शख्सियत

ज्योति बसु : एक नास्तिक की लोकनीति

 

आजाद भारत के असली सितारे-61

कलकत्ता विश्वविद्यालय में मैंने जब साक्षात्कार दिया था तो उन दिनों ज्योति बसु (08.07.1914 -17.01.2010) प. बंगाल के मुख्यमंत्री थे। इसके पहले मैं कभी कलकत्ता नहीं गया था। मुझे नियुक्ति की कोई उम्मीद भी नहीं थी। बड़हलगंज (गोरखपुर) के अपने मकान मालिक और मित्र अवध नारायण दूबे के आग्रह पर और उन्हीं के साथ मैं कलकत्ता गया था। कलकत्ता में उनका अपना घर था। कपड़े की और अंग्रेजी दवा की दुकानें थी। उन्हीं के यहाँ ठहरा और दूसरे दिन इंटरव्यू दिया। इंटरव्यू के बाद भी मैं चार दिन तक कलकत्ता में रुककर शहर का भ्रमण किया और फिर बड़हलगंज लौट आया। चयन के परिणाम के बारे में जानने की मेरी कोई उत्सुकता न थी क्योंकि विषय-विशेषज्ञों में से एक प्रो. कुँवरपाल सिंह के अलावा मेरा वहाँ और किसी से कोई परिचय नहीं था और इसीलिए कोई उम्मीद भी नहीं थी। मुझे अपनी नियुक्ति की खबर गोरखपुर में प्रो. परमानंद श्रीवास्तव से ठीक दो माह बाद मिली थी जब मैं उनसे मिलने उनके घर गया था।

कलकत्ता विश्वविद्यालय बंगाल का सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है। वहाँ नियुक्ति पाना बड़े गौरव की बात है। लोग कहते हैं कि वामफ्रंट सरकार के समय नियुक्तियाँ सरकार के इशारे पर होती थी किन्तु मेरी पहुँच तो वहाँ दूर-दूर तक किसी भी प्रभावशाली व्यक्ति तक नहीं थी। हाँ, साक्षात्कार के समय, विषय विशेषज्ञों में प्रो. कुँवरपाल सिंह को देखकर उम्मीद जरूर जग गई थी। नियुक्ति पत्र में कार्यभार ग्रहण करने के लिए 90 दिन का समय दिया गया था। मैंने नब्बेवें दिन ज्वायन किया। ज्वायन करने के बाद नियत समय पर मुझे कंफर्मेशन लेटर मिल गया। मेरा वेतन भी संरक्षित हुआ। यहाँ तक कि दो वर्ष बाद ही मुझे विभागाध्यक्ष का दायित्व मिल गया। विभागाध्यक्ष बनने के बाद भी प्रशासनिक कार्यों के लिए मैं पत्र लिखता, प्यून-बुक में इंट्री करता और प्यून के माध्यम से ही संबंधित अधिकारी के कार्यालय में भिजवा देता। मुझे यथासमय अपने पत्र का समुचित जवाब मिल जाता। आवश्यक बैठकों के अलावा अन्य किसी काम से मैं कुलपति, प्रतिकुलपति या कुलसचिव से मिलने कभी नहीं गया। सारे काम स्वत: अपने समय पर होते रहे।

उन दिनों विश्वविद्यालय परिसर में लाउडस्पीकर नहीं बजते थे। छात्र अपनी माँगों के लिए आए दिन प्रदर्शन करते रहते थे किन्तु कभी भी उनसे कक्षाएं बाधित नहीं होती थीं। विश्वविद्यालयों में नियमित रूप से छात्र-संघों के चुनाव होते थे और विश्वविद्यालय प्रशासन में भी उनका समुचित प्रतिनिधित्व होता था। इसके बावजूद उन दिनों बड़े से बड़े छात्र-नेता भी दूसरे विद्यार्थियों की ही तरह कक्षाओं में नियमित रूप से हाजिर होते थे, पढ़ते थे और अत्यंत विनम्रता से पेश आते थे। क्लास में लड़के-लड़कियों की सीटों का बँटवारा नहीं था। वे कहीं भी किसी के साथ बैठ सकते थे। शिक्षकों का जो सम्मान उन दिनों मैंने बंगाल में देखा, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं। शिक्षक पढ़ाने के लिए पूरी तरह आजाद था। सभी तरह के विचारों को समुचित सम्मान मिलता था। मेरे विभाग में उन दिनों राज्य सभा के दो सांसद थे, एक प्रो. विष्णुकांत शास्त्री जो भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे और दूसरी प्रो. चंद्रकला पाण्डेय, जो सीपीआई(एम) की सांसद थीं। दोनो संसद में भी और यहाँ विभाग में भी प्यार से मिलते- जुलते और बातें करते थे।

बंगाल में मुसलमानों की आबादी देश के दूसरे राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा है। यहाँ जनसंख्या का घनत्व 1028 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर है जबकि भारत की औसत जनसंख्या का घनत्व मात्र 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। प. बंगाल की सीमाएं बंगलादेश, नेपाल और भूटान जैसे तीन-तीन देशों के साथ जुड़ती है। अवैध घुसपैठ की घटनाएं होती रहती हैं। इन विपरीत परिस्थितियों में भी मैंने ज्योति बसु के शासन काल में प.बंगाल में एक भी सांप्रदायिक दंगे का जिक्र नहीं सुना जबकि विभाजन से पूर्व बंगाल में ही सबसे ज्यादा सांप्रदायिक दंगे हुए थे। यहाँ कानून व्यवस्था ऐसी थी कि आधी रात को भी अकेले ही कलकत्ता की सड़कों पर सज-धजकर लड़कियाँ कहीं भी आ-जा सकती थीं। यह सब शासन के आतंक के कारण नहीं था, बंगाल में व्यक्ति का स्वभाव ऐसा हो गया था। जनता इतनी जागरूक थी कि वह बसों, ट्रेनों या सड़कों पर कहीं भी चोर-उचक्कों या महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वालों को खुद पकड़कर पुलिस के हवाले कर देती थी। यह सब ज्योति बसु की धर्मनिरपेक्ष नीति, प्रशासनिक क्षमता और सूझ-बूझ का ही परिणाम था।

 बंगाल में आज लगभग आधी शादियाँ प्रेम-विवाह के रूप में होती हैं। ऐसे विवाहों में जाति (कास्ट) नहीं देखी जाती। इस तरह बंगाल में जाति के बंधन बहुत ढीले हैं। छुआछूत खत्म हो चुका है। ‘ऑनर किलिंग’ जैसी घटनाएं बंगाल में देखने को नहीं मिलतीं। शादी के बाद लड़के और लड़कियाँ अपने पुराने प्रेम-संबंधों को ऐसे भूल जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। बंगाल में बेटियों को सम्मान में ‘माँ’ कहकर पुकारा जाता है। बेटे और बेटी में भेद नहीं किया जाता। आज भी बंगाल में दहेज का प्रचलन नहीं है। शादियाँ सादे समारोह से संपन्न होती हैं। यहाँ न तो गाजे-बाजे के साथ जुलूस निकलता है, न बाराती जूलूस में नाचते हैं और न तो उन्हें तरह-तरह के पकवान ही परोसे जाते हैं। अपने-अपने घरों में जो हम भोजन करते हैं उससे थोड़ा बेहतर भोजन कराया जाता है। लड़की की बिदाई में दैनिक उपयोग के कुछ गिफ्ट दिए जाते हैं।

  बंगाल के हर मध्यवर्गीय परिवार में अमूमन हारमोनियम, तबला, सितार जैसे वाद्य होते हैं। बचपन से ही संगीत और नृत्य की शिक्षा अपनी बेटियों को वे जरूर देते हैं। रवीन्द्र संगीत अमूमन हर शिक्षित लड़की जानती है। पुस्तक-प्रेम बंगालियों के स्वभाव में है। कोलकाता में लगने वाले विश्व पुस्तक मेले में उल्लास और उत्सव धर्मिता देखने लायक होती है। मेले में मुक्त रंगमंच, बाउल गान, साहित्यकारों के व्याख्यान तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम नियमित रूप से चलते रहते हैं। बच्चे वर्ष भर पैसे इकट्ठा करते हैं मेले से किताबें खरीदने के लिए। बंगाल की इस संस्कृति के निर्माण में ज्योति बसु की प्रमुख भूमिका रही है।


        ज्योति बसु ने लगातार 23 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में काम किया और वर्ष 2000 में स्वास्थ्य का हवाला देते हुए अपने पद से त्याग पत्र दे दिया। उस समय तक वे भारत के किसी भी राज्य के सबसे लंबे समय तक बने रहने वाले मुख्यमंत्री थे। उन्होंने भूमि सुधार जैसा असाधारण कार्य किया जिसमें जमींदारों और सरकारी कब्ज़े वाली ज़मीनों का मालिक़ाना हक़ क़रीब 10 लाख भूमिहीन किसानों को दे दिया। यह दूसरे राज्यों के किसानों के लिए आज भी एक सपना है। उन्होंने पंचायती राज संस्थाओं का लोकतंत्रीकरण किया, पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी औद्योगिक पहल हल्दिया पैट्रोकेमिकल्स कॉम्प्लेक्स की स्थापना की, स्वच्छ, पारदर्शी और स्थिर शासन दिया। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और औद्योगिक विकास के मामले में भी उनकी उपलब्धियाँ कम न थीं। देश का पहला मेट्रो कलकत्ता में उन्हीं के नेतृत्व में तैयार हुआ। कलकत्ता की परिवहन व्यवस्था जितनी सस्ती और व्यवस्थित थी उतनी देश के किसी भी महानगर की नहीं थी। लोग अपने निजी वाहनों से यात्रा करना पसंद नहीं करते थे। कलकत्ता की पहचान देश के सबसे सस्ता और सुसंस्कृत शहर के रूप में थी। कलकत्ता को सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है तो इसमें ज्योति बसु की सरकार के योगदान की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

ज्योति बसु को 1964 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की स्थापना और उसका सफल नेतृत्व तथा 1960 और 1970 के दशक में बंगाल में फैली भयंकर नक्सली हिंसा के बाद शान्ति लाने के उनके प्रयास के लिए खास तौर पर याद किया जाता है। उनके शासन के दौरान बंगाल की जनता में राजनीतिक जागरुकता देखते ही बनती थी। क्लब संस्कृति का तेजी से विकास हुआ। शहरों के लगभग हर मुहल्ले में क्लब गठित हुए जिसमें बैठने वाले हर उम्र के लोग होते थे। कानून व्यवस्था बनाए रखने में इन क्लबों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। क्षेत्र में किसी तरह का अपराध होने पर पुलिस वाले अपने स्थानीय क्लबों से अवश्य संपर्क करते थे और क्लब उनका नि:स्वार्थ सहयोग करते थे। उन दिनों टिकट काउन्टर से लेकर बस स्टैंड, टैक्सी स्टैंड या रिक्शा स्टैंड तक जहाँ भी तीन से चार लोग होते थे स्वत: पंक्तिबद्ध हो जाते थे और लाईन में लगकर ही बसों, टैक्सियों या रिक्शों पर बैठते थे। महिलाओं और बुजुर्गों के प्रति जो सम्मान मैंने वहाँ देखा, हिन्दी प्रदेशों में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

यह वाम राजनीति का ही असर था कि पश्चिम बंगाल में यूनियन संस्कृति का तेजी से विकास हुआ और हर छोटे-बड़े कारखानों में मजदूर यूनियन कायम हो गए जिसके कारण श्रमिकों के हितों की रक्षा तो हुई किन्तु उद्योग धंधों पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा। बंगाल के जूट मिल तेजी से बंद होने लगे। हालांकि, जूट मिलों के बंद होने के कारणों में जूट से उत्पादित वस्तुओं की माँग में होने वाली कमी प्रमुख थी। दरअसल औद्योगीकरण के प्रति उनका दृष्टिकोण श्रमबल के कल्याण को सुनिश्चित करते हुए निजी प्रबंधन प्रथाओं के बीच संतुलन बनाने का था। ज्योति बसु संभवत: पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने पुलिस कर्मियों का यूनियन बनाने के अधिकार को मान्यता दी। जनतंत्र के प्रति निष्ठा का इससे बड़ा प्रमाण भला क्या हो सकता है?

एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के कुलपति को सार्वजनिक बस में यात्रा करते मैंने बंगाल में ही देखा। उत्तरबंग विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रंजूगोपाल मुखर्जी मेरे साथ 30-ए बस में खड़े-खड़े यात्रा कर रहे थे। बड़े आग्रह के बाद मैं उन्हें अपनी सीट पर बैठा पाने में सफल हो सका। क्या यह सुसंस्कृत समाज का लक्षण नहीं है कि आज तक बंगाल में एक भी प्रतिष्ठित संस्थान, स्टेडियम, हवाई अड्डा, स्टेशन, भवन आदि किसी नेता के नाम पर नहीं, अपितु साहित्यकारों, शहीदों, वैज्ञानिकों, चिन्तकों और समाजसुधारकों के नाम पर ही हैं? अंग्रेजों द्वारा निर्मित हावड़ा ब्रिज का नाम ‘रवीन्द्र सेतु’ है और ज्योति बसु के कार्यकाल में हुगली पर ही निर्मित तारों पर झूलता हुआ भारत के सबसे लंबे ब्रिज का नाम ‘विद्यासागर सेतु’। दमदम हवाई अड्डे का नाम नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है। बंगाल में आजतक एक भी विश्वविद्यालय किसी नेता के नाम पर नहीं है। या तो संबंधित शहरों की गरिमा को ध्यान में रखते हुए उन्हीं के नाम पर हैं या विद्यासागर, विवेकानंद, नजरुल, सिद्धो कान्हू बिरसा, पंचानन वर्मा आदि के नाम पर। बंगाल का सबसे बड़ा फिल्म इंस्टीच्यूट सत्यजीत रॉय के नाम पर है और सबसे बड़ा सार्वजनिक मंच नजरुल के नाम पर। बड़े-बड़े शोध संस्थानों के नाम भी बोस इंस्टीच्यूट (आचार्य जगदीस चंद्र बोस के नाम पर), एसएन बोस नेशनल सेंटर ऑफ बेसिक साईंस (सत्येन्द्रनाथ बोस के नाम पर) या साहा इंस्टीच्यूट ऑफ न्यूक्लीयर फिजिसक्स (मेघनाद साहा के नाम पर) हैं। कलकत्ता में भी कुछ मुहल्लों के नाम बदले गए किन्तु बदलकर नेताओं के नाम पर नहीं रखे गए। हैरिसन रोड का नाम बदलकर महात्मा गाँधी रोड कर दिया गया, आम्हर्स्ट स्ट्रीट का नाम राजा राममोहन रॉय सरणी और चितपुर का नाम बदलकर रवीन्द्र सरणी। यहाँ तक कि ममता बनर्जी ने भी मेट्रो स्टेशनों के नाम कवि नजरुल, मास्टर दा सूर्यसेन, गीतांजलि, शहीद खुदीराम, कवि सुभाष, सत्यजीत रॉय, जतीन्द्रनाथ नंदी, कवि सुकान्त, हेमंत मुखोपाध्याय, वरुण सेनगुप्ता, गौरकिशोर घोष आदि के नाम पर रखा है। वे यदि आज भी सूती साड़ी और हवाई चप्पल पहनती हैं और अपनी माँ के पुराने मकान में रहती हैं तो यह सब कम्युनिस्ट संस्कृति का ही असर है जिसका संस्कार ज्योति बसु के नेतृत्व में वाम फ्रंट ने डाला था।

मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में तीन बार विभागाध्यक्ष रहा, पश्चिम बंगाल के लगभग सभी विश्वविद्यालयों की चयन समितियों में विषय विशेषज्ञ की हैसियत से या दूसरे अनेक रूप में जुड़ा रहा, वेस्ट बंगाल पब्लिक सर्विस कमीशन, कॉलेज सर्विस कमीशन, स्कूल सर्विस कमीशन आदि संगठनों में विषय विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया किन्तु कहीं भी मुझे किसी तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप का अनुभव नहीं हुआ। किसी तरह की अवांछित सिफारिश मेरे पास नहीं आयी। चयन के नियम भी इस तरह के बनते थे कि योग्यता की उपेक्षा आसान नहीं होती थी। उदाहरणार्थ किसी भी राज्य में सबसे ज्यादा पद विद्यालयों के शिक्षकों के होते हैं। इनका चयन वहाँ स्कूल सर्विस कमीशन के माध्यम से होता था। आवेदकों की लिखित परीक्षा भी ली जाती थी और उनकी शैक्षणिक योग्यता का सम्मान करते हुए उन पर भी अंक दिये जाते थे। 100 अंकों में से साक्षात्कार केवल 10 अंकों के होते थे और उसे भी बाद में 5 अंक कर दिया गया था। स्कूल सर्विस कमीशन हो या कॉलेज सर्विस कमीशन अथवा पब्लिक सर्विस कमीशन, सभी प्रतिवर्ष नियमित कार्य करते थे। निस्संदेह यह सब मुख्यमंत्री ज्योति बसु की पारदर्शी और न्यायपूर्ण कानून व्यवस्था का परिणाम था।

 कम्युनिस्ट होने के बावजूद ज्योति बसु सभी धर्मों और संप्रदायों का पूरा सम्मान करते थे। दुर्गापूजा और दीपावली के अवसर पर जितना लम्बा अवकाश बंगाल में रहता था उतना अन्यत्र कहीं नहीं। 1989 में ज्योति बसु नेपाल गये थे साथ में सीताराम येचुरी भी थे। वे नेपाल सरकार के अतिथि थे, इसीलिए उनका पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन का कार्यक्रम रखा गया था। येचुरी ने पूछा था कि उन्होंने मंदिर जाने से इनकार क्यों नहीं कर दिया? उन्होंने कहा कि जिस तरह हर विदेशी मेहमान को भारत में राजघाट ले जाया जाता है चाहे गाँधीवाद में उसकी आस्था हो या न हो, उसी तरह नास्तिक होते हुए भी हमें पशुपतिनाथ मंदिर जाना चाहिए।

उन दिनों बंगाल के किसी सांसद या विधायक की गाड़ी पर मैंने नेम-प्लेट नहीं देखा था और न उनके साथ सुरक्षा की तामझाम। सादगी वहाँ के वामपंथी नेताओं के संस्कार का हिस्सा है। किसी तरह के भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जाने पर या अपेक्षा से अधिक संपत्ति का पता लगने पर पार्टी स्वयं ही जाँच करके सदस्य के खिलाफ कठोर निर्णय ले लेती थी। कभी किसी वामपंथी नेता को मैंने भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं सुना।

ज्योति बसु देश के अन्य मुख्यमंत्रियों से इस अर्थ में भी अलग और विशिष्ट थे कि वे प्रतिष्ठित उच्च मध्यवर्गीय परिवार से थे। उनके पिता एक प्रतिष्ठित डॉक्टर थे। ज्योति बसु की शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी और वे एक बैरिस्टर थे किन्तु उन्होंने अपनी सुख-सुविधाओं वाली जिन्दगी को छोड़कर कम्युनिस्ट विचारधारा को अपनाया और ट्रेड यूनियन की राजनीति की। उन्होंने जमीनी स्तर पर संघर्ष करते हुए राजनीति में अपनी जगह बनायी।

वास्तव में वाम मोर्चे का अनुभव एक विश्व रिकार्ड है। बंगाल में ज्योति बसु और उनके बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मिलकर लगातार 34 वर्ष तक शासन किया। यद्यपि कम्युनिस्ट पार्टियों में हमेशा सामूहिक नेतृत्व को महत्व दिया जाता है किन्तु निश्चित रूप से इसका श्रेय सबसे ज्यादा ज्योति बसु को जाता है। लगातार सात बार पाँच-वर्षीय कार्यकाल के लिए चुना जाना (उनमें से पाँच उनके प्रत्यक्ष नेतृत्व में) न केवल भारत में बल्कि विश्व में संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में एक उपलब्धि है। इसके बावजूद ज्योति बसु ने हमेशा इसका श्रेय राज्य की जागरूक और संघर्षरत जनता को दिया और खुद पार्टी के निर्णयों को व्यक्तिगत विचारों से ऊपर रखा।

ज्योति बसु को चार बार प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया गया। 1990 में लालकृष्ण अडवाणी की गिरफ्तारी के बाद भाजपा ने वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को समर्थन देने से इनकार कर दिया। राजनीतिक संकट के दौरान, कांग्रेस प्रमुख राजीव गाँधी ने ज्योति बसु को भारत का प्रधान मंत्री बनने का प्रस्ताव भेजा। लेकिन सीपीआई (एम) ने इसे अस्वीकार कर दिया। 

इसके 7 महीने के बाद, कांग्रेस ने चन्द्रशेखर सरकार को समर्थन देने से इनकार कर दिया। फिर राजीव गांधी ने ज्योति बसु को प्रस्ताव भेजा, जिसे दूसरी बार अस्वीकार कर दिया गया।  इसके बाद 1996 में हुए आम चुनाव में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा 543 में से 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन संसद में बहुमत न होने के कारण 13 दिन बाद सरकार गिर गई। 140 सीटों के साथ भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने सरकार का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप वामपंथी दलों सहित अन्य विपक्षी पार्टियों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया, जिसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन किया।  संयुक्त मोर्चे की ओर से प्रधानमंत्री के चयन के बारे वी.पी. सिंह ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव भेजा। सीपीआई (एम) ने यह कहते हुए प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि पार्टी अभी भी अपनी नीतियों को निर्धारित करने की स्थिति में नहीं है और गठबंधन सरकार द्वारा उन्हें लागू करने में सक्षम नहीं होगी। वी.पी. सिंह ने सीपीआई(एम) को अपने निर्णय पर पुनर्विचार के लिए भी आग्रह किया किन्तु पार्टी नहीं मानी और बाद में एच.डी. देवगौड़ा प्रधान मंत्री बने। एच.डी. देवगौड़ा ने व्यक्तिगत रूप से भी ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनने के लिए एक पत्र लिखा था जिसे बसु ने पार्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का हवाला देते हुए फिर से अस्वीकार कर दिया।

1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी सरकार गिर गई। मुलायम सिंह यादव सहित तीसरे मोर्चे के नेताओं ने फिर से ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनने का सुझाव दिया। किन्तु इस बार भी वही हुआ।

बाद में जब सीपीआई (एम) के फैसले पर ज्योति बसु की प्रतिक्रिया माँगी गई तो उन्होंने कहा, “हाँ, मुझे अब भी लगता है कि यह एक ऐतिहासिक भूल थी क्योंकि ऐसा मौका इतिहास बार बार नहीं देता।” इससे पता चलता है कि पार्टी-अनुशासन के प्रति उनकी निष्ठा कितनी गहरी थी।

ज्योति बसु का जन्म कलकत्ता के एक उच्च मध्य वर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम ज्योति किरण बसु था। उनके पिता निशिकांत बसु, ढाका जिला, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश में) के बरुडी गाँव में डॉक्टर थे, जबकि उनकी माँ हेमलता बसु एक गृहिणी। बसु की स्कूली शिक्षा 1920 में कलकत्ता के लोरेटो स्कूल में शुरू हुई, जहाँ उनके पिता ने उनका नाम छोटा कर ज्योति बसु कर दिया।
         उन्होंने अपनी आगे की शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल, कलकत्ता तथा बी.ए. (ऑनर्स) प्रेसीडेंसी कॉलेज से किया। 1935 में बसु कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उनका परिचय ब्रिटेन के प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता हेराल्ड लास्की, हैरी पोलिट तथा रजनी पाम दत्त जैसे विचारकों से हुआ और उनकी रुझान वामपंथी राजनीति की ओर होने लगी। 1940 में बैरिस्टर की परीक्षा देकर परिणाम की प्रतीक्षा किये बगैर ही वे भारत लौट आये और आते ही यहाँ सक्रिय राजनीति से जुड़ गये। 1944 में सीपीआई ने उन्हें रेलवे कर्मचारियों के बीच काम करने की जिम्मेदारी सौंपी। इस तरह वे ट्रेड यूनियन से जुड़े और बाद में रेलवे वर्कर्स यूनियन के महासचिव बने। यहाँ काम करते हुए उन्होंने अनेक आन्दोलनों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।

  बंगाल में तेभागा आंदोलन (1946-47) में ज्योति बसु ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 1948 में जब सीपीआई की पश्चिम बंगाल इकाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी। इसके अलावा भी उन्हें एकाधिक बार जेल जाना पड़ा।  उन्हें 1951 में सीपीआई की केंद्रीय समिति में चुना गया और बाद में उन्होंने 1953 से 1961 तक सीपीआई की पश्चिम बंगाल प्रांतीय समिति के सचिव के रूप में कार्य किया। बंगाल के विधानसभा में चुने जाने के बाद ज्योति बसु का राजनीतिक कैरियर फलने-फूलने लगा और जल्द ही वे भारत के सबसे लोकप्रिय और प्रभावशाली नेताओं में से एक बन गए।  बसु 1952 में बारानगर विधानसभा से पहली बार चुने गए और उसके बाद 1957, 1962, 1967, 1969, 1971, 1977, 1982, 1987, 1991 और 1996 में वे लगातार विधान सभा के लिए चुने जाते रहे। 1964 में पार्टी विभाजित हो गई। सीपीआई (एम) के गठन पर, बसु को इसकी केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो के लिए चुना गया।

ज्योति बसु 1957 में पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता चुने गए। 1967 में जब वाम मोर्चे के प्रभुत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो ज्योति बसु को पश्चिम बंगाल का गृह मंत्री बनाया गया। लेकिन यह वही दौर था जब नक्सलवादी आंदोलन अपने चरम पर था। यही कारण था कि पश्चिम बंगाल की सरकार गिर गई और वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 1977 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए जनता पार्टी और सीपीआई (एम) के बीच बातचीत सफल नहीं हो पायी थी। यही कारण था कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, जनता पार्टी और वाम मोर्चा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हुआ। वाम मोर्चे ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 290 में से 230 सीटों पर जीत हासिल की। इस तरह सीपीआई(एम) ने अपने दम पर सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की और ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने। उसके बाद से ज्योति बसु लगातार 23 वर्षों तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने रहे।

1 जनवरी 2010 को निमोनिया से ग्रस्त होने के कारण ज्योति बसु को विधान नगर के एएमआरआई अस्पताल में भर्ती कराया गया और सत्रह दिन बाद 17 जनवरी 2010 को पूर्वाह्न 11 बजे उनका निधन हो गया। निधन के बाद उनकी इच्छा का अनुपालन करते हुए उनकी आँखें शूश्रुत आई फाउंडेशन तथा शरीर एसएसकेएम हॉस्पीटल को अनुसंधान हेतु सौंप दिया गया। उनके मस्तिष्क को भी अस्पताल द्वारा स्थायी रूप से संरक्षित कर लिया गया।

भारत में वाम राजनीति अब इतिहास का विषय है। अब चुनाव धनबल और बाहुबल से लड़ा जाता है और धन मिलता है इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से बड़े-बड़े पूँजीपतियों द्वारा। अब भला कोई पूँजीपति वाम दलों को धन देकर अपने ही पैर में कुल्हाड़ी क्यों मारेगा?   

ज्योति बसु को कलकत्ता विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की मानद उपाधि से विभूषित करने का प्रस्ताव किया था जिसे उन्होंने लेने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। वर्ष 2008 में उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की भी माँग होने लगी तो सीपीआई(एम) ने “राज्य पुरस्कार स्वीकार करना हमारे नेताओं की परंपरा नहीं है।” बयान जारी करके सुझावों पर विराम लगा दिया।   

ज्योति बसु ने अपने लिए कोई घर नहीं बनवाया। वे अपने पिता द्वारा बनवाए हुए कोलकाता के हिन्दुस्तान पार्क स्थित घर में रहते थे जिसे उनके पिता ने अपनी बहू कमला बसु को उपहार में दिया था। 1987 में ज्योति बसु साल्टलेक स्थित सरकारी गेस्ट हाऊस में आ गए जिसे ‘इंदिरा भवन’ कहा जाता है। इसी भवन में वे आजीवन रहे। ज्योति बसु के एक पुत्र हैं, चंदन बसु जिनका अपना व्यवसाय है।

ज्योति बसु बहुत अध्ययनशील थे और उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं,  ’ज्योति बसु विथ द पीपल’ (आत्मकथा, दो खंड), ‘मेमोरीज : ए पोलिटिकल ऑटोबायोग्राफी’, ‘जतोदूर मोने पोड़े’ (आत्मकथा), ‘द मैन मेड फेमीन’, ‘पीपल्स पावर इन प्रेक्टिस : 20 ईयर्स ऑफ लेफ्ट फ्रंट इन वेस्ट बंगाल’, ‘ए पोलिटिकल मेमोर’, ‘ज्योति बसूज लेटर टू अजय मुखर्जी’, ‘ज्योति बसु स्पीक्स : ए कलेक्शन ऑफ सलेक्टेड स्पीचेज ऑफ ज्योति बसु’, ‘सबवर्सन ऑफ पार्लियामेंटरी डेमोक्रेसी इन वेस्ट बंगाल’, ‘डाक्यूमेंट्स ऑफ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन इंडिया’ आदि।

आज पुण्यतिथि पर हम इस महान जननेता का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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