किन्नर का सामाजिक यथार्थ – लता अग्रवाल
- लता अग्रवाल
जब परिवार में कोई तृतीयलिंगी बच्चा जन्म लेता है तो उसके होने की खबर गुप्त रखी जाती है, या तो वो जमीन में जिन्दा गाढ़ दिए जाते हैं, कूड़ेदान में फैंक दिए जाते हैं, या फिर किसी मंदिर या अनाथालय की सीढियों पर छोड़ दिया जाता है| जन्म होते ही ये बच्चे जो घर से बाहर कर दिए जाते हैं इसका बड़ा कारण है…समाज, क्योंकि समाज ही कहता है, देखो! देखो! उसने एक हिजड़े को जन्म दिया। प्रश्न उठता है हिजड़े का जन्म क्या पाप है…? नहीं| यह भी ईश्वर की एक संरचना है। ‘
महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी कहती हैं, “इतना सब हमारे साथ होने पर भी हमसे इतने सवाल…! और जो माता पिता इन संतानों को छोड़ देते हैं उनसे कोई प्रश्न नहीं…! यह कैसा न्याय है?” वाकई यह तो अन्याय है। उन्होंने भी गर्भ में नौ माह की अवधि पार की है, उनका भी जिस्म है, एक दिल है पास उनके भी रूह है हमारी तरह…. फिर क्यों उन्हें हाशिये पर डाला गया…? सीधा सा जवाब है, पुरुष सत्ता ने अपने वर्चस्व के लिए नारी को गौण और हिजड़ों को हाशिये पर डाल दिया।
बचपन जीवन की सबसे खूबसूरत अवस्था होती है, जिसकी स्मृति सभी सम्हालकर रखना चाहते हैं| किन्तु जो बचपन अपने ही घर के आँगन से निकालकर बाहर कर दिया गया हो क्योंकि उनका लैंगिक स्तर समाज के दोनों वर्गों से मेल नहीं खाता..! अपने ही जता देते हैं, यह परिवार के लायक नहीं, ऐसा बचपन ट्रेन में, सिग्नल पर भीख मांगकर कटता है। चोरी करता है, बलात्कार का शिकार होता है, फिर संक्रमित हो जवानी से पूर्व त्रासद मौत पाता है| यह है इस समाज का सामाजिक यथार्थ| लखनऊ हजरतगंज डेरे की गुरु माई पायल का जीवन इसकी मिसाल है कि अपने ही पिता की कोप भाजन बनी पायल को जब पिता ही फांसी पर लटकाना चाहता है तो उसके लिए उस घर से भाग जाने के आलावा कोई रास्ता नहीं रहता| मगर घर से बाहर की जिन्दगी का संघर्ष कितना दुष्कर है वाह पायल, सिमरन, काजल, अमृता जैसे लोग ही बता सकते हैं जिन्होंने इस संघर्ष का लम्हा-लम्हा जिया है| जिस भूख की अभिलाषा रही कि माँ अपने हाथों से निवाले मुंह में डाले उसी भूख ने ट्रेन की पटरियों पर से सड़ा हुआ,बदबूदार खाना उठाकर खाने पर मजबूर कर दिया| फिर पुलिस की बदनीयति की शिकार, ठण्ड की ठिठुरन में खलती रिश्तों की गर्माहट, टॉकीज में काम करना स्वयं को पुरुषों से बचाए रखने के लिए लड़के का रूप धारण करना, अंतत: अपने समाज के हाथों चढ़ जाना…?
कैथोलिक परिवार में जन्मी अमृता सोनी कहती हैं, “लोगों को लगता है ताली बजाकर कहना कि ‘ए देना रे दस रुपया’…. बहुत आसान है। हम कहते हैं गाड़ी के शीशे चढ़ाना आसान है। क्योंकि भूख की पीड़ा क्या होती है ये लोग नहीं समझेंगे।” परिणाम उस भूख को मिटाने का एक ही रास्ता रह जाता है उनके पास देह का सौदा करना, क्योंकि कोई और रास्ता उनके लिए छोड़ा नहीं। ‘अमृता को पढ़ने की ललक थी, उसने पैसे कमाए कभी भीख मांगकर, कंडोम बेचकर, कभी बार मे डांस कर, कभी क्लास में डांस कर, कभी तन बेचकर|” अमृता जब यह बात बताती है दिल दहलता है कि, “जिस डिग्री को पाने के लिए जिस्म बेचा…जब वह डिग्री हाथ आई तो मैं एड्स से पीड़ित हो चुकी थी| आज एक हाथ में वह डिग्री थी दूसरे हाथ में एचआईवी पॉजिटिव की रिपोर्ट….समझ नहीं आ रहा था खुश होऊं या रोऊँ…एक पल को सोचा क्यों जी रही हूं मैं…?” सोचिये जरा आज अमृता को परिवार और समाज की स्वीकृति मिली होती तो यह एम्.बी.ए. कई डिग्री उसे खालिस ख़ुशी न देती
शिल्पा गुरु जो आज भोपाल मंगलवारा की गुरु हैं लगभग जीवन के सातवे दशक में होंगी, उन्होंने उन्नीस वर्ष की अवस्था में घर छोड़ा, जब मैंने उनसे प्रश्न किया कि क्या आवश्यकता पड़ गयी इस उम्र में घर छोड़ने की जब इतनी उम्र निकल गयी तो आगे भी निकल जाती अपनों के साये में…? उनका जवाब था, “माँ के गुजरते ही भाई –बहनों के आँखों की किरकिरी बन गयी …अपने ही घर में बेगानी बना दी गयी| भला कैसे हर दिन सामना करती उनकी बेगानी आँखों का….|”
प्रत्येक व्यक्ति को एक सोशल स्पोट की आवश्यकता होती है जो माता पिता,परिवार और समाज से मिलता है, किन्तु वह सहारा तो हमने उनसे छीन लिया अतः वे अपने समाज की नागरिकता ले लेते हैं….वह समाज जो हर सुख दुख में उनके साथ खड़ा रहता है। सिमरन, शिल्पा, काजल आदि इसके उदाहरण हैं जिन्हें अपनों ने मरने के लिए छोड़ दिया और किन्नर गुरुओं ने गले लगाकर प्यार भरी परवरिश दी। ऐसे में क्या गलत है कि उनके मन में उन तथाकथित अपनों के प्रति आक्रोश हो, व्यवहार में तल्खियाँ हो, हम उनके व्यवहार पर सदा प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं, लोग उन्हें हिंसक मान उनसे खौंफ खाते हैं, क्यों…? सोचिए जरा जिस बच्चे को बचपन से घर के बाहर निकाल दिया जाय, ठोकरें उसका नसीब बन जाये, अनगिनत बार उसका बलात्कार हो जाये, एक वक्त का चूल्हा जलाने के लिए उसे महज 25-30 रुपये में अपनी देह का सौदा करना पड़े फिर भी उससे सहज व्यवहार की उम्मीद रखें….यह तो सरासर नाइंसाफी है।
जीवनयापन के लिए महंगे कपड़े, मेकअप का सामान, एक छत, मकान भी किराए से लेने जाएंगे तो औरों से ज्यादा किराया, बस में जाते हैं तो कोई स्त्री पास बैठने से खौंफ खाती है तो कोई पुरुष पास बैठने से एतराज जताता है अतः बेहतर साधन होता है ऑटो,यानी महंगा साधन। इन सबके लिए पैसा तो चाहिए न…उनके जीवन की वैध जरूरतें हैं ये|
अशिक्षित वर्ग का इनके प्रति व्यवहार मान भी लें मगर अफ़सोस ! शिक्षित समाज भी अपनी बेरुखी में पीछे नहीं है| ‘किन्नर मंगला के अनुसार रेप होने पर डॉक्टर के पास गई तो पहले तो देखने से इंकार कर दिया, ज्यादा मिन्नत की तो नेकेट कर अपने जूनियर के लिए क्लास खोल कर बैठ गया। देखो ऐसा होता है इनका यौनांग….,|” यह पीड़ा अन्य देशों की अपेक्षा भारत की अधिक है कारण थाईलैंड में भी जब किन्नर देखे तो वे सामान्य तौर पर अपना कार्य कर रहे हैं, लोगों की नजरों में वे कहीं से अलग नहीं हैं । किन्तु भारत में यदि पास से किन्नर गुजरता है तो हमारी निगाह उसी पर टिक जाती है, यदि कोई साथ हैं तो खुसुर फुसुर चालू हो जाती है।
कुछ उदाहरण हमाँरे समक्ष है जहाँ परिवार का साथ इन बच्चों को मिला तो उन्होंने जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर परिवार, समाज और राष्ट्र का मान बढाया है| उनमे महामंडलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी, फिल्म की स्क्रिप्ट राइटर गज़ल, अजमेर से ‘दीपक’ जो कहते हैं, “मेरे माता-पिता ने कभी एहसास नहीं कराया कि मुझमें कोई कमी नहीं, हमें अपनाया जाना इंसानी जरूरत है| हम अलग हैं इसके लिए माफ़ी नहीं मांगेंगे…क्योंकि जितनी ज्यादा आप दया मांगते हैं किसी से, उतनी ज्यादा घृणा आप पाते हैं|”
आज यह समाज संकट में है, कारण इनकी संख्या तो कम हो गई किन्तु इस व्यवसाय में रुपया और ग्लेम्बर देखकर पूर्ण कहे जाने वाले समाज के कई लोगों ने इस व्यवसाय को अपना लिया है| मूल किन्नर पर हावी हो इनकी रोजी रोटी पर डाका डाले हुए हैं। बड़ी बात यह है कि हम इन पर लेख तो लिखना चाहते हैं, शोध तो करना चाहते हैं मगर समाज में, अपने दिल में इन्हें जगह देने से कतराते हैं|
अगर समाज में यह जाग्रति आ जाती है तो किसी थर्ड जेंडर को अपना बचपन नहीं खोना पड़ेगा, कोई सिमरन, बुलबुल या फिर पायल को पिता कीनफरत का सामना नहीं करना पड़ेगा| किसी शिल्पा, कामी, काजल को बाबुल का आंगन छोड़ने पर विवश नहीं होना पड़ेगा| गौरी, पायल, लक्ष्मी, अमृता, बिंदिया आदि ने तो साबित कर दिया कि अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से वे स्वयं को इस मुकाम तक ला पाई हैं यदि इसमें परिवार और समाज का सम्बल मिलता तो….उन्हें अपनी सफलता की वह कीमत न चुकानी पड़ती जो उन्होंने चुकायी है|
लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं|
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