शख्सियत

डॉ आम्बेडकर और उनकी भारतीय विरासत

 

आमतौर पर डॉ बाबा साहेब भीम राव आम्बेडकर को एक दलित चिंतक, विचारक और सुधारक के रूप देखा जाता है। यही कारण है कि उनके विरासत का दावा दलित वर्ग बढ़-चढ़ के करता है। वहीं उनकी प्रासंगिकता अन्य सामाजिक समूह के लिए क्या है? इसके बारे मे हम प्राय: नहीं सोचते हैं। हम अक्सर गांधी, नेहरू और उनके विचारों को भारतीय परिपेक्ष्य मे देखते हैं, परंतु इसके विपरीत आम्बेडकर के भारतीय विरासत के बारे मे प्राय: कम बात करते हैं। आज डॉ आम्बेडकर के 130वी वर्षगांठ के अवसर पर हम प्रस्तुत लेख मे उनकी विरासत को साधारण भारतीय जन मानस के आईने से देखने का प्रयास करेंगे। और बात करेंगे कि आज के दिन उनको कैसे याद किया जाना चाहिए।

समकालीन विश्व परिदृश्य मे डॉ आम्बेडकर के स्पष्ट विचार बहुत ही महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। जब हम देखते हैं कि विश्व का समाज अलग-अलग समूहों, जातियों, धर्मों, नस्लों, और असमानताओं मे बाँटा जा रहा है। जब हर ओर हिंसा का बोलबाला है। जब बोलने का अधिकार छीना जा रहा है। जो बोलना चाह रहा है उसे जबरन चुप कराया जा रहा है। डॉ आम्बेडकर ने इन्हीं सब दुर्विचारों से पूरे जीवन लड़ाई लड़ी और विश्व समाज मे एकता,समानता, भाईचारा, और नागरिकता की बात करते-करते अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर दिया। लेकिन, क्यों आम्बेडकर के विचार विश्व समाज की आम जनता के लिए महत्वपूर्ण हैं? इसके कई कारण हैं।

पहला, उन्होने सामाजिक सच्चाई को वैसा ही बताया जैसे कि वह समाज मे है न कि जैसा हम उसे बनाना चाहते हैं। दूसरा, उन्होने हर एक मुद्दे को समाज के सबसे निचले स्तर पर स्थित मनुष्य की आँखों से देखने का प्रयास किया। तीसरा, अम्बेडकर का मानना था कि गरीब की नि:सहाय स्थिति एक व्यक्तिगत असफलता न हो कर उस सामाजिक व्यवस्था की हार है, जिसमे वह रहता है। अंत मे उन्होने निचले तबके के मनुष्य से यह नहीं पूछा कि हम कौन हैं? हमारी पहचान क्या है? बल्कि यह पूछा कि हमारे साथ कैसा व्यवहार होता है? और क्यों? समकालीन समय मे आम्बेडकर को एक महान विचारक, एक सामान्य जननेता, एक लोकतन्त्रवादी और भगवान बुद्ध की शिक्षा को प्रसारित करने वाला अहम आदिपुरुष माना जाता है।

वहीं भारत की बात करें तो उन्हे देश के सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक विचारको मे गिना जाता है। देश के इतिहास को प्रभावित करने मे उनकी प्रासंगिकता उनके समय से आज तक बनी हुई है। इसके अलावा उनके शिक्षण की प्रासंगिकता हर उस जगह पर निरंतर जारी है जहा पर भी श्रमजीवी पाए जाते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार और जीवनी लेखक रामचंद्रा गुहा, का कहना है कि स्वतन्त्रता आंदोलन के समय के सभी राजनैतिक विचारकों मे से आम्बेडकर ही एक मात्र हैं जो कि समकालीन समय मे बृहद भारतीय अपील रखते हैं। शेष लगभग सभी विचारक पार्श्व मे चले गए हैं। सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस का आकर्षण केवल उनके राज्यों, गुजरात और पश्चिम बंगाल, तक ही सीमित है। तो मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद को आज कोई मुस्लिम नेता भी अपने भाषण मे याद नहीं करता। वहीं जवाहरलाल नेहरू की आलोचना राइट और लेफ्ट दोनों गुट कर रहे हैं। कुछ गांधीवादी विचारको को छोड़ कर गांधी भी विचारो से लुप्त से हो गए हैं। परन्तु आज के समय मे आम्बेडकर को पूरे भारत मे जाना जाता है। उनका प्रभाव भी समस्त भारत मे देखा जा सकता है। संविधान को हाथ मे लिए, पश्चिमी पोशाक पहने हुये, भारतजन को आधुनिकता और विकास का मार्ग दिखाती उनकी मूर्ति भारत के अनेक गावों, कस्बों और शहरों मे देखी जा सकती है। भारत रत्न डॉ. आम्बेडकर ने अपने जीवन के 65 वर्षों में देश को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक एवम् संवैधानिक क्षेत्रों में अनगिनत कार्य करके राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

परंतु दुख की बात यह है कि सभी चीजों का बंटवारा करते-करते, डॉ आम्बेडकर के विचारों का भी बंटवारा कर दिया गया है। और उनकी विरासत का भी सीमांकन कर दिया गया है। साधारणतः आज लोग उनको देखने के लिए दलित विचारक और संविधान के निर्माता का चश्मा लगाए रहते हैं। जबकि गांधी और नेहरू के बाद आम्बेडकर ही इस तिगड़ी का हिस्सा बन कर आधुनिक भारत के निर्माता कहलाए जाते हैं। हालांकि अन्य दोनों से उनका वैचारिक मतभेद था। क्योंकि आम्बेडकर एक ऐसे समाज की संरचना करना चाहते थे जहाँ नागरिकता व्यक्तिगत बराबरी के आधार पर हो, नाकि व्यक्ति की जाति, धर्म, नस्ल, और जन्म के आधार पर।

लेकिन समकालीन भारतीय राजनीति मे एक अजीब सा प्रकरण देखने को मिल रहा है। आज सभी राजनैतिक दल आम्बेडकर और उनके विचारों को हथियाने की कोशिश करने लगे हैं। आम्बेडकर को बिना सम्पूर्ण रूप से जाने उनको कई सिमित खाँचों में बांटने से हम एक महान मूल विचारक को खो देते हैं, जो की निश्चित रूप से बीसवीं सदी के एक महान विद्वान राजनैतिक नेता थे। परन्तु उनके और उनके विचारों के साथ कभी न्याय नहीं हुआ। कभी उनको दलित आइकन बना कर हमने उन्हें पूरा भारत का बनने नहीं दिया, तो कभी मात्र भारत के सविंधान निर्माता मान कर उनको समस्त मानवता का गुरु बनने से रोक दिया।

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आम्बेडकर सही माइने मे एक रेनेसां पुरुष थे। उनके चार दशक के कार्यकाल मे उन्होने कितने ही विविध मुद्दों पर बहुआयामी तरीकों से कार्य किया। वह एक झलक मे ही चमत्कृत करने के लिए पर्याप्त है। जैसे उन्होने लिखा क्यों भारत को गोल्ड स्टैंडर्ड को अपनाना चाहिए, कैसे भारतीय रुपए और अँग्रेजी पॉण्ड का एक्स्चेंज तय होना चाहिए, कैसे हम प्रांतीय वित्त व्यवस्था का विकास कर सकते है, जाति प्रथा का उदय कैसे हुआ, किसानों की व्यथा का एक मात्र समाधान आर्थिक आधुनिकता ही क्यों है, क्यों जाति प्रथा का सुमूल नाश आवश्यक है, कैसे पददलित लोगों के अधिकारों को संरक्षित कर सकते हैं, गांधी की समालोचना, हिन्दू कट्टर पंथ पर हमला, क्यों पाकिस्तान का बनना भारत के लिए अच्छा है, संविधान के बारे मे, भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन, महात्मा बुद्ध उनका समय और आज के समय मे उनकी प्रासंगिकता। उनकी समझ का दायरा बहुत ही बृहद था, आर्थिक से लेकर, राजनैतिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, कानून और मानव सभ्यता को समेटे हुये।

लेकिन आज यह लगभग फैशन सा बन गया है की कोई भी मुद्दा हो बस आम्बेडकर को कोट कर दो। बहुत समय तो उनके विचारों को उनकी समग्रता के बगैर सेलेक्टिव तरीके से कोट करके अपना उल्लू सीधा किया जाता है। और यह किसी खास वैचारिक समूह तक सीमित नहीं है। बल्कि लगभग सभी इस बहती गंगा मे हाथ धोना चाहते हैं। फिर वो चाहे हिन्दुत्व समूह हो, कांग्रेस हो, लोहियावादी हो, कम्यूनिस्ट हो, खुले बाजारवाद के समर्थक हो या समाजवादी हो। लेकिन दुख की बात यह है कि इन सब सेलेक्टिव कोटिंग से समस्त मानव जाति के लिए एक बृहद आम्बेडकरवादीय प्रोजेक्ट कभी भी बड़े पैमाने उभर कर नही आ सका, जिसका कि वह असल मे हकदार था।

इस मामले मे गांधीवाद, लेनिनवाद, मार्कस्वाद कई प्रोजेक्ट है जो किसी समूह, नस्ल, व्यक्ति तक सीमित न हो कर समस्त मानव जाति के है। आम्बेडकर सही मे हकदार होते हुए भी कभी भी वो स्तर को नहीं पा सके । जैसे कि गांधीवाद एक बृहद प्रोजेक्ट बना और उनके विचारों का दायरा एक प्रांत, एक देश, एक मानव समूह तक सीमित न हो कर समस्त मानव सभ्यता के लिए हुआ। यह गांधी के जीवन काल मे ही प्रारम्भ हो गया था जिसने कि उनके बाद बहुत ही बड़े पैमाने पर विस्तार पाया। इसके विपरीत आम्बेडकर और उनके विचारों को हमेशा से ही खाँचो मे बाँट कर सीमित रखा गया। लेकिन उनके विचार मे कोरी दार्शनिकता नहीं थी, बल्कि इसके साथ-साथ प्रैगमैटिक सोच का भी समावेश था।

आम्बेडकर अपने कोलम्बिया के दिनों से ही दार्शनिक जॉन डेवी से बहुत ही प्रभावित थे। डेवी आम्बेडकर के मेंटर भी थे। डेवी तथ्यात्मक दार्शनिकता (प्रैगमैटिक फिलोसोफी) स्कूल के जनक कहे जाते हैं। और आम्बेडकर भी इसी को मानते थे। इस स्कूल के अनुसार व्यक्तिगत आजादी के लिए आधुनिकता का होना बहुत ही आवश्यक है। इसी लिए समाज मे सुधार के लिए वह आधुनिकता की ओर ही देखते थे।

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लेकिन यदि आज के संदर्भ मे जो डेवी का एक सारगर्भित विचार था जिससे आम्बेडकर सबसे ज्यादा प्रेरित हुये थे। उनका मानना था कि लोकतन्त्र मानव जाति के लिए सामूहिक जीवन साझा करने का एक उत्तम तरीका है। लोकतन्त्र के दो पारस्परिक संबन्धित पहलू हैं- प्रोसीजरल डेमोक्रेसी (procedural democracy) और सबस्टैनसिव डेमोक्रेसी (substantive democracy)। प्रोसीजरल डेमोक्रेसी लोकतन्त्र के कार्यविधि संबंधी पहलू को बताता है। परंतु यह लोकतन्त्र का समग्र नहीं है। लोकतन्त्र केवल निश्चित समय पर निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने का नाम नहीं है। ना ही ये आम जनता के चुनावी प्रक्रिया मे अधिक से अधिक भागीदारी का नाम है। बल्कि लोकतन्त्र जीवन जीने का एक तरीका है।

एक मुख्य विचार है कि मनुष्य सामाजिक वयवस्था से संचालित होने के साथ-साथ, अपने निरंतर क्रियाकलापों से सामाजिक सरंचना को भी प्रभावित करते हैं। यह सब लोकतन्त्र के दूसरे पहलू सबस्टैनसिव डेमोक्रेसी मे आता है। यह पहलू चुनाव तक सीमित न हो कर चुनाव के इतर देखता है। वह देखता है कि कैसे लोकतन्त्र लोकहित के लिए काम करता है। कैसे आम जन लोकतन्त्र मे एक व्यापक भूमिका निभाते है। लेकिन यह तभी संभव है जब एक जागरूक नागरिक हो। और वह अच्छी शिक्षा और समानता के अधिकार के द्वारा ही हो सकता है। इसी कारण आम्बेडकर ने बहुत ही अच्छी तरह से प्रैगमैटिक फिलोसोफी को भारतीय परिस्थिति के हिसाब से संशोधित किया था। जो उनके बाद कोई दूसरा नहीं कर सका। और तो और जो उनका मुख्य उद्देश्य लोकतन्त्र को लेकर था वह भी अभी तक पूरा नहीं हुआ। उनका मानना था कि प्रोसीजरल डेमोक्रेसी कुछ समय बाद सबस्टैनसिव डेमोक्रेसी को रास्ता दिखाएगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। आज हम प्रोसीजरल डेमोक्रेसी के क्रियान्वयन मे तो महारत हासिल कर गए लेकिन सबस्टैनसिव डेमोक्रेसी अभी भी मील का पत्थर है जिसे पाना बाकी है।

आम्बेडकर सदैव वस्तुओं को बड़े पैमाने पर देखने के पक्षधर थे। तो वह केवल प्रैगमैटिक दृष्टिकोण न लेकर एक बड़े पैमाने को भी तलाशते थे। और आज हम अगर उनको सेलेक्टिव तरीके से कोट करते हैं तो उस समग्रता को खंडित करते हैं। उन्होने एक उदारवादी अर्थशास्त्री की तरह गोल्ड स्टैंडर्ड का समर्थन किया तो, उन्होने मजदूर यूनियन का भी साथ दिया और राज्य के समाजवाद को भी प्रतिबिम्बित किया। उन्होने हिन्दू समाज की आलोचना की तो साथ ही अविभाजित भारत के मुस्लिम राजनीति के कड़वे सच को भी उजागर किया। वह संविधान की आत्मा थे तो साथ ही उन्होने एक बार गुस्से मे इसको जला देने तक की भी बात कही। वह चाहते थे की भारत मे एक मजबूत केन्द्रीय वयवस्था हो तो साथ ही उन्होने हिन्दी बहुल राज्यों के भारतीय राजनीति मे वर्चस्व की ओर भी इशारा किया। इस तरह से उन्होने अपने विचारों को एक विस्तृत कैनवस पर उतारा जहाँ भारत के हर अंग को छूने का प्रयास किया। इसी लिए सही माइने मे वह एक सम्पूर्ण भारतीय विचारक थे। इसीलिए हमे एक वृहद आम्बेडकरवादी प्रोजेक्ट को बढ़ावा देना चाहिए जो कि भारतीय समस्याओं को उसकी समग्रता के साथ देखे।

लेखक लेगसी ऑफ आम्बेडकर: एनालिसिस एंड अप्रेसल (2019,रावत पब्लिकेशन्स) के संपादक हैं।

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धनंजय कुमार

लेखक सेंटर फॉर कल्चर एंड डेवलपमेंट, वडोदरा ( गुजरात) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +919427449580, dkdj08@gmail.com
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