भारत को प्राचीन काल में विदेशी यात्रियों द्वारा पुण्य भूमि, श्रेष्ठ भूमि, ज्ञान का कोषागार इत्यादि सम्बोधनों द्वारा भी जाना जाता था। यहाँ ज्ञान का असीम सागर था जिसमें अनेक प्रकार के ग्रन्थ-रूपी मोती हुआ करते थे। इस ज्ञान रूपी मोती को ढूढने और उसे पाने के लिये समय-समय पर कई विदेशी विद्वान/मनीषी यहाँ कठिन यात्रा कर आया करते थे और इस ज्ञान द्वीप से ज्ञान का प्रकाश पुंज प्राप्त कर अपने देश और नागरिकों को आलोकित किया करते थे।
इसी श्रृंखला में एक चीनी यात्री थे इत्सिंग, जो कि धार्मिक विद्वान और ज्ञान पिपासु थे। इन्हें भारत भ्रमण कर ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र लालसा थी। वे अपने जीवन-वृत्त में लिखते हैं कि मैंने 18 वर्ष की उम्र में निश्चय किया था कि मैं भारत भ्रमण कर बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करूंगा और 19 वर्ष पश्चात अर्थात् 37 वर्ष की अवस्था में भारत आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इत्सिंग 671 ई. में भारत के लिये अपने देश (चीन) से निकले थे और ताम्रलिप्ती (बंगाल) हुगली नदी के मुहाने में 673 ई. में पहुँचे थे। इत्सिंग नालन्दा में बहुत वर्षों (लगभग 10 वर्ष) तक रहे, बौद्ध धर्म सहित लगभग 400 ग्रन्थों का अध्ययन किया और उपयोगी ग्रन्थों को एकत्र किया, कुछ का अनुवाद किया और अपने देश ले गये।
स्वदेश वापसी के पूर्व इन्होंने अपनी लिखी हुई पुस्तक ‘नन–है–ची–कुएइ–नै–फा–चुअन ‘अर्थात् दक्षिणी सागर से स्वदेश भेजा हुआ भीतरी धर्म का वृतांत नाम से जानी जाती है, अपने देश एक बौद्ध भिक्षु के माध्यम से भेजा था। इस पुस्तक को इत्सिंग ने 40 परिच्छेदों में लिखा है जिसका अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य तात्कालीन विनय के नियम पर प्रकाश डालना और विहारों/चैत्यों के रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, औषधियों, पूजा पद्धति इत्यादि का वर्णन करना है।
लेकिन इस पुस्तक में वृतांत लिखते समय उन्होंने और भी तथ्यों का समावेश किया जैसे शासकों की जानकारी, प्रसिद्ध ग्रन्थों का समयकाल एवं रचियताओं की जानकारी, भारत देश की भौगोलिक स्थिती, समय नापने की तकनीक, विभिन्न विद्याओं के अध्ययन-अध्ययापन की प्रक्रिया इत्यादि की जानकारी भी दी, जिससे इतिहास ही नहीं अपितु हमारे देश की समृद्धता, ज्ञान, धार्मिक स्थिती की भी जानकारी होती है। यदि इस यात्रा वृतांत का गहराई से अध्ययन करें तो कई अनसुलझे और नवीन तथ्य सामने आ सकते हैं।
इत्सिंग की यह पुस्तक तात्कालीन उत्कृष्ट एवं जटिल चीनी भाषा में लिखी हुई है। इसका अध्ययन आसान नहीं था जब तक कि इसका सरल भाषा में भाषांतरण नहीं हुआ था। सर्वप्रथम इस पुस्तक का अनुवाद अँग्रेजी भाषा में प्रसिद्ध जापानी विद्वान जे. तकसुस ने ए रिकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रेलिज़न के नाम से किया और इस अँग्रेजी भाषा की पुस्तक का अनुवाद श्री संतराम, बी.ए. ने हिन्दी में इत्सिंग की भारत यात्रा के नाम से किया। श्री संतराम फारसी, हिन्दी और अँग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने ही जात-पात तोड़क मण्डल में दिये जाने वाले बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के भाषण को प्रकाशित कर वितरित किया था।
जैसा कि पूर्व में मैंने स्पष्ट किया है कि यह पुस्तक केवल यात्रा वृतांत नहीं है अपितु इसमें बहुआयामी ज्ञान का संकलन है, आपको इससे बहुत-से नवीन तथ्यों का पता चलता है। अतः इस पुस्तक के अध्ययन के दौरान मेरा ध्यान (चूंकि मैं वनस्पतिशास्त्र विषय का विद्यार्थी हूँ, शायद इसलिये) उस छठवीं शताब्दी में कौन-कौन सी वनस्पतियों का उपयोग किया जाता था, उस ओर केन्द्रित हुआ। मैंने पाया कि पूरी दिनचर्या में विभिन्न अवसर पर विभिन्न वनस्पतियों का विभिन्न रूप से उपयोग किया जाता था।
अनुवादक एवं भाषाशास्त्री श्री संतराम ने भाषांतर करते समय वनस्पतियों या पेड़-पौधों की सटीक एवं सही जानकारी के लिये प्रसिद्ध वनस्पति-शास्त्री प्रो. शिवराम कश्यप की सहायता ली थी, जिससे बहुत से पौधों की विस्तृत जानकारी के साथ-साथ उनके द्विनाम पद्धति के अनुसार वानस्पतिक नामों का उल्लेख भी किया गया है जिससे पौधों की जानकारी सत्यापित हो जाती है। आइये भारत में छठवीं शताब्दी में उपयोग होने वाले पौधों से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान की विवेचना करते हैं और हमारे वर्तमान पारम्परिक ज्ञान एवं आधुनिक ज्ञान को परिष्कृत करने की कोशिश करते हैं।
सबसे पहले दो ऐसे वृक्षों की जानकारी लेते हैं जिनका उल्लेख इत्सिंग ने पूरी पुस्तक में बहुत सी जगहों पर किया है। वे हैं – शाल वृक्ष एवं कल्प वृक्ष। शाल वृक्ष उस समय बहुत ही पवित्र समझा जाता था। इसका रोपण प्रायः सभी स्थानों पर किया जाता था। ये वनों के प्रमुख वृक्ष हुआ करते थे। इसके नीचे भिक्षु ध्यान लगाया करते थे। तालाबों के चारों ओर भी इस वृक्ष के रोपण करने की प्रथा थी। वर्तमान में इस को साल वृक्ष (Shorea robusta) के नाम जाना जाता है और आज भी साल-वन हमारे देश में बहुतायत रूप से मिलते हैं।
वर्तमान में इसके बीजों का उपयोग अत्यधिक किया जाता है। इसके बीजों में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अत्यधिक होती है। दूसरा वृक्ष है कल्प वृक्ष, इसका धार्मिक महत्व छठवीं शताब्दी के पूर्व से ही अत्यधिक था। इसमें औषधीय गुण भरपूर होते हैं और ऐसा माना जाता था कि इससे ऐच्छिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है। पुराणों में भी इस वृक्ष की महिमा का वर्णन करते हुये कहा गया है कि यह देवलोक का वृक्ष है और यह समुद्रमंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से एक रत्न कल्प वृक्ष था। इत्सिंग लिखते हैं कि नालन्दा के भिक्षुओं को दानपतियों के द्वारा आतिथ्य सत्कार के पश्चात इस वृक्ष को दान देने की प्रथा थी। वर्तमान में यह वृक्ष बहुत से स्थानों पर है लेकिन इनकी संख्या कम है। ऐसा माना जाता है कि इसकी आयु बहुत अधिक होती है, ग्वालियर के पास कोलारस में भी एक कल्प वृक्ष है जिसकी आयु 2000 वर्ष से अधिक मानी जाती है।
दैनिक दिनचर्या में शरीर की साफ-सफाई एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। छठीं शताब्दी में साबुन इत्यादि का अविष्कार नहीं था। ऐसे में वहाँ के भिक्षुगण हाथ एवं बर्तन धोने के लिये मटर का आटा उपयोग में लाते थे। जबकि आज मटर (Pisum sativum) को हम भोज्य पदार्थ के रूप में उपयोग लाते हैं। इसी कड़ी में इत्सिंग हमें जानकारी देते हैं कि दांतो की सफाई के लिये दातौन का उपयोग किया जाता था जो कि विभिन्न पौधों से प्राप्त होती थी जैसे ईल्म (Ulmus sp.) के वृक्ष की शाखायें, ब्रह्मदारू (Paper mulbery) सफोरा (Sophors japonica) खुरखुरी की जड़ (Northen Burr Wood) इत्यादि। जबकि वर्तमान में बबूल, नीम, करंज इत्यादि का दातौन के रूप में उपयोग किया जाता है।
बिहार के सामान्य भोजन एवं आतिथ्य भोजन के लिये कौन से धान्यों, फलों और सब्जियों का उपयोग किया जाता था, इत्सिंग इनका भी वर्णन करते हैं। वे लिखते हैं कि धान्य के रूप में चावल, जौ, भुना हुआ मक्के का आटा, चावल और जौ का सत्तू, गेहूँ एवं बाजरे का आटा, मटर की उबली खिचड़ी का उपयोग करते थे। सब्जियों के लिये आलू-कचालू आदि जमीन के अंदर लगने वाले कंद, रामतुरई, वनचिंग (एक प्रकार का शलजम, Brassica rapa) खतमी या गुलखैरू (Holly hock , Alcea sp.) इत्यादि का उपयोग किया जाता था (यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आलू और मक्के का वर्तमान में प्रामाणिक इतिहास यह कहता है कि ये भारत में लगभग 600 वर्ष पूर्व से ही उगाये जा रहें हैं। अतः यह विचारणीय एवं शोध का विषय हो सकता है कि इत्सिंग का दिया गया विवरण सही है या प्रामाणिक शोध)।
नालन्दा विहार के भिक्षुओं को अतिथी के रूप में भोजन पर आमंत्रित करने पर सबसे पहले सुपारी एवं मुस्तक या नागरमोथा से मिश्रित तेल दिया जाता था (नागरमोथा का उपयोग बौद्ध धर्म की एक प्रसिद्ध प्रथा – पवारणा प्रक्रिया में भी इसका उपयोग किया जाता था) एवं भोजन के पूर्व अदरक (Zinger) के छोटे टुकड़े नमक के साथ परोसे जाते थे जिससे क्षुधा में वृद्धि हो। भोजन के पश्चात सुपारी, जायफल, लौंग और कर्पूर का मिश्रण सभी अतिथीयों में बांटा जाता था जिससे भोजन सुपाच्य हो जाता था और कफ भी दूर हो जाता था। वर्तमान में इसी परम्परा का निर्वाह दूसरे प्रकार से किया जाता है।
यदि कोई अतिथि नालन्दा विहार में आते हैं तो उन्हें पेय देने का भी प्रचलन था। इत्सिंग लिखते हैं कि पेय या शर्बत को पान के नाम दिया गया था, ये आठ प्रकार के होते थे जो विभिन्न फलों से बनाये जाते थे। ये आठ पान हैं –
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चोच पान : यह फल्लीदार पौधा चोच (Gleditchia sinessis) से बनाया जाता था जो भारतीय एवं चीनी चिकित्सा पद्धति में औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। इसका स्वाद खट्टा होता है। वर्तमान समय में इस पौधे को जीवाणुरोधी, एचआईवीरोधी एवं कैंसररोधी के रूप में प्रयोग किया जाता है।
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मोच पान : चीनी पयियाओ या मोच केला नाम के पौधे से बनना बताया गया है। लेकिन भाषांतरण में कौन सा पौधा है स्पष्ट नहीं हो पाया।
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कुलक पान : यह भी किस प्रकार से बनता है अनुवाद में स्पष्ट नहीं है।
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अश्वत्थ पान : यह बोधि वृक्ष के फल से तैयार किया जाता था।
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उदुंबर पान : इसका भी स्पष्ट वर्णन नहीं किया गया है लेकिन अनुवादक ने अनुमान लगाया है कि यह गूलर (Ficus racemosa) हो सकता है।
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परूसक पान : ये जंगली अंगूर (Vitis labrusca) की प्रजाति के फलों से बनायी जाता था। वर्तमान में इस पौधे का उपयोग शरीर की प्रतिरोध क्षमता एवं शराब बनाने में किया जाता है।
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मृध्विका पान : इसे सामान्य अंगूर से बनाया जाता था।
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खर्जूर पान : इसे ईरानी खजूर (Phonex dactylifera) से बनाया जाता था।
इत्सिंग ने नालन्दा विहार में भिक्षुओं के द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का भी वर्णन किया। वे लिखते हैं कि सन या कपास के रेशे से वस्त्र बनाये जाते थे और उनको रंगा भी जाता था। रंगक प्राप्त करने के लिये रहमानिया ग्लूटिनोसा (Rehmania glutonosa) पड़ौक या निएह वृक्ष (Pterocarpus indicus) जंगली नाशपाती (Purus pyraster) इसके अलावा शहतूत की छाल एवं खजूर का भी उपयोग किया जाता था।
ये जानकारी आज के समय में अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आज डाई के रूप में हम विभिन्न रसायनों का उपयोग करते हैं जो एक विनाशक जल प्रदूषक है। यदि हम प्राकृतिक रंगों का उपयोग करें तो शायद हम जल प्रदूषण बहुत कुछ कम कर सकते हैं। इसके अलावा पैंकिग के कपड़े, कालीन, दरियाँ, परदे, कागज इत्यादि बनाने के लिये पटुवा या पटसन (Corcorus capsularis) का उपयोग किया जाता था।
इत्सिंग ने एक अन्य रोचक जानकारी का वर्णन किया है कि बालिश या सिरहाना के लिये पटुवा के कपड़ों को थैलानुमा सिला जाता था और उसमें सन के टुकड़े, घास (Typha latipholiap) चीनी तुरही बेल (Tecoma grandiflora) की कोमल पत्तियाँ, लोबिया (cow pea, Vigna unguculata) इत्यादि को भरा जाता था। जबकि वर्तमान समय में बालिश या सिरहाना के लिये कपास का उपयोग भी कम हो गया है और हम सिंथेटिक फोम का उपयोग करते हैं। हम चाहे तो इन संश्लेषित वस्तुओं का उपयोग ना कर, प्राचीन समय के समान प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग दैनिक जीवन में कर सकते हैं।
इत्सिंग एक महत्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख भी करते हैं कि भगवान बुद्ध ने पॉंच फलों के उपयोग की आज्ञा दी थी जिनका विभिन्न प्रयोजन में उपयोग किया जा सकता है। ये पॉंच फल हैं – हरितक या हर्रा (Terminalla chebula) विभितक या बहेड़ा (Terminalla bellerica) आमलक या ऑंवला (Phyllanthus embelica) मरिच या कालीमिर्च (Piper nigram) और पिंप्पली या पीपर (Piper longum)। इत्सिंग ने यह भी जानकारी दी कि इसके अतिरिक्त दो पौधों का प्रयोग भी बहुतायत किया जाता था – कपूर (Cinnamocum camphora) एवं केसर (Crocus sativus)।
छठवीं शताब्दी में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति अपने चरम पर थी। चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता जैसे आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना हो चुकी थी। इसलिये प्रत्येक रोग के लिये चिकित्सा प्रक्रिया निर्धारित थी। फिर भी इत्सिंग ने सामान्य अवस्था में या कहें नियमित दिनचर्या में अस्वथ्य होने पर कौने-कौने से पौधों का किस प्रकार उपयोग किया जाता था इसका भी संक्षिप्त में वर्णन किया है। वे लिखते हैं कि सोंठ (Zimgiber officinale) को गर्म पानी में पीने से या हरीतक की छाल, सोंठ और चीनी का घोल बनाकर पीने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
वे कहते हैं कि यहाँ ऐसी मान्यता है कि हरीतक का टुकड़ा दांतों से काटे और उसके रस को निगले तो जीवन पर्यंत कोई रोग नहीं होता है। उपवास के बाद मसूर का जल किसी मसाले के साथ पीना लाभप्रद होता है। यदि ठंड लगती है तो काली मिर्च, अदरक या पिंप्पली के साथ जल पीना चाहिये। ज्वर होने पर हिमालय जिनसेंग (Aralia quinque) का काढ़ा पीने से ज्वर ठीक हो जाता है। इत्सिंग जिनसेंग पौधे के बारे में लिखते हैं मुझे अपनी जन्मभूमि छोड़े 20 वर्ष से अधिक बीत गये।
जिनसेंग का क्वाथ ही मेरे शरीर की औषधि रही और मुझे कदाचित ही कोई गंभीर रोग हुआ। जुकाम होने पर काशगरी प्याज (पलांडु) या जंगली राई का उपयोग किया जाता था। सांप के काटने पर रेवंद (Gambose, Garcinia hambury) का प्रयोग किया जाता था। इसे वस्त्रों के रंगने भी उपयोग में लाते थे। मलेरिया ज्वर को शांत करने के लिये मुलेठी (Glycyrrhiza glabra) का उपयोग होता था। इस प्रकार और भी बहुत से पौधे थे जिनका उपयोग किया जाता था, यहाँ सभी का वर्णन करना संभव नहीं है।
नालन्दा विहार में पूजा के लिये फल, फूल और सुगंध के लिये भी बहुत से पौधों का उपयोग करते थे। इत्सिंग ने संक्षिप्त में इसका वर्णन किया है। सुगंध के लिये चंदन या एलवा को घिस कर उपयोग करते थे। फल-फूल के लिये कमल, स्वर्ण कंटक या स्वर्ण चम्पा (Michelia Champaca) आड़ू (Prunus persia) खूबानी, गुलखैरा (Holly hock, Alcea sp.) इत्यादि अत्यधिक मात्रा में उपयोग लाये जाते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कैसे प्राचीन काल से हमारे देश में सामान्य पौधों को दिनचर्या मे शामिल किया जाता था। इस पुस्तक के प्राक्कथन में श्री संतराम कहते हैं कि ज्यादा अच्छा होता कोई भाषा-शास्त्रीय इस मूल पुस्तक का चीनी भाषा से हिन्दी भाषा में अनुवाद करता तो इस पुस्तक के बहुत से तथ्य और अधिक स्पष्ट होते। लेकिन पुस्तक का हिन्दी अनुवाद श्री संतराम द्वारा किया गया जो अनुकरणीय और यशयोग्य है।
अन्यथा मुझ जैसे कितने ही इस अनुपम, श्रेष्ठ, ज्ञान-केन्द्रित कृति के अध्ययन का लाभ नहीं उठा पाते। अतः हमारे विद्वान भाषाशास्त्रीयों को अथक परिश्रम कर ऐसी अन्य भी कृतियों का भाषांतरण करना चाहिये जिससे इसका लाभ सामान्य-जनों को भी मिल सके। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जिस प्रकार इस कृति के अध्ययन करते समय मेरा ध्यान वनस्पतियों पर केन्द्रित हुआ, वैसे ही अन्य विषयों के ज्ञाता इसके अध्ययन करने पर नवीन तथ्यों की विवेचना या शोध विचारण कर सकते हैं या फिर स्थापित तथ्यों को पुनर्विचार के लिये प्रस्तुत कर सकते हैं।
जैसे इस पुस्तक की भूमिका में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह जो अंतर्राष्ट्रीय ख्यात भाषा वैज्ञानिक एवं इतिहास मर्मज्ञ हैं, लिखते हैं कि चारो वेदों में 22443 श्लोक हैं। आश्चर्य होता है इत्सिंग ने श्लोकों की संख्या 1,00,000 बतलाई है। इसी प्रकार इत्सिंग ने भर्तृहरि शास्त्र का उल्लेख किया, उसमें श्लोकों की संख्या 25000 बताई है, लेकिन भर्तृहरि को इत्सिंग बौद्ध बताते हैं। मूल चीनी पाठ के बगैर जाँचे इसका निराकरण संभव जान नहीं पड़ता। इस प्रकार बहुत-से तथ्य हैं जिनका विश्लेषण कर शोध किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है।
आशा है भविष्य में इस कृति पर और अधिक विस्तृत अध्ययन होगा और हमारी श्रेष्ठ भूमि के ज्ञान-कोषागार से अमूल्य ज्ञानरूपी संपत्ति प्राप्त कर हम सब और भी समृद्ध होंगे।
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