विनाश हो गया है, आदिवासियों के लिए विकास
आजादी के बाद से हमारे देश में जिस तौर-तरीके का विकास हुआ है उसने आदिवासी इलाकों में उसे विनाश का दर्जा दे दिया है। खनन, वनीकरण, ढाँचागत निर्माण और भांति-भांति की विकास परियोजनाओं ने आदिवासी इलाकों की मट्टी-पलीत कर दी है। विकास का यह मॉडल ग्रामीण, खासकर आदिवासी क्षेत्रों को कैसे बर्बाद कर रहा है? प्रस्तुत है, इस विषय पर राजकुमार सिन्हा का यह लेख।
अब केवल विकास करते रहना ही जरूरी नहीं है, बल्कि विकास और विकास नीतियों की समीक्षा भी जरूरी है। वर्ष 1986 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने विकास के अधिकार की उद्घोषणा तैयार की थी जिस पर भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए थे। इस संधि के अनुसार विकास सभी नागरिकों का अधिकार है। विकास परियोजना के लिए तीन मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं। एक, प्रभावित व्यक्तियों की सहमति। दो, परियोजना से निर्मित संसाधनों के लाभ में हिस्सेदारी तथा तीन, विकास परियोजनाओं से प्रभावितों का आजीविका के संसाधनों पर अधिकार। वर्ष 2007 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने आदिवासी समुदायों के अधिकारों का घोषणा-पत्र जारी किया था। इसमें आजीविका के संसाधनों पर जनजातीय समाज के अधिकार सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण प्रावधान है। दुर्भाग्य से भारत में ऐसी किसी भी अन्तराष्ट्रीय संधियों का अनुसरण नहीं किया जाता।
भारत में अधिकांश परियोजनाएँ संविधान की पाँचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित की जाती रही हैं। संसाधनों के मामले में आदिवासी क्षेत्र समृद्ध रहा है। इस इलाके में देश का 71% जंगल, 92% कोयला, 92% बाक्साइट, 78% लोहा, 100% यूरेनियम, 85% तांबा, 65% डोलोमाइट इत्यादि की भरमार है। भारत के जलस्रोतों का 70% आदिवासी इलाके में है तथा करीब 80% उद्योगों के लिए कच्चा माल इन्हीं क्षेत्रों से मिलता है। यह प्रकृति की ओर से मिला वरदान है, लेकिन यही वरदान इनके लिए चुनौती भी है, क्योंकि इन्हीं संसाधनों की लूट और कब्जे को लेकर देश और दुनिया के कार्पोरेटों की उस पर गिद्ध-दृष्टि लगी है। इन संसाधनों पर काबिज होने की प्रक्रिया काफी तेज हो गयी है। ‘योजना आयोग’ के अनुसार आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं से लगभग 6 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं जिसमें 40 प्रतिशत आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन-निवासी हैं।
‘वन, पर्यावरण एवं जलवायु-परिवर्तन मन्त्रालय’ के आँकड़ों के अनुसार 2004 से 2013 के बीच उद्योगों और विकास परियोजनाओं हेतु 2.43 लाख हैक्टर वन क्षेत्र दिया गया था। इन्हीं वर्षो में 1.64 लाख हैक्टेयर वनभूमि तेल और खनन की हेतु दी गयी थी। पिछले पाँच वर्षों में देश की लगभग 55 हजार हैक्टर वनभूमि विकास परियोजनाओं हेतु परिवर्तित की गयी है। इसमें सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में (12 हजार 785 हैक्टर) वनभूमि परिवर्तित की गयी है। मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा ‘भारतीय वन अधिनियम-1927’ की ‘धारा (4)’ के अन्तर्गत अधिसूचित वनखण्डों के 22 वन मण्डलों में आदिवासियों की लगभग 27 हजार 39 हैक्टर ऐसी निजी भूमि को अपनी ‘वार्षिक कार्य-योजना’ में शामिल कर लिया गया है जिसका कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। प्रदेश में कई हजार हैक्टर जमीन आज भी वन और राजस्व विभाग के विवाद में उलझी हुई है जहाँ 28 हजार पट्टे निरस्त किये गये हैं।
प्रदेश के विभिन्न जिलों के 6520 वनखण्डों में प्रस्तावित, लगभग 30 लाख हैक्टेयर भूमि में नये संरक्षित वन घोषित किया जाना लम्बित है। इससे ‘राष्ट्रीय उद्यान,’ ‘अभयारण्य’ बनाने की प्रकिया तेज होगी तथा वन में निवास करने वाले समुदायों का निस्तार हक खत्म किया जाएगा। अब तक ‘राष्ट्रीय उद्यानों’ एवं ‘अभयारण्यों’ से 94 गाँवों के 5 हजार 460 परिवारों को बेदखल किया जा चुका है तथा 109 गाँवों के 10 हजार 438 परिवारों को चरणबद्ध तरीके से बेदखली की कार्यवाही जारी है। वर्तमान मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 12 नये अभयारण्य बनाने के प्रस्तावों पर कार्य जारी है।
केवल नर्मदा घाटी में बन चुके और प्रस्तावित बाँधों से अभी तक लगभग 10 लाख लोग विस्थापित एवं प्रभावित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश सरकार जिस प्रकार किसानों को विस्थापित करती जा रही है, उसका सबसे ज्यादा असर आदिवासी एवं दलित परिवारों पर हो रहा है। वर्ष 1993-94 में प्रदेश में 3.85 लाख परिवार भूमिहीन थे, जबकि 2004-2005 में भूमिहीन परिवारों की संख्या बढ़कर 4.64 लाख हो गयी है। विस्थापन के दुष्प्रभावों के अध्ययन से पता चला है कि बच्चों पर इसका सबसे अधिक असर होता है। विस्थापन के बाद 20.40 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोङने पर मजबूर होते हैं, 26.68 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं तथा 24.81 प्रतिशत बच्चे बीमारी के शिकंजे में फंस जाते हैं। जाहिर है, आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर विस्थापन, बेरोजगारी, पलायन आदि लाकर आदिवासी समुदायों को उनके समाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से बाहर हो जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
सन् 2010-11 में देश की 15 करोड़ 95 लाख 90 हजार हैक्टर भूमि पर खेती होती थी जो 2015-16 में घटकर 15 करोड़ 71 लाख 40 हजार हैक्टर भूमि हो गयी, अर्थात् 24 लाख 50 हजार हैक्टर भूमि गैर-कृषि कार्य में परिवर्तित हो गयी। नतीजे में वर्ष 1951 में भारत के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों की जो हिस्सेदारी 51.88 प्रतिशत थी, वह 2011 में घटकर 15.78 प्रतिशत के निचले स्तर पर आ गयी। स्वतन्त्रता के बाद 1950-51 में भारत की सरकार पर कुल तीन हजार 59 करोड़ रूपये का कर्जा था जो वर्ष 2016-17 में 74 लाख 38 हजार करोड़ रुपए हो गया था और अब 2019-20 में यह बढ़कर 88 लाख करोड़ रुपये हो गया है।
उपरोक्त तथ्यों से साफ़ है कि प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है, वह न सिर्फ समाज और मानवता के लिये दीर्घकालीन संकट पैदा कर रहा है, बल्कि उसका लाभ समाज और देश को भी नहीं हो रहा है। इस दोहन से देश के बङे पूँजीपति घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं जिससे वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें। इसमें वे सफल भी हो रहे हैं। दूसरी ओर, आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज्यादा कर्जे लिए जा रहे हैं। आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक उलझाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएँ बढाती है, फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढाँचे पर समझौता करवाती है।
ऐसी शर्ते रखी जाती हैं जिससे समाज के संसाधनों पर पूँजी का एकाधिकार हो सके। इसके बाद भी मन्दी आती है तो उससे निपटने के लिए कार्पोरेट रियातें माँगती है। दिसम्बर 2016 में सरकारी और गैर-सरकारी बैंकों में कुल 6.97 लाख करोड़ रुपये ‘अनुत्पादक परिसम्पत्तियाँ’ (एनपीए) था। वर्तमान केन्द्र सरकार ने कार्पोरेट टेक्स 35 प्रतिशत से घटाकर 25.2 प्रतिशत कर दिया है, जिससे सरकार को एक लाख 45 हजार करोड़ रूपये का घाटा होगा। ऐसे में विकास के विरोधाभास को जल्द-से-जल्द समझना होगा तथा विकास की ऐसी नई परिभाषा बनानी होगी जिसे समझने-समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्यकता न पड़े। (सप्रेस)
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