सिनेमा

कला-प्रस्तुतियों में सुभाष कपूर की राजनीतिक चेतना

 

 (विशेष संदर्भ : ‘महारानी’ वेब शृंखला)

 

देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिनों पहले कहा था – ‘भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम (ईडी-सीबीआई की जाँच) क्या छेड़ी कि देश के सारे भ्रष्ट एक हो रहे हैं…’।

और तरुवारि की धार जैसी तेज-तर्रार वेब श्रिंखला ‘महारानी’ के दूसरे भाग के समापन पर एक पंक्तीय (वन लाइनर) कथ्य के रूप में जो निचोड़ हाथ आता है, वह यही है – महारानी याने मुख्यमंत्री रानी भारती ने सारे भ्रष्ट मन्त्रियों को सजा क्या देना शुरू किया…कि सारे के सारे एक होकर महारानी को ही ग़लत इल्ज़ाम में फँसाकर जेल भेजवा देते हैं…।

इस प्रकार पहली बार ऐसा हो रहा है कि जिस वक्त देश का एक कलाकर जो दिखा रहा है, उसी वक्त देश का प्रधानमंत्री भी वही कह रहा है…। दोनो में भ्रष्टाचार की सचाई के भंडाफोड़ और भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार की स्थापना के बीच लड़ाई की परीक्षा दांव पर है। ‘महारानी’ देखिए और आपात्कालोत्तर सरकारों के समक्ष मौजूदा भाजपा सरकार की पेश क़दमियों एवं विपक्ष की पैंतरेबाज़ियों-लफ़्फ़ाज़ियों पर भी नज़र रखे रहिए…।

लेकिन ‘महारानी’ की सरकार और वास्तविक सरकारों में बड़ा फ़र्क़ यह है कि सारे भ्रष्ट एक होकर मोदी-राज को बदल देंगे, की उम्मीद भी उसी तरह असम्भव है, जिस तरह यह भी कदापि सम्भव नहीं कि मोदीजी देश के सभी भ्रष्ट नेताओं को उसी तरह जेल भेज सकेंगे, जैसे महारानी भेजती है। एक मारक व रोचक उदाहरण देखें…भ्रष्ट मंत्री प्रेमकुमार को सामने बैठाकर रानी भारती उवाच  – ‘देश में समस्याएँ बहुत हैं। आपके सहयोग की ज़रूरत है’।

मंत्रीजी का चाटुकारिता की सनातन चासनी में डूबा सगर्व उत्तर – ‘आदेश दें, आपके लिए और भीमा बाबू (रानी के मुख्यमंत्री पति, जो अस्पताल में हैं) के लिए जान हाज़िर है’।

और तब बड़े सलीके से यह कि ‘आप बस, इस्तीफ़ा दे दीजिए’।

उनके चौंकने व अकड़ने पर फिर आगे कहती है – इस्तीफ़ा नहीं देना है, तो एक दूसरा उपाय है – जनता के 258 करोड़ रुपये जो आप (ने) खाये हैं, लौटा दीजिए।

अब वे ‘ना’ में कड़वी बोलबाज़ी पे उतर आते हैं, तो सख़्त धमकी देती है – ‘कल सुबह टेबल पर मुझे आपका इस्तीफ़ा चाहिए, नहीं तो मजबूरन आपको बर्खास्त करना पड़ेगा…’

और यह तो कुछ नहीं। चारे घोटाले की जाँच में जब अस्पताल में पड़े अपने मुख्यमंत्री पति भीमा बाबू को ही असली दोषी पाती है, तो बख्शती नहीं। वे अस्पताल से घर आये हैं और पत्नी के काम करने के इस बेबाक़ तरीक़े से भन्ना के अपना मुख्यमंत्री पद वापस लेने के लिए विधान सभा-सत्र बुलवाते हैं। लेकिन इस प्रस्ताव के पहले अपने सम्बोधन में रानी भारती ने भीमा बाबू के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज़ करा चुकने का हवाला देते हुए उन्हें जेल भेजने के लिए सभापति से साधिकार आग्रह कर देती है। इस तरह आज की मोदी सरकार तो भ्रष्टों के खिलाफ मुहिम ज़रूर छेड़े हुए है, लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़कर बस जाँच ही हो रही है…। रानी भारती जैसे परिणाम से देश महरूम है – गोकि चाहिए वही…। फिर भीमा बाबू जेल में भी प्रेम कुमार जैसे मंत्री से अपने कपड़े धुलवाने की सामन्तशाही एवं नयी प्रेमिका के लाया हुआ खाना साथ बैठकर खाने की अय्याशी एवं अन्य मनमानियाँ भी करते हैं…तो इसे भी तोड़ती है रानी भारती – आनन-फ़ानन में उनका दूसरे जेल में स्थानांतरण करा देती है और अय्याशी के सरंजाम के बिना। इस तरह घिनौनापन परत-दर-परत उघड़ता रहता है…।

इन्हीं सीधी-सख़्त-बेलाग कार्रवाइयों से ‘महारानी’ में सभी भ्रष्ट एक साथ हो जाते हैं। लेकिन यहाँ मोदी-सरकार के ख़िलाफ़ भिन्न-भिन्न कोनो-अँतरों से विपक्ष के एक होने की सुगबुगाहट तो शुरू हुई…वैसी एकता हो पायेगी, इसकी उम्मीद कम, अविश्वास ज्यादा है और ऐसा हो नहीं पायेगा – यह तय है। क्योंकि अपने लाभ-लोभों की अपनी ही दासता इन्हें एक होने न देगी – ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’…। और हुआ भी तो इतिहास गवाह है कि समूचे विपक्ष की एकता वाली ‘जनता सरकार’ का क्या हुआ…!! वे तो दक्काक लोग थे – आज जैसे टुटपूँजिए नहीं। इनका एक न हो पाना बरवक्त देश के लिए शुभ भी है – वरना एक हो गये, तब तो अवाम का अल्ला ही मालिक…!!

परंतु कला एवं जीवन में यही फ़र्क़ भी है कि वेब श्रिंखला में जिस तरह का सलूक भीमा बाबू व प्रेमकुमार तथा अन्यों के साथ रानी भारती कर पाती हैं, वैसा जीवन में होता नहीं – हो पाता नहीं, क्योंकि यहाँ तमाम नियम-क़ानून व व्यावहारिकता है – भ्रष्टता के अपने रसूख़ हैं और क़ानूनी तथा संवैधानिक अड़चनें काफ़ी हैं…।

इसीलिए कहा गया है कि कला ‘नियतिकृतनियम रहिता’ (दुनिया के नियमों से परे) होती है, कला-सर्जक ‘परिभू: स्वयंभू:’ याने ब्रह्मा होता है। तभी वह अपना इच्छित करा लेता है। दूसरे शब्दों में जो जैसा होना चाहिए, जो समाज के लिए काम्य है, वह करा देता है। तभी जब साहित्य (रामचरित मानस) में राम राज्य आता है, समाज में नहीं आता। वहाँ रावण मारा जाता है, यहाँ रावण चिरजीवी होते हैं। जब ‘मुगले आज़म’ का अकबर महारानी जोधाबाई के प्रति पूर्ण समर्पित (तलवार देने वाला दृश्य याद करें) पति होता है, अपने फ़र्ज़ के समक्ष बेटे को फाँसी की सजा सुनाकर ‘ज़िल्ले इलाही’ बनता है, तो भी इतिहास का अकबर रानी रूपमती जैसी ढेरों सुंदरियों को अंकशायिनी बनाता, उनके प्रेमियों-पतियों को मौत के घाट उतारता तथा मीना बाज़ार लगवा कर तमाम सुदरियों को चुनने के लिए शीश महल पर खड़ा रहता है।

इसी के बीच कुशल कला-सर्जक अपनी सच्ची समाज चेतना से ऐसा कलाकर्म रचता है कि यथार्थ भी बना रहे और जो होना चाहिए, हो भी जाये…याने साँप भी मर जाये, लाठी भी न टूटें…, जिसका एक सटीक उदाहरण है – ‘महारानी’। यह बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी की घटना से प्रेरित होकर बना है। राबड़ी देवी की घटना न होती, तो यह श्रिंखला न होती। लेकिन कला एवं कलाकार की चेतना यह कि महारानी वह सब कुछ करती है, जो राबड़ी देवी या किसी मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री को करना चाहिए, पर करते नहीं – करना चाहते नहीं। लेकिन जो मोदी की तरह करना चाहते हैं, वे भी ठीक से कर पाते नहीं। यही अकबर के जमाने में तुलसी कर रहे थे। बस, फ़र्क़ विधा का है और मीडिया-विधा व साहित्य विधा में भी ज़मीन-आसमान का अंतर है। इसीलिए वह क्लासिक बन गया – युगों-युगों तक के लिए पठनीय-प्रेरक व विश्व-प्रसिद्ध हुआ। और यह ‘महारानी’ उल्का की तरह जब तक चला, भभकता रहा, फिर बुझ गया। मुगले आज़म जैसा भी स्थायित्व न पा सका, क्योंकि के आसिफ़ जैसी दीवानगी से बना नहीं था, इसमें नफे-नुक़सान का बाज़ारू हिसाब-किताब भी शामिल था। वेब-श्रिंखलाओँ का ओढ़ा हुआ कोढ़ भी खाज बनकर सामाहित हैं – खुली अश्लील गालियों व अपशब्दों का उछाल भरा प्रयोग। समझ में नहीं आता कि इतने पढ़े-लिखे – एनएसडी जैसे कला-संस्कृति के शीर्ष संस्थान से निकले लोग ऐसा कैसे कर पाते हैं…!!! फिर भी अभिव्यक्ति की चेतना थी, गंदी गालियों के बावजूद कहने का कौशल था कि अपनी बात कह गया और धक्कामार ढंग से…। अब शेष काम अवाम का भी होता है, जो पुन: आज की ‘द मोर, द बेटर’ की चासनी में डूबा है – कहीं टिकता-ठहरता ही नहीं और श्रिंखलाओँ-धारावाहिकों वाले कुछ न कुछ कुकुरमुत्ता (मास प्रोडक्शन) जैसा लिये हुए हाज़िर भी रहते हैं, जो ठहर कर असर होने का मौक़ा ही नहीं देते…।

वेब सीरीज ‘महारानी’

‘महारानी –2’ की अंतिम कड़ी में जिस वक्त वे सारे एक हुए भ्रष्ट लोग शपथ ले रहे हैं और रानी को अपने जेल जाने की खबर हो चुकी है, वह सभा-भवन में आकर पर्दाफ़ाश करती है कि अपने पति और राजनीतिक विरोधी भीमा भारती को ज़हर देकर मारने के जिस आरोप में उसे जेल भेजा जा रहा है, वह झूठ है। उसे प्रमाण मिल गये हैं कि भीमा भारती को ज़हर देकर मारने वालों में शामिल हैं – शपथ लेने वाले यहाँ मौजूद सारे भ्रष्ट लोग, जो तब मंत्री थे, तो सबने मनमाने घोटाले किये और आज शपथ ले रहे हैं…। शपथ दिला रहे स्वयं महामहिम राज्यपाल की मिली-जुली साज़िश है इसमें। और इस कारनामे की मुख्य सूत्रधार रही है – वर्तमान में मेरे उसी मृत पति के साथ प्रेम का नाटक रचाते हुए उन्हें मुझसे अलग करके उनके साथ रहने वाली कीर्त्ति सिंह, जो अपने पूर्व पति की हत्या का बदला लेने के लिए यह साज़िश व षड्यंत्र कर रही हैं और सफल होकर आज स्वयं भी शपथ ले रही है। इस तरह यथार्थ का पर्दाफ़ाश जमकर होता है, लेकिन महारानी की सरकार – याने पूरी तरह भ्रष्टता-मुक्त सरकार बनती नहीं, जो आज का यथार्थ है। बना देते, तो यह भी यूटोपिया हो जाता – तुलसी के राम-राज्य की तरह। बादशाही और इंसानियत के बीच समझौता-परस्त हो जाता मुगले-आज़म की तरह।

अत: फ़िलवक्त समाज की स्थिति को याने भ्रष्टता को विजयी बनाना ही जमाने के यथार्थ का सही मानक है। लेकिन सच का परमान भी दे दिया गया है – रानी से उक्त सब कहलवा कर व कहलाते हुए दिखाकर…, जो सच्ची कला का भी श्रेय-प्रेय है…।

यूँ तो ‘महारानी’ की नामावली में पहले भाग के निर्देशक के रूप में करण शर्मा और दूसरे भाग के लिए रवींद्र गौतम का नाम आता है। लेखन में सुभाष कपूर के साथ नंदन सिंह और उमाशंकर सिंह के भी नाम हैं। लेकिन सबको पता है कि सारा सीरांजा सुभाष कपूर का खड़ा किया हुआ है। असल में वही इसके स्रष्टा एवं कर्त्ता-धर्ता हैं – उन्हें निर्माण-सूची (कास्टिंग लिस्ट) में ‘क्रियेटर’ (सर्जक) कहा भी सही गया है। और राजनीति व देश की केंद्रीय व्यवस्था पर सुभाष की पकड़ बड़ी ज़बर्दस्त है। उसी के ज्वलंत प्रसंगों के सूत्रों में सारी समकालीन गलाजत को पिरोकर वे तेज-तर्रार ड्रामे बनाते हैं। जैसे घायल पति भीमा भारती के अस्पताल जाने के बाद उनकी पत्नी रानी भारती भी बिहार के इतिहास में लालू यादव के जेल जाने के बाद मुख्यमंत्री बनी राबड़ी देवी की तरह अंगूठा-छाप है। फिर मज़ा यह कि उसे गूँगी गुड़िया कह के इसे भारतीय राजनीति के एक और मजबूर, पर ज्वलंत इतिहास से जोड़ देने का कौशल लाजवाब भी है और मानीखेज भी।

लेकिन भारती को निजी सहायक (पी. ए.) के रूप में एक पूरी ईमानदार आइ.ए.एस मिल जाती है, जो पुन: जीवन में दुर्लभ है। किंतु क्या करें – कला की यह विवशता है कि वह शत-प्रतिशत यथार्थ हो नहीं सकती। और विशेषता है कि ऐसा  करके एक सौ एक प्रतिशत सिद्ध करती है अपनी सार्थकता व उपादेयता। उसे अपनी बात कहने के लिए एक प्रतिबद्ध व ईमानदार याने यथार्थ से अलग पात्र रचना पड़ता है – चाहे वह यथार्थवादी फ़िल्म ‘सारांश’ का कमिश्नर हो या स्टंट फ़िल्म (उदाहरणार्थ ‘सिंहम – 2’) के पुलिस इंस्पेक्टर…। लेकिन साहित्य व कला की यही विशेषता भी है कि एक वांच्छित घटक रचकर वह समाज को दिशा देने का सच कह सकता है। सुभाष कपूर ने वही किया है। महारानी का आधार हैं राबड़ी देवी, पर उसके कार्य व चरित्र राबड़ी देवी का नहीं है। फिर महारानी से सुभाष कपूर वह-वह सब कराते हैं, जो-जो सब एक ज़हीन-प्रतिबद्ध मुख्य मंत्री कर सकता है। राबड़ी-घटना निमित्त मात्र बन जाती है। इसका व्यावसायिक व सार्थक उपयोग होता है – गरमागरम प्रचार बनकर दर्शकों को खींचना। ऐसे ईमानदार व सक्रिय घटक पहले कम ही सही, जीवन में होते थे। अब तो अपवाद में भी नहीं होते – वह नस्ल लुप्त हो गयी। लेकिन सर्जक को गढ़ने पड़ते हैं…।

इस प्रमुख घटना के अलावा ‘महारानी’ भाग 1 में रणवीर सेना, वामपंथी उग्रवादी, नक्सली समूह, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिन वादी) लिबरेशन, 1997 लक्ष्मणपुर बाथे हत्याकांड, चारा घोटाला…आदि शामिल हैं। और भाग 2 की यथार्थ घटनाओं में वर्मा कमीशन, शिल्पी गौतम हत्याकांड, साधु यादव, राजीव गोस्वामी, शिबू सोरेन, मुहम्मद शहाबुद्दीन, प्रशांत किशोर…आदि को प्रतीकात्मक रूप से शामिल करके श्रिंखला को खाँटी राजनीतिक बना दिया गया है। लेकिन वही कि शरीर पूरा का पूरा समकालीन राजनीति का है, लेकिन उसमें आत्मा (स्पिरिट) अपनी डाल दिया है – याने राज्यपाल से लेकर सारे मंत्रियों-गुंडों-चमचों के बीच सिर्फ़ महारानी है, जो सबके ख़िलाफ़ अकेले खड़ी है और अपनी ठोस सोच और ठेंठ अंदाज के चलते सबपे भारी होती है। इस प्रकार साहित्य-कला की पुरानी कहावत फिर सार्थक होती है कि कहानियाँ (पात्रों-घटनाओं के नामों) में कभी सच नहीं होतीं, लेकिन (फ़र्ज़ी नामों की सच्ची घटनाओं के साथ) कहानियों से बड़ा सच कुछ नहीं होता। ‘महारानी’ इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। और समय की इन सरनाम घटनाओं-पात्रों से जानकार लोग वाक़िफ़ हैं।

सबसे बड़े भ्रष्ट भीमा बाबू हैं, उसमें बाबा का पूरा सहभाग है, का पता जाँच द्वारा लगवाती है रानी भारती। और फिर अपने पति को सजा दिलवाने से गुरेज़ नहीं करती। और भीमा बाबू जेल जाते हैं…। एक यथार्थ यह भी कि एक दृश्य में गुंडों के हाथों पूरी पुलिस को मजबूर भी दिखा पाते हैं सुभाष कपूर…पुलिस दबिश की मुहिम पे है और गुंडे घेर लेते हैं। तब एक भ्रष्ट दलबदलू मंत्री द्वारा प्रत्येक सिपाही के लाखों की दर तथा कमिश्नर के लिए और ऊँचे दामों की घूस लेकर छुड़वाते भी हैं – याने प्रजातंत्र में पुलिस से अधिक ताकतवर गुंडागर्दी है तथा गुंडों के सरग़ना भी मंत्री हैं…जैसे वीभत्स सच उघड़ते हैं। ऐसे जमे-जकड़े माहौल के बीच रानी भारती कठोर कार्रवाई करती है…तो सभी त्रस्त हैं।

सुभाष मेरे ध्यान में आये – ‘जॉली एल.एल. बी.’ से…, जो खाँटी जीवन की निराबानी (प्योर) फ़िल्म है। ज़बरदस्त भी है। उसमें अपनाये सिनेमाई गुर घुमा-फिराके किसी न किसी रूप में उनके हर काम में देखे जा सकते हैं। और तब से ही उनके काम पर मेरी कड़ी नज़र (‘क्रश’) है। तभी उनके दूसरे काम ‘फँस गया रे ओबामा’ को भी देखा – पहला (से, सलाम इंडिया) देख न पाया, जो फ़्लॉप भी रही थी शायद…। लेकिन ‘एलएलबी 2’ में अरशद को छोड़कर अक्षयकुमार को लेके सुभाष भी स्टार हो गये…तो स्टार जितनी ख़राब हो गयी फ़िल्म भी। पर व्यावसायिक स्तर पर सितारी (स्टारी) सफलता भी पा गयी। दोनो के कारण और परिणाम अक्षयकुमार हैं, जिनके लिए कुछ तो स्टंटबाज़ी डालनी पड़ी सुभाष को। लेकिन ग़नीमत रही कि फ़िल्म बिगड़ी, पर बात बनी रह गयी। और दोनो एलएलबी तक में बात पुलिस-वकील की भ्रष्टता तक ही सीमित है, जिससे गुंडे-माफिया-अपराधी पलते हैं। यही तिलिस्म कोर्ट में जाके टूटता है। वे स्थापित भी कराते हैं – जब पुलिस-प्रशासन…आदि में काम नहीं होता, तो सताया हुआ आदमी कहता है – ‘आइ विल सी यू इन द कोर्ट’। ‘जॉली एलएलबी’ को ‘कचहरी नौटंकी’ कह सकते हैं और ‘एलएलबी 2’ को ‘कोर्ट रूम ड्रामा’। दोनो के वकील भ्रष्ट होने के बाद संवेदनशील घटनाओं से सीख लेते हैं और भ्रष्टता के ख़िलाफ़ लड़ जाते हैं। सही सुबूत पेश करके सच को जिता पाते हैं। तब लगा था कि कोर्ट ही सुभाष के समाज-विवेचन की अंतिम मंज़िल है।

पर वह मंज़िल नहीं, एक मुक़ाम था। इन फ़िल्मों के पहले ‘फँस गये रे ओबामा’ में अपहरण एवं फिरौती का शातिर मामला आ चुका था। उसका सरग़ना एक मंत्री है। फ़िल्म आद्यंत विनोदमय (फार्सिकल) है। अपहृत नायक (रजत कपूर) अपने शाकाहारी और लज़्ज़तदार बौद्धिक कौशल से मंत्री की इज्जत को ही बलि का बकरा बनाकर मुक्ति का सौदा कर लेता है। और ओबामा का वही मंत्री आगे बढ़कर ‘मैडम चीफ़ मिनिस्टर’ (अंग्रेज़ी में शीर्षक का फ़ालतू मोह न होता, तो ‘मादाम मुख्यमंत्री’ क्या बुरा था!!), जो दलित महिला मुख्यमंत्री मायावती से प्रेरित है, बन के अवतरित होता है, तो सारी भ्रष्टता को बड़ी दबंगई से डंके की चोट ख़त्म करता दिखता है। सुभाष अपनी वास्तविक पिच पर बल्लेबाज़ी करते नज़र आते हैं। और फ़िल्म बन जाती है – सत्ता पाने-गिराने-हथियाने का पूरा दबंग व बीहड़ खेला। विरोधियों को पस्त करने के एक से एक शातिर वारदात व अंदाज…मादाम के धर्मपिता व ज़मीनी नेता की हत्या, मुख्यमंत्री-कार्यालय में भावी मंत्री के सर मुँड़ा देना…आदि के बाद सबसे शातिर कांड तो अपने मुस्लिम पी.ए.की जानदेवा वफ़ादारी से लरज कर मुख्यमंत्री की उससे शादी, फिर उसके क़ातिलाना षड्यंत्र के खुलने पर उसे ख़त्म न करके अपंग-विकृत कर देती है और इसका इल्ज़ाम भी विरोधियों के सर पे डाल देती है। इस तरह विरोधियों के किये -अनकिये कारनामों का जनता के समक्ष ज़बरदस्त राजनीतिक इस्तेमाल…वग़ैरह-वग़ैरह में तह तक का मज़ा आ जाता है। लेकिन विधायकों से सरे-आम गोली चलवा कर नाहक ही यथार्थ को अविश्वसनीय स्टंट बना देने का फ़िल्मी मामला कलात्मक संतुलन की ज़बरदस्त क्षति भी करा देता है। क्योंकि मंत्रियों-संत्रियों के शूटर तो होते हैं, छिट-फुट गोलीदागी व क़त्ल की छुपी साज़िशें सफल भी हुई हैं, खुली भी हैं, पर विधायकों में ऐसी धाँय-धाँय मुठभेड़ जैसी आमद अभी जीवन में हुई नहीं…।

हाँ, इसी फ़िल्म से सुभाष पूरे राजनीतिमय होते हैं और ‘महारानी’ के दोनो भागों तक में ज़बर्दस्त ड्रामे ले-लेके आये हैं, जिसे देखकर किसी भी नेता-अफ़सर…आदि में यदि ज़रा भी ग़ैरत बची होती, तो चुल्लू भर पानी में डूब मरता…। लेकिन यही तो बात है। बची होती, तो यह सब बनता ही कैसे और क्यों? बहरहाल,

‘मैडम चीफ़ मिनिस्टर’ जैसी फ़िल्म के डेढ़-दो घंटे की सीमा में राजनीति का पूरा कच्चा चिट्ठा न दिखा पाने की शायद विवशता और आजकल वेब श्रिंखलाओं के प्रचलन की सुविधा व शौक़ ने उन्हें वेब सीरीज़ में लगाया होगा। तभी यह विवेच्य दो भागों वाली ‘महारानी’ श्रिंखला में उन्होंने राजनीति के प्रादेशिक शीर्ष (वही लालू-राबड़ी) की जानिब से एक पूरा राजनीतिक महाकाव्य रच दिया है – बेहद दर्शनीय एवं बार-बार देखने लायक़…। लेकिन सुभाष ने मायावती-राबड़ी को बस आधार बनाया। उनसे वह कराया नहीं, जो सचमुच इन दोनो मुख्यमंत्रियों ने किया, बल्कि जैसा ऊपर कहा गया – वह सब कराया, जो ये सब लोग देश के लिए सचमुच कर सकते थे। इस प्रकार पुरानी बोतल में नयी शराब नहीं, असंवैधानिक यथार्थ में नैतिक मूल्यवत्ता की सार्थक सम्भावना भर दी – याने सच्चे साहित्य-चेता के काम को अंजाम दिया। जैसे मायावती ने यदि हाथियों की मूर्त्तियाँ बनवाने जैसा दिखावटी काम किया, तो अपनी मादाम मुख्य मंत्री डंके की चोट दलितों को अपने साथ मंदिर में प्रवेश का क्रांतिकारी काम करती है। गरीब बच्चों को सायकल आदि बाँटने जैसी सहायता की तमाम योजनाएँ शुरू करती है। अपने विरोधियों को कुचलने के एक से एक नायाब तरीके खुलते हैं। ‘गाँठ-जोड़’ सरकारों की शर्मनाक नीयतों में देश की दर्दनाक नियति उजागर होती है…, पर हासिल होता कुछ नहीं!!

सुभाष कपूर

इसी हासिल को लिये हुए आती है ‘महारानी’। ऊपर कहे के आगे का मोड़ ‘महारानी’ में वीभत्सता का सबसे बड़ा नंगा नाच तथा कला-चेतना का सबसे संजीदा मंज़र है, जिसमें जाँच समिति जब अपने अंतिम सोपान पर रानी भारती के पास पहुँचती है, तब वह रहस्य खुलता है कि कैसे और क्यों सभी ने मिलकर भीमा की हत्या की है, तब मालूम पड़ता है कि भीमा बाबू खुद अकेले रानी के घर आकर उसके साथ मिलकर उसकी शर्तों पर भ्रष्टता-मुक्त सरकार बनाने पर राज़ी हो गये थे। वह भीमा बाबू, जो इतने बड़े षडयंत्री रहे कि लालू के चारा-घोटाला प्रतिबिम्ब से आगे बढ़ के उन्होंने मचान बाबा के ज़रिए धार्मिकता का भी दोहन किया। फिर अपने ही ऊपर गोली चलवाके घोर भ्रष्टता से अवाम व प्रशासन का ध्यान भटकाने जैसे शातिर सोच को अंजाम दिया। सजा के लिए जाते हुए भी ‘जेल के ताले टूटेंगे, भीमा बाबू छूटेंगे’ के नारे लगवाये थे…। तो फिर ऐसे सब ‘करम’ वाले में ऐसा बदलाव क्यों हुआ…!!

यही है – सर्जक सुभाष कपूर की दृष्टि और रचना की कमर – ग़ालिब की क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं!!) की तरह। प्रेमचंद की कहानी ‘मैकू’ व ‘नमक का दारोग़ा’ (एवं उस काल में लिखे ऐसे बहुतेरे साहित्य) जैसा मानुष भाव जगाने वाला सामाजिक मंगलेच्छा का जमाना तो आज रहा नहीं। वह सब अर्थहीन हो गया है, फ़ालतू पड़ गया है। तो यहाँ साहिर के शब्दों में ‘जिसे मैं प्यार का अंदाज समझ बैठा हूँ, वो तवस्सुम वो तकल्लुम तेरी आदत ही न हो!!’ जैसी किसी चाल का अंदेशा भी होता है…। लेकिन यह सब है नहीं। भीमा भले विवश होकर आये हों या ‘इतने हुए ज़लील कि खुद्दार हो गये’ की तरह ‘इतने हुए भ्रष्ट कि ऑनेष्ट हो गये’ (भ्रष्ट के तुक के लिए अंग्रेज़ी शब्द ऑनेष्ट हेतु क्षमामार्थी) की बात हो…, है यह वीभत्स-खाँटी यथार्थ से उपजी सम्भावना का मामला, जो जनता के न्याय के माध्यम से सामने आया है।

चुनाव के परिणाम आते हैं, जिसमें आदर्श या अतिवाद का तनिक भी स्पर्श नहीं – भीमा (भ्रष्ट) के सामने रानी (शिष्ट) हार जाती है। जी, स्थिति की वीभत्सता यही है। शुक्र है कि मोदी भ्रष्ट नहीं हैं, तो उतने शिष्ट-सीधे भी नहीं और रानी जितने बेलौस-बेलाग न होकर चौकन्ने व योजनाबद्ध हैं। इसीलिए मोदी के साथ रानी के हारने का अंजाम न होने की ग़ैरंटी है। काश, सुभाष गढ़ सकते मोदी जैसा चरित्र…। ख़ैर, ‘महारानी’ में लगभग सारे भ्रष्ट-सरग़ना लोग जीत जाते हैं। लेकिन जो विश्वास व सचाई अवाम में पैठ चुकी है, वह इस रूप में सामने आती है कि रानी भारती को भी 85 सीटें मिलती हैं। लेकिन वह अकेले सरकार बना नहीं सकती और उस बेबाक़ ईमानदार के साथ कोई भ्रष्ट आ नहीं सकता, न वह किसी भ्रष्ट के साथ जा सकती। ईमानदारी के इसी परिणाम को दिखाकर ही सर्जक ने भीमा जैसे भ्रष्ट के ज़रिए इस परम भ्रष्ट समय को चेताया है। भ्रष्टता के भौतिक सुख के साथ दिन-रात की षडयंत्री ज़िंदगी में पत्ते पर रखे प्रान की यातना के समक्ष सच के इस परिणाम पे लरज जाता है भीमा। लेकिन बाक़ी सब इस स्तर तक नहीं पहुँच पाते…। लेकिन यह गोपनीय बात फूट जाती है। सो, भीमा के घर ही होली की हुड़दंग में रंग़-गुलाल की बहार के बीच भांग-ठंडाई में ज़हर दिया जाता है। वीभत्सता का आलम यह कि ज़हर देता है – भीमा का अपना साला – रानी का भाई। उसी ने राज फोड़ा भी है शायद…। बहरहाल,

इन सब कारनामों के प्रमाण के साथ जेल जाती रानी का भविष्य सबको पता चल जाता है…। यही है महारानी’ के सर्जक (सुभाष कपूर) का सृजन-फल और इसकी कर्त्ता है – दबंग ईमानदार रानी भारती, जो (मोदी की तरह) सभी के निशाने पर है। यह स्थिति वही है, जिसे साहित्य में ‘तुम एक बज़्म में मर्दुमशनास बैठे हो’ या ‘इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है’ कहा गया है। फिर उद्धृत कर दूँ कि हर हर कवि-लेखक-फ़िल्मकार के पास कोई होता है – ‘मैला आँचल’ के प्रशांत, ‘आरक्षण’ के ‘सर’ (अमिताभ बच्चन) व शकुंतला ताई की तरह। इन्हीं की प्रतिरूप है रानी भारती – ज़रा अलग रूप में, ठेंठ रूप में। यह पढ़-लिख कर शातिर नहीं हुई है। तो क्या उस शिक्षा पर भी यहाँ व्यंग्य नहीं है, जो भ्रष्ट आईएएस-डाक्टर-इंजीनियर-वीसी-प्रोफ़ेसर-कमिश्नर…आदि सब बना रही है। क्या ऐसे कुछ के लिए एक अपढ-खाँटी, गृहस्थ-गंवार चाहिए? तो पंक-सनी राबड़ी से महारानी के रूप में ऐसा कमल खिलाना ही सृजन का कमाल है – कमल मोदी के पास भी है – बाखुदा विकसा भी है – खिल जाये, तो न सही सुभाष कपूर की –  पर होगी तो देश की इंशाअल्लाह…!!

अब वास्तविक जीवन व महारानी श्रिंखला दोनो में देखना है…। यहाँ विपक्ष एक होकर मोदी-सरकार को हराकर सत्ता में आता है क्या? और इधर ‘महारानी’ का अगला भाग ३ बनता है और महारानी ऐसा कर पाती है क्या!! इसी पर टिका होगा मोदी-सरकार व देश का भविष्य और श्रिंखला-प्रस्तोता के समाज-सरोकार की हद और कला-दृष्टि।

एक बात यह भी कि जैसा अंत यहाँ करा दिया गया है, उसका मतलब है कि ‘महारानी -3’ भी बनेगा, क्योंकि इस भाग 2 के पहले भी जब भाग एक का समापन हुआ था, तो तब के मुख्यमंत्री उसी भीमा बाबू को विधान सभा के बीच से उठवाकर जेल भेजा था। तब वे भी ऐसी ही घोषणा करते हुए गये थे – ‘जेल के ताले टूटेंगे, भीमा बाबू छूटेंगे’। वह सच हुआ और दूसरा भाग बना। अब इसके समापन पर हुई रानी भारती की इस घोषणा को सच करते हुए तीसरा भाग शुरू होने की रचनात्मकता इसलिए भी अधिक सम्भावित है कि जिस ‘महारानी’ नाम से यह श्रिंखला बनी है, उसे जेल भेजने से तो न महारानीत्व सार्थक होगा, न सच को जेल भेजकर समाज के प्रति कला का दायित्व पूरा होगा। वैसे जेल भेजने के साथ विपक्ष की हत्यारी कोशिश का नंगा नाच उजागर हो गया है, जो आज़ादी के बाद से लेकर आज तक का कड़वा सच है। यथार्थ इससे आगे बढ़ा नहीं है – वर्तमान सरकार भी भ्रष्टों को पकड़ने की मुहिम चला रही है, तो भ्रष्ट एक हो रहे हैं। भविष्य में क्या होगा, कहना मुश्किल है। याने इसी दोराहे पर खड़ा है आज जमाना। तो इसी पर ख़त्म कर देना भी यथार्थ का सही निर्वाह है – निदर्शन है। और इससे बड़ी कलात्मकता कोई हो नहीं सकती कि समय का सच पूरी शिद्दत से नुमायाँ हो और बदलाव की मुहिम चलने के प्रखर संकेत हों…

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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