
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का परिणाम किसी साधारण चुनावी प्रक्रिया का अन्त नहीं, बल्कि राज्य की राजनीतिक चेतना में आए गहरे परिवर्तन का संकेत है। राजग (राष्ट्रिय जनतान्त्रिक गठबन्धन) की अप्रत्याशित और भारी विजय तथा महागठबन्धन (कांग्रेस,राजद,वीआइपी) की ऐतिहासिक पराजय यह बताती है कि बिहार का मतदाता पुराने जातीय समीकरणों, भावनात्मक अपीलों और बिखरी हुई उम्मीदों को पीछे छोड़कर ऐसे भविष्य की ओर बढ़ चुका है जहाँ शासन, स्थिरता और सामाजिक सम्मान सर्वोपरि हैं। यह जनादेश उतना ही भावनात्मक है जितना गणनात्मक; उतना ही स्मृति का है जितना आकांक्षा का।
इस चुनाव के सबसे महत्त्वपूर्ण संकेत महिला मतदाताओं की रिकॉर्ड उपस्थिति में छिपे हैं। यह संख्या केवल सांख्यिकीय उपलब्धि नहीं, बल्कि पिछले दो दशकों में सामाजिक परिवर्तन की दिशा में हुए हस्तक्षेपों का वास्तविक प्रतिफल है। मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत मिली आर्थिक सहायता को ‘लुभावनापन’ कहने वालों ने यह नहीं समझा कि यह राशि महिलाओं के लिए सरकारी संरक्षण और सम्मान का प्रतीक बन गयी थी। पहली बार बिहार की महिलाएं मत-पत्र पर किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव चिन्ह पर नहीं, बल्कि अपने भीतर पैदा हुई एक नयी स्वायत्तता को मत दे रही थीं। महिलाओं ने इस चुनाव को न केवल निर्णायक बनाया बल्कि उसके चरित्र को बदल भी दिया।

लेकिन यह जीत केवल महिला मतों के सहारे नहीं आयी। इसकी दूसरी परत और भी गहरी है—मण्डल राजनीति की पुरानी संरचना टूट चुकी है और उसकी जगह एक जटिल, बहुस्वरीय सामाजिक विन्यास स्थापित हो चुका है जिसमें अति पिछड़ों, महादलितों और पसमांदा समुदाय की संख्या और आकांक्षाएँ दोनों निर्णायक हैं। नीतीश कुमार ने इस सामाजिक भूगोल को कई वर्षों में संवारा और उसे ऐसे मोड़ पर पहुँचाया जहाँ भाजपा उसे सहजता से अपने वैचारिक ढाँचे में समाहित कर सकी। इस मेल ने उस सामाजिक आधार को पस्त कर दिया जिस पर राजद (राष्ट्रीय जनता दल) की राजनीति तीन दशकों से निर्भर थी।
महागठबन्धन की पराजय का मूल कारण यही है कि उसने इस नये सामाजिक भूगोल को पढ़ने की कोशिश ही नहीं की। तेजस्वी यादव ने नेतृत्व के प्रश्न को केवल राजनीतिक अधिकार समझा, सामाजिक संवेदना और राजनीतिक सर्वसम्मति का मूल्य भूल गये। मुकेश सहनी को केन्द्र में रखकर बनाई गयी रणनीति बिखर गयी; पिछड़ों की राजनीति में जो नयी सम्भावनाएँ बन रही थीं, उनका लाभ महागठबन्धन नहीं उठा पाया। मुस्लिम राजनीति को लेकर भी वही अहंकारपूर्ण उदासीनता दिखाई दी, जिसका प्रतीक वह अपमानजनक टिप्पणी बनी जिसने बिहार में पुराने एम-वाई(मुस्लिम-यादव) समीकरण को भीतर तक छिन्न-भिन्न कर दिया। कांग्रेस द्वारा जातिगत प्रतिशत के आधार पर मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री के दावे बाँटते समय पसमांदा मुसलमान को केवल ‘दरी बिछाने’, ‘कुर्सियाँ लगाने’ और ‘झोला ढोने’ की भूमिका सौंपे जाने का जो संकेत गया, उसने मुस्लिम मतदाताओं के भीतर गहरी विवशता और अपमान की भावना पैदा कर दी। नतीजा यह कि पहली बार मुस्लिम प्रभाव वाली कई सीटों पर राजग को अप्रत्याशित लाभ मिला।

विकास, सुशासन और स्थिरता की राजनीति भी इस जनादेश का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है। बिहार के आर्थिक आँकड़े भले विवादित हों, लेकिन जनमानस में यह धारणा बन चुकी है कि विगत डेढ़ दशक में राज्य ने एक न्यूनतम स्थिरता और बुनियादी विकास हासिल किया है। इस विश्वास का एक भावनात्मक पहलू भी है—जंगल राज की स्मृति अब भी बिहार की राजनीति में प्रेतछाया की तरह मौजूद है। राजग ने इस स्मृति को कथा के रूप में प्रस्तुत करके अपने चुनावी अभियान का हथियार बना लिया और राजद उस कथा को चुनौती देने के लिए विश्वसनीय तर्क प्रस्तुत नहीं कर सकी। यह कहना होगा कि जंगल राज का ‘भूत’ इस विधान सभा चुनाव में नीतीश के साथ था। तेजस्वी की लाख कोशिशों के बावजूद ‘नौकरी’ का वादा युवा मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर पाया क्योंकि उम्मीद और भरोसा दो अलग चीजें होती हैं, और इस चुनाव में भरोसा राजग के हिस्से गया।
कांग्रेस की स्थिति लगभग दरक चुके ढाँचे जैसी है। सीटों के बेतुके बँटवारे, नेतृत्व की अपरिपक्वता और राजनीतिक जमीन से दूरी ने उसे बिहार में लगभग असंगत बना दिया है। यह दल अब राष्ट्रीय राजनीति में एक विस्थापित इकाई की तरह खड़ा है—एक ऐसा ढाँचा जिसके भीतर न विचार की स्पष्टता है, न संगठन की दृढ़ता,न आचरण की मर्यादा, न नेतृत्व की ऊर्जा। उसके लिए अब हर चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है।

इस चुनाव की एक और दिलचस्प सीख यह है कि विकल्प की राजनीति का भ्रम अब टूट चुका है। प्रशांत किशोर की जनसुराज जैसी परियोजनाओं ने जितनी चर्चा मीडिया में पायी, उतनी जमीन पर उनकी पकड़ नहीं दिखी। तीन वर्षों से ‘नयी राजनीति’ की हवा बनाने वाले प्रशांत किशोर का जनसुराज भी अन्ततः उसी पुराने ढर्रे पर उतर आया। टिकट बँटवारे में वही पुराने चेहरे, वही दलाल, वही बिल्डर। भाजपा और राजद के कई थके हारे उम्मीदवारों को जनसुराज का ‘टिकट’ मिल गया। मूल्यों की राजनीति का दम भरने वाले प्रशांत किशोर इतनी जल्दी हांफ जाएँगे, यह शायद किसी ने नहीं सोचा था। बिहार ने यह सन्देश बहुत साफ दे दिया है कि वह ‘रणनीति-निर्माताओं’ की राजनीति से प्रभावित नहीं होता; उसे वास्तविक जमीनी नेतृत्व चाहिए, न कि किसी पेशेवर राजनीतिक सलाहकार का विचारात्मक ढाँचा।
जनादेश में छिपा एक गहरा खतरा भी अनदेखा नहीं किया जा सकता—विपक्ष का लगभग शून्य हो जाना। लोकतन्त्र केवल सरकार से नहीं चलता, बल्कि एक मजबूत और विश्वसनीय विपक्ष से भी चलता है। महागठबन्धन की यह पराजय स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। बिहार की राजनीति में मजबूत विपक्ष की वापसी तक मीडिया को विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए, दुर्भाग्यवश इस उम्मीद का अधिकांश मीडिया के सत्ता समर्पण में स्वाहा हो चुका है।
अब प्रश्न यह है कि क्या बिहार एक नये वैचारिक मोड़ पर खड़ा है? क्या समाजवादी- मण्डलवादी परम्परा का अन्त हो चुका है? क्या भाजपा बिहार के सामाजिक ढाँचे को वैचारिक रूप से अपनी दिशा में मोड़ पाएगी? इसका सरल उत्तर नहीं है। बिहार की सामाजिक संरचना इतनी विविध और जटिल है कि वह किसी एक सूत्र में बन्धने से इनकार करती है। नीतीश कुमार की उपस्थिति इस वैचारिक रूपान्तरण को स्वचालित होने से अवरुद्ध करती रहेगी। लेकिन यह भी सच है कि सामाजिक न्याय की राजनीति अब अपने पुराने रूप में लौट नहीं सकती; उसे नया अर्थ, नया नेतृत्व और नये समीकरणों की आवश्यकता है।

इस चुनाव ने एक बात पूरी स्पष्टता से कह दी है- बिहार बदलाव चाहता है, लेकिन अव्यवस्था नहीं; नयी सम्भावनाएँ चाहता है, लेकिन पुराने डर नहीं; सम्मान चाहता है, लेकिन राजनीतिक उपेक्षा नहीं। यह जनादेश जितना राजग के लिए अवसर है, उतना ही जिम्मेदारी भी। सत्ता को यह समझना होगा कि यह जीत किसी एक दल, नेता या विचारधारा की नहीं, बल्कि एक समाज की उम्मीदों का भार है।
बिहार ने अपना निर्णय दे दिया है। अब यह इतिहास देखेगा कि सत्ता उस निर्णय को किस गम्भीरता, संयम और नीतिगत दूरदर्शिता के साथ दिशा देती है। राजनीति में जनता का विश्वास जितना कठिनाई से बनता है, उतनी ही जल्दी टूट भी जाता है। इसलिए इस जनादेश का अर्थ केवल विजय नहीं, बल्कि एक अनुबन्ध है- जनता और सत्ता के बीच। इस अनुबन्ध को निभाना ही आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति का असली कसौटी होगा।










