भागलपुर से पटना आते हुए रास्ते में मोकामा के आस-पास खाने के लिए कुछ ढूंढ रहे थे सड़क पर – -दिल्ली की तरफ जैसे ढाबे होते हैं वैसे ढाबे इधर बिहार में नहीं दिखाई पड़ते सो हम मोकामा शहर में आकर कोई ढंग का साफ सुथरा रेस्तराँ ढूँढने लगे। जब पूछा तो लोगों ने कहा कि आप रेलवे स्टेशन के आस पास चले जाइये वहाँ खाने की कई दुकानें मिल जाएंगी आपको। हम मोकामा रेलवे स्टेशन के सामने आकर रुके और वहाँ सचमुच कई दुकानें थीं जहाँ लोग नाश्ता कर रहे थे, खाना खा रहे थे।ये बिल्कुल खुली हुई दुकानें थीं और सड़क की धूल बेरोकटोक अंदर जाकर पकवानों पर बिछ रही थी फिर भी भूख लगी थी इसलिए हमने तय किया कि खाना खा लें जैसा भी मिल रहा है। एक के बाद दूसरी तीसरी चौथी कई दुकानों पर हमने पूछा तो रोटी बना कर देने को कोई तैयार नहीं था – हर दुकानदार ने यह कहा कि रोटी नहीं चावल है। बहरहाल जब दुकानदार से मैंने हाथ जोड़कर अनुरोध किया कि मैं डायबिटीज पेशेंट हूँ और इस समय देखिये 3:30 बज रहे हैं और मैंने खाना नहीं खाया ..बेशक मैं थोड़ी देर बैठ जाऊँगा।
तो मेहरबानी करते हुए वह मेरे लिए रोटी बनाने को तैयार हो गया। मैंने उससे कहा कि ऐसा करो, आप मेरे लिए दो रोटियाँ बनवा दो और साथ में दाल सब्जी दे दो…. मेरा काम चल जाएगा। मेरे यह कहते ही वह भड़क गया और सीधा सीधा जवाब दिया कि जाइये रोटी नहीं मिलेगी। मुझे जब भड़कने की वजह नहीं समझ में आई तो मैंने उससे पूछा: भाई, क्या बात है? मैंने आपसे पैसे तो पूछे ही नहीं इसलिए ऐसा नहीं है कि पैसों को लेकर मैं हुज्जत करुँगा। तो उसने अनमने ढंग से जवाब दिया कि आप केवल दो रोटी बनाने के लिए कह रहे हैं सो मैं नहीं बनाऊँगा। मैंने कहा थाली के पैसे ले लो पर पाँच रोटियाँ मुझे नहीं चाहिए… आप मुझे मेरी जरूरत भर का बनवा कर दे दो,बर्बाद क्यों करना।मेरे यह कहते ही दुकानदार और क्रोध में आ गया और कहा कि जाइए, आप के लिए मैं रोटियाँ नहीं बनाता। मुझे लगा कि बहस करने से बेहतर यह है कि किसी और दुकान पर देखा जाये।
मन मार कर हम दूसरे की दुकान की तरफ बढ़े – दूसरी दुकान के मालिक से भी मैंने वैसे ही हाथ जोड़ के गुजारिश की कि मुझे दो रोटियाँ बना कर खिला दो, मैं डायबिटीज पेशेंट हूँ और मुझसे इस समय भूख बर्दाश्त नहीं हो रही है। मुश्किल से 25 साल का नौजवान दुकान का मालिक था, उसने मेरी भाव भंगिमा देखी तो रहम करते हुए कहा कि आपको रोटियाँ मिल तो जाएंगी लेकिन कुछ प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
ठीक है, मैं इंतजार करू लूंगा।
दस मिनट बैठे बैठे देखते रहे – मेरे बाद जो लोग भी आते रहे उनको नाश्ता मिलता रहा, उनको खाना मिलता रहा लेकिन न तो मेरी रोटी बनती हुई दिखाई दी न उसको लेकर कोई सुगबुगाहट कहीं मुझे दिख रही थी।इधर मेरी भूख बढ़ती जा रही थी।
फिर मैंने उससे कहा कि कम से कम एक रोटी आप मुझे दे दो, मैं खाना शुरू करुँ। उसने कहा – अभी आप की रोटी बन रही है । मैं मन मार कर बैठ गया और इस तरह देखते देखते 15 – 20 मिनट बीत गए। निराश होकर मैं उठने को हुआ तो जो दुकान का मालिक था वही थाली में थोड़ी दाल और सब्जी लेकर मेरे पास आया और पूछा : अचार लेंगे? मैंने कहा:दे दो भाई।मुझे समझ आ गया कि यह मुझे दिलासा देने की तरकीब थी।
तब तक महेंद्र आ गए – महेंद्र ने पूछा : भैया, खाना खा लिया?मैंने कहा: इतनी देर से तो बैठा हूँ और वह रोटी बनाने का आश्वासन दे रहा है लेकिन मुझे कहीं दूर दूर तक रोटी बनती दिखाई नहीं दे रही।
और यही बात मालिक के पास जाकर महेन्द्र ने पूछी कि आप इतनी देर से कह रहे हैं कि रोटी बन रही है पर रोटी बनती हुई कहीं दिखाई तो दे नहीं रही है… यदि बन रही है तो आप दिखाइए – उन के यह कहने से उसने अपनी सीट के पास महेंद्र को बुलाया और नीचे झुक के कुछ देखने को कहा। महेंद्र ने नीचे देखा तो एक स्क्रीन पर सीसीटीवी कैमरे की चलती फिरती छवियाँ दिखाई दे रही थीं और उसमें से एक छवि रोटी सेंकने की दिखाई दे रही थी। दुकानदार ने कहा कि देखिए आप की रोटी यहाँ नहीं बगल में दूसरी जगह पर बनाई जा रही है…. और जैसे ही वह बनेगी आपको लाकर हम दे देंगे।
महेंद्र ने आ के मुझसे बताया कि आप की रोटी बन रही है…. मैं खुद देख कर आया हूँ इसलिए अब आप निराश मत होइए । थोड़ी देर में रोटियाँ मिल गयीं, बढ़िया सब्जी दाल के साथ।और मेरी भूख का जो हाल था उसमें बढ़िया चीज बहुत बहुत स्वादिष्ट और सन्तुष्टिकारी लगी ।

मेरी जान में जान आ गयी और दूसरी रोटी खत्म होते-होते मैंने तीसरी रोटी की फरमाइश कर दी ।मेरी फरमाइश सुन कर दुकानदार के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थी – उसने जिस भाव से मेरी तरफ देखा उससे यह लग रहा था कि तीसरी रोटी की संभावना है नहीं। शब्दों में कुछ कहा नहीं लेकिन उसके चेहरे से ऐसा ही लग रहा था। महेंद्र ने उससे पूछा कि आप ऐसे क्यों देख रहे हैं और आपने हाँ या ना में कोई जवाब नहीं दिया तो उसने धीरे से कहा कि रोटी बनाने वाला आदमी उठ कर चला गया …देखता हूँ यदि मिल जाता है तो आपके लिए और बनवा देता हूँ।उसने यह कतई नहीं कहा कि तीसरी रोटी नहीं मिलेगी – उम्मीद पर दुनिया कायम है।
पहले भी उसने मुझे दिलासा दिया था, उसकी बात पर भरोसा न करने का कोई औचित्य नहीं था… सवाल केवल समय का ही तो था।मैं प्रतीक्षा करने लगा – 5 मिनट लगे और इस बीच में रोटी बनाने वाले व्यक्ति को उसने फिर से बुला लिया था और तीसरी रोटी बन कर मेरे सामने आ गई।
यह एक बेहद दिलचस्प और आँख खोलने वाला अनुभव था – बिहार के इलाकों में यात्रा करते हुए देर सबेर खाने के लिए उस तरह की सुविधाएँ सड़क पर मिलनी मुश्किल हैं जैसी दिल्ली के आसपास या पंजाब हरियाणा उत्तर प्रदेश में मिल जाती हैं …अपना खाना खुद से ले कर घर से निकलना ज्यादा मुफीद और व्यावहारिक है।और सबसे बड़ा सबक : रोटी मिलना मुश्किल ही नहीं महा मुश्किल है।
खैर मैं इस घटना को बिहार केंद्रित नहीं मान कर नहीं लिख रहा और न ही बिहारी समाज की आलोचना करने के लिए साझा कर रहा हूँ , देश के अलग अलग हिस्सों में इस तरह की परेशानियाँ सामने आएँगी ….व्यापार का सीधा सा मतलब ग्राहकों की उपस्थिति से है।
पर जिस बात ने मुझे चौंकाया वह था मोकामा जैसे शहर में उस बिलकुल खुली हुई छोटी सी नालियों के गंदे बदबूदार पानी से घिरी दूकान में सीसीटीवी कैमरे का होना और साफ़ सफ़ाई और रोटी जैसी आम जरूरत के सामान का न होना। वैसे डिजिटल इण्डिया के पैरोकारों को इस उदाहरण से खुश होना चाहिए पर बीते सालों में दरअसल विकास के जिन कुरूप विखंडित मानदंडों का हमने चुनाव किया है उसने स्वच्छता का झाल तो बजाया पर विश्व नागरिक बनाने का भरम पैदा करने वाला डिजिटल का नगाड़ा उससे कई गुना तेजी से बजाता रहा – तरक्की के छोटे छोटे द्वीप बना कर नदी में बहाए जाते दीपों की तरह यहाँ वहाँ तैराये जाते रहे हैं।इसका वास्तविक जनतांत्रिक बेहतरी से कुछ लेना देना नहीं है – बस ऊपरी चकाचौंध वाली दिखावे की संस्कृति है।
हमें इस छलावे को समझना ही नहीं होगा बल्कि पराजित करने का संकल्प भी लेना होगा।
लेखक वैज्ञानिक और साहित्यकार हैं|
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