संघ और गाँधी
यह मानने में न पहले किसी को हिचक थी, न अब है कि गाँधी-हत्या में आरएसएस की हिस्सेदारी थी। स्वयं संघ के लोगों का दैनन्दिन व्यवहार यह साबित करता रहा है। 30 और 31 जनवरी 1948 को संघ की बैठकों में मिठाइयाँ बाँटी गयीं तो वह दुख जताने का तरीक़ा नहीं रहा होगा। मेरे पिता बद्रीनाथ तिवारी तब इलाहाबाद में संघ की एक किशोर पंथक शाखा के मुखशिक्षक थे और राजेन्द्र सिंह संरक्षक थे। उन लोगों को श्रीनारायण चतुर्वेदी की बगिया में आपात बैठक के लिए बुलाया गया था। इस प्रसंग पर विस्तार से किसी और मौक़े पर; यहाँ तात्कालिक प्रश्न पर विचार करना है।
लोकसभा के 2019 के चुनाव के अन्तिम दो चरणों के मतदान बाकी थे जब भोपाल की भाजपा उम्मीदवार मालेगाँव आतंकवाद की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर ने गाँधी-हत्यारे नाथूराम गोडसे को भूत-वर्तमान-भविष्य का सनातन “देशभक्त” बताया। तब भाजपा के किसी नेता को वह नहीं सुनायी पड़ा। स्वयं प्रधानमन्त्री ने उसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कांग्रेस सहित सारे विपक्ष ने आपत्ति की, मोदी से माफ़ी माँगने की गुहार लगायी, पर सब कुछ व्यर्थ रहा।
छठें चरण के मतदान में इसका ख़ामियाज़ा उठाना पड़ा। तब अचानक चेतना जागी। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए अपने नाम पर आयोजित पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मोदी ने प्रज्ञा पर क्षोभ जताया। उन्हें इलहाम हुआ कि सभ्य समाज में यह सब नहीं चलता! वे प्रज्ञा को “दिल से” माफ़ नहीं कर पाएँगे! लोगों को भी पता चला कि 56 इंच के भीतर दिल भी है जो 2002 में नहीं पसीजा था, जो इन 17 वर्षों में अनगिनत हृदय-विदारक घटनाओं में नहीं पसीजा था, जो स्वयं प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर भी नहीं पसीजा था; अचानक चुनाव के नुक़सान से पसीज उठा और अन्तिम चरण के लिए क्षतिपूर्ति (Damage Control) के विचार से यह द्रवित हृदय सामने आ गया!
पर अफसोस! इस बीच तीन और महत्वपूर्ण भाजपा नेताओं ने गाँधी-गोडसे मुद्दे पर अपना मंतव्य प्रकट कर दिया। वे केन्द्र के मन्त्री हैं, सांसद हैं, मप्र के भाजपा मीडिया प्रभारी हैं। उनके नाम हैं: अनंत कुमार हेगड़े, नलिन कुमार कतील, अनिल सौमित्र।
अनेक भाजपा नेताओं का बारम्बार प्रकट होने वाला एक जैसा मंतव्य क्या अकारण है? नहीं! यह संघ की दीक्षा का स्वाभाविक परिणाम है। यही संघ की मूल विचारधारा है। एक ही बात जब बहुत से लोग कहें तब उसे अपवाद नहीं, प्रवृत्ति मानना चाहिए। यहाँ अन्तर इतना ही आया है कि व्यक्तिगत बातचीत में बारम्बार दोहराया जाने वाला विचार सार्वजनिक रूप में राजनीतिक मंच से दोहराया गया है।
बहुत से मामलों में पहले भी भाजपा नेता कोई असंवैधानिक वक्तव्य देकर विपरीत प्रतिक्रिया के मारे पलट जाते रहे हैं, फिर दो-चार बार के बाद पलटना भी बन्द कर देते रहे हैं। यह ‘मूषक-रणनीति’ है—चूहे की तरह ज़रा-सा झाँकना और डरकर दुबक जाना; फिर थोड़ा-सा कुतरना और बिल में घुस जाना; धीरे-धीरे पूरी ढिठाई से उत्पात पर उतर आना। मॉब लिंचिंग से लेकर हिन्दूत्व के संविधान-विरोधी एजेंडे तक बहुत से मसलों पर पाँच साल में देश के लोगों ने संघ-भाजपा की यह ‘मूषक-रणनीति’ भली प्रकार देखी है। प्रज्ञा ठाकुर, अनंत कुमार हेगड़े, नलिन कुमार कतील, अनिल सौमित्र के धारावाहिक बयानों में यही रणनीति काम करती दिखायी देती है। प्रज्ञा की माफ़ी या मेदी की वेदना केवल ऊपरी आडम्बर है जिसका कारण लोकसभा चुनाव हैं जिसमें नुक़सान होता दिख रहा है।
ज़ाहिर है, संघ को गाँधी से तात्विक घृणा है। राजनीतिक मजबूरी के कारण बहानेबाज़ी करनी पड़ती है, यह अलग बात है। पर जनता सब समझती है। गाँधी का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान बढ़ता जा रहा है और ‘सैर कर दुनिया की गाफ़िल जिन्दगानी फिर कहाँ…’ वाले सहसा ‘मोस्ट पॉपुलर’ से हटकर ‘द ग्रेट डिवाइडर’ हो गये हैं। पाखण्ड यहीं पहुँचाता है!!