अनेक बाधाओं के बीच हमारे सवालों के साथ खड़ा रंगमंच
कोरोना के इस आपदा काल में 20 फरवरी के बाद लगभग दस महीने के उपरांत पहली बार साहस करके पटना की यात्रा की। यह यात्रा 9 से 11 दिसम्बर की थी। इसका उपलक्ष्य था- निर्माण कला मंच और प्रवीण सांस्कृतिक मंच के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित रंगकर्मी प्रवीण स्मृति सम्मान नाट्योत्सव 2020 में शामिल होना। इस आयोजन की पहली प्रस्तुति प्रवीण सांस्कृतिक मंच की ओर से हुलहुलिया थी।
‘हुलहुलिया’ प्रसिद्ध कवि और नाटककार श्री रवींद्र भारती का लिखा बेहद महत्वपूर्ण नाटक है जिसे उन्होंने बहुअर्थी बनाया है। स्पष्ट रूप से यह नाटक हुलहुलिया नामक आदिवासियों की लुप्तप्राय आबादी और उनके संघर्ष को व्यक्त करता है जो अपनी पहचान के लिए जूझ रहे हैं, उनके नाम का कोई दस्तावेज़ नहीं है और न ही उनकी कोई निश्चित ठिकाने की जगह है। वे संदिग्ध बने जगह जगह फिरते हैं और हर तरफ उनका शोषण होता है। पर व्यंजना में यह पर्यावरण, मनुष्य और व्यवस्था के त्रिकोण का नाटक है जिसमें व्यावसायिक सफलता और राजनीतिक लाभ के लिए मनुष्यता को मिटा डालने का षड्यंत्र चलता रहता है। पहचान का संकट कैसे हमारी नियति बनने जा रहा है, यह भी इस नाटक में है क्योंकि व्यवस्था की कुटिल चालें हमारे जंगल, जमीन और पूरी प्रकृति को नष्ट करने पर टिकी हैं जिसके बाद हमारी भी स्थिति हुलहुलिया जैसी ही होनेवाली है यदि हम प्रतिरोध के साथ उठ खड़े न हुए।
नाटक की कथा को देखें तो इसमें कहलू कहाले नामक एक लेखक है जो हर जगह घूम घूम कर विलुप्त हो रही जनजातियों और आदिवासियों तथा उनकी लिपियों की खोजकर उन पर शोध करता है। इसी फक्कड़ प्रवृत्ति के कारण वह आदिवासी, पहाड़िया और हुलहुलिया जनजातियों के बीच पहुंचता है। उसे पता चलता है कि हुलहुलिया का नाम राष्ट्रीय पंजिका में सूचित नहीं है। वे यहाँ रहने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं और चाहते हैं कि उन्हें नागरिक के रूप में पहचान मिल जाय। पर मुश्किल यह है कि उनके पास यहाँ रहने का कोई प्रमाण नहीं, न कोई कागज है जिससे यह सिद्ध हो कि वे यहाँ के बाशिंदे हैं। पर तथ्य यह है कि वे पांच छह पीढ़ियों से यहाँ रह रहे हैं।
एन आर सी सेवा केंद्र में दौड़ दौड़ते कई हुलहुलिया पागल हो जाते हैं और कइयों की मौत हो जाती है। यह जान कर कहलू कहाले उद्विग्न हो जाता है और प्रयत्न करता है कि उनको न्याय मिले। पर यह सम्भव नहीं होता। वह छोटे लामा नामक बौद्ध भिक्षु की सलाह पर प्रभावशाली उद्योगपति जाकिट वाला से मिलता है। वह उद्योगपति, जो व्यवस्था का पुर्जा है और पूरे पर्यावरण का सौदागर भी, कहलू का शोधकार्य अपने नाम छपवा लेने की शर्त पर हुलहुलिया का नाम नागरिक पंजिका में दर्ज करा देता है। वसन्तोत्सव में वह महत्वपूर्ण शोध कार्य जाकिट वाला के नाम से छप कर लोकार्पित होता है और दूसरी तरफ षड्यंत्र करके कहलू को नक्सल होने के संदेह में पुलिस गिरफ्तार कर लेती है।
नाटक बहुत व्यंजक है और प्रभावी भी। इसमें उतार चढ़ाव और नाटकीयता के अनेक पड़ाव है। कथा को साधे रखकर अभिनेताओं ने इस नाटक को मंच पर जीवन्त बनाया और दर्शकों को आज के समय की इस आपदा से ख़बरदार भी किया। वैसे तो प्रस्तुति में सभी चरित्रों की भूमिका संतोषजनक रही, पर कहलू कहाले की भूमिका में मृत्युंजय प्रसाद, हुलहुलिया लड़की अरे की भूमिका में रूबी खातून तथा छोटे लामा की भूमिका में शुभ्र भट्टाचार्य का अभिनय बेहद छू पाया। कहलू की चिंता, तनाव और लगातार उसके संघर्ष को मृत्युंजय ने जिया तो अरे के रूप में रूबी ने कहलू के प्रेम के साथ हुलहुलिया के कारुणिक जीवन को बेहद संजीदगी से जिया। इसके अलावा जाकिट वाला की भूमिका में आदिल रशीद शोषक उद्योगपति के चरित्र में उतर सके। शेष कलाकारों के अभिनय के साथ नाटक का संगीत पक्ष, ध्वनि, वस्त्र तथा प्रकाश व्यवस्था आदि भी संतोषजनक कहे जा सकते हैं।
पांच कविता संग्रह और कम्पनी उस्ताद, जनवासा, अगिन तिरिया जैसे बहुचर्चित नाटकों के सर्जक श्री रवींद्र भारती का यह नाटक बड़ी व्याप्ति का है जिसमें हमारा समय और देश पूरी तरह चित्रित है।
नाटक को चर्चित युवा निर्देशक, रंग आकल्पक और अभिनेता श्री विजयेन्द्र टांक ने निर्देशित किया था। श्री टांक ने अनेक नाटकों में अभिनय किया है और बड़ी संख्या में नाटकों का निर्देशन भी। उनके कल्पनाशील निर्देशन में प्रस्तुति बेहद व्यंजना के साथ उभरी और नाटक की सम्वेदना हमारे मन को छू सकने में समर्थ हुई। पटना के मंच पर विजयेंद्र के कौशल को देखकर बड़ा सन्तोष हुआ कि हिंदी रंगमंच की यह मध्यम पीढ़ी बहुत ऊर्जावान और सामर्थ्य के साथ बड़ी लकीर खींचने की ओर अग्रसर है।
दूसरी प्रस्तुति प्रवीण स्मृति सम्मान से सम्मानित हुए श्री रोशन कुमार के निर्देशन में प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ की प्रस्तुति रही जिसमें प्रेमचंद ने व्यवहारिक जीवन की शिक्षा का प्रश्न उठाकर पश्चिमी ढंग की रटन्त पढ़ाई पर कटाक्ष किया है। ‘द स्ट्रगलर्स’ की यह प्रस्तुति भी सराहनीय रही। इसमें राहुल कुमार रवि ने बड़े भाई की भूमिका को मेहनत से जिया पर सम्वाद अदायगी में वे अधिक प्रभावित न कर सके। इसके विपरीत रमेश कुमार रघु ने छोटे भाई की भूमिका का निर्वाह बड़ी जीवन्तता से किया। इस नाटक में प्रकाश व्यवस्था, मंच परिकल्पना और निर्देशन रोशन कुमार का ही था जिसे सफल कहा जा सकता है। इस कहानी को अद्यतन रूप देते हुए रोशन ने मंच सज्जा और संगीत की जिस कल्पनाशीलता का सहारा लिया, उससे यह कहानी नए रूप में खुल सकी।
इस तरह प्रेमचंद रंगशाला में आयोजित दो दिवसीय ( 9 और 10 दिसम्बर 2020 ) नाट्य समारोह कोरोना के बावजूद बड़ी संख्या में उपस्थित दर्शकों के बीच सम्पन्न हुआ। प्रस्तुति के मौके पर बाहर से आए मेरे अलावा श्री सत्यव्रत राउत भी थे जो हैदराबाद विश्वविद्यालय में नाटक विभाग के वरिष्ठ आचार्य हैं और देश के जानेमाने निर्देशक और मंच परिकल्पक हैं। उन्होंने भी पटना के रंगमंच में युवाओं की भूमिका की सराहना की तो मैंने भी प्रस्तुतियों की प्रशंसा के साथ साथ रंगकर्मियों के अध्ययन, अभ्यास और निरन्तर स्वाभाविक अभिनय की जरूरत की बात की।
आयोजन में निर्माण कला मंच के संस्थापक निर्देशक और देश के मूर्धन्य रंग निर्देशकों में एक श्री संजय उपाध्याय की उपस्थिति समारोह के नियंता अभिभावक की रही जिन्होंने पटना रंगमंच को एक केन्द्रीयता दी है।
इस तरह यह आयोजन एक सुखद उम्मीद की तरह लगा और हिंदी रंगमंच की जीवन्तता और सार्थकता प्रमाण बनकर आया।
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