे काली पट्टी से ढक कर छाप देते थे। इससे होता यह था कि सरकार ने जो अंश हटाने को कहा होता था, उसका पालन हो जाता था और पाठक उस अंश को पढ़ नहीं सकता था। मगर पाठक यह समझ जाता था कि लेख या समाचार के बीच में काली पट्टी से जो अंश ढक दिए गए हैं, वहाँ कुछ ऐसा था जो सरकार या इंदिरा गाँधी को गवारा नहीं था। ‘दिनमान’ पाठक के प्रति जिम्मेदार था।

हिन्दी पत्रकारिता की प्रतिरोध का यह चरम उदाहरण है। हिन्दी पत्रकारिता ने तानाशाही की कोशिश के खिलाफ समर्पण नहीं किया था। केवल हिन्दी है भारत की पूरी पत्रकारिता प्रतिरोध में एकसाथ खड़ी थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पत्रकारिता के प्रतिरोधी स्वर पर व्यावसायिक घरानों ने प्रतिबन्ध नहीं लगाया था। इंडियन एक्सप्रेस सीधे सीधे टकरा रहा था। ‘दिनमान’ टाइम्स ऑफ इंडिया घराने की पत्रिका थी। रेखांकित किया जाना चाहिए कि आजादी के बाद 1975 की दुर्घटना तक हिन्दी पत्रकारिता की आत्मा बलिदानी थी। यहाँ यह अनिवार्य रूप से उल्लेख करना बनता है तब हिन्दी सिनेमा की दुनिया से भी कई बड़े सितारे कलाकार और गायक इमरजेंसी की खिलाफत मुखर रूप से कर रहे थे। आज मनोरंजन की दुनिया हास्यास्पद हो जाने की हद तक सत्ता की डफली बजा रही है। वे सत्ता के लिए वोट-बाजार में प्रतिशत बढ़ा रहे हैं।

कोई भी देश अपनी सरकार और राजनेताओं से कम, न्यायपालिका और पत्रकारिता से ज्यादा बनता और खड़ा होता है। 1975 तक पत्रकारिता और न्यायपालिका का क्षरण निर्णायक नहीं हुआ था। इसी दौर में इंदिरा गाँधी के संदर्भ में न्यायपालिका की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता। राजेन्द्र माथुर ने अपने एक लेख में लिखा था, “यदि देश कहीं दो बुनियादों पर टिका है तो वह राजनेताओं पर कम और न्यायपालिका तथा पत्रकारिता पर ज्यादा टिका है, क्योंकि जब कहीं आशा नहीं रहती तो निराश व्यक्ति या तो अदालत के दरवाजे खटखटाता है और उम्मीद करता है कि अमुक प्रकरण में उसे न्यायालय से न्याय मिलेगा। फिर वह अखबार के दफ्तर में जाता है, जहाँ सबको लगता है कि जहाँगीर के जमाने की घंटी लगी है जिसको यदि बजाएँगे तो एकदम सम्पादक नामक जहाँगीर आएँगे और न्याय करके ही उसे वापस लौटाएँगे।”

अब आया 1977। वह हिन्दी पत्रकारिता जो 1826 में ‘उदंत मार्तण्ड’ के माध्यम से कोलकाता से आरम्भ होकर बनारस, पटना, इलाहाबाद होते हुए बंबई और अंत में दिल्ली पहुँची थी, 1977 में वापस कलकत्ता लौट आयी। कोलकाता से आरम्भ हुआ ‘रविवार’।

रविवार

‘रविवार’ से हिन्दी पत्रकारिता का एक नया युग शुरू हुआ। ‘रविवार’ ने वंचितों और हाशिये के लोगों की खूब चिंता की। हिन्दी में पहली बार स्पॉट रिपोर्टिंग की शुरुआत हुई। ‘रविवार’ के आने के पहले तक खबर पत्रकारिता में हिन्दी का कोई मान नहीं था। अखबार का मतलब था अँग्रेजी अखबार और मुख्यधारा की पत्रकारिता का मतलब ही था अँग्रेजी अखबार।

ऐसा नहीं था कि तब हिन्दी के अखबार नहीं थे देश में। कई थे,मगर उनकी कोई आवाज नहीं थी। अपने-अपने क्षेत्र में हिन्दी अखबार पढे़ जाते थे, मगर उससे गूंज नहीं बनती थी। ‘रविवार’ से हिन्दी पत्रकारिता की आवाज बनी। उसकी गूंज से सरकारें हिलती-डुलती थीं। ‘रविवार’ टीम के संतोष भारतीय ने उस दौर को याद करके लिखा है, “मुझे वो दिन याद हैं, जब सुरेंद्र प्रताप सिंह ‘रविवार’ के सम्पादक थे और उनके कुछ विशेष संवाददाता जब किसी राज्य में जाते थे, तो पूरी राज्य सरकार हिल जाती थी। उनके पत्रकारों की रिपोर्ट के ऊपर कई मंत्रियों के इस्तीफे हुए, मुख्यमंत्रियों के इस्तीफे हुए और पूरी सरकार सामने खड़ी हुई और उसे जवाब देना पड़ा। ऐसी कम से कम 200 स्टोरीज मुझे याद हैं, जो सुरेंद्र जी के जमाने में छपीं।”

‘रविवार’ की इसी सफलता का परिणाम था कि 1980-90 के दौर में महत्वाकांक्षी व्यापारियों में अपने मूल व्यवसाय की उन्नति के लिए अखबार को एक टूल की तरह देखा। इसी कड़ी में आज के दो बड़े व्यावसायिक घराने मीडिया पर काबिज हैं।

एक ओर ‘रविवार’ के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता ने सरकार और लोगों के बीच गहरी पैठ बना ली, तब ‘रविवार’ के पत्रकारों में भी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पैदा हुई। ‘रविवार’ के पत्रकारों ने राजनैतिक पार्टी और उनके नेताओं से सम्बन्ध बनाकर अपना राजनैतिक कैरियर बनाया। पत्रकार चुनाव लड़ने लगे। राज्य सभा में मनोनीत किए जाने लगे। खेल प्राधिकरण पर काबिज हुए। अभी हाल में ‘रविवार’ टीम के एक पत्रकार ने राज्य सभा का उप सभापति पद साधा।

1980 के बाद हिन्दी दैनिक की दुनिया में दो बड़ी घटनाएं घटीं। राजेन्द्र माथुर नवभारत के सम्पादक बनाए गए 1981 में। 1983 में इंडियन एक्सप्रेस ने जनसत्ता का प्रकाशन आरम्भ किया। इसके सम्पादक बनाए गए प्रभाष जोशी। इन दोनों दैनिकों के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता ने एक नई तरह की विश्वसनीयता हासिल की। हिन्दी पत्रकारिता की स्वायत्त पहचान बनी। अँग्रेजी पत्रकारिता को टक्कर देने लगी।

1990 के आसपास हिन्दी अखबारों की बाजार में पैठ बढ़ने लगी। 1996 में जयपुर से भास्कर का नया दौर शुरू हुआ कमलेश्वर के सम्पादकत्व में। इसी दौर में जागरण का विस्तार हुआ। हिन्दी इंडिया टुडे और आउटलुक का हिन्दी संस्करण पहले आ चुका था। ऐसा लगने लगा कि हिन्दी भारतीय बाजार की भाषा बन गई है। हिन्दी अखबारों की प्रसार संख्या हर हिन्दी इलाके में बढ़ने लगी। पहली नजर में यह लगने लगा कि हिन्दी के दिन बहुरे हैं। मगर सच यह है कि पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में प्रसार संख्या जितनी तेजी से बढ़ी,  हिन्दी उतनी तेजी से सिमटती गई। ‘रविवार’ के माध्यम से हिन्दी की जो गूंज बनी थी, वह खत्म हो गई। 1990 के बाद हिन्दी का कोई भी दैनिक राष्ट्रीय नहीं रह गया। वह क्षेत्रीय अखबार में बदल गया।

हिन्दी को बाजारमुखी बनाने में ‘रविवार’ की पहल उल्लेखनीय थी। जो बिकाऊ था रविवार उसे बेचता था। मसलन चूंकि रजनीश बिकाऊ था, उन्हें फोकस में रखकर अंक निकाले। हाजी मस्तान पर अंक निकाला। फूलन देवी पर अंक निकला। एक समय चूंकि संजय गाँधी का क्रेज था, संजय गाँधी पर अंक आया। ‘रविवार’ जब निकला था, फणीश्वरनाथ रेणु का दीवाना था बिहार,  पहले अंक के कवर पर रेणु हाजिर थे। यह वह जमाना था जब हिन्दी के सबसे अधिक पाठक बिहार में हुआ करते थे। किसी भी पत्रिका की सबसे अधिक कॉपी बिहार में बिकती थी। ‘रविवार’ ने रेणु के माध्यम से इसे इनकैश किया था। एक समय बिहार में इंडियन नेशन, आर्यावर्त, सर्चलाइट और प्रदीप आदि ने हिन्दी पत्रकारिता की जोत जगा रखी थी, लेकिन 83-84 तक आते आते इनकी जोत खत्म हो गई।

हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक अपशकुन 1992 के पहले आ चुका था। राजेंद्र माथुर का निधन 1992 में हुआ था। ‘समाचार 4 मीडिया’ ने 9 अप्रैल 2022 को अपने पोर्टल पर ‘अवध भूमि’ से साभार किया है, “राजेंद्र माथुर ने बड़े ही जीवट से मूल्यपरक पत्रकारिता की थी, परन्तु एक वक्त ऐसा भी आया जब वे बाजार के झंझावतों से निराश हुए। उन्होंने नवभारत टाइम्स को पूर्ण अखबार बनाने का स्वप्न देखा था। उनका यह स्वप्न तब तक रूप लेता रहा जब तक प्रबन्धन अशोक जैन के हाथ था, किन्तु जब प्रबन्धन का जिम्मा समीर जैन पर आया तो यह स्वप्न बिखरने लगा था। समीर जैन नवभारत टाइम्स को ब्रांड बनाना चाहते थे जो बाजार से पूँजी खींचने में सक्षम हो। माथुर साहब ने अखबार को मुकम्मल बनाया था, लेकिन बाजार की अपेक्षाएं शायद कुछ और ही थीं। यही उनकी निराशा का कारण था। संभवतः पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष की मृत्यु का कारण भी यही था। इस घटना के बारे में अनेक वर्षों तक उनके सहयोगी रहे रामबहादुर राय जी बताते हैं-

राजेंद्र माथुर
राजेंद्र माथुर

‘जब उन्हें लगा कि सम्पादक को सम्पादकीय के अलावा प्रबन्धन के क्षेत्र का काम भी करना होगा, तो वह द्वंद्व में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ। अपने सपने को टूटते बिखरते हुए वे नहीं देख पाए। मृत्यु के कुछ दिनों पहले मेरी उनसे लम्बी बातचीत हुई थी। एक दिन उन्हें फोन कर मैं उनके घर गया। माथुर साहब अकेले ही थे। वह मेरे लिए चाय बनाने किचन की ओर गए तो मैं भी गया। मैंने महसूस किया था कि वे परेशान हैं। मैंने पूछा क्या अड़चन है? उन्होंने कहा- देखो, अशोक जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते थे। उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार कैसे बेहतर बनाया जाए। समीर जैन अखबार पढ़ता ही नहीं है। वह टाइम्स आफ इंडिया और इकानामिक टाइम्स को प्रियारिटी पर रखता है। उससे संवाद नहीं होता। उसका हुकुम मानने की स्थिति हो गई है। यही माथुर साहब का द्वंद्व था।’ (मीडिया विमर्श, मार्च 2012)”

राजेन्द्र माथुर के एक सहयोगी राजकिशोर थे। उन्होंने समीर जैन की पहल के बारे में लिखा है, “अखबार के मालिक समीर जैन को पत्रकारिता तथा अन्य विषयों पर व्याख्यान देने का शौक है। उन दिनों भी था। वे राजेन्द्र माथुर को भी उपदेश देते रहते थे, सुरेंद्र प्रताप सिंह से बदलते हुए समय की चर्चा करते थे, विष्णु खरे को बताते थे कि पत्रकारिता क्या है और हम लोगों को भी अपने नवाचारी विचारों से उपकृत कर देते थे…. समीर जैन की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुंचे…. नई पीढ़ी की रुचियां पुरानी और मझली पीढ़ियों से भिन्न थीं। टीवी और सिनेमा उसका बाइबल है। समीर जैन नवभारत टाइम्स को गम्भीर लोगों का अखबार बनाए रखना नहीं चाहते थे…. समीर की फिक्र यह थी कि कि पाठकों की तलाश में किधर मुड़ें…. इसी खोज में भारत के शहरी युवा वर्ग के इसी हिस्से पर उनकी नजर पड़ी…. उन्होंने हिन्दी सम्पादकों से कहा कि हिन्दी में अँग्रेजी मिलाओ, वैसी पत्रकारिता करो जैसी नया टाइम्स ऑफ इंडिया कर रहा है…. 90 के दशक में जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत की अँग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदल डाला, उसे आत्मा-विहीन कर दिया, वैसे ही नवभारत टाइम्स ने हिन्दी पत्रकारिता में ऐसी बाढ़ पैदा कर दी जिसमें बहुत से मूल्य और प्रतिमान डूब गए, लेकिन नवभारत टाइम्स का प्रयोग आर्थिक दृष्टि से सफल रहा और अन्य अखबारों के लिए मॉडल बन गया। “यह जो मॉडल बना, अखबार अखबार न रहा, बाजार का मुखपत्र हो गया। यही वह मुकाम है जहाँ पहुँच कर आजादी के बाद की लोकप्रिय पत्रकारिता के दौर के सारे हिन्दी अखबारों का रूपरंग बदल गया। सभी व्यवसायिक पत्रिकाएं बंद हो गई और साहित्यिक-वैचारिक वाली लघु पत्रिकाएं थक कर दम तोड़ दीं।

केवल अखबार ही नहीं बदले, सम्पादक का व्यक्तित्व भी बदल गया। रेहान फज़ल ने ‘बीबीसी न्यूज पोर्टल’ पर प्रभाष जोशी को याद करते हुए शंभूनाथ शुक्ल के हवाले से बताया है, “शुक्ल ने एक क़िस्सा सुनाते हुए कहा, “एक बार धर्मयुग के सम्पादक धर्मवीर भारती उनसे मिलने आए थे, तो वो उठ कर उनसे मिलने आए थे। तब तक उनके पीए ने उन्हें मेरे कमरे में बैठा दिया था। वो उन्हें अपने साथ अपने कमरे में ले गए। लेकिन 1987 में इंडियन एक्सप्रेस में हड़ताल के दौरान कई विपक्षी नेता उनसे मिलने आने लगे क्योंकि कहीं न कहीं ऐसा लगता था कि ये हड़ताल अख़बार के काँग्रेस विरोध के कारण करवाई गई है।” शुक्ल कहते हैं, “मिलने आने वालों में अटल बिहारी वाजपेई, विद्या चरण शुक्ल और आरिफ़ मोहम्मद ख़ाँ भी थे। अटलजी ने प्रभाषजी को देख कर कहा, ‘सम्पादकजी नमस्ते।’ इन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा, ‘सम्पादकजी नमस्ते।’ तब हमारे एक साथी थे महादेव चौहान। उन्होंने इनका हाथ पकड़ कर कहा कि ये अटलजी हैं। तब जाकर वे अटलजी से मिले।”शुक्ल बताते हैं कि तब उन्हें लगा कि शायद प्रभाष जोशी को राजनीतिज्ञों से मिलना जुलना पसन्द नहीं है। लेकिन उनके अनुसार 1990 के बाद से ये दृश्य बदल गया था। वो कहते हैं, “वी पी सिंह से उनकी (प्रभाष जोशी) दोस्ती रही। चंद्रशेखर के यहाँ भी उनका आना-जाना था। वाजपेयी जी के साथ भी उनकी नज़दीकी बढ़ गई। जब वाजपेई जी प्रधानमन्त्री बने तो उनकी (प्रभाष जोशी की) गाड़ी उनके (वाजपेयी जी के) गेट पर नहीं रोकी जाती थी और वो सीधे उनसे मिलने जाते थे।” कहना नहीं होगा कि आगे चलकर सम्पादक का व्यक्तित्वांतरण एक पीआर एजेंट के रूप में होने लगा।

हिन्दी पत्रकारिता जब इस हाल को पहुँची विष्णु पड़ारकर के शब्द ब्लिंक करने लग गए, “भावी हिन्दी समाचार पत्रों में भी ऐसा ही होगा। पत्र निकाल कर सफलतापूर्वक चलाना बड़े बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी। मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे। लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गम्भीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त, अथवा मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी।” 1990 तक आते आते पराड़कर की 1925 में की गई यह भविष्यवाणी सच हो गई। अखबारों-पत्रिकाओं से सम्पादक की विदाई हो गई। मालिक सम्पादक का युग आ गया।

अंबिका प्रसाद बाजपेयी कलकत्ता से निकलने वाले अखबार भारत मित्र के सम्पादक थे। भारत मित्र वह अखबार था जिसने लार्ड कर्जन की आँखों में आंखें डाल कर कहा था, “जिस पद पर आप आरूढ़ है मौरूसी नहीं” 21वीं शताब्दी की हिन्दी पत्रकारिता इस साहसिकता से मुंह मोड़ कर डफली पत्रकारिता का नित नया दृश्य रच रही है।

आजाद भारत की पत्रकारिता

भारत मित्र के एक सम्पादक हुए थे लक्ष्मी नारायण गर्दे 1918 में। उन्होंने 1925 में भारत मित्र से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया। इस बाबत उन्होंने अपना एक पत्र अखबार में छापा था, ” भारत मित्र से वियोग हुआ। …हिन्दू महासभा के उद्देश्य नियमादि में ऐसी कोई बात नहीं है जो सनातन धर्म के विरुद्ध हो,  हमारे विचार में सनातन धर्म की रक्षा के लिए हिन्दू संघटन अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार हमारे और सनातन धर्म मंडल के एतद् विषयक विचार में मतान्तर है यद्यपि उभय पक्ष का अभीष्ट एक ही है अर्थात सनातन धर्म की रक्षा, परन्तु साधन संबंधी विचारों में मतान्तर होने,  सनातन धर्म मंडल के मुख पत्र के सम्पादन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना हमारे लिए असंभव था, और इसी लिए उस भारत मित्र से हमें सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ा… अब भारतमित्र सनातन धर्म मंडल का पत्र है।” गर्दे के इस पत्र से तत्कालीन हिन्दी पत्रकारिता की दिशा का बोध होता है।

एक दौर वह था और एक दौर का आरम्भ 1990 में हुआ जिसकी छाया से हिन्दी पत्रकारिता आज भी दूषित है। 1990 में राजनैतिक रामरथ निकला,  हिन्दी पत्रकारिता अन्धहिन्दुत्ववादी और साम्प्रदायिक हो गई। अन्धराष्ट्रवादी और साम्प्रदायिक होने से पहले हिन्दी पत्रकारिता पुनरुत्थानवादी हुई। वाकया 1987 का है। राजस्थान में रूपकंवर की सती होने की घटना घटी। यह देवराला काण्ड के नाम से विख्यात हुआ। इस दौर के एक प्रभावशाली सम्पादक प्रभाष जोशी ने सती प्रथा का महिमा मंडन किया। कई अखबारों में सती प्रथा की झूठी सच्ची स्थितियों का ब्यौरा छापा गया। लेकिन तब पूरी की पूरी हिन्दी पत्रकारिता पुनरुत्थानवादी नहीं हुई थी।

प्रमाण यह है कि जब अखबारों और मीडिया ने रूपकवंर और घटना के बारे में खूब जम कर घटाटोप फैलाया तो बोम्बे यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने एक तीन सदस्यीय टीम बनाई। इसमें महिला और मीडिया के लोग थे। इस कमिटी ने खूब छानबीन कर बारीक रिपोर्ट पेश करके तथ्य सामने रखा था। आज मीडिया घटाटोप का दूसरा नाम है। राजेंद्र माथुर ने एक समय छपी हुई खबरों की आडिटिंग के लिए प्रस्ताव रखा था, जिससे अखबारों और मीडिया की विश्वसनीयता कायम रहे। आज मीडिया अपनी विश्वसनीयता के प्रति न केवल लापरवाह है, अविश्वसनीयता उसके रेवेन्यू की गारंटी है।

किसी उद्योग का रेवन्यू का लक्ष्य करना अनुचित नहीं है। लेकिन प्रश्न यह है कि साबुन बनाने वाला क्या ऐसा साबुन बना सकेगा जिससे चर्मरोग या चर्मक्षति होता हो? क्या वस्त्र व्यापारी ऐसा वस्त्र या परिधान बनाएगा जो देह को नुकसान पहुंचाएगा। अगर बनाया तो क्या वह बाजार में टिक सकेगा? अपने व्यापार से पैसा पैदा कर सकेगा? हरगिज नहीं कर सकेगा। ऐसा इसलिए कि उसका व्यवसाय खरीदार के भरोसे फलता फूलता है। मगर आज की पत्रकारिता या मीडिया ने अपने को राजकोष और राजनैतिक पार्टी कोष और उद्योगपतियों के उस कोष का आश्रित बना लिया है जिससे उद्योगपति रहे राज और राजनैतिक पार्टियों को साधते हैं,  ऐसी स्थिति में पत्रकारिता या मीडिया जनता के प्रति जवाबदेह नहीं रह गई है।

1995 में हिन्दी टीवी पत्रकारिता की शुरुआत ‘आजतक’ से हुई। बाजार की समझ रखने वाले और खबर बाजार का भविष्य भांप सकने वाले एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह के हाथ इसका श्रेय लगा। इन्होंने टीवी पत्रकारिता की पहुँच बढ़ाने और लोकपक्ष में खड़े रहने की पहल दोनों एक साथ की। पहुँच बढ़ाने के क्रम में स्वाभाविक रूप से दैनिक अखबारों पर चोट पहुँची। दैनिक के पाठक दिन भर की खबरें जो अगली सुबह पढ़ता था,  वह उन खबरों को उसी दिन रात के नौ बजे जान जाता था। टीवी पत्रकारिता ने सभी राष्ट्रीय दैनिक को जिलामुखी बनाया। प्राय: सभी अखबारों के ढेर सारे संस्करण आने लगे। एसपी के लोकपक्ष की टीवी पत्रकारिता का यह प्रमाण था कि जब और समाचार चैनल्स गणेश के दूध पीने की खबर फैला कर नए तरह का अन्धविश्वासी भारत का नयी बुनियाद रख रहे थे,  ‘आज तक’ पर एसपी उस घटना की वैज्ञानिकता समझा रहे थे। लेकिन यह साफ था कि समग्र रूप से टीवी उद्योग और टीवी पत्रकारिता का रुझान अन्धराष्ट्रवाद, अन्धहिदुत्ववाद और पुनरुत्थान की ओर रही,  यह आज भी बदस्तूर है। यहाँ यह बताना अनिवार्य है टीवी पत्रकारिता के पहले ही हिन्दी के अखबार न केवल साम्प्रदायिक हो गए, अन्धहिदुत्ववाद और पुनरुत्थानवाद की डगर पर राम रथ के पीछे पीछे निकल पड़े। हिन्दी पत्रकारिता या मीडिया का काला काल यहाँ से आरम्भ होता है। हिन्दी पत्रकारिता या सम्पूर्ण मीडिया का ऊंट जनता की आँखों में रेत झोंकता हुआ अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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