आदिवासियत

आदिवासी योगदान से वंचित इतिहास

 

‘गांधी और तिलक के स्वराज की अवधारणा दरअसल आदिवासी जनजीवन से अवतरित है।’ ऐसा कहना इसलिए उचित है, क्योंकि गाँधी या तिलक से बहुत पहले ही जंगल और बीहड़ में रहने वाले आदिवासियों ने न सिर्फ स्वराज के लिए दर्जनों लड़ाइयाँ लड़ीं, बल्कि स्वराज की भावना को मुख्यधारा तक पहुँचाया भी। यह भी सत्य है कि भारत में अँग्रेजी हुकुमत के खिलाफ सबसे पहला विद्रोह आदिवासियों की धरती पर हुआ। 1857 से लगभग एक शताब्दी पहले ही पहाड़िया विद्रोह (1770), तमाड़ विद्रोह (1782) के नायकों और तिलका मांझी (विद्रोह शुरू-1784) जैसे लोगों ने अपनी माटी से अँग्रेजों के खिलाफ बिगुल  फूँका था। इन विद्रोहों का उद्देश्य कोई सामुदायिक मांग या किसी बात से आपत्ति नहीं, बल्कि स्वराज था। लगभग डेढ़ सौ सालों बाद यही स्वराज की भावना देशभर में फैली और देश आजाद हुआ।

झारखण्ड सहित देशभर के आदिवासी अपनी भूमि, समाज और परम्पराओं में किसी प्रकार का छेड़-छाड़ या किसी और का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते। इसे लेकर आज भी सरकार और आदिवासी समुदायों के बीच टकराव है। 18वीं शताब्दी में पूर्वी भारत में खूब पलायन हुए। लोगों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसाया जाने लगा। अँग्रेजों द्वारा ऐसा किए जाने के पीछे उनका अपना स्वार्थ था। इस बीच झारखण्ड और आस पास के क्षेत्रों में भी गैर आदिवासियों का आगमन हुआ। कुछ लोग कृषि के लिए आए और कुछ व्यापार के लिए। ये लोग व्यापार और कृषि में आदिवासियों से बेहतर थे। आदिवासियों की जमीन पर इन सभ्य लोगों का प्रभाव बढ़ा और भूमि व्यवस्था में बड़े बदलाव हुए। जल्द ही आदिवासियों की समझ में आ गया कि वे अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाए जा रहे हैं और उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। अँग्रेजों के शोषण व दमनकारी नीतियों और दिकू (गैर आदिवासी) हस्तक्षेप के विरूद्ध वे खड़े हुए और स्वराज की मांग करते हुए अपनी जमीन से उन्हें बेदखल करने के लिए कई विद्रोह किए।

 

इतिहास की किताबों में भारत की स्वाधीनता की पहली लड़ाई के रूप में वर्णित 1857 के सिपाही विद्रोह के पूर्व झारखण्ड में लगभग आधे दर्जन विद्रोह हो चुके थे, जिनका सीधा उद्देश्य अँग्रेजों को बाहर करना था। 1855 में संथाल में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हुए हूल विद्रोह (संथाल विद्रोह) के बारे में महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था कि यह भारत की आजादी के लिए किया गया पहला संघर्ष है। धरती आबा भगवान बिरसा मुण्डा (1872-1900) ने महज 20 साल की उम्र में हजारों आदिवासियों को संगठित कर उलगुलान (क्रान्ति) का नारा दिया। यह अँग्रेजों के खिलाफ सबसे सशक्त और प्रभावशाली विद्रोह था। अँग्रेजी हुकुमत के खिलाफ छह चरणों में हुआ तमाड़ विद्रोह (1782-1821) सबसे खूनी विद्रोह था। कोल विद्रोह (1831-1832) ने आदिवासियों के सुसंगठित होने का प्रमाण दिया, जब हो और मुंडा समुदाय ने मिलकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ आन्दोलन किया। इस प्रकार स्वराज और स्वशासन के लिए झारखण्ड के आदिवासियों ने दर्जनों आन्दोलन किए। अंत में भारत छोड़ो आन्दोलन तक में झारखंड के टाना भगतों (गांधी के अनुयायी) की सक्रिय भूमिका रही।

झारखण्ड और आस पास की धरती पर अँग्रेजों के खिलाफ हुआ लगभग 2 शताब्दी का लम्बा संघर्ष आज भी इतिहास में अपनी जगह ढूंढता नजर आता है। तमाम दस्तावेज, शोध, और आलेखों के बावजूद हूल, तमाड़, कोल या उसके पहले के विद्रोह, जो सीधे तौर पर अँग्रेजों के खिलाफ हुए थे, को स्वाधीनता की पहली लड़ाई का दर्जा नहीं मिल सका है। इन आदिवासी संघर्षों में शहीद क्रान्तिकारियों को भी इतिहास ने गले नहीं लगाया। देशभर के स्कूलों में पढ़ाई जा रही इतिहास की किताब में ऐसे किसी विद्रोह का जिक्र प्रमुखता से नहीं मिलता। नतीजा ये है कि शहीदों के वंशजों को उनके पूर्वजों के बलिदान का ज्ञान भी नहीं है।

कभी कोई शोधार्थी पहुँच जाए, तो वे आश्चर्य भरी निगाहों से देखते हैं। दूसरी तरफ जिन शहीदों के वंशजों को पता भी है, वे घर, नौकरी, बिजली, पानी जैसी मूल-भूत सुविधाओं से भी वंचित है। इस स्थिति के लिए झारखण्ड और संयुक्त बिहार की सरकारों के साथ समाज भी जिम्मेदार है। पर्याप्त दस्तावेज होने के बाद भी इन विषयों पर शोध नहीं हुए या कम हुए। सबसे लम्बी अवधि तक चलने वाले तमाड़ विद्रोह पर नाम मात्र के शोध हुए हैं। शोध कम हुए क्योंकि बीहड़ के क्रांतिक्रान्ति और उनके आन्दोलनों में मुख्यधारा के समाज की रुचि कम है। यही वजह है कि सन 2000 तक देश की संसद में किसी भी आदिवासी क्रान्तिकारी की तस्वीर नहीं थी। पहली बार 2000 के बाद भगवान बिरसा मुण्डा की तस्वीर संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में लगायी गयी है। ध्यान रहे कि भारत में झारखण्ड के अलावा भी कई राज्यों में आदिवासी रहते हैं।

आखिर क्यों हूल जैसे व्यापक विद्रोह की गिनती पहली स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में नहीं की जाती? इस बात का जवाब समाज के तत्कालीन और वर्तमान बुनावट के रेशों को बारीकि से पढ़ने से मिलता है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे समाज की छोटी जातियों की उपलब्धियों को नकार दिया जाता है। दलित या आदिवासी का बेटा क्लास में फर्स्ट आ जाए, या कोई प्रतियोगिता जीत जाए, तो भी मुख्य धारा का समाज उसे उपलब्धि के रूप में दर्ज नहीं करता। जैसे असुर जनजाति को हम इस बात का श्रेय नहीं देना चाहते हैं कि लोहा गलाने की विधि उनकी देन है। लगभग ऐसे ही आदिवासियों की समस्याएँ, उनका विरोध, उनकी उपलब्धियाँ उस इतिहास का हिस्सा ही नहीं बन सकीं, जिसके लिखने में आदिवासियों की भूमिका नहीं है।

दूसरी वजह अँग्रेजी हुकुमत और उसके कार्यशैली से सम्बन्धित है। यूँ तो अँग्रेजों का दस्तावेजीकरण शानदार था और हमसे कहीं बेहतर था, यही वजह है कि हमें आदिवासी विद्रोहों की गाथा भी ब्रिटेन की लाइब्रेरी या अभिलेखागार में ज्यादा और भारत में कम मिलती है। लेकिन फिर भी दिल्ली में जहां हर छोटी घटना दुनियां की नजर में आयी, सुदूर झारखण्ड में जंगलों से उठी विद्रोह की आग को वे दुनिया की नजर से छिपाने में शायद कामयाब रहे। यूँ तो हर विद्रोह अहम था, और किसी भी विद्रोह को कमतर आँकना उद्देश्य नहीं है लेकिन मंगल पाण्डेय द्वारा किया गया विद्रोह चूँकि अँग्रेजी फौज के भीतर शुरु हुआ, वह आसानी से नजर भी आया और उसे दर्ज भी किया गया। जबकि झारखण्ड के संथाल इलाके में ‘दामिन-ए-कोह’ (आदिवासियों की जमीन को सरकारी सम्पत्ति घोषित करना) जैसे दमनकारी नियम की चर्चा तक नहीं हुई, जिसने संथाल में लाखों आदिवासियों को तीर-धनुष उठाने पर मजबूर किया। हालाँकि संथाल विद्रोह ने जरूर अन्तरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया, तभी वैश्विक विचारकों की प्रतिक्रिया भी आई, लेकिन शायद फिर भी इसे हम स्वाधीनता की पहली लड़ाई नहीं मानते।

अँग्रेजों द्वारा इन विरोधों के इतिहास को दबाने के उनके निजी कारण हैं लेकिन देश की आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी आदिवासी आन्दोलनों को इतिहास में वो स्थान नहीं मिल सका है, जिसके वे हकदार हैं। इस बात से परहेज नहीं किया जा सकता कि इतिहास लेखन के क्रम में भी समाज पक्षपाती रहा और देश की आजादी में आदिवासियों की भूमिका को जानबूझकर नकारने की कोशिश की गयी है। इसके पीछे एक और कारण है- राजनीतिक चश्में से आन्दोलनों का आकलन। आजादी के बाद इतिहास लेखन में उन आन्दोलनों को ज्यादा तरजीह दी गयी, जिसका नेतृत्व कांग्रेस ने किया था। शेष आन्दोलन किनारे ही रहे। इसलिए आज भी जंगलों में उन शहीदों के नाम पत्थरों पर लिखे मिलते हैं, उनका जिक्र वहां के लोक गीतों में भी होता है, लेकिन किताबों से वे गायब है। यह साधारण सी बात है कि इतिहास में आदिवासी विद्रोहों के लिखे जाने से देश की आजादी में कांग्रेस का योगदान कम नहीं हो जाता है।

आदिवासी विद्रोहों से जुड़े इन सवालों का सन्दर्भ बहुत गहरा है। विडम्बना यह है कि झारखण्ड के युवाओं को भी यहाँ  हुए विद्रोहों की जानकारी नहीं है। खुद मुझे हूल और उलगुलान के बारे में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के दौरान पता चला, क्योंकि इन आन्दोलनों का जिक्र इतिहास की उन किताबों में नहीं है, जो स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं। खुद आदिवासियों का बड़ा वर्ग उनके पूर्वजों के योगदान की जानकारी से वंचित है। जबकि देश के किसी भी कोने में इतिहास पढ़ रहे बच्चों को पता होना चाहिए कि अँग्रेजों के खिलाफ विरोध का पहला स्वर झारखण्ड के जंगलों से उठा था। इतिहास के पन्नों को उन बलिदानों के प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा। उन्हें बताना पड़ेगा कि अभाव और अकाल के बीच भी सभ्यता के तथाकथित मानदण्डों पर  खरा नहीं उतरने वाले लोगों ने विश्व की सबसे बड़ी ताकत के खिलाफ सबसे पहले बन्दूक नहीं, तीर धनुष उठाया था

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विवेक आर्यन

लेखक पेशे से पत्रकार हैं और पत्रकारिता विभाग में अतिथि अध्यापक रहे हैं। वे वर्तमान में आदिवासी विषयों पर शोध और स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919162455346, aryan.vivek97@gmail.com
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