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स्मृति, स्वप्न और यथार्थ का टकराव

सबलोग

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 25 नवम्बर 2025 को अयोध्या में राममन्दिर में  ध्वजा  फहराने के बाद अपने भाषण में ‘केवल वर्तमान के बारे में’ सोचने को न कहकर ‘भविष्य के बारे में भी’ सोचने की बात कही है। ‘दूर दृष्टि’ की बात करते हुए उन्होंने ‘प्रभु राम’ से सीखने की बात कही क्योंकि ‘राम यानी आदर्श, मर्यादा, जीवन का सर्वोच्च तरीका, धर्म-पथ पर चलने वाला व्यक्तित्व, ज्ञान और विवेश की पराकाष्ठा, कोमलता में दृढ़ता, सत्य का अडिग संकल्प, एक मूल्य और दिशा’ हैं’। अतीत के गौरव – गान, महापुरुषों का पुण्य स्मरण और पौराणिक पात्रों की गुण-गाथा का तभी कोई अर्थ है, जब हम उनके कर्मों को अपने जीवन में लागू करें और उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलें।  जिनमें थोड़ा भी काल-बोध है, वे यह जानते हैं कि हमारा जीवन हमारे कर्म से निर्धारित होता है, न कि धर्म से, हम वर्तमान में जीते हैं, न कि अतीत में और न भविष्य में। स्मृति और स्वप्न आवश्यक है, पर यथार्थ और वास्तविकता सर्व प्रमुख है। प्रधानमन्त्री ने अपने उसी भाषण में यह कहा- “जो केवल वर्तमान का सोचते हैं, वे आने वाली पीढ़ी का अपमान करते हैं- आने वाले समय को, सदियों को ध्यान में रखना ही होगा।”  दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति भयावह है। हजारों लोग दिल्ली छोड़ रहे हैं। 1835 में मैकाले के व्यक्त  विचार के 2035 में  दो सौ वर्ष होंगे और 2047 में आजादी की शतवार्षिकी होगी।  प्रधानमन्त्री के अनुसार हमें उस समय के बारे में सोचना चाहिए, वर्तमान के बारे में अधिक नहीं।

बिहार के अठारहवें विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं में हौसला बढ़ा है। जो चुनाव जीतकर विधानसभा और लोकसभा में बैठते हैं, संविधान की शपथ लेते हैं, वे अब यह कहने से नहीं हिचकते कि संविधान और लोकतन्त्र, विदेश से आये हैं। दूसरे अवसरों पर ऐसे महापुरुष बिहार को ‘लोकतन्त्र की जन्मस्थली’ बताने में गौरव महसूस करते हैं कि  वे वैशाली का  लिच्छवी गणराज्य दुनिया का पहला गणराज्य है। उस गणराज्य का महत्त्व है, पर वह अतीत था। वर्तमान के प्रश्नों का हल वर्तमान में ही किया जाता है। बिहार का वर्तमान अतीत से केवल प्रेरणा ग्रहण कर सकता है, पर अब यह सम्भव नहीं है। धर्म–ध्वजा  का इक्कीसवीं सदी में क्या कोई अर्थ है? क्रममय जगत में धर्म सदैव प्रमुख नहीं रह सकता। यह भारत को धर्म शासित राज्य (थियोक्रेटिक स्टेट) बनाने का प्रयत्न है। लोकतन्त्र के सिद्धान्तों

पर आधारित राज्य को धर्म के (हिन्दू धर्म) सिद्धान्तों पर आधारित राज्य बनाने की कुचेष्टा है।  बिहार के अतीत के गौरव-गान एवं महिमा -मण्डन का आज कोई अर्थ नहीं है। प्राचीन काल में बिहार राजनीति और शिक्षा का केन्द्र था। मौर्य साम्राज्य, मिथिला साम्राज्य, गुप्त राजवंश, मौर्य सम्राट अशोक, नालन्दा और विक्रमशिला, बौद्ध धर्म, जैन धर्म  का अपना गौरवशाली इतिहास है, जिसका वर्तमान बिहार से कोई सम्बन्ध नहीं है। इक्कीसवीं सदी के बिहार का बीसवीं सदी के बिहार से भी सम्बन्ध नहीं रहा। 1857 का प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन, 1915 में गाँधी की चम्पारण यात्रा, 1942 का आन्दोलन, भोजपुर में नक्सलबाड़ी आन्दोलन की चमक-धमक,जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति सब इतिहास के पन्नों पर हैं। उसका 2025 में बिहार से कोई सम्बन्ध नहीं है। बिहार में जो कुछ मूल्यवान था, सब को सुनियोजित ढंग से नष्ट-ध्वस्त किया गया है और आज के बिहार की तुलना आजाद भारत के आरम्भ के एक डेढ़ दशक से भी नहीं की जा सकती। पूर्व मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई  ने कहा है कि “कानून का राज खत्म होने पर ही बुलडोजर चलता है।”

हिन्दी भाषी राज्यों में बिहार अकेला राज्य है, जहाँ भाजपा ने बहुमत प्राप्त कर अभी तक अपनी सरकार नहीं बनायी है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली में भाजपा को अपनी सरकार रही है, पर बिहार और झारखण्ड में कभी उसने बहुमत प्राप्त कर अपनी सरकार नहीं बनायी। इन दोनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबन्धन कर उसने सरकारें बनायी हैं, बिहार में भाजपा की नहीं, राजग की सरकार है। लालू प्रसाद यादव ने पहली बार 1990 में भाजपा के समर्थन से ही सरकार बनायी थी। इसके बाद भाजपा से उनकी दूरी बनी रही है। बिहार में अन्य राज्यों की तरह राजनीति ही  प्रमुख है। हिन्दी प्रदेश में उत्तरप्रदेश के बाद बिहार में लोकसभा की सर्वाधिक 40 सीट  है। इससे अधिक सीट केवल पश्चिम

बंगाल (42) और महाराष्ट्र(48) में है। हिन्दी प्रदेश में अब भाजपा  बिहार में अपना शासन और वर्चस्व चाहती है, जो नीतीश कुमार के कारण सम्भव नहीं है। अठारहवें विधानसभा चुनाव में राजद की सीट मात्र 25 आ जाने के बाद अब राजद उसके लिए चुनौती नहीं है। चुनौती है केवल नीतीश कुमार। नीतीश कुमार का राजनीतिक अनुभव नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से कहीं अधिक है। चुनावी हथकण्डों और तिकड़‌मों से वे अवगत हैं। इस बार बिहार के चुनाव में भाजपा को जदयू से 4 सीट अधिक (89) प्राप्त हुई है। भाजपा प्रमुख राजनीतिक दल है और उसके बाद, जद‌यू दूसरे नम्बर पर है (85) राजद को उठ खड़े होने में, मुख्यमन्त्री बनने में समय लगेगा। पहली बार भाजपा ने नीतीश कुमार से गृह मन्त्रालय लेकर सम्राट चौधरी के हवाले कर दिया है। नीतीश कुमार के न चाहने के बावजूद उसने  विधानसभा अध्यक्ष भी अपना बना लिया।

बिहार क्षेत्रफल के हिसाब से देश का सबसे बड़ा 12 वाँ राज्य है, जिसका कुल क्षेत्र फल 94, हजार 163 वर्ग किलोमीटर है। ग्रामीण क्षेत्र 92 हजार 257 वर्ग किलोमीटर से कुछ अधिक है।  इस राज्य की लगभग 16 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में है। 2023 की जनगणना के अनुसार

83 प्रतिशत से अधिक आबादी गाँवों में है। साक्षरता यहाँ 74 प्रतिशत से कुछ अधिक है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दृष्टि से यह देश का 14वाँ सबसे बड़ा राज्य है। युवाओं का अनुपात किसी भी राज्य की तुलना में यहाँ सबसे अधिक है। 58 प्रतिशत बिहारी 25 वर्ष से कम उम्र

के हैं। बिहार पर कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। फिलहाल यह ऋण लगभग साढ़े तीन लाख करोड़ है, जो यहाँ के सकल घरेलू उत्पाद के 38 प्रतिशत से कुछ अधिक है। प्रत्येक बिहारी पर इस कर्ज का बोझ लगभग 27 हजार रुपये है, जबकि प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 36 हजार से कुछ अधिक है। इस विशाल कर्ज का प्रतिदिन का ब्याज 63 करोड़ रुपये है। 2025-26 का बिहार  का कुल बजट 3 लाख 17 करोड़ रुपये है। राज्य की कुल आय 2.44 लाख करोड़ रुपये है और खर्च 3.27 लाख करोड़ है। बिहार की आधी आबादी गरीब है। यह भारत के सबसे गरीब राज्यों में है।  2021-22 के बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार बिहार में गरीबी दर 33.76 प्रतिशत थी। गरीबी, बेरोजगारी और पलायन बिहार की मुख्य समस्या है। बुनियादी ढाँचे का राज्य में अभाव है। यहाँ की कुल आबादी 13 करोड़ से कुछ अधिक है। राज्य में कुल 9 प्रमण्डल, 38 जिले, 101 सब डिवीजन, 534 प्रखण्ड, 207 शहर, 45 हजार 103 गाँव, 43 पुलिस जिला

और 1434 पुलिस स्टेशन हैं, जिनमें 44 साइबर पुलिस स्टेशन हैं। भाजपा ने अब तक यहाँ आप सरकार नहीं बनायी है, पर उसका जनाधार बढ़ा है, उसकी पित्री-संस्था आरएसएस की यहाँ  डेढ़ हजार से अधिक शाखाएँ ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में हैं। शहरी क्षेत्रो  में ये ग्रामीण क्षेत्रों से  अधिक है, वहाँ लगभग 1 हजार 100 स्थानों पर ये शाखाएँ लगती हैं। साप्ताहिक मिलन 500 से अधिक और संघ मण्डली 150 से अधिक हैं।  शिशु मन्दिर एवं विद्या मन्दिर यहाँ कम नहीं हैं।

बिहार के समझ मुख्य चुनौतियाँ, गरीबी, पलायन, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य-सम्बन्धी है। यहाँ औद्योगिक विकास ठप है। पलायन करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक आँकड़े के अनुसार यह संख्या 2 करोड़ 90 लाख से अधिक है। बिहार की लगभग 30 प्रतिशत आबादी रोजगार और जीविका की तलाश में पलायन कर रही है। यहाँ बेरोजगारी दर राष्ट्रीय बेरोजगारी दर 3.2 प्रतिशत से अधिक है। 2024 में शहरी युवा बेरोजगार जहाँ 15.9 प्रतिशत था, वहाँ बिहार में यह 23.2 प्रतिशत था। पलायन का सीधा सम्बन्ध बरोजगारी से है। किसी भी सरकार ने अब तक बिहार में रोजगार के अवसर पैदा नहीं किये। पलायन के कारण और विकसित राज्यों में मजदूरी करने के कारण बिहारियों को छोटी निगाहों से देखा गया, ‘बिहारी’ कहना अपमानजनक बन गया। कई  स्थानों पर उन्हें हिंसा का शिकार होना पड़ा, उन पर हमले किये गये और उन्हें भगाया गया। बिहार में न श्रम का सम्मान है, न मेधा का। हाथ और मस्तिष्क की रचनाशीलता बिहार में उपेक्षित है। बिहार में सरकारी और निजी कॉलेजों की कुल संख्या एक हजार एक सौ अठासी (1188) है, पर एक भी कॉलेज राष्ट्रीय स्तर का नहीं है; चालीस-पचास वर्ष पहले जो कॉलेज अपनी बेहतर शिक्षा के लिए विख्याते थे, वे अब नष्ट हो चुके हैं, किये जा चुके है! विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता समाप्त हो चुकी है। कुलपतियों की नियुक्तियाँ करोड़ों रुपये लेकर की जाती है। भ्रष्टाचार बिहार में सर्वत्र है। बिहार में 4 केन्द्रीय विश्वविद्यालय, 31 सरकारी और 9 निजी एवं डीम्ड विश्वविद्यालय हैं। एक समय पटना विश्वविद्यालय और अनेक कॉलेज की ख्याति राष्ट्रीय स्तर की थी। अब सब नष्ट किया जा चुका है। बिहार की शिक्षा-व्यवस्था को बहुत ही सुनियोजित ढंग से बर्बाद किया गया है। इन पंक्तियों  के लेखक की दृष्टि में यह 1977 से व्यवस्थित तरीके से समाप्त किया गया है। 1977 के पहले के बिहार के विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, स्कूलों की शिक्षा-दीक्षा, वहाँ की गयी नियुक्तियाँ, छात्रों की गुणवत्ता आदि को देखें और उसके बाद की बदलती स्थितियों को देखें, एक बड़ा बदलाव दिखाई देगा। सम्भव है, इस पर शिक्षाविदों ने गम्भीरता पूर्वक विचार किया हो, पर यह जानना जरूरी है कि सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण ने जो छात्र-आन्दोलन आरम्भ किया-कराया, उसका बिहार ही मुख्य केन्द्र था और  उस आन्दोलन में बिहार के युवा छात्रों की मुख्य भूमिका थी। जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन न तो कृषक आन्दोलन था, न श्रमिक आन्दोलन। वह युवा छात्र- आन्दोलन था, जिसमें  कॉलेज और  विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की प्रमुख भूमिका थी। इस आन्दोलन का ऐतिहासिक महत्त्व है। पहली बार 1977 के लोकसभा चुनाव में इन्दिरा गाँधी की करारी हार हुई। उस समय हिन्दी प्रदेश से कॉंग्रेस को नाम मात्र के वोट प्राप्त हुए थे। लोकसभा की 198 सीटें कॉंग्रेस (इंदि.) हार चुकी थी और उसे मात्र 154 सीटें  प्राप्त हुई थीं। जनता पार्टी को 295 सीटें प्राप्त हुई थीं।

हिन्दी प्रदेश (बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) की कुल 218 सीटों  में से कॉंग्रेस को मात्र 2 सीटें मिली थीं- मध्य प्रदेश और राजस्थान से एक-एक। केन्द्र से इन्दिरा गाँधी की सत्ता को उखाड़ फेकने का कार्य हिन्दी प्रदेश, जिसमें  बिहार अग्रणी था, की मुख्य भूमिका थी। इसी के बाद, काफी सुनियोजित तरीके से बिहार की शिक्षा-व्यवस्था, विशेषतः उच्च शिक्षा को नष्ट किया गया। अगर 1977 के पहले की तरह ही हिन्दी प्रदेश में शिक्षा- व्यवस्था कायम रहती, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में युवा-चेतना विद्यमान रहती तो क्या आज हिन्दी प्रदेश भाजपा का गढ़ बनता?  2014 में इसी हिन्दी प्रदेश ने लोकसभा की 225 सीटों में से 190 सीटों पर भाजपा को विजयी बनाकर केन्द्र में भाजपा की सरकार बनायी। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने में केवल कॉरपोरेट की ही भूमिका नहीं रही, हिन्दी प्रदेश की भी मुख्य भूमिका रही है। जेएनयू सहित हिन्दी प्रदेश के विश्वविद्यालयों को एक सोची-समझी राजनीति के तहत नष्ट किया गया है।

बिहार में भाजपा के दो उप मुख्यमन्त्री हैं। सम्राट चौधरी, के अपराध पर किसी भी राजनीतिक दल ने मुँह नहीं खोला है, सिवाय जनसुराज के प्रशान्त किशोर के। सम्राट चौधरी के उप मुख्यमन्त्री बनने और उन्हें गृह मंत्रालय दिये जाने के बाद भी प्रशान्त किशोर अनेक इंटरव्यू में उन्हें

अपराधी और हत्यारा घोषित कर रहे हैं। दूसरे दल मौन हैं! बिहार की राजनीति को इस एक उदाहरण से समझा जाना चाहिए कि क्यों वह व्यक्ति उप मुख्यमन्त्री है, जिस पर हत्या के आरोप हैं। बिहार

विधानसभा चुनाव में बार-बार बिहार के ‘जंगल राज’ की बात कही गयी, जनता का ‘ब्रेनवाश’ किया गया, जिसका परिणाम राजग के पक्ष में गया। उसे 243 सीटों में से 202 सीटें  प्राप्त हुईं। बिहार का वर्तमान किसी भी अर्थ में आशाजनक और उत्साहवर्धक नहीं है। 243 विधायकों में से 90 प्रतिशत विधायक करोड़पति हैं। जिस राज्य में 243 विधाय‌कों में 218 विधायक करोड़पति हों, वह राज्य करोड़पतियों की संख्या बढ़ाएगा या गरीबी दूर करेगा? 2020 के चुनाव में करोड़पतियों की संख्या 81 प्रतिशत थी, जिसमें अब 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है- क्या 2020 से अब तक बिहार की गरीबी में 9 प्रतिशत कमी आयी है? 9 प्रतिशत बेरोजगारी कमी है? 9 प्रतिशत पलायन रुका है? 9 प्रतिशत शिक्षा और स्वास्थ्य में, आधारभूत संरचना में, औद्योगिक विकास में वृद्धि हुई है?

2020 की विधानसभा में 194 करोड़पति थे। 218 करोड़पतियों में से 70 ने 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त किये हैं। विधायकों में मुंगेर के भाजपा विधायक सर्वाधिक धनी हैं, जिनकी कुल सम्पत्ति 170 करोड़ है। मोकामा के जद‌यू विधायक अनंत सिंह की कुल सम्पत्ति 100 करोड़ से अधिक है। जद‌यू के 85 विधायकों में से 78, भाजपा के 89 विधायको में से 77, राजद के 25 विधायकों में से 24, लोजपा (रामविलास) के 19 विधायकों में से 16, कॉंग्रेस के सभी 6 विधायक, ए आई एम आई एम के पाँचों विधायक, रालोमो (राष्ट्रीय लोक मोर्चा) के सभी चारों विधायक करोड़‌पति हैं। 243 विधायकों में से 131 विधायकों पर अपराध के मुकदमे हैं। इनमें से 43 ने साफ-सुथरी छवि वाले, प्रत्याशियों को हराया है। इन राजनीतिक दलों की औसत परिसम्पतियाँ ( एवरेज एसेट्स) देखें, तो राष्ट्रीय लोक मोर्चा के 4 विधायकों का 22.93 करोड़, भाजपा के 89 विधायकों का 8.68 करोड़, जदयू के 85 विधायकों का 9.53 करोड़, राजद के 25 विधायकों का 5.80 करोड़, लोजपा के 19 विधायकों का 13.66

करोड़, कॉंग्रेस के 6 विधायकों का 4.82 करोड़, ‘हम’ के विधायकों का 6.16 करोड़, एआईएमआईएम के विधायकों का 2.1 करोड़ और सबसे कम भाकपा (माले) के 2 विधायकों का  1.46 करोड़ है। इस विधानसभा चुनाव (18वें) में 25 बाहुबलियों या उनके परिजनों ने चुनाव लड़ा है। बिहार में बड़े और छोटे बाहुबली कम नहीं है। 2015 से 2024 तक अपराधों  की संख्या में राष्ट्रीय औसत वृद्धि, जहाँ 33 प्रतिशत थी, वहाँ बिहार में यह वृद्धि 80 प्रतिशत की रही है।

बिहार में अब बहुत कम ‘सुन्दर’ और ‘अच्छा’ बचा हुआ है। भ्रष्टाचार में यह राज्य अव्वल है। पद पाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। वोट प्राप्त करने के लिए इस चुनाव मे क्या नहीं किया गया? आजादी के बाद के समाज और राजनीति, विशेषत: 1990 के बाद के बिहार को देखने-समझने के लिए पिछले वर्ष (2024) में प्रकाशित मृत्युंजय शर्मा की पुस्तक ‘ब्रोकन प्रोमिसेज, कास्ट, क्राइम एण्ड पॉलिटिक्स इन बिहार’, महत्त्वपूर्ण है, पर हम  दिन-प्रतिदिन जो देखते हैं, जिन समस्याओं, मुसीबतों से गुजरते हैं, वहाँ दूर-दूर तक उम्मीद  की कोई किरण दिखाई नहीं देती। बिहार के हाथ और मस्तिष्क (श्रम और मेधा) को सोच-विचार कर कमजोर किया गया है। बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता समाप्त हो चुकी है। सुचिता, नैतिकता, सिद्धान्त, विचार, आदर्श सब हवा-हवाई हैं। बिहार अब राजनीतिक दलों के हवाले है। पहले भी यह था, पर यहाँ से आवाजे फूटती थीं, गूँजती थीं। अब वैसा कुछ भी नहीं है। अठारहवें विधान सभा चुनाव  में बीस दलों ने चुनाव लड़ा था, जिनमें से केवल एक दर्जन राजनीतिक दलों ने जीत हासिल की। प्रशान्त किशोर ने अपनी पार्टी ‘जनसुराज पार्टी’ से 243 सीटों में से 238 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे। नतीजा शून्य निकला।  अनेक प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी। उन्होंने स्वयं 100-150 करोड़ रुपये चुनाव  में खर्च किये। वे कहते रहे कि अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचो कि क्या वे मजदूर ही बने रहेंगे? गरीब का वह बच्चा जो मजदूरी करने के लिए बाहर गया है, वह अपने गाँव-घर लौटेगा, पर पढ़े-लिखे लोगों के बच्चे कभी वापस बिहार नहीं लौटेंगे। बिहार से बाहर जाकर शिक्षा प्राप्त करने में लाखों-करोड़ों रुपये बिहार से बाहर चले जाते हैं, जो शिक्षा को बेहतर बनाने के बाद बाहर नहीं जाएँगे, पर उनकी बात किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने न कोई आश्वासन दिया था, न झाँसा, न सब्जबाग दिखाये थे, न लफ्फाजी से चमत्कृत किया था। हिन्दू- मुस्लिम की बात करना देश तोड़ना है, देश को विभाजित करना है। लड़ाई देश को तोड़ने और जोड़ने वालों के बीच होनी चाहिए, पर अपराधियों, करोड़पतियों को वोट देने वाले मतदाताओं पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ‘वोट चोरी’ का आरोप चुनाव-आयोग पर लगाया जाता  रहा, पर सिंहासन  पर वे ही विराजमान हुए, जो कल और परसों  भी विराजे हुए थे। बिहार से क्या कोई परिवर्तन की आवाज देश भर में गूंजेगी? उम्मीद नहीं है। बिहार में 65 लाख मतदाताओं के नाम कटे, शाम 5 बजे के बाद अन्तिम मतदान के बाद भी मतदान में वृद्धि दिखाई गयी, पर सड़कों पर न छात्र उतरे, न मतदाता, न विरोधी दल।   कुछ नेताओं ने जीत की खुशी मे ‘रोड शो’ किया। चुनाव आयोग और भाजपा की मैत्री सबको ज्ञात है। फिर लोकतन्त्र और संविधान बचाने की बात क्या दूर-दूर तक जाएगी? एवं केन्द्रीय मन्त्री आर के सिंह ने पार्टी के हित में, भाजपा के हित में बयान दिया था, पर भ्रष्टाचारियों को हटाने की उनकी माँग को पार्टी विरोधी गतिविधि मानकर उन्हें पार्टी से निष्कासित किया गया। उन्होंने आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को टिकट न देने की बात कही थी। ‘जंगल राज’ की बात करने वाली भाजपा ने अपने एक पूर्व सांसद और मन्त्री की बात नहीं सुनी। आर के सिंह ने पार्टी से त्याग – पत्र दे दिया।

विश्व बैंक ने बिहार को जो 24-26 हजार करोड़ रुपये कर्ज  दिये थे, उनमें से बिहार चुनाव में 14 हजार करोड़ रुपये ‘डायवर्ट’ कर खर्च किये जाने का आरोप है। बिहार के इतिहास में जाने का इस समय कोई अर्थ नहीं है। पहले मुख्यमन्त्री श्रीकृष्ण सिंह 26 जनवरी 1950 से 31 जनवरी 1961 तक, कुल 11 वर्ष 5 दिन मुख्य मन्त्री रहे। उस पर भी, उस समय पर भी विचार करने का कोई अर्थ नहीं है और न अर्थ है कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री के संक्षिप्त  कार्य काल की याद का भी। जगन्नाथ मिश्र के मुख्य मन्त्री बनने, मण्डल कमीशन,  राम जन्म भूमि रथ यात्रा से बढ़ते हुए केन्द्र में भाजपा और मोदी की सरकार और बिहार में लालू-राबड़ी के 1990 से 2005 और भाजपा-जदयू मित्र-मिलन के 20 वर्ष (18 वर्ष) पर बिहार में विस्तार से कतिपय मुद्दों पर विचार की जरूरत है। क्या  भाजपा- जदयू की सरकार में बिहार से पलायन रुका? बेरोजगारों की संख्या घटी या बढ़ी?  शिक्षा-स्वास्थ्य में कितना सुधार हुआ?  भ्रष्टाचार रुका, घटा या बढ़ा? अपराधी और करोड़‌पति सत्ता में कैसे प्रमुख हुए? बिहार का वर्तमान डरावना है और भविष्य? इन पंक्तियों के लेखक को  उम्मीद की एक काँपती लौ दिखाई देती है, जो भाजपा कभी भी एक फूँक में बुझा सकती है। या बिहार का भ‌विष्य अन्धकार मय है? क्या वर्तमान राजनीति से बिहार का वर्तमान बदलेगा? क्या प्रशान्त किशोर की आवाज सुनी जाएगी? बिहार में आज एक भी नेता नहीं है (भाकपा माले को छोड़कर, जिसका प्रभाव एक क्षेत्र विशेष तक सीमित है) जिस पर भरोसा किया जाए। बिहार में जरूरी था नवजागरण और सांस्कृतिक जागरण, जिसकी एक मद्धिम आवाज तक नहीं सुनाई देती। बिहार के वर्तमान से ही बिहार के भविष्य का चित्र बनेगा। कौन है,कहाँ है बिहार के भविष्य का चित्रकार-कलाकार? फिलहाल वह दिखाई नहीं देता। शायद वह गर्भ में हो।

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रविभूषण

लेखक वरिष्ठ आलोचक और जन संस्कृति मंच के पूर्व अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919431103960, ravibhushan1408@gmail.com
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