जननायक कर्पूरी ठाकुर: एक याद
तब बिहार आंदोलन और जेपी की नैतिक ताकत अपना जलवा बिखेर रही थी। लगता था जैसे बिहार का बच्चा-बच्चा संपूर्ण क्रांति के नाम पर मर मिटने को तैयार है। इसी माहौल में बिहार के बेगूसराय जिले के मंझौल कस्बे में छात्र संघर्ष समिति ने एक विरोध सभा रखी थी।विरोध सभा इसलिए कि 2 दिन पहले ही मंझौल गांव का एक 17 वर्ष का बेटा नित्यानंद पुलिस की गोली से शहीद हो गया था। संपूर्ण क्रांति के समर्थन में निकल रहे जुलूस को किसी भी प्रकार से रोकने के लिए पुलिस आमादा थी। बेगूसराय जिले के तत्कालीन एसपी आंदोलन के विरोधी माने जाते थे।
उस विरोध सभा में मुझे और डॉक्टर रामजी सिंह को जाना था। हम लोग मंझौल के सभा स्थल पर शाम के करीब 4 बजे पहुंचे।लोकनायक जयप्रकाश और संपूर्ण क्रांति जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे। सभा की शुरुआत की जाने लगी। तभी लगा जैसे इकट्ठा हुए जनसमूह में बिजली दौड़ गयी हो। गूंजते नारे एकाएक आसमान छूने लगे। नारों में एक नया नारा कर्पूरी ठाकुर जिंदाबाद का नारा भी जुड़ गया था। समझते देर नहीं लगी कि कर्पूरी जी कहीं से आ गए हैं। तभी सामने से मंझौले कद के, गठा हुआ बदन, तांबे का रंग और बिहारी मध्यवर्गीय किसान की पोशाक में।
कर्पूरी जी हम लोगों की तरफ हाथ जोड़े आते हुए दिखे। विनम्रता और निर्भीकता की प्रतिमूर्ति। आते ही उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और हंसते हुए पूछा कि यहां मुझे जगह मिलेगी या नहीं। मैंने कहा कि जगह क्या, पूरी सभा ही आपकी है।
इस प्रश्न का राज यह था कि पूरे बिहार आंदोलन में दल से जुड़े नेताओं को अग्रपंक्ति में स्थान नहीं दिया जाता था। लेकिन कर्पूरी ठाकुर, महामाया प्रसाद, रामानंद तिवारी जैसे कुछ नेता ऐसे थे कि जिन्हें अगली या पिछली पंक्ति से कुछ फर्क नहीं पड़ता था। ये नेता युवकों और जनता के दिलों में बसते थे। ये अगली पंक्ति में हो या नहीं जनता इन्हें सर पर बिठाती थी। मेरे और डॉक्टर रामजी सिंह के भाषण ने पूरी सभा को कर्पूरी जी के भाषण के लिए तैयार कर दिया था।
कर्पूरी जी बोले और पूरी शिद्दत के साथ आंदोलन और उसके तरीकों के बारे में बंधन मुक्त होकर बोलते रहे। जनता उनके भाषण से ज्यादा उनके अस्तित्व पर ही मुग्ध थी। सभा खत्म हुई तो जनता चली गयी। लेकिन कार्यकर्ताओं ने हमें घेर लिया। बहुत सारे सवाल जवाब हुए। तभी सभी ने महसूस किया कि अंधेरी शाम के 8 बज गए हैं। हम नेताओं को भी अपने-अपने गंतव्य की ओर जाना है। डॉक्टर साहब को पटना लौटना था और मुझे वह रात रोसड़ा अपने घर पर बितानी थी जो मंझौल से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर था। कर्पूरी जी के हाथ में सिर्फ एक बैग था। काले रैक्सीन का। उन्होंने कहा कि आप रोसड़ा जा रहे हैं तो मैं भी आपके साथ ही चलता हूं। सुबह मैं समस्तीपुर चला जाऊंगा। रोसड़ा से समस्तीपुर जाना आसान होगा। उन्होंने बताया कि अपनी जानकारी और लोगों से प्राप्त सूचना के आधार पर जहां आवश्यक लगता है मैं वहां चला जाता हूं। मुझे उस वक्त लगा जैसे यह संपूर्ण क्रांति के ऐसे सिपाही हैं जो कभी विश्राम नहीं लेते। नेपोलियन बोनापार्ट की तरह घोड़े की पीठ पर ही सो भी लेते हैं।
उस वक्त के बिहार के पैमाने से पटना जाने वाली बस थोड़ा शानदार थी। लेकिन रोसड़ा जाने वाली बस को बिहार की भाषा में झारखंडी ही कहा जा सकता था। मैंने कहा कि आप पटना ही चले जाएं। लेकिन वे मेरा हाथ खींचते हुए रोसड़ा जाने वाली बस के अंदर ले गए। गनीमत थी कि बस में जगह मिल गयी। कुछ ही देर में बस निम्न मध्यम वर्गीय किसानों और मजदूरों से खचाखच भर गयी।
मैंने देखा कि पूरे बस में मैं ही सफेद पोश टाइप का दिख रहा था। कर्पूरी जी पूरी तरह उस जमात के हिस्से की तरह हो गए थे। लगा जैसे जनता के बीच जनार्दन बैठे हैं। बगल में बैठे थे तो बात होने लगी। उन्होंने बताया कि आपके घर पहले मैं कभी कभार जाता रहता था। आपके पिताजी हम लोगों के गुरुदेव सामान रहे हैं। सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन की अगस्त क्रांति के जमाने में वे हम लोगों के लीडर और गुरु जैसे थे। आपके घर पहुंचते-पहुंचते 10 बज जाएंगे। यदि पिता जी सो गए हों तो उन्हें जगाइएगा नहीं। मैं तो सुबह ही समस्तीपुर के लिए निकल जाऊंगा। फिर कभी समय निकालकर सिर्फ मुलाकात के लिए आऊंगा।
थोड़ी देर बाद वे बस की दीवार की तरफ सट गए। मुझे भी कहा कि मैं उनकी तरफ थोड़ा दबकर बैठ जाऊं। फिर इस तरफ सीट पर जो थोड़ी सी जगह बनी, उसपर सीट की बगल में खड़े एक व्यक्ति से उन्होंने बैठ जाने के लिए कहा। उनके लिए यह सहज था।
मैं यह देखकर सोचता रहा कि यह व्यक्ति जीता है सादगी से, इतना ही नहीं इसमें साझेदारी की भावना भी सहजता से समायी हुई है। असली समाजवादी है। रोसड़ा घर पहुंचते-पहुंचते रात के करीब साढ़े 10 बज गए। पूर्व सूचना देने का प्रश्न ही नहीं था। उस जमाने में मोबाइल क्या, मेरे घर पर फोन भी नहीं था।
मेरे माता-पिता सो चुके थे। बाहर के कमरे की जंजीर मैंने खोली। उस कमरे में काठ की दो चौकियां रखी रहती थी। आलमारी में खादी भंडार की चार पांच मोटी चादरें भी आगंतुकों के लिए रखी रहती थी। उस वक्त मैं तो जवान था। चौकी पर चादर सोने के लिए काफी थी। मैं सोचता रहा कि इस एक चादर और काठ की चौकी पर वृद्ध तो नहीं पर अधेड़ उम्र के कर्पूरी जी को कष्ट नहीं होगा?
खाना जो मंझौल में कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत के वक्त खाया था वह काफी था ऐसा हमदोनों ने महसूस किया। हम कमरे में रखे धातु के बने लोटा और गिलास लेकर पास के हैंडपंप (चापाकल) पर गए। पानी पीने के बाद कर्पूरी जी ने हाथ पैर धोए और बैग से पतला सा गमछा निकालकर पोंछा।
कमरे में आते ही वे चादर बिछी एक चौकी पर लेट गए। बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें मनाया और उनकी चौकी पर चादर के नीचे खादी भंडार की एक मोटी दरी बिछा दी। वे उस पर लेट गए। मैंने उनके कहने के अनुसार चौकी के बगल की खिड़की पर एक लोटा पानी रख दिया। वे सुबह जिसे तड़के सुबह कहा जाए उठे। बाथरूम से आकर चापाकल के पास बैठकर दातून से दांत धोने लगे।
मैंने पूछा कि किस पेड़ से आपने दातुन तोड़ लिया? उन्होंने बताया कि मैं हमेशा अपने बैग में दो-तीन दातुन रखता हूं। मैं उन्हें थोड़ा रुकने और नाश्ता आदि करके निकलने की बात करता कि अपने बैग में उन्होंने अपना गमछा कसा और कहने लगे कि यदि रुकूंगा तो देर हो जाएगी।
रुकना ना पड़े इसलिए आपके पिताजी के उठने के पहले ही मैं चले जाना चाहता हूं। अभी निकलूंगा तभी आगे के कार्यक्रम में शामिल हो पाऊंगा। आप कभी मेरे गांव पितौझिया जरूर आइये। इतना कह कर वे बाहर जाने लगे। मैंने उनके निश्चय को परख लिया। आगे रुकने की बात नहीं की। उनके साथ चलने लगा।
थोड़ी दूर जाकर मैंने प्रणाम किया और रुक गया। वे तेज कदमों से बस स्टैंड की तरफ जा रहे थे। मैं उस सच्चे समाजवादी को जाते हुए देख रहा था। मुझे सहज याद आ गया महात्मा गांधी का वह प्रसिद्ध वाक्य कि “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है”। कर्पूरी जी का जीवन सादगी और विनम्रता वाला तो था ही सहज और साझेदारी वाला भी था। सच्चे समाजवादी के इन गुणों को उन्होंने जैसे आत्मसात कर लिया था।
बिहार आंदोलन के फलस्वरुप मार्च 1977 में लोकसभा के आम चुनाव हुए। तानाशाही परास्त हुई। कालक्रम से बिहार की विधानसभा के भी चुनाव हुए। श्री कर्पूरी ठाकुर सर्व सम्मति से बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए। कर्पूरी जी की श्रद्धा जयप्रकाश जी थे और प्रेरणा थे डॉक्टर लोहिया। 100 में 60 के फार्मूले को वे मानते थे लेकिन 40 के प्रति भी अन्याय न हो इसके प्रति सजग थे। यही कारण था कि कर्पूरी जी के मित्रों में मंत्रिमंडल में उच्च जाति के लोग भी प्रमुखता से शामिल थे।
1978 में जब कर्पूरी जी ने आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान पिछली जातियों के पक्ष में लागू किया, तो आरक्षण विरोधियों ने कर्पूरी जी को शब्दशः गालियां देने वाले नारे लगाए। लेकिन उस माहौल में भी उच्च जातियों के विरुद्ध कभी भी हिकारत दर्शाने वाली बातें कर्पूरी जी ने कभी नहीं की। मुख्यमंत्री के रूप में इनका रहन-सहन तो आम जनता की तरह का था ही इनकी कार्य पद्धति भी जनोन्मुखी थी। लोगों से मिलना जुलना भी प्राय खुले में होता था। कभी-कभी किसी पेड़ के नीचे भी लोग मिलने जुलने के लिए बुलाए जाते थे। कुछ औपचारिक बैठकें भी बड़े ही अनौपचारिक माहौल में हुआ करती थी। हालांकि कर्पूरी जी के समाजवादी चरित्र और जज्बे के बावजूद सरकार की समाजवादी नीतियां नौकरशाही तंत्र में उलझ पुलझ कर रह जाती थी। फिर भी पिछड़ों को आरक्षण के अलावा अंग्रेजी भाषा को स्कूलों में ऐच्छिक विषय बना देना कर्पूरी ठाकुर की एक बड़ी उपलब्धि थी ऐसा मैं मानता हूं।
अंत में मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कर्पूरी जी को मरणोपरांत ही सही जननायक की जो उपाधि जनता ने दी है वह उन पर बहुत सटीक बैठती है। आज अपनी मृत्यु के इतने दिनों बाद भी कर्पूरी ठाकुर हजारों समाजवादी और विभिन्न संगठनों के नेता और कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा श्रोत बने हुए हैं।