लोकतन्त्र की जमीन और आम आदमी
आज हमारा लोकतन्त्र 76 वर्षों से भी अधिक आयु का हो चुका है। हम उसका अमृत महोत्सव मना चुके हैं। यह ऐसा समय है जब हम उसका आसानी से मूल्यांकन कर सकते हैं कि लोकतन्त्र की सतत यात्रा में हमने क्या खोया और क्या पाया है। पाया तो यह है कि हमने लोकतन्त्र को बिगड़े-सुधरे रूपों में अभी तक बचाए रखा है। उसको खत्म नहीं होने दिया है और उसकी सबसे बड़ी ताकत संविधान को भी जैसे तैसे प्रचलन में रखा है। हमने यह भी देखा है कि विकसित होती लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जो सत्ता कभी एक जमाने में ऊपर के आभिजात्य वर्ग के हाथों तक सीमित रही थी, धीरे-धीरे वह निचले कमेरे समुदायों के हाथों तक भी सीमित रूप में ही सही, पहुँची है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सत्ता का छोटा सा हिस्सा ही सही उन समाजों के हाथों में भी आया जिनको एक जमाने में अस्पृश्य और दलित माना जाता था। इसी तरह से पहले से चले आते हुए पुरुष सत्ता के तन्त्र में भी कुछ शिथिलता आयी। देश का स्त्री समुदाय भी स्वतंत्रता का उपभोग करने में समर्थ हुआ। इतना सब कुछ लोकतांत्रिक वातावरण में ही संभव था। राजतंत्रीय या औपनिवेशिक शासन में ऐसा होना संभव नहीं था।लेकिन यह भी सच है कि इस बीच तेजी से लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों में गिरावट आयी। इस सबके बावजूद सत्ता तो असीमित शक्तियों से संपन्न होती है इस वजह से सत्ताधारी वर्ग सत्ता का दुरूपयोग भी खूब करता है। वह उन लोगों का मुँह अपनी ताकत से अक्सर बंद करने की कोशिश करता है जो लाभों के संकेन्द्रण का विकेंद्रीकरण करने की प्रक्रिया में विरोध और प्रतिरोध करते हैं।
पिछले 76 सालों के भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में ऐसा खूब हुआ है जब आम आदमी के नाम पर विशिष्ट कुलीन वर्ग का ही हितसाधन अधिक हुआ है। यही वजह रही है कि एक तरफ जीडीपी बढती नजर आती है जो विकास की सूचक है किन्तु उसी के साथ साथ देश में वर्ग वैषम्य भी तेजी से बढ़ा है। इसके परिणामस्वरूप लोकतांत्रिकता भी घटी है| वर्गों की यह खाई निरंतर चौड़ी और गहरी होती जा रही है। यह लोकतन्त्र की विफलता ही है कि इस प्रक्रिया से धनी और अमीर वर्ग पहले से और अधिक अमीर होता गया है जबकि गरीब वर्ग पहले से अधिक गरीब हुआ है।इसी का परिणाम है कि आज की सरकारों को देश के अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज और अन्य सुविधाएँ मुहैया कराने को मजबूर होना पडा है। देश में किसान वर्ग अपनी कमजोर होती हुई आर्थिक स्थितियों की वजह से आत्महत्याएँ कर रहे हैं।
आंकड़े बताते हैं कि देश में अब तक लगभग ढाई लाख किसान देश के विभिन्न भागों में आत्महत्या कर चुके हैं। यह उस लोकतन्त्र का संकट ही कहा जायगा, जिसे लोकहित के उद्देश्य से स्थापित किया गया। यह भी लोकतन्त्र के लिए संकट ही रहा जब पिछली सदी के आठवें दशक में एक बार आपातकाल भी लग चुका है जब नागरिकों के मौलिक अधिकारों में से एक उसकी अभिव्यक्ति का अधिकार उससे छीन लिया गया था और वह कैद के भय से खुद को व्यक्त करने से डर गया था। सच तो यह है कि वह डरा नहीं वरन सत्ता ने अपनी अपार शक्तियों के भय से डरा दिया था। यह कहना गलत नहीं होगा कि जब जब सत्ताएँ डराने लगती हैं तब तब सबसे अधिक लोकतन्त्र और आम नागरिक पर ही संकट बढ़ता है और लोकतन्त्र खतरे में आ जाता है। जैसा कि वर्तमान में साफ नजर आ रहा है कि देश की राजनीतिक सत्ता सामाजिक-धार्मिक ध्रुवीकरण करते हुई प्राप्त की जा रही है।
लोकतन्त्र की सफलता उस लोक पर ही निर्भर होती है जो उसे बनाता है और जिसके लिए वह बनाया जाता है। वह तब तक पूरा लोकतन्त्र नहीं होता जब तक कि सामजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश और रिश्तों में लोकतांत्रिकता न आये। इसीलिये सामन्तवाद से लोकतन्त्र तक पहुँचने के लिए इससे पहले उसे आधुनिक मूल्यों वाले नवजागरण की आवश्यकता होती है जो समाजों के साथ अर्थव्यवस्था को भी लोकतांत्रिकता के लिए तैयार करता है। हम जानते हैं कि देश को जब 1947 में आजादी मिली उससे पहले 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के कुछ समय बाद से हमारे यहाँ नवजागरण की प्रक्रिया देश की सभी दिशाओं में चली थी जिससे आम आदमी का लोकमानस आगामी लोकतांत्रिक पड़ाव पर आसानी से चल सके।
हम अपने इतिहास में बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण के नवजागरण के साथ हिन्दी प्रदेशों में हुए आर्य समाजी नवजागरण को जानते हैं लेकिन यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि देश में जिस तरह की अंधकारपूर्ण स्थितियाँ, जड़ताएँ और रूढ़ता रही है उनको बदलते हुए लोकतन्त्र के लिए जितनी मजबूत जमीन की आवश्यकता होती है वह आजादी मिलने से पहले नहीं बन पायी और उसके बाद भी सत्ता की आपाधापी में वह प्रक्रिया ही ठहर गयी। उनमें जो नवजागरण हुआ वह बहुत कम और आधा-अधूरा था। उसका सम्बन्ध और नियंत्रण देश के देशी पूंजीपतियों के हाथों में होने की वजह से आजादी और लोकतन्त्र का पूरा लाभ देश के किसान और श्रमिक वर्ग तक उतना नहीं पहुँच पाया जितना पहुँचना चाहिए था।
इसी का परिणाम था कि देश के आम आदमी की लोकतन्त्र के लिए प्रशिक्षण और तैयारी बहुत कम हुई जिसकी वजह से वह अपनी जाति-बिरादरी और धार्मिक रिश्तों से उबर ही नहीं सका। उसका मानस पूरी तरह से बदल नहीं सका जबकि संविधान के प्रियम्बल में जो संकल्प हम भारत के लोग के रूप में बतलाये गये हैं वे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के निरंतर चलते रहने के बावजूद आम आदमी को हासिल नहीं हो सके। सच तो यह है कि धीरे धीरे इसका उलटा होता गया। सरकारें निस्संदेह पांच सालों में वोट से बनीं किन्तु उन्होंने आम जन और नागरिक को अलग अलग जाति समूहों और धार्मिक समूहों के रूपों में ध्रुवीकरण की नयी स्थितियों में डाल दिया। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी स्थितियों में लोकतन्त्र की बजाय एक तरह का निरंकुश तंत्र ही पनपता है।
यह भी देखने और समझने की जरूरत है कि लोकतन्त्र और लोकतांत्रिक सत्ताएं भी केवल राजनीतिक सत्ताएं नहीं होतीं। निस्संदेह निर्वाचन की प्रक्रिया तक वे विशुद्ध राजनीतिक प्रतीत होती हैं किन्तु राजनीतिक सत्ता हाथों में आ जाने के बाद उनके हाथों में आम जन की मेहनत से पैदा हुई उस पूंजी का नियंत्रण का अधिकार भी आ जाता है जो सरकारी अमले, नौकरशाही, फौज, पुलिस, अदालतें आदि को संचालित करती है। यह सब चुनाव के बाद होता है। इस तरह से जो लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया है वह अल्प समय की होती है इसके बाद में सत्ता अपने काम में बहुत लोकतांत्रिक नहीं रहती। बाद में वह जनता की जरूरतों के अनुसार फैसले न करके अपनी उन नीतियों के आधार पर निर्णय करती और नीतियाँ बनाती है जो बहुत प्रकट नहीं होतीं।
सत्ता के हाथ में अर्थ तंत्र आ जाने और पूंजी पर नियंत्रण हो जाने से जहां नागरिकों की लोभ-भावना पर तो नियंत्रण हो ही जाता है वहीं वह प्रचार तंत्र को भी आसानी से अपने नियंत्रण में रखने में सफल हो जाती है इसलिए समाज की संरचना, उसका अवचेतन, इतिहास, संस्कृति और अर्थ तंत्र ये सभी लोकतन्त्र के ऐसे आयाम होते हैं जो लोकतन्त्र को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने का काम भी कर सकते हैं और चाह लेने पर उसे एक निरंकुश व्यक्ति तंत्र की दिशा में भी आसानी से मोड़ सकते हैं। हम देखते हैं कि 1991 से जब से देश में नयी वैश्वीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों को लागू करने की शुरुआत हुई तब से आम जन के लिए लोकतन्त्र एक रेवड़ी तंत्र में बदलता चला गया।
इससे आम जन के मानस में एक तरह की याचक भावना विकसित होती चली गयी न कि वह लोकतांत्रिक अधिकार की भावना, जो नागरिक के स्वाभिमान जैसे जीवन मूल्य को मज़बूत करती है। इसका परिणाम हुआ कि जो दाता है वही सारे अधिकारों को केन्द्रित किये हुए है। लेने वाला उसके सामने हमेशा हाथ पसारे हुए खड़ा दिखाई देता है। इस तरह से आसानी से लोकतन्त्र को एक याचक तंत्र में बदलते देर नहीं लगी। ऐसा सामन्तवाद में तो होता है लोकतन्त्रों में नहीं। कुछ पार्टियों को छोड़कर पूंजीवादी व्यवस्था की समर्थक सभी पार्टियों ने यह काम किया, किसी ने ज्यादा किसी ने कम। आम जन को वास्तविक लोकतन्त्र के लिए प्रशिक्षण का काम लगभग सभी राजनीतिक दलों ने भुला दिया। इसी का परिणाम है कि रूप के स्तर पर तो देश में लोकतन्त्र अवश्य है उसकी अंतर्वस्तु के स्तर पर वह तेज़ी से निरंकुशता की तरफ बढ़ रहा है।