फ्लॉवर और फायर के बीच ‘पुष्पा’
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पुष्पा, पुष्पा, पुष्पा पिछले दो महीनों से यही नाम घूम रहा है सिनेमा की दुनिया में। हर कोई दीवाना कोई किसी के लिए क्यों होगा? वो भी ऐसे कैरेक्टर के लिए जो भले ही सिनेमा की दुनिया में मास हो लेकिन रियल की दुनिया में भले ही वह एक्ससिस्ट न करती हो। पुष्पा इस दुनिया का एक ऐसा आदमी है जिसके बाप का मालूम नहीं। लेकिन जब लाल चंदन के स्मगलिंग की दुनिया में वह आता है तो कई बार फ़िल्म में कहता है। पुष्पा-पुष्पराज मैं झुकेगा नहीं साला!
लेकिन फिर वही झुकता भी है कई बार प्यार में तो कई बार अपनी मजबूरी के चलते। हालांकि मजबूरी में जब झुकता है तो उसका बदला भी बाद में ले ही लेता है। फ़िल्म तमिल के साथ-साथ हिंदी में भी रिलीज हुई। लेकिन 17 दिसम्बर को रिलीज हुई इस फ़िल्म में ‘श्रेयस तलपड़े’ ने ‘अल्लु अर्जुन’ की डबिंग करने की कोशिश मात्र की। हालांकि एक-दो जगह छोड़कर वे कहीं सफल न हो सके।
दूसरी ओर मैं तमिल, तेलगु सिनेमा आदि ज्यादा देखता नहीं। अल्लु अर्जुन सिनेमा के नाम पर पूजनीय हैं। यह बात तो मैंने जब तक उनकी कुछ क्लिप्स और पहली बार उनका फेसकट देखा था, उसी समय कह दी थी। हिंदी डबिंग देखते हुए लगता है, पुष्पा फ्लॉवर बनकर ही रह गई फायर न हो सकी। वहीं दूसरी ओर दर्शकों से मिले प्यार को देखते हुए यह फायर भी बनकर सामने आई।
दूसरा जब पुष्पा एक लड़की को पैसे देकर पप्पी करने को कहता है तो वही पुष्पा उन्हीं महिलाओं की जब इज्जत की बात करता है तो हंसी आती है ऐसी फिल्म बनाने वालों पर। दूसरी ओर देखा जाए तो दर्शकों को ऐसी ही फिल्में पसंद भी आती हैं। तभी तो देखिए 10 दिन में 200 करोड़ से ज्यादा कमाई करने वाली पुष्पा ने 50 दिन में साल में जितने दिन होते हैं उतनी यानी 365 करोड़ कमाई की।
एक जमाना था जब बॉलीवुड में इस तरह की फिल्मों का बोलबाला था। आम आदमी या मजदूर जब थककर कभी मनोरंजन के लिए सिनेमा घर जाता तो वह ऐसी ही फिल्में देखना पसंद करता था। शायद साउथ इंडियन सिनेमा वालों को अब भी ऐसा ही लगता है। और सही भी लगता है। तभी तो कमाई के मामले में बावजूद कोरोना के कारण आधे से ज्यादा थियेटर बंद होने पर इसने इतनी कमाई कर ली थी।
इतने बड़े बजट की फ़िल्म में जब सिनेमैटिक गलतियों की भरमार दिखे तो भी लोग उसे पसंद कर रहे हैं तो इसके पीछे का कारण तो वही दर्शक बता सकते हैं। लेकिन आम दर्शकों को कई बार उन सबसे मतलब नहीं होता। बहुतेरे समझदार दर्शक ऐसे भी होते हैं जो कई बार कहानियों के चक्कर में या फैन्स होने के चलते गच्चा खा जाते हैं।
एक सीन में पुष्पा पर रेड लाइट दिखाई जाती है जो कहाँ से आई? पुलिस वाले मारने आते हैं लेकिन देर से बंदूक दिखाते हैं ऐसा क्यों ? उन्हें पुष्पा से मार खाने आना था? ट्रक हवा में उड़ता है? जबकि रोड ज्यादा खराब नहीं है। 1000 में हंस रही तो 5000 में पप्पी मिल रही है? देश-दुनियां में ये सब कहने से होने लगा? कहानी लिखने में ऐसा क्यों रखा? पुष्पा जब मार पीट करता है तो लगता है जैसे डब्ल्यू डब्ल्यू ई चल रहा हो।
जब इस फ़िल्म का ट्रेलर आया था तब लग रहा था कि यह फ़िल्म पैन-इंडिया के बज के लायक नहीं है। फिर इसने रिलीज के बाद जो रिकॉर्ड तोड़े वो तो माशाअल्लाह सिनेमा के बाकी लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। कि क्या वाकई अब हमें फिर से उसी दौर में जाना चाहिए? फुल ऑन मसाला फिल्मों का भविष्य अब भी है। इस फ़िल्म ने यह जाहिर किया है।
सुकुमार का डायरेक्शन ठीक है। लेकिन इतना भी नहीं। शायद उन्होंने भी सोचा होगा कि लोग बस इसके डायलॉग और एक्टिंग के साथ-साथ 80 के दशक की सी कहानी में ही खोए रहेंगे। और हुआ भी वही। सुकुमार ने आम जनता की नब्ज को पकड़ने का माद्दा दिखाया है। इसके गाने ‘श्रीवल्ली’ ने खास करके आम जनता को इस फ़िल्म को देखने के लिए मजबूर किया है। कई सारे दोस्तों यहां तक कि फ़िल्म निर्देशकों। और एक्टर्स ने भी कहा कि मैं रिव्यू दूं और फ़िल्म जरूर देखूं। तो रिव्यू तो नहीं समझिए इसे अपनी बात जरूर कह सकता हूँ ऐसा समझिए।
पुष्पा जैसे लोगों की ही असल में समाज में जरूरत है सकारात्मक नजरिये से देखा जाए तो। एक सताया हुआ आदमी नाजायज औलाद का टैग अपने सिर पर लगाए घूमने वाला आदमी इतने बड़े एम्पायर का सिरमौर बन जाए तो अच्छा लगता है। अच्छा यह उन लोगों को भी लग सकता है जो दलित हैं या दलितों के हितों में सोचते हैं। यहां दलित से आशय जातिगत दलित से नहीं है।
लेकिन जिस तरह से पुष्पा मेनस्ट्रीम फ़िल्म के रूप में सामने आई है उससे इसके दूसरे भाग को देखने की इच्छा भी उन सभी लोगों में जगी हुई है। जैसे बाहुबली या के जी एफ को लेकर थी। हालांकि पुष्पा के बारे में सबकुछ बताया गया है फिर भी कई अनछुए से पहलू के साथ-साथ आगे की कहानी जो दूसरे पार्ट में दिखाई जाएगी उसे भी देखना दिलचस्प होगा। डायलॉग्स में स्टारडम झलकता नहीं बल्कि उसके तले दब सा जाता है। इसलिए उसके डायलॉग्स एक पंचलाइन की तरह काम करते हैं। और स्टाइल एक सिग्नेचर का रूप धारण करके सबको कावरा बावरा कर देता है।
बैकग्राउंड स्कोर बहुत सी जगह धीमा है। गाने भी सभी अच्छे नहीं है। रमिश्का फ़िल्म में जबरदस्ती घुसी हुई सी लगती है। फ़िल्म की लंबाई इसके क्लाइमेक्स और प्रेम कहानी चलते अखरती है। बिना लॉजिक का सिनेमा ही लोगों को अक्सर पसंद आता है वरना राधे जैसी फिल्में क्यों सुपरहिट हो जाती अगर ऐसा न होता तो?
साउथ इंडियन सिनेमा आज के समय में टॉप पर चल रहा है इसमें कोई शको-शुआब नहीं। फ़िल्म आपको पूरी तरह बांधकर नहीं रखती। बीच-बीच में आप अपने हाथों को आराम भी दे सकते हैं। चाहें तो पुष्पा का सिग्नेचर स्टाइल ही आजमा कर। मैं झुकेगा नहीं साला, कहते हुए। साउथ इंडियन सिनेमा से बॉलीवुड वालों को कुछ सीख तो लेनी ही चाहिए अब इसकी जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जाने लगी है।
नोट – यह फ़िल्म रिव्यू नहीं है इसलिए इसे रेटिंग के दायरे से परे रखा गया है।