कभी फेर कर, कभी घेर कर
उसे मैं स्नातक के प्रथम वर्ष से जानती हूँ। मेरी क्लास में सबसे आगे बैठता था। आत्मविश्वास से भरा खुशनुमा चेहरा, हर सवाल का जवाब देने के लिए सर्वदा तत्पर। विषय प्रवर्तन के बीच भी उसके सवाल आ जाया करते थे। मुझे किसी की अभिव्यक्ति रोकना कतई पसन्द नहीं। गाँव-कस्बे या पारंपरिक परिवारों के बच्चों को यूँ भी सर्वदा बड़ों के आज्ञापालन के दबाव में रहना होता है। अपार्टमेंट के माहौल में रहने वाले बच्चे कम से कम आपस में खेलते-बतियाते हैं और सामूहिकता का न्यूनतम बोध अर्जित कर पाते हैं। मगर द्वीपनुमा एकल परिवारों में भाई-बहन के साथ से वंचित बच्चे अक्सर अन्यों की इच्छाओं का अनुगमन करने के लिए बाध्य होते हैं।
उनकी संजीदा भावनाओं को भी बालपन या किशोरावस्था की नादानी या नई पीढ़ी के ‘बिगड़ने’ के खाते में डाल दिया जाता है। हमारे परिवारों या संस्थाओं में कहीं भी परिवेश बच्चों के स्वाभाविक विकास के अनुकूल नहीं है। इस वजह से बोलते बच्चों की आवाज़ को अवरुद्ध करना मुझे गुनाह सरीखा लगता है। लेकिन प्रश्नोत्तर के मौके अति-वाचाल लोगों के ही कब्ज़े में रहें, यह भी अन्य शिक्षार्थियों के प्रति अन्याय है। शुरू में अधिकतर शिक्षार्थी कुछ संकोची होते हैं और शिक्षकों की कोशिशों और सहयोग से ही खुद को व्यक्त करना सीखते हैं। ऐसी कोशिशों में उसकी वाचालता बाधक होती थी। एक बार हिचक टूटने और हर क्लास में बार-बार बोलते जाने से भाषा और बोलने का अंदाज निखरते जाना स्वाभाविक ही है। लेकिन इसका विपरीत परिणाम यह होता कि संकोची बच्चे खामोशी के खोल में और अधिक सिमटने लगते। काफी कोशिशों से धीरे-धीरे इस चुनौती का समाधान हो सका कि हाजिरजवाब लोगों के साथ अन्य सब भी अपने को अभिव्यक्त करने लगे।
वह अपनी मुखरता के चलते तेजी से कॉलेज में पॉपुलर होने लगा था। साहित्य के अध्ययन ने उसे रचने की और प्रेरित किया और उसने लिखना भी शुरु कर दिया। काव्य-पाठ, आशु-भाषण, युवा-संसद जैसी सभी गतिविधियों में वह संचालक या भागीदार की भूमिका में होता और खूब तालियाँ बटोरता। इस समय के ‘सोशल मीडिया’ के आसानी से उपलब्ध मंचों ने अल्पावधि में ही उसकी लोकप्रियता को ऐसी उड़ान दे दी कि अक्सर ही वह तरह-तरह के मंचों पर सक्रिय दिखता, वाहवाहियाँ बटोरता हुआ। उसकी शख्सियत, व्यक्तित्व, अभिव्यक्ति और प्रस्तुति आकर्षक थे और श्रोताओं को बांधे रखना वह जानता था, उन्हें एक लय में पिरोना भी। मगर वह अल्पायु में ही साहित्यिक हलके में और अन्यत्र भी ‘लेखक’ का संबोधन अर्जित कर लेगा, यह मेरी कल्पना के दायरे से परे था। इस समय ऐसे बहुत से ग्रुप्स, गुट और संगठन वजूद में हैं जहाँ तारीफों के लेनदेन और चर्चाओं की नियोजित अदलाबदली के ज़रिये लेखक ‘बनाये’, ‘मिटाए’ जाते हैं।
ऐसा लगता है जैसे लेखक की पदवी पाने के लिए अब लिखने की बजाय सही जगह और समय पर ‘दिखना’ कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। वह अक्सर मुझसे अपने कार्यक्रमों की सूचनायें साझा करता। क्लास की लड़कियों से ऊंचाई से बात करता जैसे अनुभवी प्रौढ़ व्यक्ति कमउम्रों के साथ किया करते हैं। मेरे साथी शिक्षक भी उसकी समव्यस्क छात्राओं से उसका जिक्र इसी अंदाज में करते जैसे वह असाधारण, अति-प्रतिभाशाली हो जिससे वे बहुत कुछ सीख सकती हैं। अन्यथा तालियाँ तो बजा ही सकती हैं। इन सबके कारण उसके हाव-भाव में जो बड़प्पन आया, उसके चलते मेरा भी मनोविज्ञान उसे छात्र समझने का नहीं रह गया। उससे दोगुनी उम्र की होते हुए भी उसे हासिल मंच और मौकों का एक छोटा हिस्सा भी तब तक मुझे प्राप्त नहीं था।
लिहाजा मुझे भी लगता कि सचमुच उसमें कुछ विशिष्ट है। कुछ गुण हैं जो निखरते ही स्वीकृति और एक्सपोजर पाकर हैं। धीरे-धीरे उसने मुझसे सलाह मशविरा करना बंद कर दिया। कभी कुछ पूछने पर मेरी भाषा उसे उलझी, जटिल लगती और उसकी सलाह हाज़िर रहती कि मुझे सहज बोधगम्य, पारदर्शी भाषा में लिखना चाहिए। कॉलेज के पहले साल का उसका वाक्य और संबोधन तो अंतिम वर्ष तक वही रहे – ‘मैडम, प्रणाम। आपसे जरा मार्गदर्शन लेना था’।
लेकिन दरअसल वह मुझे मार्ग दर्शाने की चेष्टाएँ करने लगा था। शायद उसके मन में कहीं यह था कि शिक्षार्जन के शुरूआती चरण में मैंने उसके विकास में सहयोग किया था, इसलिए उसका फ़र्ज़ था कि मुझे भी गुमनामी से निकल कर ख्याति के व्योम में उड़ान भरने की, ‘सफल’ होने की तरकीबें और रणनीतियां सिखाये। अनचाहे कभी मेरे मुँह से बेसुरे राग सरीखी सलाहें निकल जातीं कि उसे अधिकाधिक पढ़ना चाहिए, ख़ास तौर पर सार्वकालिक महान लेखकों को – और फिलहाल कुछ कम और ठहराव के साथ लिखना चाहिए। यह कहने पर कि लेखक के लिए भीतरी यात्राएं अपरिहार्य होती हैं, वह कहता कि इतना भी क्या ठहराव कि जिंदगी ही ठहर जाए। उसके बाद मैंने कभी कुछ नहीं कहा। धीरे धीरे हमारी मुलाकातें कम होती गयीं।
आगामी वर्षों में उसके परिचयों का दायरा बढ़ता गया। उसके घर के शोकेस और सोशल मीडिया के अकाउंट कार्यक्रमों के स्मृति चिह्नों और मेंमेंटों से भरे रहने लगे। लेकिन कुछ अरसा बीतने पर मैंने पाया कि वह अपनी पुरानी तस्वीरें ही शेयर करता था। नई जगहों से उसके लिए अब कम बुलावे आते थे। परिपक्व अवस्था में उससे गहराई और साफ दृष्टि की अपेक्षा होने लगी थी जो उसने कभी विकसित नहीं की थीं। आये दिन के आयोजनों के साथ उसका स्वाध्याय सीमित होता गया था। वह कीमती समय जो उसे ज्ञान और ‘विज़न’ अर्जित करने में लगाना था, वाहवाहियों में खर्च हो गया था। उस दौरान उसके पास न किताबें पलटने की फुर्सत थी, न भीतरी यात्राओं का अवकाश।
कच्ची उम्र के ज्ञानभ्रम और सहज उपलब्ध लेकिन तात्कालिक और क्षणभंगुर लोकप्रियता में उसके बेशकीमती बरस चले गए थे। उस अवस्था में सब अपेक्षारहित उदार दृष्टि से सुनते हैं, लेकिन ज्ञान की बुनियादी शर्त पूरी किए बिना लिखने-बोलने की सीमा होती है। एक दिन वह कच्चा माल भी चुकने लगता है जिससे सतही स्तर का कुछ भी रचा जा सकता है। रचनात्मकता का न्यूनतम स्तर भी निरंतर ईंधन चाहता है, दृष्टि की लय चाहता है। उसमें इसका इतना अभाव होगा, मुझे यह एहसास नहीं था। शुरू में उसके लेखन और वक्तव्यों की प्रशंसा उन विद्वानों से भी सुनने को मिलती थी जिन्हें पढ़-सुन कर हम सीखते हैं। अब वे ही कहते हैं कि उसका अध्ययन कम है, उसमें अपरिपक्वता और दोहराव है, वगैरह।
जिस तेजी से उसमें आत्मविश्वास की चमक आई थी, अब उसी तेजी से उसे व्यर्थताबोध में डूबते देखती हूँ। खुद के प्रति संशयग्रस्त और भविष्य के प्रति शंकालु, वह वाणी का जादू भी खोने लगा है। छीजते आत्मविश्वास से थरथराती उसकी आवाज सुनती हूँ और महसूस करती हूँ कि उसकी इस दशा के जिम्मेदार हम सब हैं। व्यक्तियों के विकास की, आत्मसात करने और रचने की एक सहज स्वाभाविक गति होती है। जब उसे आत्मचिंतन की और इस देश के ‘जन’ और अपनी जड़ों से जुड़ने की ज़रूरत थी, सराहनाओं की चौंध और चमक में उसकी आँखें मुंदी रहीं। जब-जहाँ उसकी शीघ्र ग्रहण करने और अभिव्यक्त करने की कला और वक्तृत्व क्षमता की जरूरत पड़ी, उसे वहाँ शामिल किया जाता रहा। वह अलग अलग मंचों, स्थानों, दायरों पर खुद को दोहराता दिखा।
हम उसमें एक अच्छे पाठक होने के गुण तक नहीं जगा सके कि वह शांत चित्त से कुछ पढ़ सके, चिंतन कर सके, अपने भीतर उतर सके और उस स्रोत से जुड़ाव कायम कर सके, जहाँ कोई भी रचनाकार दरअसल होता है। शब्द साहस की कमी या मौसम की नमी से मर जाते हैं, जैसा कवि केदारनाथ सिंह ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता में लिखा था। शायद हम इसमें जोड़ सकते हैं कि वे समय से पहले प्रशंसाओं की प्रचुरता से, सस्ती, विचारहीन और गैरजिम्मेदार वाहवाहियों से भी मर सकते हैं।
अब जब वह यह सब समझ रहा है तो भी पन्नों में एकाग्र होना उसके लिए संभव नहीं हो पा रहा क्योंकि उसके लिए आंतरिक अनुशासन और निरंतर अभ्यास की दरकार होती है। उसकी आँखों में ऐसे भाव झलकते हैं – मैं जानता हूँ कि मेरे पास चमकीले मगर नकली सिक्के हैं, मगर असल को अर्जित करने का धैर्य या सलीका मुझमें नहीं। उसकी बेचारगी देख कर शिक्षक के रूप में खुद को हारा हुआ महसूस करती हूँ। एक ओर सर्चलाइट जैसी तेज़ रोशनियों में जली हुई पलकें हैं और दूसरी ओर अवसर न मिलने के कारण क्लास की लड़कियों की कोरी आँखें। वे भरपूर सामर्थ्य होते हुए भी अपने अनुभवों को शब्दों में नहीं ढाल सकीं। हमारे जाने अनजाने वे ‘प्रतिभाशाली’ कहे जाने वालों की चमक में अपनी ऊर्जा खपाती रहीं। चंद लोगों की प्रतिभाओं को हमने नज़रों से घेरकर निष्प्रभ किया और अधिकाँश की, उनसे नज़रें पूरी तरह फेर कर।