बिहार

बात बकलेल बिहार की

 

चाहे अमरीकी चुनाव हो या बिहार का, एक बात ध्रुव है- चुनावी समीक्षा पर्याप्त नहीं लगते। अख़बारों में पढ़ें या टेलीविज़न पर देखें, चुनावी समीक्षा पर परीक्षा का बोध भारी हो जाता है। कौन कितना जानता है, किसके पास कितना डाटा है, कौन कितना जातीय समीकरण समझता है? ऐसे प्रश्नों के आलोक में जो समीक्षाएँ होते हैं उनमें एक प्रकार की समझ तो होती है। लेकिन बहुत मारा-मारी, काटा-पिटी भी होती है। व्यावसायिक लाभ के मद्देनज़र बातें कही-सुनी जाती हैं। किसका डाटा कितना सटीक- बड़ा मुश्किल होता है तय करना। और अंततः वही होता है जो सदैव होता रहा है। एग्जिट पोल के समय पर सुनाई देता वही महाभारत वाला प्रश्न- अश्वत्थामा! नरो वा कुंजरो! कौन सा वाला अश्वत्थामा जीतेगा, या हारेगा, या त्रिशंकू हो जाएगा!

भारतीय चुनाव हो या फिर अमरीकी, या बिहारी, सब जगह चुनावी समीक्षाएँ एक हीं खेल में तल्लीन पाए जाते हैं। यह है एक प्रकार का कौन बनेगा करोड़पति जैसा खेल। इस सब जादुई-लुभावने हल्लागुल्ला  के बीच बेचारे नागरिक और उनके ‘मन की बात’ तो सामने आती भी नहीं। जैसे नेताओं को जनतन्त्र में जन की चिन्ता नहीं बल्कि जनमत का लोभ मात्र है। वैसे हीं विद्जनों, समीक्षकों, विश्लेषकों को जन और उसके मानस से कोई लेना देना नहीं। ये शब्द सुनाई पड़ सकते हैं समीक्षा कार्यक्रमों में लेकिन उनका कोई मायने नहीं होता। अगर होता तो वो समीक्षाएँ बताते कि जन मानस में जो राजनीति का बोध होता है उसे समझने के लिए कुछ और भी चाहिए। डाटा-डिबेट से आगे बढ़कर थोड़ा व्यंग्यात्मक विमर्श! आख़िर चुनाव के दिन वोट डालने वाले नागरिक भी तो ऐसे हीं सोचते हैं। हँसी-मज़ाक, गपशप, के ज़रिये अपने अपने विचार बनाते हैं। कौन कहता है कि नागरिक वैसे हीं होते हैं जैसे हम नागरिक शास्त्र, राजनैतिक विज्ञान, समाज शास्त्र में पढ़ते हैं?बिहार विधानसभा चुनाव: यहां जानिए बिहार विधानसभा चुनावों के कार्यक्रम की हर अहम तारीख | ET Hindi

तो प्रश्न उठता है- क्या चल रहा था बिहारियों के मन में और क्या हो रहा था राजनैतिक दलों के बीच? दोनों हीं प्रश्न अभेद्य क़िले की तरह हैं। कितना भी डाटा एकत्र कर लें, अनुमान हीं एकमात्र सहारा होगा। तो अनुमान करते हुए थोड़ी सी ठिठोली करते हैं। लेकिन ठिठोली को एक ज़मीन देते हैं ताकि उसे खड़े रहने में दिक्कत ना हो।

नागरिकता का समाजशास्त्र 

बिहारी भी वैसे हीं हैं जैसे आम तौर पर नागरिक होते हैं- खांटी बकलोल! यह कोई नकरात्मक उपमा नहीं है। अपने आपको होशियार समझना तो मानवीय गुण है। और होशियारी करते हुए छुपे हुए डर, भविष्य की चिन्ता, दलों के चुनावी खेल, को समझने का काम सजग नागरिक करता है। और ऐसे हीं होशियारी के बीचोबीच नागरिकों के परसेप्शन पनपते-पलते हैं। यही है जो नागरिकों को खांटी बकलोल बनाता है। बुद्धि-विवेक-तर्क के साथ कहे-सुने, महसूस की गयी चिन्ताएँ, और अजीबोग़रीब भ्रांतियों का तालमेल हीं बकलेलपने को गढ़ता है। हमेशा की तरह हीं इस चुनाव में भी बिहारी नागरिकों ने बकलेल होने का पुख़्ता सबूत दिया। और इस व्यंगात्मक लेख में बिहारी बकलेलपने का भरपूर सम्मान होना चाहिए।

राजनैतिक समाजशास्त्र के अनेक विद्जनों ने ऐसे हीं राजनैतिक-सामाजिक व्यवहार पर प्रकाश डाला है। देस-परदेस के अनगिनत विचारकों ने बताया है कि राजनैतिक व्यवहार में समाज और संस्कृति गुत्थमगुत्था होते हैं। इसमें रैशनलिटी है, बुद्धि-विवेक-तर्क आदि हैं।  और साथ हीं रंगीले-रसीले भावसिक्त, दिलफ़रेब-दिलकश अफ़साने भी हैं। भारी जंगल है ऐसी भावनाओं के जिनके सिर मिलें तो पैर नहीं। अब ऐसे राजनैतिक व्यवहार को शुद्ध-विशुद्ध राजनैतिक विज्ञान अपने बूते कैसे सुलझाए? उन्हें सोशियोलॉजी-एँथ्रोपोलॉजी की तरफ रूख़ करना पड़ेगा। फिर समझ में आएगा कि बिहारी नागरिकों का बकलेल होना कोई बहुत अद्भुत बात नहीं है। तभी ये भी दिख जाएगा कि बकलेल-पने में बिहारी नागरिकों की प्रतियोगिता अमरीकी नागरिकों से भी देखी जा सकती है। और थोड़े हीं दिनों में हमें यह भी दिखाई देगा कि बिहारी बकलेलपना का सबसे निकटस्थ प्रतियोगी बंगाल की उर्वर भूमि पर उगते हैं। सच पूछिए तो सामाजिक-राजनैतिक व्यवहार के दृष्टिकोण से समस्त विश्व हीं बकलेल भूमि में तब्दील हो जाए। और हम सब उसे बकलेलता का भूमंडलीकरण कह सकेंगे।Bihar Elections Result LIVE: जानें किस सीट पर कौन चल रहा है आगे - Bihar assembly elections seat wise results 2020 winner loser list rjd bjp jdu live updates - AajTak

हमारे अनेक शिक्षक थे जो हमें राजनैतिक समाजशास्त्र पढ़ाते हुए अपने व्याख्यानों में सिद्धांतों और तकनीकी विश्लेषणों के साथ क़िस्से-कहानियों, परिहास-मुहावरों आदि को रखते थे। इससे राजनैतिक समाज बड़ा सजीव लगने लगता था। वो कोई वोट डालने वाले मशीन नहीं लगते थे। नागरिक एक सामाजिक प्राणी की तरह जान पड़ते थे। और क्योंकि वो सामाजिक नागरिक थे उनकी कमज़ोरियाँ भी सहज लगती थीं। उनके हँसी-ठठ्ठा में भी गूढ़ मायने होते थे। वैसे हीं शिक्षकों और  विचारकों का अनुशरण करते हुए इस लेख में बिहारी नागरिकों को देखते हैं।

सबका यही गत है- राम नाम सत है

बात शुरू करते हैं नदी के उस हिस्से से जहाँ पानी गहरा था। कांग्रेस का नाम सुनते हीं बकलेल बिहारियों का बकलेलपन उमड़ते-इठलाते सामने आने लगता था। जैसे कांग्रेस किसी पार्टी का नाम नहीं बल्कि किसी के साले-साली, या समधी-समधिनी का नाम हो। एक अनूठा लोक व्यवहार है, हंसी-मज़ाक और गाली-गलौज का। कृषक लोक समाज में ये देखा जाता था। और इसका अवशेष अभी भी पारस्परिक रिश्ते-नातों में पाते हैं। किसी का साला, यानी पत्नी का भाई जैसे हीं गाँव में दाखिल होता सभी गाँव वाले हँसते, और गालियों से उसका स्वागत करते। क्या अपने क्या पराये, साला हो तो सीधे रंगीली गालियां, और साली हुयी तो रंगीली नज़रें भी। सब हँसते और गाली देते। कांग्रेस, जैसे बिहारी नागरिकों का साला हो गया। जो सुने, जहाँ सुने, दो-एक गाली बके और ठठा के हँसे। जो कांग्रेस का हिमायती लगे उसकी तो खाल उतर जाती। और ऐसे उतरती कि कभी ना हँसने वाला भी ज़मीन पर लोटपोट होकर हँसे। और ऐसे साले, कांग्रेस पार्टी ने क्या कर दिया? इतने सारे सीटों पर अपने नुमाइंदे खड़े कर दिए? साले के सभी प्रत्याशियों की वो धुलाई हुयी कि पूछिए मत। और सब जानते हैं कि एक साले की वजह से पूरे जीजा, यानि महागठबंधन, की क्या गत हुयी!

सवाल बस हार-जीत का नहीं। क्योंकि मतदान के महीनों पहले से हीं बिहारियों ने चाय की दुकानों, बरामदे-दालानों, चौक-गलियों पर एक विमर्श छेड़ा हुआ था। उनका सीधा-सरल सवाल था- इस साले ने कौन सा वियाग्रा खा लिया? किस हक़ीम ने इसे क्या चूरन खिला दिया कि वो आत्मविश्वास में ये आत्महत्या करने चल पड़ा? ये तो सबको मालूम है कि पप्पू डांस नहीं कर सकता। लेकिन पप्पू के जो सहयोगी-सहकर्मी-सलाहकार छोकरा टीम है उन्हें तो समझना चाहिए था! या वो भी भाँग पी कर धुत्त हो गए हैं? बहरहाल, बड़ी निराशा हुयी जब कांग्रेस के पूरे अर्थगणित में बकलेलपना देखा गया। फिर क्या, बिहारी नागरिकों के बकलेलपने को कस के ज़ोर मिल गया। अनर्गल बातें होती रहीं, जैसा कि साले-बहनोई के बीच होता है।Know why Chirag Paswan fought elections alone | जानिए क्यों चिराग पासवान ने अकेले लड़ा चुनाव, क्या हुआ उन्हें फायदा और क्या थे उनके पास ऑप्शन | Hindi News, Zee Salaam ख़बरें

मज़े की बात तो ये कि सुसाशन बाबू के गठबंधन के मुखिया पार्टी ने अपने ‘मन की बात’ कर दी। भारी बकलेलपने का सबूत दे दिया। दिवाली से पहले हीं अपना चिराग़ भेज दिया। फड़फड़ाते लौ के साथ चिराग़ पासवान जहाँ-तहाँ पासवानों को नए पगडंडी दिखा रहा था। अपने झोपड़े जैसे दालान में बैठे हुए साठ पार किए बैजू दास ने अपने दोस्तों को समझाया था। “नितीश से अब कुछ ना होगा, चिराग़ नया लड़का है लेकिन अपने पप्पा का बेटा है, वही कुछ करेगा”। और बैजू के दोस्तों ने हामी भरी। किसी ने यह भी जोड़ दिया, “चिरगवा को मोदी जी का आशीर्वाद भी है”। बस फिर क्या, हो गया सुसाशन बाबू का कल्याण, कट गया अति पिछड़ा नामक केक का हिस्सा!

यह सब तो ठीक है। चलता है। लेकिन तेजस्वी का तेज़ कौन लील गया? उसका सूरज तो लगभग उग हीं आया था। पुराने ज़माने के लालू भक्त जादो जी उनके नाम का चालिसा तक गाते थे। लेकिन वो भी कहते हुए सुने गए, “ऐसा दलिद्दर घुंस गया है कि केतनो भोट दे दो लालू का बेटा ना आएगा”। बिहारी लोक भाषाओं की महिमा अपरंपार है। अब दलिद्दर या दलिद्दराही जैसे गूढ़ शब्दों को हीं ले लीजिये। पूरा का पूरा थ्योरी इसमें समा जाए। फिर राष्ट्रीय जनता दल क्या चीज़ है। इसमें जनम-करम-मरण सब समाहित है। कहते हैं ना पूर्वजों का किया पाप भविष्य में उनके बच्चों को ढोना पड़ता है। ज़मींदारों के बहीखाते लुट गए। लेकिन उनके पोते-परपोते दलिद्दराही को ढोते रहे। गाँवों में बड़े बुज़ुर्ग युवकों को यही समझा रहे थे वोटिंग से पहले, “केतना भी बोलो, तेजसविया नहीं बनेगा मुखमंत्री”। क्या यादव क्या मुसलमान। मुसलामानों ने तो धोबिया पछाड़ पलटी मार दी थी। ठेंठ जोलाही में अकरम मियां ने अपनी अधखिचड़ी दाढ़ी को खुजाते हुए चौक पर यही कहा था, ‘अब हमरा मुस्तकबिल ओवेसी साहेब के हाथ में है’। मामला साफ़ था, मा-य यानि मुसलमान-यादव समीकरण टूट गया था। और तेजोमय तेजस्वी इसे देख भी नहीं पाए थे, या देख कर अनदेखा कर दिया था।Bihar: Nitish's MLA Became A Fan Of Tejashwi Yadav's Unemployment Journey - बिहार: नीतीश के विधायक हुए तेजस्वी यादव की बेरोजगारी यात्रा के फैन | Patrika News

और शायद इसीलिए तेजस्वी सवर्णों का पुराना डर भी नहीं हंटा पाए। सभी राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, लाला जी लोगों ने रात-दिन यही कहा, ‘फेर से जंगल राज हो जायेगा’। जैसे हीं कोई अख़बारी अनुमान यह बताता कि तेजस्वी उभर रहे हैं, चारों तरफ वही पुरानी चिन्ता नयी हवा बन कर दौड़ती। माँ-बेटी सब ख़तरे में होंगे। गुंडा बनना हीं एकमात्र लक्ष्य हो जाएगा युवकों का। बिजली-सड़क तो जायेगी हीं उसके साथ सामाजिक-मानसिक प्रताड़ना अलग। पाँड़े जी तो सबको कहते घूम रहे थे, ‘देख रहे हो ना, अभी तेजसविया आया भी नहीं है और गुंडा सब कैसे छप्पन इंची देखा रहा है’। पुरानी ज़मीन तो खिसक हीं रही थी, कुछ नया जनाधार भी तैयार नहीं हो रहा था।

कांग्रेस के गाँधी बंधुओं और राजद के यादव बंधुओं में शायद यही समानता है। खिसकी हुयी ज़मीन पर खड़े होकर जुमले गिराने की। उन्हें समझ में नहीं आता कि हरेक नेता जुमले गिराने मात्र से हीं मोदी नहीं बन जाता। मोदी बनने के लिए मोदी-मगज चाहिए जो इनके पास नहीं। और जैसा अब तक दिखायी-सुनायी देता है, इन नवयुवकों के पास कोई वैकल्पिक राजनीति भी नहीं है। थोड़ा सा मोदी ब्रांड, थोड़ा केजरीवाल ब्रांड, और थोड़ा सा पुराना ढर्रा अपना कर भला कोई विकल्प दे सकेंगे ये गाँधी-यादव युवकगण?वाम दलों ने बिहार में मतगणना के आखिरी चरणों में अनियिमतता का अरोप लगाया

बहरहाल इन सब बकलेलपने के बीच नागरिकों को विकल्प की तलाश तो है हीं। इसीलिए तो वामपन्थी नारेबाज़ी को चाव से सुना और वोट भी दिया। थोड़ा बहुत वही रुझान तेजस्वी के पक्ष में भी दिखा। तो मामला सचमुच एक भाव-भंगिमा भरे नाटक का है। बिहारियों का परसेप्शन पूर्णतः बकलेलपन के आधार पर बना। और उसी तरह का वोट भी पड़ा।

नतीजतन

उपरोक्त कही गयी सभी विचारों को पूर्णतः कपोल कल्पित मानते हुए खारिज किया जा सकता है। कोई डाटा नहीं है इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बस एक बकलेलपना है जो ये सब अनर्गल कहने की इजाज़त देता है। लोग भी वैसे हीं बकबक करते हैं जैसे रमेश सिप्पी के शोले में सूरमा भोपाली करता था, बड़ी बड़ी छोड़ते हुए। कुछ वैसे हीं बिहारी भी छोड़ते रहते हैं। और ये लेख भी छोड़ता है। ये अलग बात है कि इस बकलेलपने को नज़रअंदाज़ करने का जोख़िम लेते हुए आप चुनावी नतीज़ों की सोच लें। कौन सा क़िस्सा, कौन सा गप्प किस नतीजे  से जुड़ता है वो आपको साफ़ दिख जाएगा। इन बकलेल बिहारियों का सामाजिक राजनैतिक व्यवहार भी ऐसा हीं है, जैसा विश्व में अन्य जगहों पर होगा। बाइज़्ज़त बकलेल। जिनकी ज़रा भी दिलचस्पी हो इन सामाजिक-सांस्कृतिक मिट्टियों से सने नागरिकों के राजनैतिक व्यवहार को समझने में वो शायद इस बकलेलपने का महत्व समझ पाएँ। और नहीं समझते तो- जाने भी दो यारो!

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देव नाथ पाठक

लेखक साउथ एशियाई विश्विद्यालय में समाजशास्त्री हैं और उनकी लिखित पुस्तकें मैथिली लोक गीत, संस्कृति की राजनीति, दक्षिण एशिया के समाज आदि विषयों पर हैं। सम्पर्क +919910944431, dev@soc.sau.ac.in
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