देवदासी प्रथा का कलंक
- प्रमोद मीणा
भारतीय संस्कृति की कथित महानता के नाम पर घनघोर ब्राह्मणवादी ग्रंथ तक से उद्धृत की जाने वाली ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी पंक्तियों की उलटबांसी की कलई उस समय खुल जाती है जब हम छोटी.छोटी बच्चियों को धार्मिक परम्परा के नाम पर देवदासियों के रूप में मन्दिरों के ‘देवताओं’ को समर्पित किये जाने की अति प्राचीन परम्परा हमारे देश में पाते हैं। जनपद काल में राज्य द्वारा नगरवधू के रूप में सुंदर युवती को सार्वजनिक सम्पित्ति बना देने की जो प्राचीन प्रथा वेश्यावृत्ति को राजकीय वैधता दिलाती थी, देवदासी प्रथा को उसी नगरवधू प्रथा का धार्मिक संस्करण कहा जा सकता है। इस घनघोर स्त्री-विरोधी परम्परा को जाति व्यवस्था के दलित विरोधी मनुवादी स्तरीकरण से भी समर्थन प्राप्त रहा है। देवदासी प्रथा के केंद्र रहे मंदिरों के बारे में यह भी नहीं भूला जा सकता कि मंदिर की पूरी व्यसवस्था ब्राह्मणों के वर्चस्व में रहा है और इस देवदासी प्रथा को भी ब्राह्मणों की इस पूरी व्यवस्था का अनुमोदन प्राप्तष रहा है। प्राचीन और मध्य कालीन भारत से लेकर उत्तंर औपनिवेशिक काल में आज तक भी देवदासी प्रथा देश के विभिन्नं हिस्सों में खासकर कर्नाटक तमिलनाडु आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्रन आदि में चली आ रही है। देवदासी प्रथा की प्रकृति और देवदासियों के लिए परंपरागत रूप से निर्दिष्टम कर्तव्यों में गुजरते वक्त् के साथ काफी बदलाव तो आये हैं किंतु खेद की बात है कि आजादी के इतने सालों के बाद भी देश के कुछ इलाकों में विशेषतरू दक्षिण भारत में आज भी यह कुप्रथा फल.फूल रही है।
जैसे जैसे मंदिरों को संरक्षण देने वाली सामंती व्यवस्था औपनिवेशिक काल में कमजोर होती गई वैसे-वैसे देवदासियों के परंपरागत कार्यक्षेत्र में भी बदलाव आता गया। पुरुष की सार्वजनिक भोग्या होने पर भी मंदिर से संबद्धता के कारण इन्हें प्राप्त मांगलिकता के चलते इन्हें घरों की निजी दुनिया में भी समारोहों में आनुष्ठाभनिक कर्तव्यों को निभाने के लिए बुलाया जाने लगा। इसी प्रकार त्यौहारों के मौकों पर भी विभिन्न रिवाजों के क्रियान्व्यन के अवसर इन्हें मिलने लगे।
दक्षिण भारत में नीची जातियों से आने वाली जोगती,जोगिनी एवं बसावी जैसी देवदासियों को दलित देवी येलम्माओं के मंदिर में ही आश्रय मिल पाता था। धार्मिक त्यौहारों के अवसर पर ये दलित देवदासियाँ भी सवर्ण देवदासियों की देखा.देखी कुछ आनुष्ठानिक कृत्यों में शामिल रहती थीं। भूत बाधा से मुक्ति दिलाने के ओझाई कार्य से लेकर धार्मिक जुलूस और अंतिम यात्रा में नृत्यं करने का काम भी इन्हें करते देखा जा सकता था।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी ढंग की शिक्षा से प्रेरित हो हमारे यहाँ चले सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों के कारण ऊँची जातियों में लड़कियों को देवदासी बनाने की धार्मिक प्रथा पर काफी हद तक लगाम लगा लेकिन इन सुधार आंदोलनों के ब्राह्मणवादी चरित्र के कारण नीची जातियों से देवदासी बनने की धार्मिक परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है। उदाहरण के लिए कर्नाटक में अधिकांश देवदासियाँ मडिगा और होलिया जैसी अस्पृश्य अनुसूचित जातियों से आती हैं। दलित लड़कियों के देवदासी बनने के पीछे है उनके परिजनों और रिश्तेदारों आदि में व्याप्त अशिक्षा गरीबी और अंधविश्वांस तथा साथ ही लड़की को बोझ समझे जाने की पिछड़ी पुंसवादी सोच। शिक्षा के अभाव के कारण देवदासी बनने के लिए मासूम बच्चियों को देवी.देवता को अर्पित करने का अंधविश्वास सामाजिक-सांस्कृ्तिक रूप से पिछड़े दलित समाजों में आम है। दैहिक व्याधि आदि से पीड़ित लड़कियों का गरीबी के कारण इलाज न करा पाने पर उनसे छुटकारा पाने के लिए भी उनके माँ-बाप देवदासी बनाने की धार्मिक मान्यता का सहारा लेते पाये जाते हैं। दहेज आदि के कारण अपनी बेटी का विवाह करने में अक्षम परिजन भी बेटी का हाथ पीला न कर पाने की बदनामी से बचने के लिए देवदासी प्रथा का सहारा लेते हैं। कोई मनोकमना पूर्ण होने पर बेटी को मंदिर के देवी-देवता को सौंप देना भी एक सामान्यह परिदृश्य है। ऊँची जातियों के वर्चस्वे वाले ग्रामीण इलाकों में दलित लड़कियों के देवदासी बनने के पीछे ऊँची जातियों के दबंगों का दबाव भी पाया जाता है। दबंग जाति के लोग दलित लड़की का उपभोग करने के बाद बलपूर्वक उसे देवदासी व्यवस्था में धकेल देते हैं ताकि वह विवाह न कर सके। ऐसी अविवाहित दलित स्त्री का बारंबार इस्तेमाल करना दबंगों के लिए आसान रहता है। देवदासी प्रथा के बहाने दलित युवतियों को ये लोग वेश्यावृत्ति के दलदल में भी धकेल देते हैं।
सदियों से दलित युवतियां सवर्णों की देह वासना की भेंट चढ़ती आयी हैं। कभी देवदासी जैसी स्त्रीविरोधी प्रथा को बनाये रखने के नाम पर तो कभी दलितों की दीन-हीन दशा का फायदा उठाकर उच्च जातियां उनकी इज्जत को सरे आम नीलाम करती आयी हैं। वीण्एसण्रंगा निर्देशित ष्गिद्धष्;1984द्ध फिल्म सवर्ण समाज द्वारा धर्म के नाम दलितों पर लादी गई देवदासी प्रथा और वेश्या वृत्ति को अपना विषय बनाती है। फिल्म की कहानी मुम्बई के पास स्थित महाराष्ट्र के एक गांव से सम्बद्ध है। गांव के हरिजन . दलितों में ष्येलम्माष् नामक दलित देवी की बड़ी प्रतिष्ठा है। येलम्मा को खुश करने के लिए दलितों में अपनी बच्चियों को देवी की सेवा में सौंपने की प्रथा है। इस परम्परा को मोती पहनाना कहा जाता है। विवाह के खर्च से बचने के लिए दलित अपनी बच्चियों को येलम्मा को सौंप देते हैं। मोती पहनने वाली लड़की का फिर विवाह नहीं किया जाता। देसाई और पाटिल जैसी सवर्ण जातियों के धनी और दबंग लोग मोती पहनाने की प्रथा का इस्तेमाल गांव की दलित लड़कियों को खरीदने के लिए करते हैं। इन लड़कियों की देह को चूसने के बाद इन्हें मुम्बई के वेश्यागलयों में बेच दिया जाता है। वीरूपन्ना जैसे दलित लोग भी इस पेशे में दलाली करते हैं। फिल्म में देसाई करियम्मा को येलम्मा की इच्छा का डर दिखाकर उसकी बेटी चेलम्मा को मोती पहनाने के लिए बाध्य कर देता है। दलितों में येलम्मा का इतना डर और अंधविश्वाकस है कि देसाई के खेतों में पानी न निकलने का कारण येलम्मा की नाराजगी से जोड़ा जाता है।
जैसा कि पूर्व में कहा गया हैए देवदासी प्रथा धर्म की आड़ में चलाई जाने वाली एक प्रकार की वेश्यावृत्ति रही थी जिसमें देवदासी की स्थिति एक वेश्या से भी बदतर थी क्यों कि वेश्या को तो अपने शरीर के बदले कुछ आय हो जाती है और वह अपनी देह बेचने से इनकार भी कर सकती है किंतु देवदासी को तो मुफ्त में ही सामंत वर्ग की हवस शांत करनी होती थी और उसकी इच्छा .अनिच्छा की परवाह भी प्राय: कोई करने को बाध्य न था। वैसे व्यवहार में आज अक्सर देवदासी की स्थिति सार्वजनिक सम्पत्ति जैसी न होकर रखैल जैसी पाई जाती है। उनके संरक्षक प्रायर: विवाहित पुरुष होते हैं और वह तभी तक उनकी कृपा की हकदार रहती है जब तक वह उनके आकर्षण का विषय रहती है। ये रखैल देवदासियाँ बूढ़ी और बीमार हो जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की जैसे अपने संरक्षक के द्वारा उपेक्षित कर दी जाती हैं।
अपने पालन.पोषक पुरुष से इन देवदासियों के जो बच्चे होते हैं उन्हें भी जीवन भर अवैध संतान होने की पीड़ा भोगनी पड़ती है। यद्यपि इलाके के सारे लोग अच्छे से जानते हैं कि इन अवैध बच्चों के वास्तविक पिता कौन हैं किंतु इनके पिता अपवाद स्वरूप ही इन्हें अपनाते पाये जाते हैं। पिता के आँखों के सामने होने पर भी इन बच्चों के लिए वे पिता मृतक समान ही कहे जायेंगे क्योंकि ये बच्चे अपने पिता को पिता नहीं कह सकते। सरकारी दस्तावेजों में इन्हें इनकी माँओं के नाम से ही जाना जाता है। वैध वारिस के रूप में मान्यता न होने से इन्हें अपने पिता की सम्पत्ति में से किसी प्रकार का कोई हिस्सा भी नहीं मिल पाता।
अस्तु स्त्री सशक्तिकरण के नाम पर भारतीय संस्कृति का बचाव करने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को समझना होगा कि देवदासी प्रथा के अस्तित्व से आँखें मोड़ लेने से धर्म के नाम पर चलने वाली भारतीय स्त्री की यौन दासता की सच्चाई छिप नहीं सकती। देवदासी प्रथा हिंदू धर्म के लिए गौरव की बात नहीं अपितु कलंक की बात है। सरकार को भी समझना होगा कि देश भर में देवदासियों की वास्तविक संख्या का पता लगाकर उनका पुनर्वास आवश्यक है और देवदासी प्रथा पर पूर्ण रोकथाम के लिए सामाजिक जागरुकता के साथ-साथ कठोर दंडात्मक कार्रवाई भी जरूरी है। देवदासियों के बच्चों को भी उनका वाजिब हक मिलना चाहिए। देवदासी प्रथा पर रोकथाम के लिए समुचित कानून भी बनाना होगा। कर्नाटक आदि में कुछ राज्यों में देवदासी प्रथा विरोधी कानून होने पर भी यह प्रथा अगर फल-फूल रही है तो यह तय है कि प्रचलित कानून में कुछ गंभीर खामियाँ हैं जिन्हें दुरुस्त करना जरूरी है।
लेखक महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी के मानविकी और भाषा संकाय में सहआचार्य हैं|
सम्पर्क – pramod.pu.raj@gmail.com, +917320920958
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