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दूसरों को जिताने वाले “किंगमेकर” प्रशांत किशोर, क्यों नहीं लिख पाए अपनी जीत की गाथा ?

बिहार विधानसभा चुनाव के आज परिणाम घोषित होने वाले है। सुबह 8 बजे से ही मतगणना की प्रक्रिया जारी है। ऐसे में राजनीतिक गलियारों में भी हलचल तेज हो गई है। इस बार महागठबंधन और एनडीए के बीच कांटे की टक्कर नजर आ रही है। लेकिन पहली बार चुनाव के मैदान में उतरी जन सुराज पार्टी (जेएसपी) का खाता खुलता नहीं दिख रहा है।

चुनाव विश्लेषण के काम से राजनीति में आए प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी जन सुराज के साथ बिहार की सियासत में नई पारी शुरूआत की। जन सुराज पार्टी ने पहले सभी 243 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा की थी।

हालांकि, बाद में कुछ उम्मीदवारों ने नामांकन वापस ले लिया, जिसके बाद पार्टी ने 238 सीटों पर चुनाव लड़ा। प्रशांत कुमार के साथ- साथ पार्टी के सभी उम्मीदवारों ने जनता के बीच जाकर खूब प्रचार किया।

लेकिन अब वोटों की गिनती के बाद जो शुरूआती रूझान सामने आ रहे है, उसमें जन सुराज का खाता भी खुलता नहीं दिख रहा है। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि कभी भारत के सबसे चर्चित राजनीतिक रणनीतिकारों में से एक रहे प्रशांत किशोर अपनी ही जीत की कहानी आखिर क्यों नहीं लिख पाएं ?

रणनीतिकार से राजनीति का सफर 

राजनीतिक हलकों में पीके के नाम से मशहूर प्रशांत किशोर का जन्म बिहार के सासाराम में रोहतास जिले के कोनार गांव में हुआ। बाद में वे बक्सर चले गए। यहां से किशोर ने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की। इसके बाद प्रशांत किशोर ने संयुक्त राष्ट्र के पब्लिक हेल्थ प्रोग्राम में काम करते हुए अपने करियर की शुरुआत की।

बीजेपी के लिए किया काम 

2011 तक वे इसी में रहे और उन्होंने योजना बनाना, प्रोग्राम का कॉर्डिनेशन करना और समुदाय की भागीदारी जैसे काम किए। इसके बाद उन्होंने राजनीतिक रणनीति बनाने का काम शुरू किया, तब तक वे किसी भी राजनीतिक दल से औपचारिक रूप से नहीं जुड़े थे। लेकिन साल 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होनें बीजेपी के अभियान का समर्थन किया।

कई नेताओं को चढ़ाई सत्ता की सीढी

इसके बाद साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होनें नरेंद्र मोदी के ऐतिहासिक चुनाव अभियान को नए सांचे में ढाला था। मोदी की जीत के पीछे उनकी रणनीति को “गेम चेंजर” माना गया। इसके बाद प्रशांत किशोर भारत के कई राजनीतिक दलों के लिए काम किया। उन्होनें  नीतीश कुमार से लेकर अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, पंजाब के अमरिंदर सिंह और आंध प्रदेश के Y.S. जगन मोहन रेड्डी के लिए भी काम किया।

प्रशांत किशोर साल 2015 में बिहार में नीतीश कुमार की महागठबंधन जीत में सहायक रहे और फिर साल 2018 में उन्हें JD(U) का उपाध्यक्ष बनाया गया। लेकिन बाद में प्रशांत कुमार ने राजनीति में आने का फैसला किया और अपनी नई पार्टी बनाने का मन बना लिया।

2024 में जन सुराज पार्टी की घोषणा

2022 में उन्होंने अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी लॉन्च करने का संकेत दिया था। इसके बाद उन्होनें बिहार में लगभग 3000 किलोमीटर की पदयात्रा की और फिर 2 अक्टूबर 2024 को उन्होंने औपचारिक रूप से जन सुराज पार्टी की घोषणा की। इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में पहली बार उनकी पार्टी चुनावी मैदान में उतरी और इसी के साथ किशोर ने अपनी नई पारी का आगाज किया। लेकिन जनता के बीच उनकी पार्टी का जादू कुछ खास नहीं चल पाया।

क्यों नहीं चला जन सुराज का जादू ?

बिहार चुनाव के एग्जिट पोल सामने आने के बाद अधिकतर सर्वे में जनसुराज पार्टी को सिर्फ 2-3 सीटे मिलने की संभावना जताई गई थी। अब जब मतगणना के बाद शुरूआती रूझान सामने आ रहे है, इनमें भी जनसुराज पार्टी का खाता खुलता नजर नहीं आ रहा है। जनसुराज पार्टी की हार के पीछे एक बड़ी वजह ये है कि पार्टी ने अपनी स्थापना के एक साल के भीतर इस विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए।

बिहार की अधिकांश आबादी ग्रामीण है, लेकिन जन सुराज की पहुंच अभी भी उन इलाकों में सीमित रही है। माना जा रहा है कि ऐसे में कई ग्रामीण मतदाताओं ने पार्टी के चुनाव चिह्न और उम्मीदवारों को नहीं पहचाना होगा, जिससे जमीनी स्तर पर वोट ट्रांसफर नहीं हो सका। इसके अलावा पटना की राजनीतिक हलकों में कुछ लोगों का मानना ये भी हैं कि प्रशांत किशोर की रफ्तार ‘शुरुआती उत्तेजना’ के बाद ‘कम हो गई’। ऐसे में चुनाव के अंतिम चरण में लड़ाई NDA और महागठबंधन के बीच ही सिमट के रह गई।

 

 

 

 

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