पलटते पृष्ठ के आखिरी हर्फ़ : रतन टाटा, मनमोहन सिंह और जाकिर हुसैन का जाना
जाते-जाते वर्ष 2024 तीन ऐसे दिग्गजों को हमसे छीन ले गया, जो अपने-अपने क्षेत्र के शिखर पुरुष थे और जिन्होंने अपनी विद्वता और योग्यता से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई थी। ‘रतन टाटा’ उद्योग जगत के शिखर पुरुष थे, ‘जाकिर हुसैन’ तबला और ‘डॉ. मनमोहन सिंह’ अर्थशास्त्र के विद्वान थे। उद्योग के निर्मम और मूल्यरहित जगत में रतन टाटा ने व्यवसाय के समानांतर मानवीय मूल्यों की गरिमा बनाए रखी, यह कोई मामूली बात नहीं थी। उनकी सादगी बेमिसाल थी और कई ऐसे अवसर आए जब सामाजिक दायित्व के प्रति उन्होंने संवेदनशीलता का परिचय दिया। उनकी संवेदना का विस्तार मानवेतर प्राणियों तक था। उद्योग जगत में ऐसे उदाहरण नहीं मिलते। राजनीति का क्षेत्र भी काजल की कोठरी ही होती है। कूटनीति और छल-छद्म की काई भरी राह पर बिना फिसले चलना आसान नहीं होता।
मनमोहन सिंह अर्थशास्त्र के विद्वान थे, प्राध्यापक थे, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने और कई प्रकार की संस्थाओं के सदस्य रहें। यह देश का बहुत बड़ा सौभाग्य था कि एक कठिन घड़ी में उनके जैसे एक विद्वान व्यक्ति ने वित्तमंत्री का पद संभाला। आगे चलकर प्रधानमंत्री भी बने और अपने शासन काल में कई ऐसी योजनाएं दे गए जो मील का पत्थर प्रमाणित हुईं। बिना किसी प्रचार के मौन भाव से काम करते जाना उनके निष्कपट, निर्लोभी चरित्र को दिखाता है। राजनीति में ऐसे विद्वान और सरल व्यक्तित्व अब विरल ही हैं। जाकिर हुसैन भी एक निष्णात तबला वादक होने के साथ अपने व्यक्तित्व की विनम्रता के कारण अलग पहचान रखते थे।
ताल को सबसे बड़ी पूजा मानने वाले संगीत के आराधक जाकिर हुसैन का व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति के ताने बाने से निर्मित था जहाँ किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं थी – उदाहरण के तौर पर शिव के डमरू, राधा कृष्ण की लीला आदि पर आधारित उनके वादन को देखा जा सकता है। उन्होंने संगीत की भारतीय परम्परा को निर्द्वन्द्व भाव से आत्मसात किया था और अपने को सरस्वती और गणेश के उपासक मानते थे। शास्त्रीय संगीत को व्यावसायिक संगीत से परे रखते हुए उसे लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया। संगीत जगत के वे विलक्षण व्यक्तित्व थे, संगीत से परे भी जिनका व्यक्तित्व किसी भी समय के लिए प्रेरक हो सकता है।
…क्या ही संयोग है कि इन तीनों के व्यक्तित्व में कुछ समानताएं थीं, जिनके कारण इनकी अलग पहचान बनी और जनमानस से अपार आदर मिला। वह थी इनकी सादगी, सरलता और अहंकार रहित व्यक्तित्व। यांत्रिक हो रहे समय और समाज के बाजारीकरण ने दुर्भाग्य से ये तीन अनमोल गुण हमसे छीन लिए हैं – अज्ञेय की शब्दावली में कहा जा सकता है कि ‘देवता इन प्रतीकों से कर गए हैं कूच’।
नया वर्ष 2025…देखते ही देखते नई सदी ने एक चौथाई यात्रा पूरी कर ली…कह सकते हैं कि अब वह युवा है – प्रौढ़ता की ओर अग्रसर और वयस्क भी। पीछे मुड़कर देखने पर पता चलता है कि पच्चीस साल पहले धूम-धड़ाके के बीच जब नई सदी ने कदम रखा था तो न एंड्रॉयड मोबाइल था, न व्हाट्सएप्प, इंस्टाग्राम, एक्स, ट्वीटर, पोस्ट आदि शब्द हमारे तत्कालीन जीवन में शामिल हुए थे। अर्थात सोशल मीडिया के विभिन्न रूप व शब्दावली से हमारा पूरी तरह से सामना नहीं हुआ था – हालांकि संचार क्रान्ति हो चुकी थी और अंतर्जाल (इंटरनेट) के माध्यम से सूचनाएं बहुत तेजी से हमारे जीवन में प्रवेश कर गई थीं। एक नई दुनिया के हर्फ़ पृष्ठ-दर-पृष्ठ हमारे सामने खुलने लगे थे… संचारात्मक स्तर पर पूरी दुनिया छोटी हो गई थी और लोग आश्चर्य से देख रहे थे कि कैसे पलक झपकते सूचनाएं विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंच रही हैं।
उदारवाद की नीतियों से पोषित और बाजारवाद से संचालित, वैश्ववीकरण और संचार क्रान्ति के पंखों पर सवार हो नई सदी हमारे बीच आई। एक दशक बीतते-न-बीतते ही इसका स्वरूप आकार लेने लगा। यह एक नई दुनिया थी, जहाँ मूल्य तेजी से बिगड़ और बन रहे थे। बाजार का प्रसार देशों की हदों को पार करने लगा था और दुनिया निरन्तर छोटी होती जा रही थी। बाजार के मूल्य जीवन के मूल्य बन गए थे। कभी साप्ताहिक रूप से लगने वाले बाजार देर रात में खुले रहने वाले मॉल से होते हुए हमारे बेडरूम में प्रवेश कर गए और उंगलियों से संचालित होने लगे।
भारत के संदर्भ में देखें तो इस बीच राजनीति में भी बड़ा बदलाव आया। नब्बे के दशक में जिस उदारीकरण की व्यवस्था को हमने स्वीकारा उसके चलते कारपोरेट सेक्टर को काफी बढ़ावा मिला। निश्चय ही ये नीतियां असमानता को बढ़ाने वाली थीं। इसी असंतुलन को साधने के प्रयास में तब के प्रधानमंत्री – जो कि स्वयं एक बड़े अर्थशास्त्री भी थे – मनरेगा, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और खाद्य-सुरक्षा आदि योजनाओं को लागू कर राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप को बनाए रखने के प्रयास में सजग भी दिखे। पूँजीपति वर्ग की तरफ झुकाव के बावजूद यूपीए सरकार की जो विरासत थी उसकी एक पक्षधरता आम जन के प्रति भी थी, तमाम वैश्विक दबावों के बावजूद एक सीमा से आगे बढ़कर उसकी अवहेलना उसके लिए संभव नहीं थी। इसलिए यह अनायास नहीं था कि यूपीए सरकार के विरुद्ध जो आन्दोलन चलें, उसका एक वैश्विक पहलू भी था। आज यह तथ्य स्पष्ट है कि जिन आरोपों को मुद्दा बनाकर 2014 का चुनाव लड़ा गया था, उनमें से अधिकतर अनुमानित या छद्म ही प्रमाणित हुए।
2014 के बाद स्थितियां बड़ी तेजी से बदलीं। संचार क्रान्ति तो पहले ही शुरू हो चुकी थी, उसका एक और नया दौर आया। दुनिया अब मुट्ठी में ही नहीं आ गई थी, बल्कि उंगलियों की ताल पर नृत्य करने लगी थी। बैंकिंग सेवाओं से लेकर क्रय-विक्रय और भुगतान तक, बहुत कुछ उंगलियों की पोर से होने लगा। छोटी से बड़ी, यहाँ तक कि भोज्य सामग्री तक हमारे दरवाजे पर पहुंचने लगीं। नतीजा यह हुआ कि सामाजिकता से लोग दूर होने लगें। व्यक्तिवाद से व्यक्ति-केंद्रित होते हुए लोग आत्म-केंद्रित होते चले गए। और फिर आया कोरोना का वैश्विक कहर जिसने सांसों पर पहरे लगाए और पांवों के नीचे लक्षमण-रेखा खींच दीं। जो कुछ भी छूट रहा था, वह सब भी उंगलियों की जद में आ गया। पठन-पाठन, स्वास्थ्य-सेवा, सेमिनार, गोष्ठी, कविता-पाठ, विमर्श आदि-आदि बहुत सी चीजें, जिनके वर्चुअल होने की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी – वे सब भी उंगलियों के स्पर्श से स्क्रीन पर साकार होने लगीं।
तो कहा जा सकता है कि यह जो सदी है, यह संचार की सदी है। और अब जबकि यह सदी परवान चढ़ चुकी है तो अपने पच्चीसवें वर्ष में कृत्रिम मेधा की दस्तक के साथ प्रवेश कर रही है। कृत्रिम मेधा – मानवीय मेधा का चरम रूप जो सभ्यता के सारे उपकरणों में आमूल-चूल परिवर्तन की संभावनाओं और मानवीय मेधा की क्षमताओं के उल्लंघन की आशंकाओं के साथ उपस्थित है। इसके साथ भविष्य की एक नितांत नई रूपरेखा अपने कल्पनातीत रूप में हमारे सामने है, जिसके बारे में हम नहीं जानते कि इसका वास्तविक स्वरूप क्या होगा।
ये सब तो वे बदलाव हैं जो ऊपरी स्तर पर घटित हो रहे हैं, किन्तु सभ्यता के बदलते स्वरूप के साथ सामाजिक स्तर पर भी बहुत कुछ घटित हो रहा है और संस्कृति में नई सलवटें दिखाई पड़ रही हैं। संस्कृति उच्चतर मानवीय मूल्यों का समन्वय होती है, पर सभ्यता के बाजारीकरण और यंत्रीकरण के साथ जो मानवीय मूल्य ध्वस्त हो रहे हैं उसे तो विसंस्कृति के रूप में ही परिभाषित किया जा सकता है।
अज्ञेय की एक उल्लेखनीय कविता है जहाँ वे लिखते हैं कि ‘बासन घिसने से मुलम्मा छूट जाता है’ और यह भी कि ‘ये उपमान मैले पड़ गए हैं/ देवता इन प्रतीकों से कर गए हैं कूच’। नई बदलती स्थितियों के बीच कवि को नए प्रतीकों और उपमानों की जरूरत महसूस होती है। सच है कि इक्कीसवीं सदी बदलाव की तीव्र से तीव्रतर होती प्रक्रिया से गुजर रही है। बदलती परिस्थितियों के बीच युवा मानस भी बदल रहा है। उनकी भाषा, उनकी शब्दावली बदल रही है। परिवर्तन तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह न हो तो जिन्दगी थम जाए। किन्तु चिंतनीय है इस बदलाव की दिशा। यह भी देखने की बात है कि इस भाषा व शब्दावली पर बाजार का कितना असर है।
कभी सेरिडॉन की गोली, वाशिंग पाउडर निरमा, विक्स की गोली, बिनाका पेस्ट या विको टरमरिक आयुर्वेदिक क्रीम का प्रचार बरसों तक चला था। पर अब उत्पादों की बेशुमार बढ़ती संख्या के साथ बाजार को हर पल कुछ नया चाहिए। उत्पाद नित नए रूप लेकर आ रहे हैं। इनके प्रचार के लिए और बाजार में जगह बनाने के लिए भाषा का चमत्कारिक होना जरूरी है। शालीन या शिष्ट भाषा अब युवाओं को आकृष्ट नहीं करती। कभी यह चमत्कार अलंकारों के प्रयोग से आता था, अब इसके लिए उत्तेजक और अश्लील होना आवश्यक हो गया है। आम युवा या छात्र वर्ग की भाषा सुनें, गालियों के बिना उनकी बात पूरी ही नहीं होती।
राजनीति में यह उच्छृंखलता अपने वीभत्सतम रूप तक पहुंची हुई है और वहाँ से रिसकर एक व्यापक वर्ग को उसने अपनी जद में ले लिया है। फ़िल्म और साहित्य जगत भी इससे अछूता नहीं है।
राजनीति की राह सीधी नहीं होती, वह हमेशा से कूटनीति में प्रश्रय पाती रही है। किन्तु उसकी कूटनीति पर एक आवरण तो रहता है। एक आवरण तले वह अपने पांव जमाती है और अपने को विस्तारित करती है। यह आवरण मूल्यों के आदर का एक भरोसा तो दिलाता है। किन्तु बाजार में अंतरंग और देह के लगातार नग्न होने के साथ राजनीति भी लगातार नंगी होती जा रही है। अपनी क्षुद्रताओं, हथकंडों, झूठ और असंवैधानिक आचरणों के लिए वहाँ अब कोई लिहाज नहीं रह गया है। वह खुलकर अपना खेल खेल रही है, पूरी विद्रुपता और निर्लज्जता के साथ। जनमानस को भी आम बयानों में कोई रुचि नहीं रह गई है, जब तक कि वहाँ कुछ उत्तेजक या भड़काऊ न हो। इसलिए भाषा की अश्लीलता और आचरण की विद्रुपता लगातार बढ़ रही है और धीरे-धीरे जीवन के हर क्षेत्र में प्रसरित होती जा रही है।
यह समय छवियों है। अब छवि ही ध्यान आकृष्ट करते हैं, छवि के बिना शब्दों का कोई मोल नहीं। सोशल मीडिया पर यदि आप कुछ लिखकर डालते हैं तो लोगों का ध्यान नहीं जाता, किन्तु कोई निरर्थक सी तस्वीर भी डाल दी जाए तो ढेर सारे कमेंट्स आने लगते हैं। इस छवि के भी कई कई रूप हैं। मोबाइल और कैमरा में अब फ़िल्टर की पद्धति आ गई है जो तस्वीर को सम्पादित कर उसे सुंदर बना देती है। यह पद्धति कैमरा की ही नहीं, जीवन की भी बन गई है। मीडिया जगत से लेकर जीवन, साहित्य, कला, राजनीति – हर जगह छवि बनाने का उपक्रम चल रहा है। यह छवियों के गढ़ने का समय है। नतीजा – जो छवि सामने है, वह कितनी सही है और कितनी छद्म, यह निर्णय करना कठिन हो गया है।
किसी भी चीज में जब बाजार शामिल हो जाए तो उसमें प्रसंस्करण और परिष्कार जरूरी हो जाता है। उसकी अपनी मौलिकता खत्म हो जाती है। छवि बाजार की रीढ़ है। पहले छवि तैयार की जाती थी और लोग जानते थे कि यह सब बनावटी है। पर अब इसमें वास्तविक चरित्र शामिल हो गए हैं। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि इस छवि को गढ़ने के लिए बड़े पैमाने पर लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। ऐसे में आशंका होती है कि क्या इतिहास अब इन्हीं छवियों से निर्मित होगा? ऐसे समय में जो खामोश है, जो निश्छल है, उसके पीछे छूट जाने की संभावना बहुत अधिक है। सच तथ्य नहीं, प्रचार पर आश्रित है क्योंकि सच को सीधे देखने की दृष्टि कमजोर पड़ गई है। अंधी दौड़ में शामिल लोगों के पास इसे देखने की न दृष्टि है, न इच्छा शक्ति और न ही वक्त। बने बनाए फास्ट फुड की तरह सच के भी बाजारी संस्करण उपलब्ध हैं।
राजनीतिक पक्षधरता के साथ ऐसे ऐसे घटिया दुष्प्रचार भी किए जा रहे हैं, विवेक का तनिक सा प्रयोग कर जिसे चुटकियों खारिज किया जा सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि संचार माध्यमों की इसमें कितनी बड़ी भूमिका है। सूचनाएं सच तक पहुंचने की राह हुआ करती हैं, पर इनके अतिरेक ने ऐसा जाल बना दिया है जहाँ सच तक पहुंचने की राह कठिन हो गई है। संचार माध्यमों के परों पर सवार सूचनाएं निराधार-सी हवाओं में तैर रही हैं। वे अपना आधार खो चुकी हैं। इनके अतिरेक ने सच को भ्रमित कर दिया है। सूचनाओं के अतिरेक के इस समय में सच की राह बड़ी मुश्किल है। सच अब अपने पांवों पर चलकर नहीं आता। सच्चाई यह है कि जो जितना अधिक प्रचारित है, वही उतना बड़ा सच है। बड़बोलेपन के शोर से समूचा परिवेश आच्छादित है। अश्लीलता और अभद्रता आज की भाषा बन गई है।
कहा जाता है कि बीसवीं सदी का मध्यवर्ग छद्म जीता था। उसमें हिप्पोक्रेसी थी। आज की पीढ़ी बिंदास है। वह खुलकर जीती है, बिना किसी लाग लपेट के। बिंदास होना व्यक्तित्व की निश्छलता का परिचायक हो सकता है, किन्तु एक सीमा के बाद यह निर्लज्जता में परिणत हो जाता है। तो यह एक निर्लज्ज समय है। आवरण का होना मूल्यों के प्रति आदर भाव को दर्शाता है। ‘यूज एंड थ्रो’ के समय ने ऐसे हर मूल्य को निर्ममता से निकाल फेंका है, जो बाजार की राह में बाधक हैं। निश्छलता निर्लज्जता का बाना पहन पूरी धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है। पारम्परिक मूल्यों की चिंदी-चिंदी करती यह पीढी एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी है, जहाँ पारदर्शिता नग्नता में परिणत है।
समय के साथ मूल्यों का स्वरूप बदलता है, यह सच है। बावजूद इसके कुछ मूल्य हैं, जो मनुष्यता की मूलभूत पहचान हैं और इसलिए शाश्वत हैं। सादगी, विद्वता, विनम्रता और दूसरों के लिए आदर भाव – ये कुछ ऐसे ही मूल्य हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि वर्तमान समय की तमाम विसंगतियों के बावजूद इन तीनों व्यक्तियों को जन मानस से अपार सम्मान मिला।
ये तीनों व्यक्तित्व इस सदी के पलट रहे पृष्ठ के आखिरी हर्फ हैं। इनके साथ थिर विचार वाली एक समूची पीढी विदा ले रही है। इनका जाना मानो नई सदी से शालीनता, भाषाई मर्यादा और मानवोचित गरिमा का अंतिम रूप से विदा होना है। रतन टाटा, जाकिर हुसैन और मनमोहन सिंह व्यापार जगत, कला जगत और राजनीति जगत के ऐसे महारथी थे, जिन्होंने अपनी मेहनत व समर्पण के बल पर शिखर पर पहुंचे थे, बावजूद इसके वे अहंकार से बिल्कुल अछूते, व्यवहार से दूसरों के प्रति मानवीय गरिमा से भरे एवं जीवन में एकदम सरल थे और बड़बोलेपन से कोसों दूर थे। ऐसे व्यक्तित्व आज के समय में दुर्लभ ही हैं।
तो क्या यह संस्कृति से सादगी, सरलता और विद्वता के पूर्ण विदा का संकेत है?
बदलते समय के साथ विनम्रता, सरलता, सौम्यता, विद्वता आदि मूल्यों को प्रतिस्थापित करते हुए उनकी जगह झूठ, दिखावा, निर्लज्जता, बड़बोलेपन ने ले ली है। यह संस्कृति का अवमूल्यन है। हमारी सदी इसी अवमूल्यन से आक्रांत है। जीवन की बुनियादी चिंताओं और सरोकारों एवं जरूरी प्रश्नों की जगह ऊपरी (बाहरी) चमक-दमक, दिखावा, बड़बोलापन एवं आडम्बर व पाखंड ही लोकप्रियता के मानदंड बन गए हैं। किन्तु यह सब क्षणिक कौंध ही हैं। स्वतः मान तो उन्हें मिलता रहेगा जो मानवीय गुणों से युक्त होंगे।